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जैसलमेर के जैन मंदिर एवं उनकी कलात्मक समृद्धि
विजयशंकर श्रीवास्तव
मरुस्थल की गोद में बसा एवं राजस्थान के उत्तरी-पश्चिमी सम्भाग में प्रहरी रूप में अवस्थित जैसलमेर प्राचीन समय से ही जैन धर्म एवं संस्कृति का केन्द्र रहा है। यहां के विशाल जैन ग्रंथ-भण्डार, कलात्मक जैन मंदिर एवं उनमें उत्कीर्ण एवं सुरक्षित असंख्य प्रस्तर एवं धातु मूर्तियां हमारे देश की कलात्मक निधियां हैं। विभिन्न जैन आचार्यों, श्रावक-श्राविकाओं एवं श्रेष्ठि-वर्ग ने जैसलमेर को जैन संस्कृति के प्रमुख गढ़ के रूप में प्रतिष्ठित कराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यद्यपि जैसलमेर के भाटी राजवंश की आस्था हिन्दू धर्म में थी, परन्तु उन्होंने जैन धर्म, कला एवं संस्कृति के विकास तथा प्रसार में सदा धार्मिक सहिष्णुता एवं सहृदयता का परिचय दिया।
१२ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जैसलमेर नगर की स्थापना के पूर्व शहर से लगभग १६ किलोमीटर दूरस्थ लोद्रवा या लोद्रपुर इस राज्य की राजधानी थी। यहां का भगवान पार्श्वनाथ का मंदिरजैसलमेर परिसर का प्राचीनतम जैन मंदिर है। यह अपनी प्राचीनता एवं कलात्मक समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है। मूलतः इस मंदिर का निर्माण ११ वीं शताब्दी में हुआ प्रतीत होता है । गर्भगृह का द्वारखंड, सभा मण्डप के स्तम्भ एवं वाह्य तोरण-द्वार तथा अन्य कुछ संभाग अद्यावधि अधिकांश रूप में अपने मूलस्वरूप में विद्यमान हैं। परम्परानुसार इस मंदिर का निर्माण वि. सं. १०९१ में सागर के पुत्र श्रीधर व राजधर ने करवाया और उसकी प्रतिष्ठा खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि द्वारा सम्पन्न हुई। मोहम्मद गोरी जैसे आक्रांताओं का कोपभाजन लोद्रवा को होना पड़ा जिसके परिणामस्वरूप इस मंदिर को पर्याप्त क्षति पहुंची । कालान्तर में १६ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भणशाली गोत्रीय खीमसिंह और उनके पुत्र पूनसिंह ने मंदिर के जीर्णोद्धार का प्रयत्न किया परन्तु आशातीत सफलता न मिली, अतः पूनसिंह के पुत्र सेठ थाहरूशाह ने इस मंदिर की प्राचीन नीबों पर विशालस्तर पर निर्माण कार्य करा वर्तमान मंदिर निर्मित किया। कसौटी पत्थर की श्यामवर्णी सहस्रफणी श्री
चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा मूलनायक के रूप में प्रतिष्ठित हुई जिसका परिसर श्वेत संगमरमर विनिर्मित है। उसकी चरणचौकी पर उत्कीर्ण लेख से विदित होता है कि थाहरूशाह ने अपनी पत्नी व पुत्रों सहित इस मूर्ति का निर्माण करा आचार्य श्री जिनराजसूरि द्वारा उसकी प्रतिष्ठा वि. सं. १६७५ मार्गशीर्ष सुदी १२ गुरुवार को करवाया। ये आचार्य श्री खरतरगच्छ के प्रमुख आचार्य थे।
इस मन्दिर के बाह्य एवं आभ्यन्तर संभागों पर उकेरी हुई मूर्तियां प्राचीनता की द्योतक हैं तथा शिल्पकारों के कुशल तक्षणकला की परिचायक हैं। मन्दिर का अलंकृत तोरण-द्वार विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके दोनों स्तंभ लगभग हजार वर्ष पुराने हैं जैसा कि उन पर उकेरी गई मूर्तियों से सुस्पष्ट है। पुराने स्तम्भों पर १७ वीं शताब्दी में थाहरूशाह ने कलात्मक तोरण बनवाया जिसके मध्यवर्ती भाग में आसनस्थ तीर्थंकर विराजमान हैं। मंदिर के प्रांगण के चारों कोनों में अपनी पत्नी, पुत्रों व पौत्रों के पुण्यार्थ वि.सं.१६९३ में थाहरूशाह ने लघु जिनालय बनवाए जिनमें आदिनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ एवं चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं आचार्य जिनराजसूरि द्वारा वि. सं. १६७५ में प्रधान मंदिर की प्रतिष्ठा के साथ ही पधराई गयीं। निकट में ही अष्टापदजी के भाव की विशालकाय एवं धातु-विनिर्मित कलात्मक कल्पवृक्ष बना हुआ है। मूल मंदिर के सभामंडप में सहजकीर्तिगणि नामक जैन विद्वान विरचित शतदल पद्म यंत्र की प्रशस्ति का अभिलेख लगा हुआ है जो मंदिर की प्रतिष्ठा के समय वि. सं. १६७५ में रचा गया था। अलंकार शास्त्र की इस अपूर्व प्रशस्ति में शाहरूशाह और उनके पूर्वजों का गुणगान किया गया है। लोद्रवा के जैन मंदिर में प्रस्तर व धातु की अनेक मूर्तियां विद्यमान हैं। मकराने की गणपति मूर्ति के लेख से ज्ञात होता है कि वि. सं. १३३७ में समस्त गोष्ठिका के आदेश पर पं. पद्मचन्द्र ने अजमेर दुर्ग में जाकर सच्चिका व गणपति सहित जिन-बिम्ब निर्मित कराया।
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राजेन्द्र-ज्योति
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