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अपना
जैन समाज की दिशा/उत्थान या पतन,
श्री सी. बी. भगत
यदि वर्तमान में हम अपने जैन समाज पर एक दृष्टि डालेंगे, तो हमें मालूम हो जायगा कि अपना जैन समाज किस दिशा की ओर जा रहा है। आज समाज विघटन विनाश, अन्धविश्वास और भौतिकता से जूझ रहा है ।
आज का मानव भौतिकवादी चकाचौंध से चोन्धिया गया है। वह मृगतृष्णा में धर्म और ईमान सबको भूल चुका है । वह जीव हिंसा को भयंकर पाप मान कर त्याग करता है, विरोध करता है लेकिन स्वयं ही दहेज के लोभ में मानव हत्या का कारखाना खोल रहा है । पुत्र-विक्रय का कार्य कर रहा है । चन्द चांदी के टुकड़े, सोने के आभूषण, कार, स्कूटर, भवन इसके नैतिक ईमान को पतन के गर्त में धकेल रहे हैं। प्रलोभन के अलावा कहीं कहीं यह प्रवृत्ति वाभिमान के कारण भी जन्म लेती है, लोग दहेज लेना स्वाभिमान समझते हैं, स्वाभिमान पौरुषत्व का द्योतक है, लेकिन उसी समय जब कि वह समाज हित में हो । यदि उर का स्वाभिमान समाज में विषाक्त वातावरण तैयार करता है, तो अहितकर ही होता है । इसी अन्ध स्वाभिमान के वश लड़के के पिता अपने सुपुत्र ( ) का अधिकाधिक मूल्य लेना अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं। वे लोग उस पुत्र विक्रय को (कन्यादान) कहलवाकर क्यों कन्यादान शब्द का उपहास करते हैं। क्या योग्य लड़कियां दहेज के अभाव में अयोग्य लड़कों के गले नहीं मढ़ दी जाती । जिस जैन धर्म में किसी का दिल दुखाना भी हिंसा है, वहीं जैन समाज, उसके ठेकेदार किसी की बेबसी सिसकते आँसुओं की तरफ ध्यान देना अपना अपमान समझ रहे हैं । कहीं पर इस दहेज को आर्थिक सुरक्षा का अस्त्र समझा जा रहा है, लेकिन इस अस्त्र का मूल्य उन्होंने नहीं समझा । इस कुप्रथा को रोकना है । यह सरकारी कानूनों एवं से नहीं, सामाजिक नियमों, हृदय परिवर्तन से मिटेगी ।
आज भौतिकतावादी चमत्कारों ने समाज व युवकों को पथ भ्रष्ट किया है। सद्गुणों ने सम्बन्ध तोड़कर उद्दण्डता ने उसका
शृंगार किया है । अनुशासनहीन जीवन पद्धति के प्रति समाज अग्रसर होता जा रहा है । उसकी विध्वंसकारी प्रतिभा उसे संस्कारहीन भूल भुलैया में भटका रही है, समग्न जीवन ही दुर्गुणों से दूषित होता जा रहा है । समाज आदर्शों की लीक से हटकर भौतिक अविनय, अनुशासनहीन मार्ग पर चलता जा रहा है, जीने की कला गुम हो चुकी है, विचारों की संकीर्णता के कारण समाज कल्याण की बात छोड़िये, स्वयं का निर्माण भी कठिन लग रहा है, जिस शक्ति का उपयोग देश, धर्म व समाज कल्याण में होना चाहिये, वही शक्ति पुरुषार्थहीन जीवन व्यतीत कर रही है।
जैन धर्म जितनी सहिष्णुता का सन्देश देता है, जैन समाज उतना ही असहिष्णु बन रहा है । आज हर गांब, नगर में पंथ व गच्छ के झगड़े हो रहे हैं । ये झगड़े मामूली नहीं, इतने भंयकर हैं कि प्रकाण्ड मुनिराज भी सुलझा नहीं पाते । ये झगड़े राष्ट्रीय स्तर पर फैल जाते हैं । दो पंथ या गच्छ दो किनारे बन जाते हैं, जो एक ही नदी के हैं, किन्तु कभी मिल नहीं पाते । वास्तव में एक दूसरे का विरोध कभी भी उस पंथ को समाप्त नहीं करेगा । उससे समाज निश्चित रूप से प्रभावित होगा । आप किसी का विरोध करेंगे तो उसमें नई शक्ति आयेगी, यह सर्व विदित होते हुए भी हम और हमारे धर्म गुरु एक दुसरे का विरोध करते नहीं हिचकते । दो पंथ तो दूर एक ही गच्छ या पंथ के दो साधु भी एक दूसरे का विरोध करने, उसे नीचा दिखाने में नहीं चकते । वे अपनी नैतिकता, आचरण संहिता को त्याग कर यह कार्य करते हैं। जिस नंतिकता से उन्हें बिखरे पंथों को मिलाना है, वे उसके विपरीत अपने ही पंथ को तोड़ रहे हैं। कहां गई उनकी नैतिकता ? कहाँ वह आचरण संहिता? वह हम ही हैं जो विश्वस्तर पर अहिंसा, मैत्री, भ्रातृत्व, अने कान्तबाद के बिगुल बजाते है, समय आनेपर उन सब को मरघट का रास्ता दिखाकर ताण्डव-मत्य शुरू कर देते हैं। विश्व को प्रेरणा
(शेष पृष्ठ १५८ पर)
राजेन्द्र-ज्योति
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