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परोपकारी श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी पंच नमस्कृति स्तुति में फरमाते हैं:
एष माता पिता स्वामी, गुरुनेत्रं भिषक् सखा । प्राण स्त्राणं मतिर्दीपः शान्तिः पुष्टिमहन्मह ।।२८।। निधयः सन्निधौ, कामधेनुरप्यनुगामिका। भूमृतो भृतकास्तस्य, यस्य नैष हृदा हिसक् ।।२९।।
अर्थात् यह नमस्कार मंत्र माता, पिता, स्वामी, गुरु, नेत्र, वेद, मित्र, प्राणरक्षक, बुद्धि, दीपक, शान्ति, पुष्टि और महा ज्योति है। जिसके मन में यह नवकारमंत्र बसा हुआ है, नवनिधि उसके पास रहती है। कामधेनु उसकी अनुगामिनी बनती है और बड़े बड़े भूप उसके सेवक हो कर रहते हैं ।
नमस्कार तो हम करते हैं, दिन में दो चार बार नहीं लेकिन बीस पच्चीस बार करते हैं। मगर जहां करना चाहते हैं वहां नहीं करते हैं । सच्चे नमस्कार के अधिकारी कौन हैं ? इस प्रश्न पर गंभीर चिन्तन अनिवार्य है। क्योंकि बात-बात में जहां-तहाँ झुकने से हम स्वार्थ के दास हो गये हैं । पारमार्थिक जीवन से हम भ्रष्ट हो गये हैं।
अनात्मभूत पदार्थों में सुख ढूंढ़ने की कुचेष्टा से हम सुखी तो नहीं होंगे लेकिन हमारा दुःख अवश्य बढ़ेगा । स्वभाव से भ्रष्ट होकर परभाव में सुख ढूंढ़ना, इसका अर्थ यह होता है मिथ्या प्रयास करना।
आओ ! हम शरण ग्रहण करें श्री पंच परमेष्ठी भगवंतों की ताकि पंच इन्द्रियों के विषय भी बदल जायें । व्यापार बढ़ाओ, मैत्री आदि चार भावनाओं का, जिससे चार कषायों की ताकत निर्मूल हो जाये । जिसे जीवन प्यारा है उसे परम मंगलमय जीवन के स्वामी श्री अरिहंत परमात्मा से प्रीत करनी ही होगी। प्रीति की रीति कैसी होती है, यह तो हम सब जानते हैं । प्रीति की गली इतनी संकड़ी है कि वहां पर एक साथ दो नहीं ठहर सकते हैं। प्रीत का प्राण है त्याग । जिसे त्याग में राग नहीं, वह वीतराग से प्रीत कैसे करेगा?
सच्ची प्रभु-प्रीति का दूसरा नाम है पूर्ण नमस्कार, पूर्ण समर्पण । आओ ! हम सब परमात्मा की पूर्ण कला के पूर्णरूप से समर्पित आराधक बनें।
कुछ मुक्ताएं
ऐश्वर्य मिलता सुक्ति से,
सन्तोष मिलता मुक्ति से । आनन्द कहते हैं जिसे,
- वह मात्र मिलता मुक्ति से ।।
जो धधकती भट्टियों में गलाया जाता।
वही लोहा एक दिन तलवार बनता है ।।
एक भी सच न हो सपना, क्या करें हम,
काम कुछ भी न हो अपना, क्या करें हम । क्यों बुरा माने ? न माने कहा कोई,
मानना मन भी न अपना, क्या करें हम ।।
लक्ष्मीपूजा करने से ही क्या कोई धनवान हुआ है ?
__ नाम भीम का जपने से ही क्या कोई बलवान हुआ है ? धन या बल ही नहीं साथियों ! विद्या भी श्रम का ही फल है,
पुस्तक मस्तक पर ढोने से क्या कोई विद्वान हुआ है ?
घोर काली रात में जो झिलमिलाये,
दुःख में आकर हमें जो खिलखिलाये । हाथ तो सब लोग दुनियाँ में मिलाते,
दोस्त है सच्चा वही जो दिल मिलाये ।।
बैठे बैठे रोते रहने से होगा क्या?
आँसू से मुंह धोते रहने से होगा क्या ? डट जांय सामने तो संकट कट जायेगा,
आलसी बने सोते रहने से होगा क्या ?
आलसी को ही यहाँ अवधूत कहते हैं ।
गंदगी करता उसी को पूत कहते हैं । क्या गजब की समझ है जो सफाई करता,
हम उसी को बार-बार अछूत कहते हैं।।
श्रमकणों से मोतियों का हार बनता है ।
संकटों में ही मनुज अवतार बनता है ।।
काव्यतीर्थ पं. शान्तप्रकाश 'सत्यदास'
राजेन्द्र-ज्योति
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