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प्रभु महावीर की वाणी से प्रभावित हो अनेक नारियों ने साधना का मार्ग अपनाया। यही कारण था कि उनके धर्म संघ में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक थी । चौदह हजार साधु थे, तो छत्तीस हजार साध्वियां, उनसठ हजार श्रावक थे तो तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएँ ।
महावीर की दृष्टि में नारी की मातृत्व शक्ति का बड़ा सम्मान था । उन्होंने माता त्रिशला के अपार वात्सल्य भाव को गर्भ काल में ही अनुभव कर लिया था। इसी कारण वे बैरागी बनकर चुपचाप घर छोड़ कर नहीं गये । अठ्ठाइस वर्ष की उम्र में दीक्षा लेने की उन्होंने बड़े भाई नंदीवर्द्धन से अनुमति मांगी । जब भाई ने अनुमति नहीं दी तो वे भाई, पत्नी, बहन, अबोध पुत्री की मक भावनाओं का आदर कर, दो वर्ष तक और गहस्थ जीवन में रहे । ___ भगवान महावीर ने अपने समय में , स्वातंत्र्य की दिशा में नारी को पुरुष के बराबर आत्म कल्याण के अधिकार देकर बहुत क्रांति की थी। पर बड़े दुखः की बात है कि नारी मुक्ति की दिशा में महावीर का किया गया प्रयत्न आगे चलकर फिर धूमिल पड़ गया । मध्य युग तक आते आते नारी बाल विवाह, पर्दा प्रथा, अंधविश्वास, दासत्व, निरक्षरता, जैसी कुरीतियों में फिर कैद हो गई और उसका व्यक्तित्व दब गया।
१८ वी १९ वीं शती में नारी सुधार की दिशा में फिर अनेक आंदोलन गतिशील हुए। फलस्वरूप भारतीय संविधान में नारी और पुरुष के अधिकारों में किसी प्रकार का भेद नहीं रहा। उसे वयस्क मताधिकार दिया गया जो विश्व इतिहास में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । बौद्धिक दृष्टि से भारतीय नारी पुरुष की अपेक्षा किसी भी तरह कम नहीं रही। हमारे देश में महिलाएं प्रधानमंत्री, राजदूत, राज्यपाल रह चुकी हैं। वे मंत्री, संसद सदस्या, इंजीनियर, पायलेट, छाताधारी सैनिक, सभी कुछ हैं। रोजगार के सभी क्षेत्र उनके लिये खुले हैं । भारतीय नारी परिश्रम से जी चराने वाली भी नहीं है। प्रतियोगी परीक्षाओं में वे पुरुषों से भी आगे बढ़ रही हैं। इतना होने पर भी आज जब हम अपने पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो हमें चारों ओर अशांति, अनैकिता,भ्रष्टाचार,रिश्वत खोरी, भाई-भतीजावाद के दर्शन होते हैं। आज के मानव का लक्ष्य येनकेन प्रकारेण धन कमाना ही बन गया है। धन की तृष्णा उसके मन में दिन-रात बढ़ती जा रही है । वह हजारपति है तो लखपति बनना चाहता है और लखपति है तो करोड़पति । व्यक्ति की ये बढती हुई इच्छाएं उसे अनैतिक कार्य करने की ओर प्रवृत्त करती हैं । उन्हीं के वशीभूत हो वह गरीबों का पेट काट कर अपना घर भरता है । देश में बढ़ती हुई जनसंख्या, मंहगाई, बेकारी, विलासप्रियता, फेशनप्रियता आदि ने व्यक्ति को पथ भ्रष्ट कर दिया है । आज मानव की दृष्टि भी विकारग्रस्त बन गई है । उसे गन्दे-अश्लील चित्र देखने में आनन्द आता है। आज व्यक्ति के विचार भी विकारग्रस्त बनते जा रहे हैं । वह स्वयं खाना, पीना और मौज
करना चाहता है। दूसरे को खाते पीते देख वह स्वयं उससे ईर्ष्या करता है। वृद्ध माता पिता की सेवा सुश्रूषा में उसे लज्जा की अनुभूति होती है। आज का व्यक्ति विनय को तिलांजलि दे, उच्छखल बनता जा रहा है।
इन सब दुष्कृतियों का परिणाम यह हो रहा है कि हमारे जीवन में घोर निराशाएं, कुण्ठाएं, व्याप्त हो गई हैं। बौद्धिक और आर्थिक जगत में हमने आशातीत प्रगति की है जिससे हमें काफी भौतिक सुख-सुविधाएं मिलने लगी हैं । पर हमारे विवेक. श्रद्धा और चरित्र का स्रोत सूख जाने से मानसिक शांति नष्ट हो गई है । मानसिक शांति ही सब सुखों का मूल है। दुनिया की समस्त भोग सामग्री व्यक्ति को उपलब्ध है पर यदि उसकी आत्मा को शांति नहीं तो वह विपुल सामग्री उसके लिये क्लेशकारी होगी। इसी मानसिक शांति को प्राप्त करने के लिये परिवार, समाज और राष्ट्र में व्याप्त सभी कुरीतियों को दूर करना होगा।
इन कुरीतियों को दूर करने में नारी ही विशेष पहल कर सकती है। वही परिवार और समाज की केन्द्र है। प्रकृति से उसका कार्य क्षेत्र बाहरी नहीं, भीतरी है। वही घर की आंतरिक समस्याओं को सुलझाती है। यदि उसको दृष्टि सम्यक् होगी तो वह कम आमदनी में घर खर्च चला लेगी। वह फेशन व विलास की सामग्री तथा अनैतिक तरीके से कमाये गये धन का स्वागत नहीं कर, भ्रष्टाचार की बाढ़ को रोकने का प्रयत्न करेगी। परिवार को उच्छं खल नहीं बनने देगी । पारिवारिक सदस्यों में विनय, क्षमा, प्रेमवृत्ति, जैसे गुणों का विकास करेगी। इन गुणों का विकाश वह भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह व परिमाण व्रत से कर सकती है ।
यहाँ संक्षेप में उनका परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है - १. अहिंसा
नारी को अहिंसा में पूरा विश्वास रखना चाहिये । अहिंसा शब्द का अर्थ है किसी की हिंसा नहीं करना, किसी को नहीं मारना। हिंसा का मुख्य कारण प्रमाद है ये प्रमाद पाँच प्रकार के होते हैं- १.इंद्रियों की विषयासक्ति, २.क्रोध, मान माया आदि मनोवेग ३. आलस्य व असावधानी, ४. निन्दा, ५. मोह-राग-द्वेष आदि । ये पाँचों प्रमाद हृदय को विकृत बनाते हैं जिससे अमैत्री और कलह की वृद्धि होती है। इसलिये नारी को सदैव इन प्रमादों से दूर रहना चाहिये उसे सोचना चाहिये - सभी जीव जीना चाहते है, मरना कोई नहीं । जैसा व्यवहार मुझे अपने लिये पसन्द नहीं है, वैसा व्यवहार मुझे दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिये ।
क्रोध में आकर बिना कारण बच्चों को मारना-पीटना, दंड देना, गाली देना, उनके प्राणों को कष्ट पहुंचाना भी हिसा है । अपने को दूसरों से बड़ा मान कर घमण्ड करना, किसी का अपमान करना, किसी के गुप्त रहस्य को प्रकट करना, कपट पूर्वक व्यवहार करना, विषय भोग की वस्तुओं का संग्रह करना, आमोद-प्रमोद और स्वाद के वशीभूत होकर शराब, मांस आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करना या सेवन करने वाले की सराहना करना भी हिंसा है।
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राजेन्द्र-ज्योति
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