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जज इतीज नदी तेमज पीजी पण टवामा लखेती प्रनो साये मेणवतो केटजिक पानो प्रस्ताव
न्यूनाधिक वीनामा यावी माटे बीजीयेत्रण कल्पसूत्रोना टयानी प्रतोनो वाधार जश्ने हेमा । 10 गपनार श्रावक जीमसिंह मापो वधारो को तेषी था मैथ लगना श्रगीआर हजार ।
श्लोक संख्या जेटलो पइ गयो. इजी पण थविरायली पटावजी वगेरेमा घणी वात वधारे || लखवानी इती पण घोडा विवसना व्याख्याना पूर्ण अशके नही तेना जपची पडती मूकी वेदी परी जया बली श्रीपार्वनागस्वामीना चरित्रमा तेमज बीजे केटप्लेक स्थानके अन्य प्रतोमा लखेली वातोचीतवन जुदीज रोतें थने यति दिपा महाराज साहेवे वातो जखी। काहाडी हती ते मादजी पणा स्थले तो फेरवी नाखेजी के, परंतु केटलाएक स्थानके संशय होवाथी तथा महाराजने कागल जरखी जुबाब मगाववाथी यणा दिवस गपवानु.काम बंध।
राखवु पडे तेम न पनी शकदाची एमंज रेहेबा वीधी ने. तेमज वापवाने पणी वावज हिती माटे बधारे शोधन पण य नथी, तथापि जेटनुबनी शक्यु लेटतुं यत्कंचित शोधन पण कर्पु . वली मारवाड, गुर्जर तथा हिंदुस्थानी मनी प्रण भाषायें मिश्रित या पंथ महाराज || साहेवे बनावेजो हतो, परंतु तेर्मा घणा वाचनार साहेबोने वांचा कंटालो उपजे कवाचित | कोइने वयार्थ अर्थ न पेशे, तेची ते जापा सुधारीने श्रावक शा. जीमसिंद माणके घणु करी । एकज गुर्जर जापामा जखीने गप्पु . तोपण हजी को कोई स्थाने मारवादावि पेशोनी ।
जापायें मिभित बयेली जापा रहेली बशे तथा कोई कोई बातो पण अपूर्ण रहेली दशे. ते॥ सामज पुनरुक्ति पण पणा स्थानकें वीतामा वावशे ते सर्व बांधनार सानोयें सुधारी बोच. .
भट्टारक श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर कृत कल्पसूत्र की बालावबोध टीका (वैशाख कृष्णा २, संवत् १९४०; सन् १८८३) का ११ वां पृष्ठ, जिसकी१२, १३, १४ और १५ वीं पंक्तियों में इस तथ्य का उल्लेख है कि उक्त टीका मूलतः मारवाड़ी, गुजराती और हिन्दुस्तानी के मिले-जुले किसी भाषारूप में लिखी गयी थी किन्तु जिसे श्रावक शा. भीमसिंह माणक ने गुर्जरी में लिखकर नागरी लिपि में छपवा डाला। इतना होने पर भी मारवाड़ी आदि देशी भाषाओं का प्रभाव इसमें यत्र-तत्र स्पष्ट दिखायी देता है।
क. सू. बा. टी. चित्र ४
च्यापारी
विसुदेव
'एक दिवस नाटक थातं हतं तेवामां राजावें निद्रा आवना लागी तेवारें शय्यापालकनें कहयु के मने निद्रा आदी जाय तेवारें ए नाटक करनाउने शीख आपी वारी राखजो तो पण ते शय्यापालके थोत्रंद्रियना रसें करी तेमने गीत गान करतां वारी राख्या नहीं एटलामा त्रिपृष्ठ जागृत थइनें बोल्यो के अरे आ नाटकी आने शा वास्तें रजा आपी नहीं तेवारें शय्यापालक कह युं के 'हे प्रभु ! श्रोत्रंद्रियना रसें करी हुँ रजा आपता चूकी गयो' ते सांमली त्रिपृष्ठनें क्रोध चड्यो पछी सीशुं गरम करी तेनो उनो-उनो रस ते शय्यापालकना कानमां रेडाव्यो।
-क. सू. बा. टी. पृ. २४
राजेन्द्र-ज्योति
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