SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और मिथ्यावृष्टि के जीवन में यही सब कुछ घटित होता रहता है। मिथ्यादृष्टि अधोमुखी है, वह संसार और परिवार के सुख-दुखात्मक हजारों-हजारों कांटों से बिंधता रहता है और छिलता रहता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि इस संसार व परिवार में ऊर्ध्व बन कर रहता है, जिससे संसार के सुख-दुःखात्मक अपामार्ग के कांटों का उसके अध्यात्म-जीवन पर जरासा भी प्रभाव नहीं पड़ पाता। अध्यात्मजीवन की यह सबसे बड़ी कला है। अध्यात्मशास्त्र में जीवन की इस कला को सम्यग्दर्शन कहा है। मिथ्यादृष्टि आत्मा स्वर्ग में ऊंचा चढ़ कर भी नीचे गिरता है और सम्यग्दृष्टि आत्मा नीचे नरक में जाकर भी अपने ऊर्ध्वमुखी जीवन के कारण नीचे से ऊंचे की ओर अग्रसर होता रहता है। यह सब कुछ दृष्टि का खेल है । दृष्टि का भेद है। सम्यग्दर्शन वह निर्मल धारा है, जिसमें निमज्जित होकर साधक अपने मन के मैल को धो डालता है। हमारे जीवन के आदि में सम्यग्दर्शन हो, मध्य में सम्यग्दर्शन हो और अंत में सम्यग्दर्शन हो, तभी हमारा जीवन मंगलमय होगा। सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का अर्थ यह नहीं है कि पहले कभी दर्शन नहीं था और अब नया उत्पन्न हो गया है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का अर्थ इतना ही है कि आत्मा का जो दर्शन गुण आत्मा में अनन्तकाल से था, उस दर्शन गण की मिथ्यात पर्याय को त्याग कर आपने उसकी सम्यक् पर्याय को प्रकट कर लिया है। भगवान की वाणी, गुरु का उपदेश और शास्त्र का स्वाध्याय साधक के जीवन में कोई नया तत्व नहीं उड़ेलते, बल्कि जो कुछ ढंका हुआ होता है, उसी को प्रकट करने में सहायता करते हैं। सम्यग्दर्शन का वर्णन विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार से किया गया है। किसी ग्रन्थ में जीव आदि नव पदार्थों के अथवा जीव आदि सात तत्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। किसी ग्रन्थ में आप्त, आगम और धर्म के यथार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है। किसी ग्रन्थ में स्व पर विवेकः को अथवा भेद विज्ञान को सम्यग्दर्शन कहा गया है। व्याख्या और परिभाषा भिन्न होने पर भी उनमें केवल शाब्दिक भेद ही है, लक्ष्य सबका एक ही है, जड़ से भिन्न चेतन सत्ता पर आस्था रखना। सम्यग्दर्शन एक प्रकार से विवेक रवि है जिसके उदय होने पर मिथ्यात्व का घोर अंधकार रह नहीं पाता। सम्यग्दर्शन न तो किसी जाति का धर्म है न किसी राष्ट्र का धर्म है और न वह किसी पंथ विशेष का धर्म है, वह तो एक मात्र आत्मा का धर्म है। सम्यग्दर्शन की परिभाषा के तीन प्रकार उपलब्ध हैं-तत्वार्थ श्रद्धान, देव-गुरु-धर्म पर विश्वास और आत्मा-अनात्मा का भेदविज्ञान । तत्वार्थ श्रद्वान दार्शनिक जगत की वस्तु, भेद-विज्ञान अध्यात्म शास्त्र का विषय रहा और देव-गुरु-धर्म पर विश्वास यह संप्रदाय संबंधी दर्शन रहा। किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से आत्म-अनात्म का भेद विज्ञान ही सम्यग्दर्शन है। इसके अभाव में न तो तत्वों पर श्रद्धा होती है और न देव-गरु-धर्म पर विश्वास । यह बात ध्यान देने योग्य है कि देव-गरु-धर्म पर श्रद्धा का सिद्धान्त सुन्दर और उदार होते हुए भी, उसका उपयोग जब पंथ तथा संप्रदायवाद की पुष्टि में किया जाता है तो आत्म-गणों के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। अन्तर्दृष्टि के स्थान पर बाह्यदृष्टि' को प्रधानता मिलती है। सामान्यतः कर्म-सिद्धान्त के अनुसार सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति दर्शन मोहनीय के क्षय, उपशम या क्षयोपशम के कारण उदय में नहीं आने से होती है। उत्पत्ति के निमित्त कारणों को ध्यान में रख कर सम्यग्दर्शन के दस भेद उत्तराध्ययन सूत्र में इस प्रकार बतलाए हैंनिसग्गुवएसरूई, आणारूई, सुत-बीयरूइमेव । अभिगम-वित्थाररूई, किरिया-संखेव-धम्मरूई ।। उत्त. २८-१६ (निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि और धर्मरुचि) स्थानांगसूत्र (१०-७५१) और प्रज्ञापना (पद १, सूत्र ७४) में भी इन भेदों का इसी प्रकार उल्लेख मिलता है। परन्तु यहां सम्यग्दर्शन के धारक सम्यग्दृष्टि के प्रथमत: “सराग" और "वीतराग' के भेद से दो भेद करके सराग-सम्यग्दृष्टि के उपरोक्त दस भेद बतलाए हैं। आचार्य गुणभद्र रचित "आत्मानुशासन' में भी दस भेद बतलाए हैं, परन्तु वहां पर उनके साथ रुचि शब्द नहीं जोड़ा गया है तथा उनके नाम एवं क्रम में भी कुछ अन्तर है आज्ञामार्ग समुद्भवमुपदेशात् सूत्र बीज संक्षेपात् विस्तारार्थाभ्यां भवमवगाढ़, परमावादिगाढ़े च ।। -आत्मानुशासन श्लोक ११ (आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ और परमावगाढ़)। निमित्त कारण की विविधता के कारण यद्यपि सम्यग्दर्शन के अनेक भेद हो सकते हैं तथापि उत्पत्ति के प्रति निमित्त कारण की अपेक्षा और अनपेक्षा की दृष्टि से संक्षेप में दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-१.निसर्गज सम्यग्दर्शन (जो सम्यग्दर्शन बिना किसी पर-संयोग एवं बाह्यनिमित्त से प्रकट होता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन)। २.अधिगमज सम्यग्दर्शन (इसमें शास्त्र, स्वाध्याय आदि किसी पर-संयोग की आवश्यकता होती है। आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थ सूत्र में बतलाया है"तनिसर्गादधिगमाद्वा" -त. सूत्र १-३ (वह सम्यग्दर्शन निसर्ग अर्थात् परिणाम मात्र से अथवा अधिगमबाह्य निमित्त से उत्पन्न होता है)। यदि उपर्युक्त दस भेदों को इन दो भागों में विभक्त किया जाय तो निसर्गरुचि को छोड़ कर शेष सभी पर-सापेक्ष हैं । इसके अतिरिक्त कर्मों के क्षय, उपशम और क्षयोपशम के भेद से सम्यग्दर्शन के अन्य तीन भेद भी कहे हैं -- कर्मणा क्षयतः शान्ते, क्षयोपशम तस्तथा, श्रद्धानं त्रिविध बोध्यं । -यशस्तिलक चंपू पृ. ३२३ वी. नि.सं. २५०३ १५५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012039
Book TitleRajendrasuri Janma Sardh Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsinh Rathod
PublisherRajendrasuri Jain Navyuvak Parishad Mohankheda
Publication Year1977
Total Pages638
LanguageHindi, Gujrati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy