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वस्तुतः फलित ज्योतिष इतना गम्भीर विषय है कि उसके मर्म को तद्विषयक विद्वान् ही समझ सकता है। इस दृष्टि से श्रीमद् की उक्त पद्य-रचना उनके तत्सम्बन्धी गम्भीर ज्ञान की द्योतक है। श्रीमद् की ज्ञान-पिपासा अबुझ थी । वे आध्यात्मिक साधना, दुर्द्धर तप, गहन अध्ययन और सामाजिक मार्गदर्शन के साथ अन्य कई विषयों का ज्ञान प्राप्त करते रहते थे । उनकी प्रवृत्ति थी दैनंदिन जीवन की हर आवश्यक प्रवृत्ति को परखना और उसे स्पष्टता के साथ औरों के लिए उपलब्ध करना । ज्योतिषसम्बन्धी उनका ज्ञान विशद था । इतना होते हुए भी उन्होंने कभी किसी पक्ष को अपमानित नहीं किया । उनके मन में प्रतिपक्ष के लिए गहरी सम्मान भावना थी। निन्दक के लिए
उन्होंने एक पद में लिखा : "निन्दक तुं मर जावसी रे, ज्युं पाणी में लूण । 'सूरिराजेन्द्र' की सीखड़ी रे, दूजो निन्दा करेगा कोण ।।" (निन्दका तू उसी तरह मर जाएगा जैसा पानी में नमक धुल जाता है । सन्तों की प्रगाढ़ मैत्री तुझे आत्मसात् कर लेगी; तुझे स्वयं में पचा लेगी। राजेन्द्रसूरि की सीख है, उनकी चिन्ता भी है, कि फिर दूसरा निन्दा कौन करेगा?) .. इस तरह राजेन्द्रसूरिजी ने चिन्तन और आचार-शुद्धि के लिए प्रतिपक्ष को उत्कृष्टः समीक्षक की भूमिका में रखा है और
उसे पूरा सम्मान दिया है । ज्योतिष जानने के पीछे भी उनके ___मन में सबके लिए यही वात्सल्य और औदार्य तरंगायित था।
श्रद्धांजलि
भरतपुर की पुण्य भूमि पर, गुरुवर तुमने जन्म लिया । पौष शुक्ल सप्तमी शुभ दिन था, जिस दिन तुम अवतार लिया । ऋषभदासजी पिता तुम्हारे, केसरदेवी महतारी । जिनकी रत्न कुक्षि से तुमने, अपनी अनुपम देहधारी ।।
तेरह वर्ष की कोमल वय में, धुलेव यात्रा को आए । डाकन का दु:ख हर कन्या का, उपकारी गुरु कहलाए।। ज्ञानी गुरु प्रमोदसूरि से, सत्य ज्ञान तुमने पाया ।
विनय मूल है सभी धर्म का, जिसको तुमने अपनाया ।। घूमे धरणेन्द्रसूरि के संग में, यति वेष को धारण कर । त्याग धर्म का मार्ग बता कर, लाए सच्चे मारग पर । आखिर त्याग किया सभी परिग्रह, छत्तीम गण के धारी ने । शुभ मारग अपनाया सब तज, उसी बाल ब्रह्मचारी ने ।।
गुरुवर तुमने जैन धर्म का, जो उद्यान लगाया था । सत्य अहिंसा निर्मल जल ही, तुमने उसे पिलाया था ।। उत्तराधिकारी गुरुवरश्री, यतीन्द्र ने अपनाया ।
सुरभित सदा रहेगा तेरा, यह जो बाग लगाया ।। चरनन वन्दन कुन्दन करके, यह श्रद्धांजलि धरता । शाश्वत धर्म परिवार हृदय से, अञ्जली अर्पित करता ।।
-कुन्दनमल, डाँगी
वी.नि.सं. २५०३
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