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पू० श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी म० की पाप-प्रणाशक परम्परा के एक अंग बनने पर, एक सत्य की आत्म प्रतीति हो चुकी है। यह आत्म प्रतीति यह है कि, अगर मेरे परोक्ष उपकारी, अभिधान राजेन्द्र कोष के कर्ता आत्मर्षि पू० श्री राजेन्द्र सू०म० ने अपने जीवन में जिस प्रकार वीतराग परमात्मा के स्वयं के साथ और उनके शासन के 'सेव्य सेवक" भाव का साक्षात्कार करके, जो सत्य-निहित प्रगतिकारी परम्परा का प्रगटीकरण किया है उसके एक अंश का भी यदि मैं अपने जीवन में आचरण कर पाऊंगा तो मेरे आत्म कल्याण और साधना का मार्ग स्पष्ट एवं निष्कंटक बन जायेगा ।
शासन का "सेव्य-सेवक" भाव
परमतारक श्री सर्वज्ञ-प्ररूपित साधना मार्ग से "सेव्य" का स्थान उसी को प्राप्त होता है कि जिसने समता की भावना को आत्मसात् करके सम्यक् आचरण के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार किया होया सत्य के साथ एकाकारपना प्राप्त कर लिया हो । ऐसे ''सेव्य" की सेवा करने से "स्व स्वरूप" की प्राप्ति होती है।
आमतौर से कहे या माने जाते 'सेवक भाव' से भगवान के 'शासन' का 'सेवक भाव' सर्वथा भिन्न है। यह 'सेवक भाव' सम्यक् श्रद्धायुक्त गुणों की उपासना और सम्यक् आचरण से आरक्षित होता है । ऐसा सेवक सत्य को भी समर्पित होता है । जो सेवक' सत्य दर्शन और सत्याचरण की निष्ठा और प्रवृत्ति को अपने जीवन में अभिप्रेत करता है वही सर्वज्ञ का, श्रमण का या 'शासन' का सेवक है । ऐसा 'सेवक' ही श्रेय का साधक बन सकता है। यह कथन सत्य का स्पष्ट दर्शन है ।
सत्य के इस स्पष्ट दर्शन के साथ यह समझना नितांत आवश्यक है कि सत्य परिस्थितियों या प्रकृति का दास नहीं है क्योंकि वह सत्य है। परवशता या पराश्रितता सत्य स्थिति नहीं है । सत्य सामर्थ्य युक्त होता है। इसी कारण सत्य में निष्ठा रखने वाला या सत्य का आचरण करने वाला सर्वतंत्र स्वतंत्र और किसी भी प्रकार स्पृहाओं से सर्वथा मुक्त होता है या उसके लिये सतत प्रयत्नशील रहता है।
पूज्यपाद पूज्य श्री राजेन्द्र सू०म० का आद्योपांत जीवन इस सिद्धांत की ओर वीतराग के शासन के 'सेवक भाव' का स्वयं सिद्ध स्पष्ट उदाहरण है। ___ यह पूज्य पुरुष ने अपने जन्म से, क्रमिक रूप से आत्म साधना करके अपने आपको भगवान के शासन से अध्यवसाय की शुद्धि बना दिया था। आत्म-साधना के प्रबल पुरुषार्थ की मनोदशा के कारण ही, स्वयं के जीवन में सांसारिक साधन-सम्पन्नता और प्रतिष्ठा प्राप्त होते हुवे भी संसार से विरक्ति की ओर अपने को आगे बढ़ाया था।
संसार विरक्ति की पूज्य श्री की भावना और परिणति तीव्रतम बनने पर उस समय में शीघ्र ही उपलब्ध होने वाली यतिपरम्परा के माध्यम से उन्होंने आत्मोत्कर्ष की आत्म-साधना का आचरणात्मक आरंभ किया।
यह आत्माभियान करते हुवे उनको यतिवर्ग में पनप रही आसक्तियां और परिग्रह की भावना से आई हुई आचारहीनता का अनुभव हुआ। आत्म-साधक आत्मा, आसक्तियों और आचारहीनता का अनुभव करने पर तत्कालीन परिस्थितियों का दास या प्रेषक बनकर बैठा नहीं रह सकता है। ऐसी आत्मा अपने आत्मवीर्य का प्रगटीकरण करके आत्मनिहित अनंत पुरुषार्थ के बल का प्रत्यक्ष परिचय कराती है। आचारहीनता का अनुभव करने पर पूज्यपाद आत्मर्षि ने उस समय के स्थापित हित और स्वार्थरत यतिवर्ग के पास "कलमनामा" कबूल करवा के समाज में व्याप्त अंधश्रद्धा और व्यक्ति पूजा को नष्ट कर दिया।
शुद्ध आचरण सत्य की "समभिरूढ़" परिणति का प्रत्यक्ष रूप है ऐसी परिणति का प्रत्यक्ष रूप गुरुवर श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी म० सा० में निखर आया और उन्होंने राज्य सत्ता द्वारा दिये गये सम्मान सुचक सर्व परिग्रह का त्याग करके अपने में निहित संयम मार्ग की 'भाव आराधना' के भाव का 'संवेगी' दीक्षा के माध्यम से 'द्रव्य आराधना' द्वारा समन्वय किया । इस समन्वय से उनकी आत्मशुद्धि और शोभा अत्यधिक जाज्वलयमान बनी । "स्वाध्याय" से आत्मा के अध्यवसायों का संशोधन और शुद्धिकरण
यह सत्य आत्मानुभूति का विषय होने के कारण आज के समाज में यह दुःसाध्य या दूरी का सत्य बन गया है । आज साधना मार्ग के स्थान पर हमने साम्प्रदायिक या मतानुगतिक आचरण मार्ग या निर्जीव प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठा कर दी है । यह सत्य कितना भी कटु लगे फिर वर्तमान परिप्रेक्ष्य की यह हृदय विदारक वास्तविकता है। इसी कारण आज का समाज अव्यक्त बनता जा रहा है या उसकी अभिव्यक्तियां व्यामोह एवं विद्वेष और व्यक्ति पूजा से अभिभूत है। ऐसी अनर्थकारी अभिभूतता अपने जीवन में व्याप्त न हो इस प्रकार का भाव जागरुकता से अध्यात्ममार्गी आचार्य प्रवर श्री राजेन्द्रसूरी म०सा० ने खुद के समस्त जीवन को सम्यक् ज्ञान के स्वाध्याय और साधना को समर्पित कर दिया था।
अभिधान राजेन्द्रकोष जैसे अति विशाल ग्रन्थ रत्न की रचना उनके सम्यक् ज्ञान के सर्वांगी समर्पण की साहजिक निष्पत्ति है। अन्यथा असंभव सा यह कार्य उनसे होता ही नहीं । अभिधान राजेन्द्र कोष सामान्य शब्द कोष नहीं है किन्तु शास्त्र वचनों की समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थ घटन का सर्वश्रेष्ठ सहायक माध्यम है।
समर्पण वही है । जो सर्वतोमुखी और सर्वदेशीय है । ऐसे समर्पण का स्वरूप और प्रभाव सर्वव्यापी होता है । पूज्यपाद श्रीमद् राजेन्द्र सू०मा० का सम्यक् ज्ञान के प्रति समर्पण सर्वदेशीय और सर्वतोमुखी था, इस हकीकत का प्रमाण उनके विविध विषय का सम्यक् ज्ञानाश्रित सर्वतोमुखी साहित्य सर्जन (सृजन) है । आपने अपना संयमी जीवन व्यापन करते हुवे अनेकविध विषयों के ६१ ग्रंथों का सृजन और सम्पादन किया ।
वी. नि. सं. २५०३ ख २
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