________________
भरतपुर का कोहिनूर
भारत की रत्नगर्भा धरा में अनेक रत्न छिपे हैं जो समय समय पर देशहित एवं समाज हित में आध्यात्म एवं नैतिकता को विकसित करने के लिए उजागर होते हैं। इसी क्रम में आज से १५० वर्ष पूर्व आविर्भाव हुआ जिसके दैदीप्यमान प्रकाश से वसुधा ज्ञान किरणों से जगमगा उठी । वह एक अरुण था जिसकी ज्ञान रश्मियां विश्व में फैलकर अज्ञानता का नाश कर रही थी। हां, वे कोहिनूर थे रत्नराज याने पू. गुरुदेव श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहब जिन्होंने प्रभु महावीर के मार्ग को अपनाया । अहिंसा एवं तप के बल से इस महामानव ने मिथ्यात्व एवं शिथिलाचार पर प्रहार किया ।
महेन्द्र भण्डारी 'शलभ'
भरतपुर वाटिका में " केशर की क्यारी" से उजागर इस पुष्प की मलय सुगन्ध समूचे मालवा, राजस्थान, गुजरात एवं अन्य प्रांतों तक ही नहीं देश-विदेशों तक फैली । त्याग, शील एवं ज्ञान का सौरभ अध्यात्म सुवास से युक्त परिपक्व पुष्प ने जैन जैनेतर सभी को अपनी विद्वता से श्रद्धान्वित किया ।
कोहिनूर प्रभु श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का जन्म ३ दिसम्बर सन् १८२७ पौष शुक्ल सप्तमी विक्रम सं. १८८२ गुरुवार को हुआ। माँ केशर की कूंख से जन्म लिया । श्रेष्ठिवर्ग ओसवाल श्री ऋषभदासजी पारख को आपके पिताश्री होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । बाल्यावस्था से ही सद्गुणी, विनयवान
जानकार इस अध्यात्मचिन्तक का नाम रत्नराज रखा गया ।
ज्येष्ठ भ्राता श्री माणिकचन्द के साथ करीब बारह वर्ष की आयु में केशरियाजी की यात्रा करने प्रस्थित हुए । पथ में एक सेठ को भीलों के संकट से बचाया साथ ही अपनी अध्यात्मसिद्धि से सेठ की पुत्री की व्याधि का निवारण किया ।
४२
काल चक्र के थपेड़ों से कोई नहीं बचता । अकस्मात् सुखभरे मौसम में गम के बादल छा गए। माता-पिता इन्हें छोड़कर चल बसे । माता-पिता के वियोग ने रत्नराजजी के हृदय में संसार के प्रति
Jain Education International
विराग तथा धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा स्थापित कर दी। एक समय यतिराज श्री प्रमोदविजयजी म. भरतपुर पधारे। उन्होंने प्रवचन से संसार की उदारता, भौतिक सुखों की क्षणिकता एवं माया की नश्वरता की विवेचना सुनाई। जिसने रत्नराज के कोमल किन्तु विराट हृदय को झकझोर दिया, वैराग्य ज्योति टिमटिमा उठी । अपने भाई व परिवार जनों से आज्ञा प्राप्त कर बालब्रह्मचारी रत्नराजजी ने श्री हेमविजयजी म. से यति दीक्षा अंगीकार की । मात्र दीक्षा अंगीकार करने से ही आत्म व पर कल्याण संभव न जानकर आप ज्ञान साधना में जुट गए। व्याकरण, न्याय, कोष, अलंकार आदि का अध्ययन करने लगे। तीक्ष्ण बुद्धि व अगाध तन्मयता से अल्प समय में जैनागमों के ज्ञान एवं शास्त्रों में निपुण हो गए । बुद्धि विलक्षणता देखकर श्री हेमविजयजी के सानिध्य में उदयपुर शहर में बड़ी दीक्षा के साथ पन्यास ( महापण्डित ) पद से श्री रत्नविजयजी को अलंकृत किया गया। गुरुदेव का आदेश पाकर श्री रत्नविजयजी मेथी पूज्यनी धरणेन्द्रसूरी सहित सोनह यतियों को निःस्वार्थ भाव से शिक्षित किया। आपको " दफतरी" पद से विभूषित किया गया।
एक घटना ऐसी घटी जिसने रत्नविजयजी की जीवन दिशा ही बदल दी। श्री पूज्यजी धरणसूरी ने पचास यतियों सहित घाणेराव में चातुर्मास किया। श्री पूज्यजी को पद से दम्भ तथा रत्नविजयजी की फैल रही कीर्ति से ईर्ष्या हो रही थी। साथ ही तप जप को परे रखकर यतिराज श्री धरणेन्द्रसूरी शिथिलाचार को बढ़ावा दे रहे थे । महापर्व पर्युषण को धरणेन्द्रसूरीजी ने भेंट प्राप्त इत्र को पहचान हेतु श्री रत्नविजयजी से सुझाव चाहा, तब रत्नविजयजी ने कहा, यतियों को कृत्रिम व अस्थाई सुगन्धवाले इत्र से क्या काम ? हमें तो ज्ञान की सुगन्ध लेना है । मुझे तो इस इत्र एवं गधे की पेशाब में कोई अन्तर नहीं मालूम होता । इस प्रकार उत्तर सुन श्री पूज्यजी अत्यन्त क्रोधित हुए । विवाद को बढ़ता जानकर श्री रत्नविजयजी ने अपने
राजेन्द्र ज्योति
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org