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________________ वह बुद्धि और विचार का विषय नहीं है, वह पक्षातिक्रान्त है । इस प्रकार मुक्तावस्था का निषेधात्मक विवेचन उसको अनिर्वचनीय बतलाने के लिये ही है। मोक्ष का अनिर्वचनीय स्वरूप:--मोक्ष का निषेधात्मक निर्वचन अनविार्य रूप से हमें उसकी अनिर्वचनीयता की ओर ही ले जाता है । पारमार्थिक दृष्टि से विचार करते हुए जैन दार्शनिकों ने उसे अनिर्वचनीय ही माना है। ____ आचारांग सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है-समस्त स्वर वहाँ से लौट आते हैं अर्थात् ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द की प्रवृत्ति का वह विषय नहीं है, वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है । वहाँ वाणी मूक हो जाती है, तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं है, बुद्धि (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है । किसी उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह अनुपम है. अरूपी सत्तावान है । वह अ-पद कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके ।13 उसके बारे में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह अरूप, अरस, अवर्ण, और अस्पर्श है क्योंकि वह इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है। गीता में मोक्ष का स्वरूपः--गीता की समग्र साधना का लक्ष्य परमतत्व ब्रह्म अक्षर पुरुष अथवा पुरुषोत्तम की प्राप्ति कहा जा सकता है। गीताकार प्रसंगान्तर से उसे ही मोक्ष, निर्वाणपद, अव्ययपद, परमपद, परमगति और परमधाम भी कहता है। जैन और बौद्ध विचारणा के समान गीताकार की दृष्टि में भी संसार पुनरागमन या जन्म-मरण की प्रक्रिया से युक्त है जबकि मोक्ष पुनरागमन या जन्म-मरण का अभाव है। गीता का साधक इसी प्रेरणा को लेकर आगे बढ़ता है। (जरामरणमोक्षाय ७,२९) और कहता है--"जिसको प्राप्त कर लेने पर पुनः संसार में नहीं लौटना होता है, उस परमपद की गवेषणा करना चाहिये ।" गीता का ईश्वर भी साधक को आश्वस्त करता हुवा यही कहता है कि जिसे प्राप्त कर लेने पर पुन: संसार में आना नहीं होता वही मेरा परमधाम है (स्वस्थान) है। 'परमसिद्धि को प्राप्त हुवे महात्मा मेरे को प्राप्त हो कर दुःखों के घर इस अस्थिर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते हैं । ब्रह्म लोक पर्यन्त समग्र जगत पुनरावृत्ति से युक्त है । लेकिन जो भी मुझे प्राप्त कर लेता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता ।18" मोक्ष के अनावृत्ति रूप लक्षण को बताने के साथ ही मोक्ष के स्वरूप का निर्वचन करते हुए गीता कहती है "इस अव्यक्त से भी परे अन्य सनातन अव्यक्त तत्व है जो सभी प्राणियों में रहते हवे भी उनके नष्ट होने पर नष्ट नहीं होता है अर्थात् चेतना पर्यायों, जो अव्यक्त है, उनसे भी परे उनका आधारभूत आत्मतत्व है । चेतना की अवस्थाएँ नश्वर हैं लेकिन उनसे परे रहने वाला यह आत्मतत्व सनातन है, जो प्राणियों में चेतना (ज्ञान) पर्यायों के रूप में अभिव्यक्त होते हुए भी उन प्राणियों तथा उनकी चेतना पर्यायों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। उसी आत्मा को अक्षय और अव्यक्त कहा गया है और उसे ही परमगति भी कहते हैं । वही परमधान भी है, वही परमात्मस्वरूप आत्मा का निज स्थान है, जिसे प्राप्त कर लेने पर पुनः निवर्तन नहीं होता ।16" उसे अक्षय ब्रह्म परमतत्व स्वभाव (आत्मा की स्वभाव दशा) और अध्यात्म भी कहा जाता है । गीता की दृष्टि में मोक्ष निर्वाण है, परम शान्ति का अधिस्थान है। जैन दर्शनिकों के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि मोक्ष सुखावस्था है। गीता के अनुसार मुक्तात्मा ब्रह्मभूत होकर अत्यन्त सुख (अनन्त सौख्य) का अनुभव करता है। यद्यपि गीता एवं जैन दर्शन में मुक्तात्मा में जिस सुख की कल्पना की गई है वह न ऐन्द्रिय सुख है न वह मात्र दुःखाभाव रूप सुख है । वरन् वह अतीन्द्रिय ज्ञानगम्य अनश्वर सुख है । 20 बौद्ध दर्शन में निर्वाण का स्वरूप:--भगवान बुद्ध की दृष्टि में निर्वाण का स्वरूप क्या है ? यह प्रश्न प्रारंभ से विवाद का विषय रहा है। स्वयं बौद्ध दर्शन के आवन्तर संप्रदायों में भी निर्वाण के स्वरूप को लेकर आत्यंतिक विरोध पाया जाता है। आधुनिक विद्वानों ने भी इस संबंध में परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले हैं, जो एक तुलनात्मक अध्येता को अधिक कठिनाई में डाल देता है । वस्तुतः इस कठिनाई का मूल कारण पालि निकाय में निर्वाण का विभिन्न दष्टियों से भिन्न-भिन्न प्रकार से विवेचन किया जाना है। श्री पुसेन एवं प्रोफेसर नलिनाक्ष दत्त ने बौद्ध १५. (अ) यंप्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । गीता ८।२१ (ब) यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । गीता १५।६। (स) मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । __नाप्नुवन्ति महात्मानं संसिद्धि परमां गताः । गीता ८।१५ १६. गीता-८।२०।२१ १७. अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावो हेयात्ममुच्यते। -गीता ८।३ १८. शान्तिं निर्वाणपरमां--गीता ६।१५ १९. सुखेन ब्रह्म संस्पर्शमत्यन्तं सुखमरनुत्ते । गीता ६।२८ २०. सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । गीता ६।२१ २१. देखिये-इन साईक्लोपेडिया आफ इथिक्स एण्ड रीलिजियन । २२. आस्पेक्टस् आफ महायान इन रिलेशन टु हीनयान । १३. सव्वेसरा नियटं ठति, तक्क जत्थ न विज्जइ, मई तत्थन गहिया ओए अप्प इट्ठाणस्स खेयन्ने--उवप्प न विज्जएअरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि । -आचारांग १।५।६।१७१ तुलना कीजिएयतो वाचोनिवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ___-तेत्तरीय २।९ न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा -मुण्डका ३।१८ १४. ततः पदं तत्परिमागितव्य यस्मिन् गता न विवर्तन्ति भ्यः -गीताज्ञान ४ वी.नि. सं. २५०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
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