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जैन दर्शन वार्तालाप
श्रीमती चन्द्रकान्ता भण्डारी
सुधा :
मीरा :
सुधा :
आज प्रत्येक जैन परिवार में आनन्द छाया हुआ है प्रत्येक जैन का तन-मन का कण-कण हर्ष से नाच उठा है। सारे नगर में चहल-पहल प्रारंभ हो गई है क्योंकि आज श्रमण भगवान महावीर का जन्म दिवस है।
सुधा भी अपनी प्रिय सहेली मीरा को जिन दर्शन तथा अंगरचना की झांकी दिखाने के लिये जिन मंदिर में लाती है । मीरा प्रभु की विरागता में पूर्ण प्रतिभा को देखकर मुग्ध हो जाती है। बाद सुधा उसे अपने घर भोजन के लिए ले जाती है और अपने द्वारा बनाये व्यंजन परोसती है जिनमें मिठाइयां, नमकीन भी हैं । मीरा और सुधा दोनों साथ-साथ भोजन करने बैठती हैं । मीरा सुधा से कहती है। नमकीन में मुझे आलुबड़ा सबसे अधिक पसंद है । सुधा कहती है लेकिन हम आलू आदि जमीकन्द का सेवन नहीं करते हैं।
हँसते हुए : तू भी पढ़ी लिखी होकर इतनी भोली है भला आलू में ऐसा क्या है जिसको खाने से पाप लगता है । अरे । झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, मनुष्य को नहीं सताना यही मानव धर्म है किन्तु जमीकंद खाने से पाप लगना अपनी समझ में
नहीं आया। सुधा : आलू अनन्त काय जमीकन्द है। अनन्त जीवों का
समावेश है इसमें मीरा अपनी जबान के स्वाद हेतु
असंख्य जीवों का भक्षण करना, यह तो महापाप है। मीरा : सुधा ये बातें मैंने तुझसे आज ही सुनी हैं बहुत
दिलचस्प हैं और शिक्षाप्रद भी, जैन लोग इसीलिए
आलू नहीं खाते हैं। सुधा : हां मीरा । जैन धर्म प्राणीशास्त्र की रक्षा करने वाला,
सबको समान मानने वाला सूक्ष्म धर्म है। गहन वार्ता का मर्म जानने वाला सर्वोपरि धर्म है यह भक्ष अभक्ष, कृत्य अकृत्य, हेय ज्ञेय उपादेय, इन सबका बोध
कराता है। मीरा : मुझे इस सूक्ष्म जैन धर्म कर्म के बारे में जानने की
जिज्ञासा जाग्रत हुई है। क्या जैन धर्म और शासन के बारे में समझाओगी?
वैसे तो मुझे अल्पज्ञातव्य है जैन धर्म का वही तुम्हें भी बताये देती हूँ। जैन धर्म प्राणीमात्र का कल्याणकारी वह धर्म है जो मात्र स्वयं को पहचानने की शक्ति दर्शाता है। आत्मा का धर्म है न कि किसी व्यक्ति का सम्प्रदाय का । अब प्रश्न है जैन किसे कहते हैं ? तो जीवों की जयणा (रक्षा) करने वाला एवं जिनेश्वर देव के बताये मार्गों पर चलने वाला ही जैन कहलाता है । जिनेश्वर देव वे हैं जिन्होंने कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त की है, वे ही महान आत्माएं जिनेश्वर देव कहलाते हैं । अपनी इन्द्रियों पर विजय पाने वाले और प्राणीमात्र का भला चाहने वाले ही जिनेश्वर देव हैं। मैंने अपनी पाठ्य पुस्तिका में २४ वें तीर्थंकर महावीर स्वामी के बारे में पढ़ा था तो महावीर स्वामी जिनेश्वर देव हैं या नहीं? जिनेश्वर तीर्थकर, वीतराग, अरिहन्त ये सब एक ही हैं मात्र शब्द अलग है। सर्व जीवों का हित चाहने वाले अनन्तगुणी, आत्मा, राग द्वेष से मुक्त आत्मा, वीतराग परमात्मा कहलाती है। अरिहन्त परमात्मा के हृदय में अमंग अखण्ड सदा शाश्वत, ऐसी मैत्रीय भावना होती है । तीर्थंकर को उपमा इसलिये देते हैं कि वे तीर्थ की स्थापना करते हैं तीर्थ याने चतुर विद्य संघ । जीवकाल के परिवर्तन से मनुष्य अपने सही पथ से भटक जाता है तो तीर्थंकर प्रभु उत्कृष्ट चारित्र से अपने को तपाकर आत्म शत्र राग द्वेष, इत्यादि कषायों पर सदा सर्वदा के लिये विजय प्राप्त करते हैं और अपनी अमृतमयी वाणी से परम्मागत धर्म को सतत चलाने की भावना से चतुरविदि संघ की स्थापना करते हैं । इस चतुरविधि संघ में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका होते हैं। आज का दिन मेरे जीवन के लिये सच्चे ज्ञान की स्वणिम रश्मियां लेकर आया । अब मैं जैन धर्म के स्वरूप को समझ कर आत्म कल्याण हेतु इसे आचरण में लाने का सफल प्रयास करूंगी, अच्छा अब कल मिलेंगे।
मीरा:
राजेन्द्र-ज्योति
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