Book Title: Prachin Jainpad Shatak
Author(s): Jinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ice THATOS A प्राचीन जैनपद शतक 1००००००००0008 ०००००० प्रकाशक:-दुलीचंद परवार जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, १६१।१, हरीसन रोड, कलकत्ता । - GGrape - -000 पांच आना - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहदूविमल पुराण । यह अन्य अप्राप्य था इसको संस्कृतमे प्राप्त कर उसको सरल भाषाटोका श्रीमान माननीय प० गजाधरलालजी, न्यायतीथसे लिखाकर पाया गया है। द्वितीय वृत्तिका मूल्य ६) मात्र । शांतिनाथ पुराण । यह अन्य भी सस्कृतमें था, इससे हिन्दी भाषा वाले स्वाध्यायसे चितवं ही रह जाते थे, अतएव इसका सरल भाषा, प, लालारामजी शास्त्री द्वारा अनुवाद कराया गया है। शास्त्राकार छाया है। मूल्य ६ रुपया । आदिपुराण। इस बड़े भारी प्रन्थको सार रूपमें सरल भाषा बचनिकामें पं० बुद्धि- । लाल श्रावकसे लिखवाया गया है। सिर्फ शृद्धार भाग छोड़कर बाकी प्रत्येक विषयको ग्रन्थमें लानेका प्रयत्न किया है, यही कारण है कि थोड़े ही समयमें मन्थको द्वितियावृत्ति करानी पड़ी । शास्त्राकार, मूल्य ६ रुपया। मल्लिनाथ पुराण ।. प० गजाधरलालजी शास्त्रीने संस्कृतसे हिन्दीमें इसको भाषाटोका की। है। गन्धको हिन्दी जाननेवालोंके लिये ही छराया है। जैन समाजने इसको. थोड़े ही समयमें मगाकर खतम कर दिया है। यह द्वितीय वृत्ति है ।। न्योछावर ४) रुपया मात्र। पुत्याश्रव कथा कोष । इम ग्रन्थका मिलना १५ वर्षसे रन्द हो गया था उसीको सचित्र ४० चित्र देकर छपाया है, इसकी कथायें कितनी सुन्दर गौर शिक्षाप्रद हैं, यह हमारे धर्मात्मा पाठक स्वाध्याय करके ही अनुभव प्राप्त कर , सके है। भाषा वर्तमान दगको सरल और सुहावरेदार है। फिर भी इस ४०० अपने ग्रन्थको न्योछावर २॥) मात्र है। चित्र देकर जा मिलना १५ वर्ष कथा कोष। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास 1 १ प्रभाती । प्रात भयो सव भविजन मिलिकै, जिनवर पूजन आवो ॥ प्रात० ॥ टेक ॥ अशुभ मिटावो पुन्य बढ़ावो, नैननि नींद गमावो ॥ प्रात० ॥ १ ॥ तनको धोय धारि उजरे पट, सुभग जलादिक ल्यावो । वीतरागछवि हरखि निरखिर्के, आगमोक्त गुन गावो || प्रा० ||२|| शास्तर सुनो भनो जिनचानी, तप संजम उपजावो । धरि सरधान देव गुरु आगम, सात तत्त्व रुचि लावो ॥ प्रात० ॥ ३॥ दुःखित जनकी दया ल्याय उर, दान चार विधि द्यावो । राग दोष तजि भजि जिन पदको बुधजन शिवपद पावो ॥ प्रा० ॥ ४ ॥ २ प्रभाती किंकर अरज करत जिन साहिब, मेरी ओर निहारो ॥ किंकर || टेक ॥ पतितउधारक दीनदयानिधि, सुन्यौ तोहि उपगारो । मेरे औगुनपै मति Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) __ जावो, अपनो सुजस विचारो ॥ किं० ॥१॥ अब ज्ञानी दीसत हैं तिनमैं, पक्षपात उरझारो । नाहीं मिलत महाव्रतधारी, कैसैं है निरवारो ॥ किं०॥२॥ छबी रावरी नैननि निरखी, आगम सुन्यौ तिहारो। जात नहीं भ्रम क्यों अब मेरो या दूषनको टारो ॥ किं० ॥ ३ ॥ कोटि बातकी बात कहत हूं, यो ही मतलव म्हारो। जौलौं भव तौलौं बुधजनको, दीज्ये सरन सहारो ॥ किं० ॥ ४ ॥ ३ तिताला। पतितउधारक पतित रटत है, सुनिये अरज हमारी हो । पतित० ॥ टेक ॥ तुमसो देव न आन जगतमें, जासौं करिये पुकारी हो ।प० ॥१॥ साथ अविद्या लगि अनादिकी, रागदोष विस्तारी हो । याहीतै सन्ति करमनिकी, जनममरनदुखकारी हो ॥ ५० ॥२॥ मिलै जगत जन जो भरमावै, कहै हेत संसारी हो । तुम विनकारन शिवमगदायक, निजसुभावदातारी हो ॥ ५० ॥३।। तुम जाने विन काल अनन्ता, गति गतिके भवधारी हो। अब सनमुख बुधजन जांचत है, भवदधि पार उतारी हो ॥ पतित० ॥ ४ ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) ४ तिताला । और ठौर क्यों हेरत प्यारा, तेरे हि घटमें जाननहारा || और० ॥ टेक ॥ चलन हलन थल वास एकता, जात्यान्तरतैं न्यारा न्यारा ॥ और० ॥ १॥ मोहउदय रागी द्वेषी, क्रोधादिकका सरजनहारा । भ्रमत फिरत चारौं गति भीतर, जनम मरन भोगत दुख भारा || और० ॥ २ ॥ गुरु उपदेश लखै पद आपा, तबहिं विभाव करें परिहारा । है एकाकी बुधजन निश्चल, पावै शिवपुर सुखद अपारा ॥ औ० ॥ ५ तिताला । काल अचानक ही ले जायगा, गाफिल होकर रहना क्या रे || काल० ॥ टेक ॥ छिन हूं तोकू नाहिं बचावैं तौ सुभटनका रखना क्यारे । काल० | ॥१॥ रंच सवाद करिनके कार्जे, नरकमैं दुख भरना क्या रे । कुलजन पथिकनिके हितकाजैं, जगत जालमें परना क्या रे । काल० ॥२॥ इन्द्रादिक कोउ नाहिं बचैया, और लोकका शरना क्या रे । निश्चय हुआ जगत में मरना, कष्ट परै तब डरना क्या रे || काल० || ३ || अपना ध्यान करत खिर जावैं, तौ करमनिका हरना क्या रे । अब Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हित करि आरत तजि बुधजन, जन्म जन्ममें जरना क्या रे ॥ काल० ॥ ४॥ ६ भजन । म्हे तो छापर वारी, वारी वीतरागीजी, शांत छबी थांकी आनंदकारी जी ॥ म्हे० ॥ टेक ॥ इंद्र नरिंद्र फरिंद मिलि सेवत, मुनि सेवत रिधिधारी जी ॥ म्हे० ॥ १॥ लखि अविकारी परउपकारी, लोकालोकनिहारी जी ॥म्हे ०॥२॥ सब त्यागी जो कृपातिहारी, बुधजन ले बलिहारी जी ॥म्हे०॥३॥ ७ भजन। या नित चितवो उठिकै भोर, मैं हूं कौन कहांत आयो, कौन हमारी ठौर ॥ या नित०॥टेक॥ दीसत कौन कौन यह चितवत, कौन करत है शोर । ईश्वर कौन कौन है सेवक, कौन करे झकझोर ॥ या नित०॥ १॥ उपजत कौन मरैको भाई, कौन डरे लखि घोर । गया नाहीं आवत कछु नाहीं, परिपूरन सब ओर ॥ या नित०॥ २ ॥ और _ और मैं और रूप हौं,परनतिकरि लइ और । स्वांग धरै डोलौ याहीतै, तेरी बुधजन भोर ॥ या०॥ ८ भजन । श्रीजिनपूजनको हम आये, पूजत ही दुख Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंद मिटाये ॥ श्रीजिन० ॥ टेक ॥ विकलप गयो प्रगट भयो धीरज अदभुत सुख समता बरसाये । आधि व्याधि अब दीखत नाहीं, धरम कलपतरु आँगन थाये ॥ श्रीजिन० ॥१॥ इतमै इन्द्र चक्रचति इतमैं, इतमैं फनिद खरे सिर नाये । मुनिजनबंद करै थुति हरषत, धनि हम जनमैं पद परसाये ॥ श्रीजिन० ॥ २॥ परमौदारिकमैं परमातम, ज्ञानमई हमको दरसाये । ऐसे ही हममें हम जानें, बुधजन गुन मुख जात न गाये ॥श्री० ३॥ राग-ललित एकताली। बधाई राजै हो आज राजै, बधाई राजै, नाभिरायके द्वार। इन्द्र सची सुर सब मिलि आये, सजि ल्याये गजराजै ॥ बधाई० ॥ ॥ जन्मसदनतें सची ऋषभ ले, सोंपिदये सुरराजै ॥ बधाई० ॥ २॥ आठ सहस सिर कलस जु ढारे, पुनि सिंगार समाजै । ल्याय धखौ मरुदेवी करमैं हरि नाच्यो सुख साजै ॥ बधाई ॥३॥ लच्छन व्यंजन सहित सुभग तन, कंचनदुति रवि लाजै । या छबि बुधजनके उर निशि दिन, तीनज्ञानजुत राजै ॥ बधाई०॥४॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) १० राग-ललित तितालो । हो जिनवानी जू, तुम मोकौं तारोगी ॥ हो० ॥ टेक ॥ आदि अनन्त अविरुद्ध वचनतै, संशय भ्रम निरवारोगी || हो० ॥ १ ॥ ज्यों प्रतिपालत गाय बत्सकौं, त्यों ही मुझको पारोगी । सनमुख काल बाघ जब आवै, तब तत्काल उवारोगी ॥ हो० ॥ २ ॥ बुधजन दास वीनवै माता, या विनती उर धारोगी । उलभि रह्यौ हूं मोहजाल में, ताक तुम सुरभावोगी हो० ॥ ३ ॥ ११ राग - विलावल कनड़ी । मनकेँ, हरष अपार -- चितकै हरष अपार वानी सुनि ॥ टेक ॥ ज्यौ तिरषातुर अम्रत पीवत, चातक अंबुद धार ॥ वानी सुनि० ॥ १ ॥ मिथ्या तिमिर गयो ततखिन हो, संशयभरम निवार । तत्त्वारथ अपने उर दरस्यौ, जानि लियो निज सार ॥ वानी सुनि० ॥ २ ॥ इन्द नरिंद फरिंद पदीधर, दीसत रंक लगार । ऐसा आनंद बुधजन उर, उपज्यौ अपरंपार ॥ वानी सुनि० ॥ ३ ॥ के १२ राग- अलहिया चन्दजिनेसुर नाथ हमारा; महासेनसुत लागत Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) पियारा ॥चन्द०॥ टेक ॥ सुरपति नरपति फनिपति सेवत, मानि महा उत्तम उपगारा । मुनिजन ध्यान धरत उरमाहीं, चिदानंद पदवीका धारा । चन्द। ॥१॥ चरन शरन बुधजन जे आये, तिन पाया अपना पद सारा। मंगलकारी भवदुखहारी,स्वामी अद्भुत उपमावारा ॥ चन्द.॥ । १३ राग-अलहिया बिलावल-ताल धीमा तेताला। ___ करम देत दुख जोर, हो साइयां ॥ करम० ॥ टेक ॥ कैइ परावृत पूरन कीने, संग न छाँड़त मोर, हो साइयां ॥ करम० ॥ १॥ इनके वशतें मोहि बचावो, महिमा सुनि अति तोर हो साइयां ॥ करम० ॥ २॥ बुधजनकी बिनती तुमहीसौं, तुमसा प्रभु नहिं और हो साइयां ॥ करम० ॥३॥ १४ राग-सारंग। तन देखा अथिर घिनावना ॥ तन०॥ टेक॥ बाहर चाम चमक दिखलावै, माहीं मैल अपावना। बालक ज्वान बुढ़ापा:मरना, रोगशोक उपजावना ॥ तन०॥ १॥ अलख अमूरति नित्य निरंजन, एकरूप निज जानना । वरन फरस रस गंध न जाकै, पुन्य पाप विन मानना ॥ तन० ॥२॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) करि विवेक उर धारि परीक्षा, भेद-विज्ञान विचारना । बुधजन तनतें ममत मेटना, चिदानंद पद धारना ॥ तन० ॥३॥ १५ रोग-सारंग लूहरी । तेरो करि लै काज बखत फिरना ॥ तेरो० ॥ टेक ॥ नरभव तेरे वश चालत है, फिर परभव परवश परना । तेरो० ॥१॥ आन अचानक कंठ दबैंगे, तब तोकौं नाही शरना। यातें विलायन न ल्याय बाबरे, अब ही कर जो करना तेरो० ॥२॥ सब जीवनकी दया धार उर दान सुपात्रनि कर धरना जिनवर पूजि शास्त्र सुनि नित प्रति, बुधजन संवर आचरना ॥ तेरो० ॥३॥ १६ राग-लूहरी मीणांकी चालमें । अहो ! देखो केवलज्ञानी, ज्ञानी छवि भली __ या विराजै हो-मली या विराजै हो ॥ अहो । टेक ॥ सुर नर मुनि याकी सेव करत हैं, करम हरनके काजै हो ॥ अहो ॥ १॥ परिग्रहरहित प्रातिहारजुत, जगनायकता छाजै हो। दोष विना गुन सकल सुधारस, दिविधुनि सुखनै गाजै हो । अहो देखो ॥२॥ चितमैं चितवत ही छिनमाही, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) जन्म जन्म अघ भाजै हो। बुधजन याकौं कबहुं न बिसरो, अपने हितके काजै हो ॥ अहो० ॥३॥ ___ १७ राग-सारंग लहरि। __श्रीजी तारनहारा थे तो, मोनैं प्यारा लागो आज ॥ श्री ।। टेक ॥ बार सभा बिच गन्धकुटीमें आज रहे महाराज श्री ॥१॥ अनन्त कालका धरम मिटत है, सुनतहिं आप अवाज ॥ श्री. ॥ २॥ बुधजन दास रावरो विनवै, थांतूं सुधरै काज ॥ श्री० ॥ ३ ॥ १८- राग-पूरबी एकताला। तनके मवासी हो, अयाना ।। तनके० ॥ टेक चहुंगति फिरत अनन्तकालतें, अपने सदनकी सुधि भौराना ॥ तनके० ॥ १॥ तन जड़ फरस गन्ध रसरूपी, तू तो दरसनज्ञान निधाना, तनसौं ममत मिथ्यात मेटिक, बुधजन अपने शिवपुर जाना ॥ तनके० ॥ ॥ ५६ राग-पूरवी एकतालो। नैन शान्त छवि देखि छके दोऊ ॥ नैन टेक ॥ अब अद्भुत दुति नहिं विसराऊ, बुरा भला जग कोटि कहो कोऊ ॥ नैन ॥ १॥ बड़ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ) । भागन यह अवसर पाया, सुनियो जी, अब अरज मेरी कहूं । भवभवमें तुमरे चरननको, बुधजन दास सदा हि बन्यौ रहूं || नैन° ॥ २ ॥ २० राग- पूरवी जल्द तितालो । हरना जी जिनराज, मोरी पीर ॥ हरना ॥ टेक ॥ आन देव सेये जगवासी, सखौ नहीं मोर काज ॥ हरना ॥ १ ॥ जगमें वसत अनेक सहज ही, प्रनवत विविध समाज । तिनपे इष्ट अनिष्ट कल्पना, मैटोगे महाराज | हरना || २ || पुद्गल राचि अपनपौ भूल्यौ, विरधा करत इलाज | अबहिं जथाविधि वेगि वतावो, वुधजनके सिरताज ॥ हरना ॥ ३ ॥ २१ रोग - पूरवी । भजन विन यौं ही जनम गमायो । भजन ॥ टेक || पानी पैल्यां पाल न वांधी, फिर पीछें पछतायो ॥ भज ॥ १ ॥ रामा-मोह भये दिन खोबत आशापाश बँधायो । जप तप संजम दान न दीनों, मानुष जनम हरायो ॥ भजन ॥ २ ॥ देह सीस जब कापन लागी ; दसन चला वल धायो । लागी आगि भुजावन कारन, चाहत आप Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) खुजायो || भजन || ३ || काल अनादि भ्रमायो भ्रमलां, कबहुं न थिर चित ल्यायो । हरी विषयसुख भरम भुलानो, मृग तिसना - वश धायो ॥ भजन ॥ ४ ॥ २२ राग-- पूरवी । ; तारो क्यौं न तारो जी म्हें तो थांके शरना आया ॥ टेक ॥ विधना मोकौं चहुँगति फेरत बड़े भाग तुम दरशन पाया ॥ तारो० ॥ १ ॥ मिथ्यामत जल मोह मकरजुत, भरम भौर में गोता खाया । तुम मुख वचन अलंवन पाया, अब बुधजन उरमें हरषाया ॥ तारो० ॥ २ ॥ २३ भवदधि-तारक नवका, जगमाहीं जिनवान ॥ भव० ॥ टेक ॥ नय प्रमान पतवारी जाके, खेवट आतम ध्यान ॥ भव ॥ १ ॥ मन वच तन सुध जन भवि धारत, ते पहुंचत शिवथान । परत अथाह मिथ्यात भँवर ते, जे नहिं गहत अजान ॥ भव ||२|| बिन अक्षर जिनमुखतै निकसी परी वरनजुत कान | हितदायक बुधजनकों गनधर, गूंथे ग्रन्थ महान ॥ भव० ॥ ३ ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) २४ राग-- धनासरी धीमो तितालो । प्रभु, थांसू अरज हमारी हो || प्रभु || टेक मेरे हितू न कोऊ जगत मैं, तुम ही हो हितकारी हो ॥ प्रभु ॥१॥ संग लग्यौ मोहि नेक न छोड़े, देत महा दुख भारी । भववनमाहिं नचावत मोकौं तुम जानत हौ सारी || प्रभु ||२|| थांकी महिमा अगम अगोचर, कहि न सकै बुधि म्हारी । हाथ जोरकै पाय परत हूं, आवागमन निवारी हो । प्रभु० ॥ ३ ॥ २५ याद प्यारी हो, म्हानें थाँकी याद प्यारी | हो म्हाने || टेक ॥ मात तात अपने स्वारथके, तुम हितु परउपगारी ॥ हो म्हानें ॥ १ ॥ नगन छबी सुन्दरता जाएँ, कोटि काम दुति वारी । जन्म जन्म अवलोकौं निशिदिन, बुधजन जा वलिहारी ॥ हो म्हनें ॥ २ ॥ २६ राग गौड़ी ताल । अरे हाँ रे तैं तो सुधरी बहुत विगारी ॥ अरे ॥ टेक ॥ ये गति मुक्ति महलकी पौरी, पाय रहत क्यौं पिछारी ॥ अरे || १ || परकौं जानि मानि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) अपनो पद, तजि ममता दुखकारी । श्रावक कुल भवदधि तट आयो, बड़त क्योंरे अनारी ॥ अरे ॥ २ ॥ अबहूं चेत गयो कछु नाहीं, राखि आपनी वारी । शक्तिसमान त्याग तप करिये, तब बुधजन सिरदारी || अरे ॥ ३ ॥ २७ राग - काफी कनड़ी । मैं देखा आतमरामा ॥ मैं ॥ टेक ॥ रूप फरस रस गन्ध न्यारा, दरस-ज्ञान-गुनधामा । नित्य निरंजन जाऊँ नाहीं, क्रोध लोभ मद कामा । मैं ॥ १ ॥ भूख प्यास सुख दुख नहिं जाऊँ, नाहीं वन पुर गामा । नहिं साहिब नहिं चाकर भाई, नहीं तात नहिं मामा || मैं ||२|| भूलि अनादिथकी जग भटकत, लै पुद्गलका जामा । बुधजन संगति जिनगुरुकी, मैं पाया मुझ ठामा | मैं ॥३॥ २८ राग - काफी कनड़ी - ताल पसतो | my अब अघ करत लजाय रे भाई || अब ॥ टेक श्रावक घर उत्तम कुल आयो, भेंटे श्रीजिनराय ॥ अब || १|| धन वनिता आभूषन परिगह, त्याग करौ दुखदाय । जो अपना तू तजि न सकै पर, सैया नरक न जाय || अब ॥ २ ॥ विषयकाज क्यौं ज Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) नम गुमावै, नरभव कब मिलि जाय । हस्ती चढ़ि जो ईधन ढोवे, बुधजन कौन बसाय । अब ॥३॥ २६ राग-काफी कनड़ी। तोकौं सुख नहिं होगा लोभीड़ा ! क्यों भूल्या रे परभावनमैं ॥ तोकौं० ॥ टेक ॥ किसी भाँति कहुंका धन आवै, डोलत है इन दावनमैं ॥ तोकौं ॥१॥ व्याह करूँ सुत जस जग गावै, लग्यौ रहै या भावनमैं ॥ तोकों ॥२॥ दरब परिनमत अपनी गौतें, तू क्यो रहित उपायनमैं ॥ तोकौं ॥३॥ सुख तो है सन्तोष करनमैं, नाहीं चाह बढ़ावनमैं ॥ तोकौं ॥४॥ के सुख है बुधजनको संगति, के सुख शिवपद पावनमैं ॥ तोकौं ॥ ५ ॥ ३० राग-कनड़ी। · निरखे नाभिकुमारजी, मेरे नैन सफल भये। निर ॥ टेक ॥ नये नये वर मंगल आये, पाई निज रिधि सार ॥ निरखे ॥ १॥ रूप निहारन कारन हरिने, कीनी आंख हजार । वैरागी मुनिवर हू लखिकै, ल्यावत हरष अपार ॥ निरखे ॥ २ ॥ भरम गयो तत्वारथ पायो, आवत ही दरबार । बुधजन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) रचन शरन गहि जांचत, नहिं जाऊं परद्वार ॥ निरखे ॥३॥ ३१ राग-बिलावल धीमो तेतालो । नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐसा काज न करना हो ॥ नरभव ॥ टेक ॥ नाहक ममत ठानि पुद्गगलसौं, करमजाल क्यौ परना हो ॥ नरभव ॥१॥ यह तो जड़ तू ज्ञान अरूपी, तिल तुष ज्यौं गुरु वरना हो । राग दोष तजि भजि समताको, कर्म साथके हरना हो ॥ नरभव ॥२॥ यो भव पाय विषय-सुख सेना, गज चढ़ि ईधन ढोना हो । बुधजन समुझि सेय जिनवर पद, ज्यौ भवसागर तरना हो ॥ नरभव ॥३॥ ३२ राग-बिलावल इकतालो। सारद ! तुम परसादतें, आनन्द उर आया ॥ सारद ॥ टेक ॥ ज्यौ तिरसातुर जीवकों, अम्रत जल पाया ॥ सारद ॥१॥ नय परमान निखेपतै तत्वार्थ वताया। भाजी भूलि मिथ्यातकी, निज निधि दरसाया ॥ सारद ॥२॥ विधिना मोहि अनादितै, चहुंगति भरमाया । ता हरिबैकी विधि सबै मुझमाहिं बताया ॥ सारद ॥३॥ गुन अनन्त मति Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलपतै, मोपै जात न गाया । प्रचुर कृपा लखि रावरी, बुधजन हरषाया ॥ सारद ।। ४ ॥ गुरु दयाल तेरा दुख लखिकैं, सुन लै जो फुरसाचै है ॥ गुरु° ॥ तोमैं तेरा जतन बतावै, लोभ कळू नहिं चावै है ॥ गुरु ॥१॥ पर सुभावको मोखा __ चाहै, अपना उसा बनावै है । सो तो कबहूं हुवा न होसी, नाहक रोग लगावै है ॥ गुरु ॥ खोटी खरी जस करी कमाई, तैसी तेरै आवै है । चिन्ता आगि उठाय हियामैं, नाहक जान जलावै है । गुरु ॥३॥ पर अपनावै सो दुख पावै, बुधजन ऐसे गावै है । परको त्यागि आप थिर तिष्ठ, सो अविचल सुख पावै है ।। गु० ४ ॥ ३४ राग-असावरी। अरज ह्मारी भानो जी, याही मारी मानो, भवदधि हो तारना मारा जी ॥अरज०॥टेक॥ पतितउधारक पतित पुकारे, अपनो विरद पिछानो ॥ अरज ॥१॥ मोह मगर मछ दुख दावानल, जनम मरन जल जानो । गति गति भ्रमन भँवरमैं डूबत, हाथ पकरि ऊंचो आनो अरज ।।२।। जगमैं आन Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) देव बहु हेरे, मेरा दुख नहिं भानो। बुधजनकी करुना ल्यो साहिब, दीजै अविचल थानो ॥अरज॥ (३५) राग-असावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। तू काई चालै लाग्यो रे लोभीड़ा, आयो छै बुढ़ापो ॥तू॥टेका धंधामाही अंधा ह कै, क्यों खोवै छै आपो रे ॥तू॥१॥ हिमतघटी थारी लुमति मिटी छै, भाजि गयो तरुणापो । जम ले जासो सब रह जासी, संग जासी पुन पापो रे ॥॥२॥ जग स्वारथको कोइ न तेरो, यह निहचै उर थापो । बुधजन ममत मिटावौ सन , करि सुख श्रीजिनजापो रे ॥ (३६) राग-असावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। थे ही मोने तारो जी, प्रभुजी कोई न हमारो थेही।टेका। हूं एकाकि अनादि काल , दुख पावत हू भारो जी॥थे ही ॥१॥ बिन सतलबके तुम ही स्वामी, मतलबको संसारो । जग जन मिलि मोहि जगमैं राई, तू ही काढनहारो॥थे ही॥२॥ बुधजन के अपराध मिटावो, शरन गह्यो छै थारो । भवदधिमाहीं डूबत मोकौं, कर गहि आप निकारो ॥३॥ (३७ ) राग-असावरी मांझ, ताल धोमो एकतालो। प्रभू जी अरज ह्मारी उर धरो ॥प्रभू जी टेका। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) प्रभू जी नरक निगोद्यांमैं रुल्यो, पायौ दुःख अपार || प्रभूजी || १|| प्रभू जी, हूं पशुगतिमैं ऊपज्यौ, पीठ सह्यौ अतिभार ॥प्रभू जी ॥ २॥ प्रभू जी, विषय मगनमै सुर भयो, जात न जान्यौ काल || प्रभूजी ॥ ३ ॥ प्रभूजी नरभव कुल श्रावक लह्यौ, आयो तुम दरवार || प्रभू जी ४ ॥ प्रभू जी, भव भरसन बुधजनोंजी, मेटौ करि उपगार || प्रभू जी ॥ ५ ॥ ३८ राग आसावरी । जगतमें होनहार सो होवें, सुर नृप नहिं मिठावै ॥ जगत० ॥ टेक ॥ आदिनाथसेकौं भोजन मै अन्तराय उपजावै । पारसप्रभुकौं ध्यान लीन लखि कमठ मेघ वरसावै ॥ जगत० ||१|| लखमणसे संग भ्राता जाकै, सीता राम गमावै ॥ जगत० ॥ २॥ जैसो कमावै तेसो ही पावै, यो बुधजन समझावै । आप आपको आप कमावौ, क्यौं परद्रव्य कमावै ॥ जगत ||३|| C Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागचन्द पद संग्रह । _COOOOOO उग्रसेन गृह व्याहन आये, समदविजयके लाला ये॥ उग्रसेन० ॥ टेक ॥ अशरन पशु आक्रन्दन लखिके, करुना भाव उपाये । जगत विभूति भूति सम तजिके, अधिक विराग बढ़ाये ॥ उग्रसेन०॥१॥ मुद्रा नगन धरी तन्द्रा विन, आत्म ब्रह्मरुचि लाये। उर्जयन्तिगिरि शिखरोपरि शुचि थानकमें थाये ॥ उग्रसेन ॥२॥ पंचमुष्ठि चढ़ि, कच लुच मुञ्च रज, सिद्धनको शिर नाये । धवल ध्यान पावद पावक ज्वालात, करम कलंक जलाये ॥ उग्र ॥३॥ वस्तु समस्त हस्तरेखाबत, जुगपत ही दरसाये । निरवशेष विध्वस्त कर्मकर, शिवपुरकाज सिधाये ॥ उग्रसेन ॥४॥ अव्यावाध अगाध बोधमयतत्रानन्द सुहाये । जगभूषन दूषनवित स्वामी, भागचन्द गुन गाये ॥ उग्रसेन ॥॥ ४० सांची तो गंगा यह वीतरागवानी, अविच्छन्न Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) धारा निज धर्मकी कहानी ।। सांची० ॥ टेक ॥जामें अति ही विमल अगाध ज्ञान पानी, जहां नहीं संभयादि पंककी निशानो ॥ सांची ॥१॥ सप्तभंग जहँ तरंग उछलत सुखदानी, संतचित्त भरावृन्द रमैं नित्य ज्ञानी ।। सांचो ॥२॥ जाके अवगाहनतें शुद्ध होय प्रानी, भागचन्द्र निह घटमाहिं या प्रमानी। सांची० ॥३॥ ४१ राग-प्रभाती। ___ प्रभु तुम सूरत दृगसों निरखै हरखै मोरो जीयरा ॥ प्रभु तुम० । टेक ॥ सुजत कषायानल पुनि उपजे, ज्ञानसुधारस सीयरा ॥ प्रभु तुम ॥१॥ वीतरागता प्रगट होत है, शिवथल दीसै नीयरा ॥ प्रभु तुम ॥२॥ भागचन्द तुम चरन कमलमें, वसत सन्तजन हीयरा ॥ प्रभु ॥३॥ ४२ राग-प्रभाती। अरे हो जियरा धर्ममें चित्त लगाय रे ॥ अरे हो० ॥टेका विषय विषसम जान भौ वृथा क्यों तूलुभाय रे । अरे हो॥१॥ संग भार विषाद तोकौं, करत क्या नहिं भाय रे । रोग-उरग-निवास वामी कहा नहिं यह काय रे ॥ अरे हो ॥२॥ काल हरिकी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) गर्जना क्या, तोहि सुनि न पराय रे, आपदा भर 'नित्य तोकौं,कहा नहीं दुःख दायरे ॥ अरे हो ॥३॥ यदि तोहि कहा नहीं दुख, नरकके असहाय रे । नदी वेतरनी जहां जिय परे अति बिललाय रे ॥ अरे हो ॥४॥ धनादिक घनपटल सम, छिनकमांहिं बिलाय रे। भागचन्द सुजान इमिजदु कुल-तिलक गुन गाय रे ॥५॥ ४३ राग-बिलाबल । सुमर सदा मन आतमराम, सुमर सदा मन आतमराम ॥ टेक ॥ स्वजन कुटुम्बी जन तू पोरी, तिनको होय सदैव गुलाम । सो तो हैं स्वारथके साथी, अन्तकाल नहिं आवत काम || सुमर सदा ॥१॥ जिमि मरीचिकामें मृग भटके, परत सो जव ग्रीषम अति घाम । तैसे तू अवमाहीं भटके धरत न इक छिनहू विसराम ॥ सुमर ॥२॥ करत न ग्लानी अब भोगनमें, धरत न वीतराग परिनाम । फिर किमि नरकमाहिं दुख सहसी, जहां सुख ले शमें आठौं जाम ॥॥ तातै आकुलता अव तजिक, थिर ह ठो अपने धाम । भागचन्द वसि ज्ञान नगरमें, तजि रागादिक ठग सब ग्राम ॥सु० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) ४४ राग-सारङ्ग। श्रीमुनि राजत समता संग । कायोत्सर्ग समायत अंग ॥ टेक ॥ करतें नहिं कछु कारज तात आलम्बित भुज कीन अभंग । गमन काज कछु हूं नहिं ता, गति तजि छाके निज रसरंग ॥ श्रीमुनि० ॥१॥ लोचन लखिवौ कछु नाहीं, तातै नासा दृग अचलंग । सुनिवे जोग रह्यो कछु नाहीं, तातै प्राप्त इकंत सुचंग ॥ श्रीमुनि० ॥२॥ तहँ मध्यान्हमाहिं निज ऊपर, आयो उग्र प्रताप पतंग। कैधौं ज्ञान पवनवल प्रज्वलित, ध्यानानल सौं उछलि फुलिंग ॥ श्रीमुनि० ॥३॥ चित्त निराकुल अतुल उठत जहं, परमानन्द पियूषतरंग । भागचन्द ऐसे श्रीगुरुपद, बंदत मिलत स्वपद उत्तङ्ग ॥श्री०॥ ४५ राग-गौरी आतम अनुभव आचैं जब निज, आतम अनुभव आवै । और कछु न सहावै, जब निज० ॥टेक ॥रस नोरस हो जात ततच्छिन, अच्छ विषय नहीं भावै ॥ आतम० ॥१॥ गोष्टी कथा कुतूहल बिघदै, पुद्गलप्रीति नसावै ॥ आतम० ॥२॥ राग दोष जुग चपल पक्षजुत मन पक्षी मर जावै Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) आतम० ॥३॥ ज्ञानानन्द सुधारस उमगे, घट अंतर न समावै ॥ आतम || भागचन्द ऐसे अनुभवके हाथ जोरि सिर नाचे || आतम० ||४|| ४६ राग-ईमन | महिमा है अगम जिनागमकी ॥ टेक ॥ जाहि सुनत जड़ भिन्न पिछानी, हम चिन्मूरति आतमकी ॥ महिमा० ॥ १ ॥ रागादिक दुखकारन जानें, त्याग बुद्धि दोनी भ्रमकी । ज्ञान ज्योति जागी घट अन्तर, रुचि वाढ़ी पुनि शमदसकी || महिमा ||२|| कर्म बन्धकी भई निरजरा, कारण परंपराक्रमकी । भागचन्द शिवलालच लागो, पहुंच नहीं है जहां जमकी || महिमा० ॥३॥ ४७ ऐसे जैनी मुनिमहाराज, सदा उर मो बसौ अहं बुद्धि ॥ टेक ॥ तिन समस्त परद्रव्यनिमाहीं, तजि दीनी ॥ गुन अनन्त ज्ञानादिक मम पुनि, स्वानुभूति लखि लीनी ॥ ऐसे० ॥ १॥ जे निजबुद्विपूर्व रागादिक, सकल विभाव निवारैं । पुनि अबुद्धिपूर्वकनाशनको, अपने शक्ति सम्हारैं | ऐसे ० ॥ २ ॥ कर्म शुभाशुभ बन्ध उदयमें हर्ष विषाद न Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) राखें । सम्यगदर्शनज्ञान चरनतप, भावसुधारस चाखें । ऐसे ॥३॥ परकी इच्छा तजि निजवल सजि, पूरव कर्म खिरावै । सकल कर्म भिन्न अवस्था सुग्वमग लखि चित चावै ॥ ऐसे ॥४॥ उदासीन शुद्धोपयोगरत सबके दृष्टा ज्ञाता। वाहिजरूप नगन समताकर, भागचन्द सुखदाता ॥ऐसे ॥ ४८ राग-जंगला। __तुम गुनमनिनिधि हो अरहंत ॥ टेक ॥ पार न पावत तुमरो गनपति, चार ज्ञान धरि संत ॥ तुम गुन० ॥१॥ ज्ञानकोष सब दोष रहित तुम, अलख असूर्ति अचिंत ॥ ॥ तुम गुन ॥२॥ हरिगन अरचत तुम पवारिज, परमेष्ठी भगवन्त ॥ तुम गुन ॥३॥ भागचन्दके घटमन्दिरमें, वसहु सदा जयवंत ॥ तुम गुन ॥४॥ ४६ राग-जंगला। शान्ति वरन मुनिराई वर लखि । उत्तर गुनगन सहित (खूल गुन सुभग) बरात सुहाई ॥टेक॥ तप रथपै आरूढ़ अनूपम, धरम सुमंगलदाई ॥ शांति घरन ॥१॥ शिवरमनीको पानि ग्रहण करि, ज्ञानानन्द उपाई ॥ शांति वरन ॥ भागचन्द ऐसे Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) वनराको, हाथ जोर सिरनाई ॥ ३ ॥ ५० राग-जंगला। ____ म्हाकै जिनलूरति हृदय बसो बसी ॥ टेक ॥ यद्यपि करुना रसमय तद्यपि, मोह शत्रु हनि असी असी । म्हा० ॥१॥ भामण्डल ताको अति निर्मल, नि:कलंक जिमि ससी ससी ।। म्हा ॥ २ ॥ लखत होत अति शीतल मति जिमि, सुधा जलधिमें धसी धसी।। म्हा ॥३॥ भागचन्द जिस ध्यानमंत्रसों ममता नागिन नसी नसी ॥ म्हा० ॥४॥ ५१ राग-खमाच। ज्ञानी मुनि छै ऐसे स्वामी गुनरास ॥टेका। जिनके शैलनगर मन्दिर पुनि, गिरिकन्दर सुखवास।। ज्ञानी० ॥ १॥ निःकलंक परजंक शिला पुनि, दीप मृगांक उजास ॥ ज्ञान ॥२॥ मृग किंकर करुना व. निता पुनि, शील सलिल तप ग्रास ॥ ज्ञानी ॥३॥ भागचन्द ते हैं गुरु हमरे तिनहीके हम दास ज्ञा० ५२ राग खमाच। श्रीगुरु है उपगारी ऐसे बीतराग गुनधारी वे ॥ टेक ॥ स्वानुभूति रमनी संग क्रीड़े, ज्ञानसंपदा भारी वे ॥ श्रीगुरु ॥१॥ ध्यान पिंजरामें जिन रोको Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) चित खग चंचलचारी वे || श्री० ||२|| तिनके चरनसरोरुह ध्यावै, भागचन्द अघदारी वे ॥ ३ ॥ ५३ राग खमाच । सारौ दिन निरफल खोयवौ करै छै । नर भव लहिकर प्रानी विनज्ञान, सारौ दिन नि० ॥ टेक ॥ परसंपति लखि निज चितमाहीं, विरथा सूरख रोयव करै छ ॥ सारौ ॥१॥ कामानलौं जरत सदा ही, सुन्दर कोयब करें छै ॥ सारौ ॥२॥ जिनमत तीर्थस्नान नठाने, जलसौं पुद्गल धोयबा करै छ ॥ सारौ ||३|| भागचन्द इमि धर्म विना शठ मोहनींद में सोयी करै छै ॥ सारौ ||४|| ५४ राग सोरठ । स्वामी मोहि आपनो जानि तारौ, या विनती अब चित धारौ ॥ टेक ॥ जगत उजागर करुणा सागर, नागर नाम तिहारौ || स्वामी मोहि० ॥ १ ॥ भव अटवी में भटकत भटकत, अब मैं अति ही हारौ ॥ स्वामी मोहि ||२|| भागचन्द स्वच्छन्द ज्ञानमय सुख अनंत विस्तारौ ॥ स्वामी मोहि० ||३|| ५५ राग - सोरठ । आवै न भोगनमें तोहि गिलान ॥ टेक ॥ ती Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) रथनाथ भोग तजि दीनें, तिनतें मन भय आन । तू तिनतें कहुं डरपत नाहीं, दीसत अति बलवान ॥ आवै न० ॥ १ ॥ इन्द्रियतृप्ति काज तू भोगे, विषय महा अघखान । सो जैसे घृतधारा डारै पावकज्वाल बुझान || आवै न० || २ || जे सुख तौ तीछन दुखदाई, ज्यों मधुलिप्त-कृपान । तातैं भागचंद इनको तजि, आत्मस्वरूप पिछान || आवै न० ॥३॥ ५६ राग - मल्हार । मान न कीजिये हो परवीन ॥ टेक ॥ जाय पलाय चंचला कमला, तिष्ठे दो दिन तीन । धनजोवन छन भंगुर सब ही, होत सुछिन छिन छीन ॥ मान न० ||१|| भरत नरेन्द्र खण्ड-षट नायक, तेहु भये मद होन । तेरी बात कहा है भाई, तू तो सहज ही दीन ॥ मोन न० ||२|| भागचन्द मार्दव रसनागर, माहिं होहु लवलीन । तातैं जगत जालमें फिर कहुँ, जनम न होय - नवीन ॥ मान न० ॥३॥ ५७ राग मल्हार । अरे हो अज्ञानी तूने कठिन मनुषभव पायो टेक || लोचनरहित मनुषके करमें, ज्यों बटेर खग आयो | अरे हो० ॥ १॥ सो तू खोवत विषयन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) माहीं, धरम नहीं चित लायो । अरे हो० ॥२॥ भागचन्द उपदेश मान अब, जो श्रीगुरु फरमायो॥ ५८ राग मल्हार । __ वरसत ज्ञान सुनीर हो श्रीजिनमुखघनसों ॥ टेक ॥ शीतल होत सुबुद्धिमेदिनी मिटत भवा तपपीर ।। वरसत. ॥१॥ स्यादवाद नय दामिनि द. मकै, होत निनाद गंभीर ॥ बरसत ॥२॥ करुनानदी वहै चहुं दिशित, भरी सो दोई तीर ॥ वरस० ॥३] भागचन्द अनुभव मन्दिरको, तजत न संत सुधीर ॥ वरसत ॥४॥ ५६ राग मल्हार । मेघघटासम श्रीजिनवानी ॥ टेक ।। स्यात्पद चपला चमकत जामें, वरसत ज्ञान सुपानी मेघ० ॥१॥ धरमसस्य जातै वहु बाढ़, शिव आनन्दफलदानी ॥ मेघघटा ॥२॥ मोहन धूल दवी सब यातै, क्रोधानल सुबुझानी ॥ मेघघटा ॥३॥ भागचन्द बुधजन केकीकुल, लखि हरखै चितज्ञानी ॥ मेघ० ॥ ० राग धनाश्री। प्रभू थांको लखि मम चित हरषायो । टेक __ सुन्दर चिंतारतन अमोलक, रंकपुरुष जिमि पायो Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) प्रभू० ॥१॥ निर्मलरूप भयो अब मेरो, भक्तिनदीजल न्हायो। प्रभू ॥२॥ भागचन्द अब मम करतलमें अविचल शिवथल आयो ॥ प्रभू ॥३॥ ६१ राग मल्होर। प्रभू म्हांकी सुधि, करुना करि लीजे ॥ टेक मेरे इक अबलम्बन तुम ही, अब न बिलम्ब करीजे प्रभूः ॥१॥ अन्य कुदेव तजै सब मैंने लिननै निजगुन छीजे ॥प्रभू०॥२॥ भागचन्द तुम शरन लियो है, अब निश्चल पद दीजे ॥ प्रभू० ॥३॥ ६२ राग कलिगड़ा। ___ ऐसे साधू सुगुरु कब मिलिहै ॥टेक॥ आप तरें अरु परको तारें, निष्पही निर्मल हैं । ऐसे० ॥१॥ तिलतुषमात्र संग नहिं जाकै, ज्ञान-ध्यान-गुण-बल हैं ॥ ऐसे साधू ॥२॥ शान्तदिगम्बर मुद्रा जिनकी, कन्दिरतुल्य अचल हैं। ऐसे ॥३॥ भागचन्द तिनको नित चाहै, ज्यों कमलनिको अल है ॥ ऐसे० ६३ राग कहरवा कलिगड़ा। केवल जोति सुजागी जी, जय श्रीजिनवरके ॥ टेक ॥ लोकालोक विलोकत जैसे, हस्तामल वड़भागी जी ॥ के० ॥१॥ हार-चूड़ामनिशिखा सहज Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) ही, नम्र भूमितें लागीजी || केवल० ||२|| समबसरन रचना सुर कीन्हीं, देखत भ्रम जन त्यागी जी ॥ केवल० ||३|| भक्तिसहित अरचा नब कीन्हींपरम धरम अनुरागी जी ॥ केवल० ||५|| दिव्यध्वनि सुनि सभा दुवादश, आनंदरसमें पागी जी ॥ केबल ||५|| भागचन्द प्रभु भक्ति चहत है, और कछु नहिं मांगी जी ॥६॥ ६४ राग ठुमरी । जीवनि परिनामनिकी यह, अति विचित्रता देखहु ज्ञानी ॥ टेक ॥ नित्य निगोदमाहितैं कढि कर, नर परजाय पाय सुखदानी । समकित लहि अन्तर्मुहूर्त मैं, केवल पाय वरै शिवरानी ॥१॥ मुनि एकादश गुणथानक चढ़ि, गिरत तहां चित भ्रम ठानी । भ्रमत अर्धपुद्गल प्रावर्तन, किंचित् ऊन काल परमानी ||२|| निज परिनामनिकी सँभाल में, तातें गाफिल मत है प्रानी । बंध मोक्ष परिनामनि ही सों, कहत सदा श्रीजिनवरवानी ||३|| सकल उपाधिनिमित भावनिसों, भिन्न सुनिज परनतिको छानी । ताहि जानि रुचि ठानि होहु थिर, भागचन्द यह सीख सयानी ॥४॥ ¿ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव ! तू भ्रमत सदीव अकेला । संग साथी कोई नहिं तेरा ॥ टेक ॥ अपना सुखदुख आपहि भुगतै, होत कुटुम्ब न भेला। स्वार्थ भयें सब विछरि जात हैं, विघट जात ज्यों मेला ॥१॥ रक्षक कोइ न पूरन ह जब, आयु अन्तको बेला। फूटत पारि बँधत नहों जैसें, दुद्धर-जलको ठेला ॥२॥तन धन जीवन विनशि जात ज्यों, इन्द्रजालका खेला। भागचन्द इमि लख करि भाई हो सतगुरुका चेला।। ६६ ख्याल। बिन काम ध्यानमुद्राभिराम, तुम हो जगनायकजी ॥ टेक ॥ यद्यपि, वीतराग मय तद्यपि, हो शिवदायकजी ॥ विन काम० ॥१॥ रागी देव आप ही दुखिया, सो क्या लायकजी ॥ विन काम ॥२॥ दुर्जय मोह शत्रु हनवे को, तुम वच शायक जी ॥ विनकाम० ॥३॥ तुम भवमोचन ज्ञान सुलोचन, केवल क्षायक जी ॥विन काम०॥४॥ भागचन्द भागनौं प्रापति, तुम सब ज्ञायकजी॥ विन०॥॥ परनति सब जीवनकी, तीन भाँति वरनी एक Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) पुण्य एक पाप, एक रागहरनी ।। पर०॥ टेक ॥ तामें शुभ अशुभ बन्ध, दोय करै कर्मबन्ध, वीतराग परिनति ही, भवसमुद्रतरनी ॥१॥ जावत शुद्धोपयोग, पावत नाहीं मनोग, तावत ही सरन जोग, कही पुण्य करनी ॥२ । त्याग शुभ क्रिया कलाप, करो मत कदाच पाप, शुभमें न मगन होय, शुद्धता विसरनी ॥३॥ ऊंच ऊंच दशा धारि, चित प्रमादको विडारि, ऊंचली दशारौं मति, गिरो अधो. अधो धरली । ४॥ भागचन्द या प्रकार, जीव लहै सुख अपार, याके तिरधारि स्यादवादकी उचरनी ॥ ___ आकुलरहित होय इमि निशदिन, कीजे तत्त्व विचारा हो । को मैं कहा रूप है मेरा, पर है कौन प्रकारा हो ॥ टेक ॥१॥ को लव-कारण बन्ध कहा को, आस्रवरोकनहारा हो । खिपत कर्म बन्धन काहेसों, थानक कौन हमारा हो ॥२॥ इमि अभ्यास किये पावत है, परमानन्द अपारा हो। भागचन्द यह सार जान करि, कीजे वारंवारा हो ॥ आकुलरहित होय० ॥ ३॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूधर विलास Oooo 000 ६९ राग - सोरठ | अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ॥ टेक ॥ फल चाखनकी वार भरे दृग, मर है मूरख रोय ॥ अज्ञा० ॥१॥ किंचित् विषयनिके सुख कारण दुर्लभ देह न खोय । ऐसा अवसर फिर न मिलेगा, इस नींदड़ी न सोय || अज्ञानो || २ || इस विरियां धर्म - कल्पतरु, सींचत स्थाने लोय । तू विष बोवन लागत तो सम, और अभागा कोय || अज्ञानी ॥३॥ जे जगमें दुखदायक बेरस, इसहीके फल सोय । यों मन भूधर जानिकै भाई, फिर क्यों भोंदू होय ॥ अ० 1 ७० राग सोरठ | सुन ज्ञानी प्राणी, श्रीगुरु सीख सयानी ॥टेक॥ नरभव पाय विषय मति सेवो, ये दुरगति अगवानी ॥ सुन || १|| यह भव कुल यह तेरी महिमा फिर समझो जिनवानी । इस अवसरमैं यह चपलाई, कौन समझ उर आनी || सुन ||२|| चंदन काठ - कनकके भाजन, भरि गंगाका पानी । तिल ३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) खलि रांधत मन्दमती जो, तुझ क्या रीस बिरानी सुन || ३ || भूधर जो कथनी सो करनी, यह बुधि है सुखदानी | ज्यों मशालची आप न देखे, सो मति करै कहानी || सुनि ||४|| ७१ राग - सोरठ | सुनि ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया ॥ टेक || टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पिछताया || सुनि ||१|| आपा तनक दिखाय बीज ज्यों. मूढमती ललचाया । करि मद अन्ध धर्म हर लीनौं, अन्त नरक पहुंचाया || सुनि ॥२॥ केते कंथ किये तैं कुलटा, तो भी मन न अघाया । किसही -- सौं नहि प्रीति निवाही, वह तजि और लुभाया ॥ सुनि || ३ || भूधर छलत फिर यह सबकों, भौंदू करि जग पाया । जो इस ठगनीकों ठग बैठे, मैं तिसको सिर नाया ॥ सुनि ॥४॥ ७५ रा--ख्याल । जगमें जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि ॥ टेक ॥ जनम ताड़ तस्तै पढ़, फल संसारी जीव । मौत महीमैं आय हैं, और न ठौर सदीव ॥ जगमें ● ||१|| गिर- सिरं दिवला जोइया, चहुँ दिशि वाजे Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) पौन । बलन अचंभा मानिया, बुझन अचंभा कौन जगमैं ||२|| जो छिन जाय सो आयमैं, निशि दिन 1 | कै काक | बांध सकै तो है भला, पानी पहिली पाल || जगमें ॥३॥ मनुष देह दुर्लभ्य है, मति चूक यह दाव । भूधर राजुलकंतकी, शरण सिताबी आव || जगमें | ४॥ ७३ राग -- ख्याल | 2 गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गँवार ॥टेक॥ झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीजै रे ॥ गरव ० || १|| कै छिन सांझ सुहागरु जोबन, कै दिन जगमें जोजै रे || गरव ॥ २ ॥ वेगा चेत विलम्ब तजो नर, बन्ध बढ़े थिति छीजै रे ॥ गरव ||३|| भूधर पलपल हो है भारो, ज्यों ज्यों कमरी भींजै रे || गरव ॥४॥ ७४ राग -- ख्याल । देख्यो री ! कहीं नेमिकुमार || टेक || नैंननि प्यारो नाथ हमारो, प्रानजीवन प्राननआधार ॥ देख्यो० ॥ १॥ पीव वियोग विधा बहु पीरी, पीरी भई हलदी उनहार । होउ हरी तबही जब भेटौं, श्यामवरन सुन्दर भरतार || देख्यो || २ || विरह न Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दी असराल बहै उर, बूढ़त हौं वामैं निरधार । भूधर प्रभु पिय खेवटिया विन, समरथ कौन उतारनहार ॥ देख्यो० ॥३॥ ७५ गग-पंचम। जिनराज ना विसार, मति जन्म वादि हारो ॥टेक॥ नर भौ आसान नाहिं, देखो सोच समझ वारो ॥ जिनराज० ॥१॥ सुत मात तात तरुनो, इनसौं ममत निवारो । सबही सगे गरजके दुखसीर नहिं निहारो॥ जिनराज० ॥२॥ जे खायं लाभ सव मिलि, दुर्गलमैं तुम सिधारो। नटका कुटुम्ब जैसा, यह खेल यों विचारो।। जिनराज ॥३॥ नाहक पराये काज, आंपा नरकमैं पारो । भृधर न भूल जगमैं, जाहिर दगा है यारो ॥ जिनराज ॥४॥ ७६ राग-नट। जिनराज चरन मन मति बिररै ॥ टेक ॥ को ‘जानें किहिंबार कालकी, धार अचानक आनि परै । जिनराज०॥१॥ देखत दुख भजि जाहिं दशौं दिश पूजत पातकपुंज गिरै । इस संसार क्षारसागरसौं, और न कोई पार करै । जिनराज० ॥२॥ इक चित ध्यावत वांछित पावत, आवत मंगल विधन टरै। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) मोहनि धूलि परी मांथे चिर, सिर नावत ततकाल झरै ॥ जिनराज ॥३॥ तवलौं भजन संवार सयाने, जबलौं कफ नहिं कंठ अरै। अगनि प्रवेश भयो घर भूधर, खोदत कूप न काज सरै ॥ जिनराज ॥ ७७ राग--सारङ्ग। ___भवि देखि छबी भगवानकी ॥ टेक ॥ सुन्दर सहज सोम आनन्दमय, दाता परम कल्यानकी ॥ भवि० ॥३॥ नासादृष्टि मुदित मुखवारिज, सीमा सब उपमानकी । अंग अडोल अचल आसन दिढ़, वही दशा निज ध्यानकी ॥२॥ इस जोगासन जोगरीतिसौं, सिद्ध भई शिवथानकी । ऐसें प्रकट दिखाने मारग, मुद्रा धात पखानकी॥ भवि ॥३॥ जिस देखें देखन अभिलाषा, रहत न रंचक आनकी तृपत होत भूधर जो अब ये, अंजुलि अम्रतपानकी ।। भवि ॥४॥ ७८ राग मलार। अब मेरै समकित सावन आयो ।टेक। बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम, पावस सहज सुभायो॥ अब मेरै० ॥१॥ अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा धन छायो । वोलै विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिनि भायो ॥ अब मेरै० ॥२॥ गुरु Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) धुनि गरज सुनत सुख उपजै, मोर सुमन विहसायो | साधक भाव अँकुर उठे बहु, जित तित हरष सवायो | अब मेरें ॥ ३ ॥ भूल धूल कहिं भूल न सूझत, समरस जल भर लायो । भूधर को निकसै अब बाहिर, निज निरचूर पायो || अब मेरें ॥४॥ ७३ राग सोरठ । - भगवन्तभजन क्यों भूला रे ॥ टेक ॥ यह संसार रैनका सुपना, तन धन वारि ववूला रे ॥ भगवन्त० ||१|| इस जोवनका कौन भरोसा, पावक में तृणपूला रे ! | काल कुदार लियें सिर ठाड़ा, क्या समझ मन फूला रे ! ॥ भगवन्त ||२|| स्वा-रथ सार्धं पांच पांव तू, परमारथकों लूला रे 11 कहु कैसे सुख है प्राणी, काम करै दुखमूला रे ॥ भगवन्त || ३ || मोह पिशाच छल्यो मति मारै, निज कर कन्ध बसूला रे । भज श्रीराजमतीवर भूधर, दो दुरमति सिर धूला रे ||४|| ८० राग - विहागरो । नेमि बिना न रहे मेरो जियरा ॥ टेक ॥ हेर री हेली तपत उर कैसो, लावत क्यों निज हाथ न नियरा ॥ नेमि विना० || १|| करि करि दूर कपूर क- Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) मल दल, लगत करूर कलाधर सियरा ॥ नेमि० ॥२॥ भूधरके प्रभु नेमि पिया विन, शीतल होय न राजुल हियरा ॥ नेमि विना० ॥३॥ ८५ राग--ख्याल । मन सूरख पन्थी, उस मारग अति जाय रे ॥ ॥ टेक ॥ कामिनि तन कांतार जहां है, कुच परवत दुखदाय रे ॥ मन सूरख० ॥१॥ काम किरात बस तिह थानक, सरवस लेन छिनाय रे । खाय खता कीचकसे बैठे, अरु रावनसे राय रे ॥ मन मूरव० ॥२॥ और अनेक लुटे इस पैंड़े, वरनैं कौन बढ़ाय रे । वरजत ही वरज्यौ रह भाई, जानि दया मति खाय रे ॥ मन मूरख ॥३॥ सुगुरु दयाल दया करि भूधर, सीख कहत समझाय रे। आगैं जो भाव करि सोई, दोनो बात जनाय रे ॥ मन मूरख ॥४॥ ८२ राग-विलाबल। रटि रसना मेरी ऋषभ जिनन्द,सुर नर जच्छ चकोरन चन्द ॥ टेक ॥ नामी नाभि नातिके बाल मरुदेवीके कुवर कृपाल ॥ रठि० ॥१॥ पूज्य प्रजापति पुरुष पुरान, केवल फिरन धरै जगभान ॥रटि. ॥२॥ नरकनिवारन विरद विख्यात, तारन तरन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) जगतके तात ॥ रटि० ॥३॥ भूधर भजन किये निरबाह, श्रीग्द-पदम भँवर हो जाह ॥४॥ रटि० ८३ राग - गौरी।। मेरी जीभ आठौं जाम, जपि जपि ऋषभजिनिंद जीका नाम ॥टेका। नगर अजुध्या उत्तम ठाम, जनमै नाभि नृपतिके धाम ॥ मेरी० ॥१॥ सहस अठोत्तर अति अभिराम, लसत सुलच्छन लाजत काम ॥ मेरी० ॥२॥ करि थुति गान थके हरि राम, गनि न सके गणधर गुन ग्राम ॥ मेरो० ॥३॥ भूधर सार भजन परिनाम, अर सब खेल खेलके खांम(१) मेरी० ॥४॥ ८४ राग--धमाल । देखे देखे जगतके देव, राग रिससौं भरे ॥ टेक ॥ काहूके संग कामिनि कोऊ, आयुधवान खरे देखे० ॥१॥ अपने औगुन आपही हो, प्रकट करै उधरे । तऊ अबूझ न बूझहिं देखो, जन मृग भोर परे ॥ देखे० ॥२॥ आप भिखारी ह किनही हो, काके दलिद हरे । चढ़ि पाथरकी नावपै कोई, सुनिये नाहि तरे ॥ देखे० ॥३॥ गुन अनन्त जा देवमें औ, ठारह दोष टरे । भूधर ता प्रति भावसौं दोऊ, कर निज सीस धरे ॥४॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) ८५ देखो गरवगहेली री हेली ! जादोंपतिकी नारी ॥ टेक ॥ कहां नेमि नायक निज मुखसौं, टहल कहै बड़भागी। तहाँ गुमान कियो मतिहीनी, सुनि उर दौसी लागी || देखो० ॥ १॥ जाकी चरण धूलिको तरसे, इन्द्रादिक अनुरागी ता प्रभुको तन -- वसन न पीड़, हा ! हा ! परम अभागो ॥ देखो० || २ || कोटि जनम अघभंजन जाके, नामतनी वलि जइये । श्रीहरिवंश निलक तिस सेवा, भाग्य बिना क्यों पइये || देखो० ||३ | धनि वह देश धन्य वह धरनी, जगमें तीरथ सोई । भूधरके प्रभु नेमि नवल निज, चरन धरै जहां दोई || देखो ० ||४|| ८६ रोग सोरठ | चित ! चेतनकी यह विरियां रे ॥ टेक ॥ उत्तम जनम सुनत तरूनापी, सुजत बेल फल फरियां रे । चित० ॥ १ ॥ लहि सत संगतिसौं सब समझी, करनी खोटी खरियां रे । सुहित संभाशिथिलता तजिकै, जाहैं वेली झरियां रे ॥ चित० ॥२॥ दल बल चहल महल रूपेका, अर कंचनकी कलियां रे । ऐसी विभव बढ़ीकै बढ़ि है, तेरी गरज क्या सरियां Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) रे ॥ चित० ॥३॥ खोय न वीर विषय खल सा, ये कोरनकी घरियां रे । तोरी न तनक तगाहित भूधर. मुकताफलकी लरियां रे ॥ चिनः ॥४॥ ८७ राग-बंगला। जगमें श्रद्धानी जीव जीवनमुकत हैंगे॥टेक॥ देव गुरू सांचे मानें सांचो धर्म हिये आने, ग्रन्थ ते ही लांचे जानें, जे जिन उकत हैंगे ॥ जगमैं ॥१॥ जीवनकी दया पालैं, झूठ तजि चोरी टाले, परनारी भालै न जिनके लुकत हैंगे ॥ जगमैं ॥२॥ जीयमैं सन्तोष धारै हिमैं समता विचारें, आगैंको न बंध पारे, पाठेसौं चुकत हैंगे ॥ जगमें ॥३॥ वाहिज किया अराधैं, अन्तर सरूप साधे, भूधर ते मुक्त ला., कहं न रुकत हैंगे ॥४॥ ८८ राग-बंगला। ___ आया रे बुढ़ापो मानी सुधि बुधि बिसरानी ॥ टेक ॥ श्रवनकी शक्ति घटी, चाल चालै अटपटी, देह लटी भूख घटी, लोचन झरत पानी ॥ आया रे० ॥ १॥ दांतनकी पंक्ति टूटी, हाडनकी सन्धि छूटी, कायाकी नगरि लूटी जात नहिं पहिचानी ॥ आया रे० ॥२॥ बालोंने वरन फेरा, रोगने शरीर Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) घेरा, पुत्रहूं न आवे नेरा, औरोंकी कहा कहानी ॥ आया रे० ॥३॥ भूधर समुझि अब, स्वहित करगो कब, यह गति ह है जब, तब पिछते है प्रानी ॥ आया रे० ॥४॥ ८९ राग-सोरठ। अन्तर उज्जल करना रे आई ! ॥ टेक॥ कपट कृपान तजै नहिं तबलौ, करनी काक न सरना है ॥ अन्तर० ॥१॥ जप तप तीरथ जज्ञ व्रतादिक आगमअर्थ उचरना रे। विषय कषाय कीच नहिं धो-- यो, यों ही पचि पचि मरना रे ॥ अन्तर० ॥२॥ बाहिर भेष क्रिया उर शुचिसों कीये पार उतरना रे। नाही है सब लोक रंजना, ऐसे वेदन वरना रे अन्तर० ॥३॥ कामादिक मनसौं मन मैलो भजन ये क्या तिरना रे। भूधर नीलबसनपर कैसैं, सर रंग उछरना रे ॥ अन्तर० ॥४॥ ९० राग-काफी। मन हंस ! हमारी लै शिक्षा हितकारी ॥टेक।। वीभगवानचरन पिंजरे वसि, तजि विषयनिकी गरी ॥ मन० ॥१॥ कुमति कागलीसौं मति राचो, ना वह जात तिहारो। कीजै प्रीत सुमति हंसीसौं, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) बुध हंसनकी प्यारी ॥ मन० ॥२॥ काहेको सेवत भद झीलर, दुखजलपूरित खारी। निज बल पंख पसारि उड़ो किन, हो शिव सरवरचारी ॥ मन० ॥३॥ गुरुके वचन विमल मोती चुन, क्यों निज वान विसारी । है है सुखी सीख सुधि राखें, भूधर भूलें ख्वारी ॥ मन०॥ . ६१ राग--धनासरी। सो मत सांचो है मन मेरे ॥ टेक ॥ जो अनादि सर्वज्ञप्ररूपित, रागादिक बिन जे रे । सो मत० ॥१॥ पुरुष प्रमान प्रमान वचन तिस, कलपित जान अने रे । राग दोष दूषिन तिन वायक, सांचे हैं हित तेरे ॥ सो मन० ॥२॥ देव अदोष धर्म हिंसा बिन लोभ बिना गुरु वे रे । आदि अन्त अ. विरोधी आगम, चार रतन जहँ ये रे । सो मत ॥३॥ जगत भयो पाखंड परख विन, खाइ खता बहुतेरे भूधर करि निज सुवुधि कसौटी धर्म कनक कसि ले रे ॥ सो मत० ॥४॥ मेरे चारौं शरन सहाई ॥ टेक ।। जैसें जलधि परत बायसकों वोहिथ एक उपाई ।। मेरे० ॥१॥प्र. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) थम शरन अरहन्त चरनकी, सुरनर पूजन पाई दुतिय शरन श्रीसिद्धनकेरी, लोक-तिलक-पुर राई ॥मेरे०॥२॥ तीजे सरन सर्व साधुनिकी, नगन दिगम्बर-काई । चौथे धर्म अहिंसा रूपी, सुरग मुकति सुखदाई ॥ मेरे० ॥३॥ दुरगति परत सुजन परिजनपै, जीव न राख्यो जाई । भूधर सत्य भरोसो इनको, ये ही लेहिं बचाई ॥४॥ ३ राग-ख्याल। अब नित नेमि नाम भजौ ॥ टेक ॥ सच्चा साहिब यह निज जानौ, और अदेव तजौ ॥अब० ॥१॥ चंचल चित्त चरन थिर राखो, विषयन” वरजौ ॥ अब ॥२॥ आननते गुन गाय निरन्तर, पानन पाँय जजौ ॥ अष ॥॥ भूधर जो भवसागर तिरना, भक्ति जहाज सजौ ॥४॥ ६४ राग-ख्याल वरषा । "देखनेको आई लाल मैं तो तेरे देखनेको आई" यह चाल। म्हें तो थाकी आज महिमा जानी ॥ टेक अब लों नहिं उर आनी ॥ म्हें तो० ॥१॥ काहेको भव वनमें भ्रमते, क्यों होते दुखदानी ॥ म्हेंतो ॥२॥ नामप्रताप तिरे अंजनसे, कीचकसे अभिमानी ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्हेंतो ॥३॥ ऐली साख बहुत सुनियत है, जैनपुराण बखाली ॥ म्हें तो ॥ ४ ॥ भूधरको सेवा वर दीज, मैं जांचक तुम दानी ॥ ६५ राग-विहाग। जगत जन जूवा हारि चले ॥ टेक ॥ काम कुटिल संग बाजी माँड़ी, उन करि कपट छले। जगत० ॥१॥ चार कषायमयी जा चौपरि, पांसे जोग रले। इत सरवस उत कामिनी कौड़ो, इह विधि झटक चले । जगत ॥२॥ कूर खिलार विचार न कीन्हों, है है ख्वार भले । विना विवेक मनोरथ काके, भूधर सफल फले ॥३॥ ६६ राग-विहाग। तहां लै चल री ! जहां जादौपति प्यारो ॥ टेक ॥ नेमि निशाकर बिन यह चन्दा, तन मन दहत सकल री। तहां ॥१॥ किरन किधौं नाविक-शर-तति के, ज्यों पावककी झलरी । तारे हैं कि अंगारे सजनी, रजनी राकसदल री। तहां ॥२॥ इह विधि राजुल राजकुमारी, विरह तपी वेकल री। भूधर धन्न शियासुत बादर, वरसायो समजल री । तहां ॥३॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) १७ ऐसो श्रावक कुल तुम पाय, वृथा क्यों खोवत हो ॥ टेक ॥ कठिन कठिनकर नरभव पाई, तुम लेखी आसान । धर्म विसारि विषयमें राचौ, मानी न गुरुकी आन ॥ वृथा० ॥१॥ चक्री एक मतंगज पायो, तापर ईधन ढोयो । बिना विवेक बिना मतिहीका, पाय सुधा पग धोयो ॥ वृथा० ॥२॥ काहू शठ चिन्तामणि पायो, मरम न जानो ताय । वायस देखि उदधिमें फैक्यो, फिर पीछे पछताय ॥ वृथा ॥३॥ सात विसन आठों मद त्यागो, करना चित्त विचारो । तीन रतन हिरदैमें धारो, आवागमन निवारो।। वृथा० ॥४॥ भूधरदास कहत भविजनसों, चेतन अब तो सम्हारो। प्रभुको नाम तरन तारन जपि, कर्मफन्द निरवारो॥वृथा० ॥५॥ ८ राग-ख्याल। नैननिको वान परी, दरसनकी ॥ टेक॥ जिनमुखचन्द चकोर चित्त मुझ, ऐसी प्रीति करी ।। नैन० ॥१॥ और अदेवनके चितवनको अब चित चाह टरी । ज्यों सब धूलि दयै दिशि दिशिकी, लागत मेघझरी ॥ नैन० ॥२॥ छवी समाय रही Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) लोचनमें, विसरत नाहिं घरी। भूधर कह यह टेव रहो थिर, जनम जनम हमरी ।। नैन० ॥३॥ ६ राग-मलार। वे मुनिवर कब मिलिहैं उपगारी॥टेक ॥ सा. धु दिगम्बर नगन निरम्बर, संबर भूषणधारी ।। वे मुनि० ॥२॥ कंचन काच बरावर जिनक, ज्यौं रिपु त्यौ हितकारी। महल मम्मान भरन अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी ॥ वे मुनि० ॥२॥ सम्यज्ञान प्रधान पवन बल,तप पावक परजारी। सेवत जीव सुवर्ण सदा जे, काय-कारिमा टारी ॥ वे मुनि०॥३॥ जोरि जुगल कर भूधर विनवै, तिन पद ढोक हमारी । भाग उदय दरसन जब पाऊं, ता दिनकी बलिहारी ॥ मुनि० ॥४॥ १०० राग-बिलावल। प्सब विधि करन उतावला. सुमरनकौं सीरा॥ टेक ॥ सुख चाहै संसारमैं, यों होय न नीरा॥ सब विधि० ॥१॥ जैसे कर्म कमाव है, सो ही फल वोरा ! आम न लागै आकके, नग होय न हीरा ॥ सब - विधि ॥२॥ जैसा विषयनिकों चहै न रहै छिन धीरा। त्यों भूधर प्रभुकों जपै पहुंचै भव तीरा ॥सब०॥३॥ समाप्त न Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार | यद्द ग्रन्थ पांच वार छप चुका है, इसके सम्बन्धमें कुछ भी लिखना दीपक दिखाना है । प० सदासुखजीने श्रावकके लिये यह पथप्रदर्शक ग्रन्थ लिखकर महान उपकार किया है । शास्त्राकार न्यो० ५०) रुपया सूर्यको पुरुषार्थ सिद्धयुपाय | शास्त्राकार पुरानी और नवीन टीकाओं सहित ( स्व० प० टोडरमलजी । २) छपाया है । न्योछावर ४) रुपया मात्र । तत्वार्थ राजवार्तिक स्व० पं० पन्नालालजी दूनीवाल कृत पुरानो भाषामें एक खड ही छपा या उसका मूल्य सिर्फ ४) रक्खा है । जैनक्रिया कोष । स्व० प० दौलतरामजोने आचार सम्बन्धी इस ग्रन्थको लिखकर बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया है। वही दुवारा छपाया था पर थोड़ी कापी बाको है, मतएव जिन्हें दरकार हो शीघ्र ही मगा लें । न्योछावर ३) रुपया । चरचा समाधान । स्व० पं० भूधरदासजी कृत शास्त्राकार यह छपाया गया है, इसमें तमाम प्रामाणिक ग्रन्थोंके आधार से सैकड़ों शकाओंका समाधान किया है ( गोमट्टसार, राजवार्तिक जैसे ग्रन्थोंके आधारसे) न्मो० २) रु० मात्र । सुकुमाल चरित्र Է 1 3 इसका मिलना भी दुष्प्राप्य था, अतएव उसो शास्त्रीय भाषामें जो जयपुर निवासी श्रीमान प० नाथूलालजी दोशीने सकलकीर्ती कृत संस्कृतसे भाषामें लिखी यो प्रगट की है, वास्तवमें सुकमालको जीवनी पढ़कर आपका हृद हो जाएगा, कई उत्तमोत्तम रंगीन चित्र भी दिये हैं। नो० २) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एपच्या जिनवाणी संग्रह। शतिवर्ष इसको आवृत्ति वराबर ही होती रहती है, इतने महत्वपून पन्यके विषयमें सिर्फ इतनाही लिखना काफी है कि इसकी बिक्री और प्रचार देखकर नाय नकाल लोग लोभ शमन नहीं कर सके और मिलता हुमा नाम रखकर जनताको धोखा दे रहे हैं। पाठकोंको चाहिये कि वे जिनदाणी प्रचारक कार्यालय, जिनवाणी प्रसका नाम देखकर ही दर्जनों चित्रोंसे विभूषित सञ्चा जिनवाणी संगह हो खरीदें । पृष्ठ संख्या ८२० के लगभग है, • पक्की सुनहरी जिल्द है। न्योछावर ३) तीन रुपया मात्र । आराधना कक्षा कोष (प्रथम भाग) यह भी बहुत सस्यले मिलता नहीं गा अतएव इसे भी नवीन भाषामें २०० पृष्ठला प्रथम भाग लिखवाकर तैयार कराया है, साथही ८ उत्तमोत्तम हाफटोन चित्र भो दिये गये हैं। न्योछावर १) रुपया मात्र । ... सक्ष व्यसन चरित्र जैन साहित्यमें यह नवीन उगसे ही छपाया गया है, अभीतक जितने यो पुस्तकें निकली है उनमें सर्वोत्तम है। इस तरह तीन रंगे हाफ्टोन चित्र देकर शाल साइजमें, सुन्दर टाइप वार्डर सहित छपाई सफाई साथ ही पुष्ट कागज देखकर भापका मन प्रसन्न हो जायगा। कई हाफटोन चित्र भी दिये हैं जिससे पुस्तककी उपयोगता और भी बढ़ जाती है। सात व्यसनोंका चित्रोंके साथही फल देखकर प्रत्येक प्राणीका मन दर माता है । ऐसी उपयोगी पुस्तक प्रत्येक धर्मात्मा गृहस्थके भरमें रहना पाहिये । न्योछावर १॥) मात्र । __ पड़ा पूजा विधान इसमें प. रामचद, ५० वृन्दावन क्त चौवीसी पाठ कर्मदहन, २५ ल्याणक, शिखर महात्म, पच परमेटो विधान दिये गये हैं, पकी सुनहरी शिका दाम २॥) है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्यानत पद संग्रह | मीणा * औरा (अमरा ना Page #56 --------------------------------------------------------------------------  Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MP. . *जैसी धार पीपाले (मणिया का रास्ता) इथपर. द्यानत विलास (१) राग विहागड़ो। अब हम नेमिजीकी शरन ॥ टेक ॥ और ठौर न मन लगत है. छांडि प्रभुके चरन ॥अब०॥ ॥१॥ सकल भवि-अघ-दहन धारिद, विरद तारन तरन । इन्द चंद फनिंद ध्या, पाय सुख दुखहरन ॥ अब० ॥२॥ भरम-तम-हर-तरनि दीपति, करम गैग खयकरन । गनधरादि सुरादि जाके, गुन सकत नहिं वरन ॥ अब० ॥३॥ जा समान त्रिलोक में हम, सुन्यौ और न करन । दास द्यानत दयानिधि प्रभु, क्यों तजंगे परन ॥४॥ (२) राग सोरठा। गलतानमता कब आवैगा का राग दोष परणति मिट जै है, तब जियरा सुख पावैगा ॥ । गलता० ॥१॥ मैं ही ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय मैं, तोनों भेद मिटाबैगा । करता किरिया करमभेद मिटि, एक दरब लौँ लावैगा ॥ गलता० ॥२॥ निह. अ. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल मलिन व्योहारी, दोनों पक्ष नसावैगा। भेद गुण गुणोको नहिं ह्र है, गुरु शिख कौन कहावैगा ॥ गलता० ॥३॥ द्यानत साधक साधि एक करि, दुविधा दूर वहावैगा। वचनभेद कहवत सब मिटकै, ज्योंका त्यों ठहरावैगा ॥४॥ (३) राग सारंग। मोहि कब ऐसा दिन आय है ॥टेक॥ सकल बिभाव अभाव होहिंगे, विकलपता मिट जाय है। ॥ मोहि० ॥१॥ यह परमातम यह मम आतम, भेदबुद्धि न रहाय है । ओरनिकी का वात चलावै, भेदविज्ञान पलाय है ॥ मोहि० ॥२॥ जानें आप आपमैं आपा, सो व्यवहार बिलाय है। नय परमान निखेपन माहीं, एक न औसर पाय है ॥मोहि ॥३॥ दरसन ज्ञान चरनके विकलप, कहो कहां ठहराय है। द्यानत चेतन चेतन व है, पुदगल पुदगल थाय है ॥ (४) राग विलावल। जिन नाम सुमर मन ! वावरे, कहा इत उत भटकै ॥ जिन० ॥टेक॥ विषय प्रगट विष वेल हैं, इनमें जिन अटकै ॥ जिन नाम० ॥१॥ दुर्लभ नर Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] भव पायक, नगसों मत पटकै । फिर पीछे पछतायगो, औसर जब सटकै ॥ जिननाम० ॥२॥ एक घरी है सफल जो, प्रभु गुन रस गटकै । कोटि वरष जीयो वृथा, जो थोथा फटकै ॥ जिन नाम० ॥ ३ ॥ द्यानत उत्तम भजन है, लोज मन रटकै । भव भवके पातक सबै, जै हैं तो कटकै ॥ जिननाम० ॥४॥ (५) राग काफी। तू जिनवर स्वामी मेरा, मैं सेवक प्रभु हों तेरा ॥टेक॥ तुम सुमरन बिन मैं बहु कीना, नाना जानि बसेरा । भाग उदय तुम दरसन पायो, पाप भज्यो तजि खेरा ॥ तू जिनवर० ॥१॥ तुम देवाधिदेव परमेसुर, दीजै दान सवेरा । जो तुम मोख देत नहिं हमको, कहां जायँ किंहि डेरा ! - ॥ मात तात तू ही बड़ भाता, तोसौं प्रम घनेरा । द्यानत तार निकार जगततै, फेर न वै भवफेरा ॥ ॥ तू जिनवर० ॥३॥ (६) राग काफी धमाल। सो ज्ञाता मेरे मन माना, जिन निज निज, पर पर जाना ॥टेक॥ छहों दरवतै भिन्न जानक, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४ । नव तत्वनित आना। ताकौं देखै ताकौं जाने, ताहीके रसमें साना ॥ सो ज्ञाता० ॥१॥ कर्म शुभाशुभ जो आवत हैं, सो तो पर पहिचाना । तीन भवनको राज न चाहै, यद्यपि गाँठ दरब बहु ना ॥ सो ज्ञाता० ॥२॥ अखय अनंती सम्पति विलसै, भव तन भोग मगन ना । द्यानत ता ऊपर बलिहारी, सोई ‘जीवन मुकत' भना ॥ . (७) राग केदारो। __ सुन मन ! नेमिजीके वैन ॥ टेक ॥ कुमति नासन ज्ञान भासन, सुखकरन दिन रैन ॥ ॥सुन० ॥१॥ वचन सुनि बहु होहिं चक्री, वहु लहैं पद मैन । इन्द चंद फनिन्द पद लैं आतम शुद्धनऐन, ॥ सुन० ॥२॥ वैन सुन बहु मुकत पहुंचे, वचन विनु एकै न । हैं अनक्षर रूप अक्षर, सब सभा सुखदैन ॥ सुन० ॥ ३ ॥ प्रगट लोक अलोक सय किय, हरिय मिथ्या सैन । वचन सरधा करी द्यानत, ज्यों लहौ पद चैन ॥ सुन० ॥४॥ (८) राग मल्हार । काहेको सोचत अति भारी, रे मन ! ॥टेक॥ पूरव करमनकी थित बांधी, सोतो टरत न टारी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] || काहे० ||१|| सब दरवनिकी तीन कालकी, विधि न्यारीकी न्यारी । केवलज्ञानविषै प्रतिभासी, सो सो हवै है सारी || काहे० ॥ २॥ सोच किये बहु बंध बढ़त है, उपजत है दुख वारी । चिता चिता समान बखानी, बुद्धि करत है कारी ॥ काहे० ॥ ३ ॥ रोग सोग उपजत चिन्तातैं, कहौ कौन गुनवारी । द्यानत अनुभव करि शिव पहुंचे जिन चिन्ता सब जारी || काहे० ||४|| ( ६ ) राग केदारो | रे जिय ! जनम लाहो लेह ||टेक || चरन ते जिन भवन पहुंचें, दान दें कर जेह ||रे जिय० ॥ १ ॥ उर सोई जामै दया है, अरु रुधिरको गेह । जीभ सो जिननाम गावै, सांच सौ करें नेह ॥ रे जिय० ||२|| आंख ते जिनराज देखें, और आंखें खेह | श्रवन ते जिनवचन सुनि शुभ, तप तपै सो देह ॥ रे जिय० ॥ ३॥ सफल तन इह भांति हुवे है, और भाँति न केह । हवै सुखी मन राम ध्यावो, कहैं सदगुरु येह ॥ रे जिय० ॥४॥ ( १० ) चल देखें प्यारी, नेमि नवल व्रतधारी ॥ टेक ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] रोग दोष विन शोभन मूरति, मुकतिनाथ अविकारी ॥ चल० ॥१॥ क्रोध बिना किमि करम विनाशें, यह अचरज अन भारी ॥ चल० ॥२॥ बचन अनक्षर लब जिय समझै, भाषा न्यारी न्यारी ॥ ॥ चल० ॥३॥ चतुरानन सव खलक विलोकै, पूरव मुख प्रभुकारी ॥ चल० ॥४॥ केवल ज्ञान आदि गुण प्रगटे, नेक न मान कियारी ॥ चल० ॥ ५ ॥ प्रभुकी महिमा प्रभु न कहि सकैं, हम तुम कौन विचारी ॥ चल० ॥६॥ द्यानत नेमिनाथ विन आलो कह मौकौंको तारी ॥ चल० ॥७॥ (११) राग सोरठ। रुल्यो चिरकाल, जगजाल चहुंगति विौं, आज जिनराज तुम शरन आयो ।टेका। सह्यो दुख घोर, नहिं छोर आवे कहत, तुमसौं कछु छिप्यो नहि तम बतायो । रुल्यो० ॥१॥ तू ही संसार तारक नहीं दूसरो, ऐसो मुह भेद न किन्ही सुनायो । रुत्यो० ॥२॥ सकल सुर असुर नरनाथ बंदत चरन. नाभिनन्दन निपुन मुनिन ध्यायो॥ ॥ रुल्यो० ॥३॥ तू ही अरहन्त भगवन्त गुणवन्त प्रभु, खुले मुझ भाग अब दरश पायो ॥ रुल्यो० Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] ॥४॥ सिद्ध हौं शुद्ध हौं बुद्ध अविरुद्ध हौं, ईश जगदीश बहु गुणनि गायो ॥ रुल्यो० ॥५॥ सर्व चिन्ता गई बुद्धि निर्मल भई, जब हि चित जुगल चरननि लगायो ॥ रुल्यो० ॥६॥ भयो निहचिन्त द्यानत चरन शर्न गयि, तार अब नाथ तेरो कहायो । रुल्यो० ॥ ७ ॥ (१२) __कर कर आतमहित रे प्रानी ॥टेक। जिन परिनामनि बंध होत है, सो परनति तज दुखदानी ॥ कर०॥॥ कौन पुरुष तुम कहां रहत हो, किहिकी संगति रति मानी । जे परजाय प्रगट पुदगलमय, तेतै क्यों अपनी जानी ॥ कर० ॥२॥ चेतनजोति झलक तुझ माहीं, अनुपम सो तें विसरानी । जाकी पटतर लगत आन नहि दीप रतन शशि स्नूरानी ॥ कर० ॥३॥ आपमें आप लखो अपनो पद, द्यानत करि तन मन वानी। परमेश्वरपद आप पाइये, यौँ भाषे केवलज्ञानी ।। (१३) राग विहागरो। जानत क्यों नहिं रे, हे नर आतम ज्ञानी ॥ ॥टेक॥ रागदोष पुद्गलकी संगीत, निहचै शुद्धनि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ < j शानी ॥ जानत० || १|| जाय नरक पशु नर सुर गतिमें, ये परजाय विरानी । सिद्धस्वरूप सदा अविनाशी, जानत बिरला प्रानी || जानत० ||२|| कियो न काहू हरै न कोई, गुरु शिख कौन कहानी जनम मरन मलरहित अमल है, कीच बिना ज्यों पानी ॥ जानत० ||३|| सार पदारथ है तिहुं जग में, नहिं क्रोधी नहिं मानो । द्यानत सो घटमाहिं विराजै, लख हुजै शिवथानी ॥ जाकत० ॥ ४ ॥ (१४) राग काफी । यह आपा प्रभु जाना मैं "जाना ॥ टेक ॥ परमेसुर मैं इस सेवक, ऐसो भर्म पलाना | आपाο ॥ १ ॥ जो परमेसुर सो मम मूरति जो मम सो भगवाना । सरमी होय सोइ तो जानें, जानै नाहीं आना || आपा० || २ || जाकौ ध्यान धरत हैं मुनि गन, पाबत हैं निरवाना | अर्हन्त सिद्ध सूरि गुरु मुनिपद, आतमरूप वखाना || आपा० ॥३॥ जो निगोद में सो मुझमाहीं, सोई है शिवथाना | द्यानत निह रंच फेर नहिं जानै सो मतिवाना ॥४॥ (१५) राग मल्हार । रपमगुरु वरसत ज्ञान झरी ॥ टेक ॥ हरषि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरषि बहु गरजि गरजिक, मिथ्यातपन हरी ॥ परमगुरु० ॥१॥ सरथा भूमि सुहावनि लागै, संशय वेल हरी । भविजनमन सरवर भरि उमड़े, समुभि पवन सियरी ॥ परमगुरु०॥२॥ स्यादवाद विजली चमकै, पर मत शिखर परी । चातक मोर साध श्रावकके, हृदय सुभक्ति भरी ॥ परमगुरु॥३॥ जप तप परमानन्द बढ्यो है, सुसमय नींव धरी । द्यानत पावन पावस आयो, थिरता शुद्ध करी ॥ (१६) राग काफी। अब हम आतमको पहचानाजी ॥टेक॥ जैसा सिद्धक्षेत्रमें राजत, तैसा घटमें जाना जी ॥ अब हम० ॥१॥ देहादिक परद्रव्य न मेरे, मेरा चेतन वाना जी॥ अब हम० ॥२॥ द्यानत जो जानै सो स्याना, नहिं जाने सो दिवाना जी ॥॥ . (१७) मेरी वेर कहा ढील करी जी ॥टेक। सूली सौं सिंहासन कीनो, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ॥ ॥ मेरी बेर० ॥१॥ सीता सती अगनि मैं पैठी, पावक नीर करी सगरी जी। वारिषेणपै खड़ग चलायो, फूल माल कीनी सुथरी जी ॥ मेरी बेर० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] ॥ २॥ धन्या वापी पखो निकाल्यो, ता घर रिद्ध अनेक भरी जी । सिरीपाल सागरतें ताखो, राजभोगक मुकत बरी जी ।। मेरी बेर० ॥३॥ सांप हुयो फूलनकी माला, सोमापर तुम दया धरी जी । धानत मैं कछु जांचत नाही. कर वैराग्य दशा हमरी जो ॥ मेरी वेर०॥ (१८) जिनके हिरदै भगवान बसैं, तिन आनका ध्यान किया न किया ॥ टेक ॥ चक्री एक मिलाप भयेतें, और नर न मिलिया मिलिया। जि० ॥१॥ इक चिन्तामणि वांछितदायक, और नग न गहिया गहिया। पारस एक कनी कर आवे, और धन न लहिया लहिया । जिनके० ॥२॥ एक भान दश दिशि उजियारा, और ग्रह न उदिया उदिया। एक कल्पतरु सब सुख दाता, और तरु न उगियाउगिया | जिनके० ॥३॥ एक अभय महादान देय कें और सुदान दिया न दिया । द्यानत ज्ञानसुधा रस चाख्यो, अम्रत और पिया न पिया ॥४॥ (१६) राग परज। माई ! आज आनंद कछु कहे न बनै ॥टेक।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] नाभिराय मरुदेवी नन्दन, व्याह उछाह त्रिलोक भने ॥ माई० ॥१॥ सीस मुकुट गल अनूपम, भूषन बरननको बरनै । माई० ॥२॥ गृह सुखकार रतनमय कीनो चौंरी मंडप सुरगननै माई०॥३॥ द्यानत धन्य सुनन्दा कन्या, जाको आदीश्वर परनै ॥ माई०॥४॥ (२०) राग परज। - माई ! आज आनन्द है या नगरी ॥ टेक ॥ गज गमनी शशि बदनी तरुनी, मंगल गावत हैं सिगरी ॥ माई० ॥१॥ नाभिराय घर पुत्र भयो है, किये हैं अजाचक जाचकरी ॥ माई० ॥२॥ द्यानत धन्य कूख मरुदेवी, सुर सेवत जाके पगरी मा० (२१) जिनके हिरदै प्रभु नाम नहीं तिन, नर अबतार लिया न लिया।।टेक॥ दान बिना घर-वास बासकै, लोभ मलीन धिया न धिया । जिनके०॥ १॥ मदिरापान कियो घट अन्तर, जलमल सोधि पिया न पिया। आन प्रानके मांस भखेतै करुना भाव हिया न हिया ॥ जिनके० ॥२॥ रूपवान गुनखान वानि शुभ, शील विहीन तिया न तिया। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] कीरतवंत मृतक जीवत हैं, अपजसवंत जिया न जिया । जिनके० ॥३। धाम मांहि कछु दाम न आये, बहु व्योपार किया न किया। द्यानत एक विवेक किये विन, दान अनेक दिया न दिया ।। (२२) बिपतिमें धर धीर, रे नर ! विपतिमें धर धीर ॥टेक॥ सम्पदा ज्यों आपदा रे ! विनश जै है वीर ॥रे नर० ॥१॥ धूप छाया घटत बढ़ ज्यों त्योंहि सुख दुख पीर ॥ रे नर० ॥२॥ दोष द्यानत देय किसको, तोरि करम-जंजोर ॥ रे नर० ॥३॥ (२३) गुरु समान दाता नहिं कोई ॥टेका भानु प्रकाश न नाशत जाको, सो अंधियारा डारै खोई ॥ गुरु० :शा मेघ समान सबनपै वरसै, कछु इच्छा जाके नहिं होई । नरक पशुगति आगमांहितें. सुरंग मुकत सुख थापै सोई ॥ गुरू० ॥२॥ तीनलोक मन्दिरमें जानौ, दीपकमम परकाशक लोई। दी. पतलें अंधियारा भयो है अन्तर बहिर विमल है जोई ॥ गुरु० ॥३॥ तारन तरन जिहाज सुगुरु हैं, सब कुटुम्ब डोवै जगतोई। धानत निशि दिन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ निरमल मनमें, राखो गुरु-पद पंकज दोई। (२४) आतम अनुभव करना रे भाई ॥टेका। जब लौं भेद-ज्ञान नहिं उपजै, जनम मरन दुख भरना रे ॥ भाई० ॥१॥ आतम पढ़ नव तत्त्व बखान, ब्रत तप संजम धरना रे। आतम-ज्ञान बिना नहिं कारज, जोनी संकट परना रे ॥ भाई०॥२॥सकल ग्रन्थ दीपक हैं भाई, मिथ्या तमके हरना रे। कहा करै ते अंध पुरुषको, जिन्हें उपजना मरना रे॥ ॥ भाई० ॥३॥ द्यानत जे भवि सुख चाहत हैं, तिनको यह अनुसरना रे। 'सौह' ये दो अक्षर जपकी, भव-जल पार उतरना रे ॥४॥ (२५) __ धनि ते साधु रहत धनमांहीं ॥टेक।। शत्रु. मित्र सुख दुख सम जानें, दरसन देखत पाप पलाहीं ॥ धनि० ॥१॥ अट्ठाईस मूल गुण धार, मन वच काय चपलता नाही! ग्रीषम शैल शिखा हिम तदिनी, पावस वरखा अधिक सहाहीं ॥धनि ॥२॥ क्रोध मान छल लोभ न जानें, राग दोष नाहीं उनपाहीं । अमल अखाँडित चिद्गुण मंडित Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ ] ब्रह्मज्ञानमें लीन रहाहीं ॥ धनि० ॥३॥ तेई माधु लहैं केवल पद, आठ काठ दह शिवपुर जाहीं। द्यानत भवि तिनके गुण गावें, पावै शिव सुख दुःख नसाहीं ॥ धनि०॥४॥ (२६) __ अब हम आतमको पहिचान्यौ टेक।। जब ही सेती मोह सुभट बल, खिनक एकमें भान्यौ ॥ अब ॥१॥ राग विरोध विभाव भजे झर,ममता भाव पलान्यौ । दरशन ज्ञान चरनमें चेतन भेद रहित परवान्यौ ॥ अब० ॥२॥ जिहि देखें हम अवर न देख्यो, देख्यो सो सरधान्यौ । ताकी कहो कहैं के सैं करि, जा जानै जिम जान्यौ ॥स. ॥३॥ पूरब भाव सुपनवत देखे, अपनो अनुभव तान्यो । द्यानत ता अनुभव स्वादत ही जनम सफल करि मान्यौ । अब० ॥४॥ (२७) हमको प्रभु श्रीपास सहाय ॥टेक॥ जाके दरशन देखत जब ही, पातक जाय पलाय हम० ॥१॥ जाको इद फनिंद चक्रधर, बंर्दै सीस नवाय ___ सोई स्वामी अंतरजामी, भव्यनिको सुखदाय ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] ॥ हमको० ॥२॥ जाके चार घातिया बीते, दोष जु गये बिलाय । सहित अनन्त चतुष्टय साहब, म. हिमा कही न जाय ॥ हमको० ॥३॥ ताकी या बड़ो मिल्यो है हमको, गहि रहिये मन लाय । द्यानत औसर बीत जायगो, फेर न कछू उपाय ॥४॥ (२८) ज्ञानी ज्ञानी ज्ञानी, नेमिजी ! तुम ही हो ज्ञानी टक। तुम्ही देव गुरु तुम्हों हमारे, सकल दरव जानी ॥ ज्ञानी० ॥१॥ तुम समान कोउ देव न देख्या, तीन भवन छानी । आप तरे भवजीवनि तारे, ममता नहिं आनी ।। ज्ञानी० ॥२॥ और देव सब रागी द्वेषी, कामीक मानी। तुम हो वीतराग अकषायी तजि राजुल रानी ॥ ज्ञानी. ॥३॥ द्यानतदास निकास जगततै, हम गरीब प्रानी ॥ ज्ञानी॥४॥ (२६) देख्या मैंने नेमिजी प्यारा टक। मूरति ऊ. पर करों निछाबर, तन धन जीवन जोवन सारा ॥ देख्या० ॥१॥ जाके नखकी शोभा आरौं कोटि काम छवि डारौं वारा । कोटि संख्य रवि चन्द Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] छिपत है, वपुकी युति है अपरम्पारा ॥ देख्या०२॥ जिनके बचन सुनें जिन भबिजन, तजि गृह मुनिवरको ब्रत धारा । जाको जस इन्द्रादिक गाव, पावै सुख नासै दुख भारा । देख्या० ३। जाके केवल ज्ञान विराजत, लोकालोक प्रकाशन हारा । चरन गहेकी लाज निबाहो, प्रभुजी यानत भगत तुम्हारा । देख्या ४ ॥ (३०) आतमरूप अनुपम है, घटमाहिं विराजै॥टेक जाके सुमरन जाप सो, भव भव दुख भाजै हो । आतम० ॥१॥ केवल दरशन ज्ञानमैं, थिरतापद छाजै हो । उपमाको तिहुं लोकमें, कोउ वस्तु न राजै हो॥ आतम० २ ॥ सहै परीषह भार जो, जु महाबत साजै हो । ज्ञान विना शिव ना लहै, बहुकर्म उपाजै हो ॥ आतम० ३॥ तिहुँ लोक तिहुँ कालमें नहिँ और इलाजै हो । द्यानत ता. कों जानिये, निज स्वारथ का हो ॥ आतम ४ ॥ नहिं ऐसो जनम बारम्बार ॥ टेक ॥ कठिनकठिन लयो मनुष भव, विषय भजि मतिहार ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] नहिं० ॥ १ ॥ पाय चिन्तामन रतन शठ, छिपत उदधि मंकार | अंध हाथ बढेर आई, तजत ताहि गंवार | नहिं ० २ | कबहुँ नरक तिरजंच कबहुँ, | कबहुँ सुरगविहार | जगतमहिं चिरकाल भमियो दुर्लभ नर अवतार । नहिं ० ३ । पाय अम्रत पांय धोवै, कहत सुगुरु पुकार । तजो विषय कषाय द्यानत, ज्यों लहो भवपार ॥ ( ३२ ) तू तो समझ समझ रे ! भाई ॥ टेक ॥ निशिदिन विषय भोग लपटाना, धरम वचन न सुहाई ॥ तू तो० ॥ १॥ कर मनका लै आसन मायो, वाहिज लोक रिझाई । कहा भयो बक ध्यान धरे तैं, जो मन थिर न रहाई ॥ तू तो० ॥२॥ मास मास उपवास कियेतैं, काया बहुत सुखाई । क्रोध मान छल लोभ न जीत्या, कारज कौन सराई ॥ ॥ तू तो० ॥३॥ मन वच काय जोग थिर करकै, त्यागो विषयकषाई । द्यानत सुरग मोख सुखदाई, सदगुरु सीख बताई ॥ तू तो ॥४०॥ ( ३३ ) घट में परमातम ध्याइये हो, परम धरम धन Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] हेत । ममता बुद्धि निवारिये हो टारिये भरम निकेत ॥ घटमें० ॥१॥ प्रथमहिं अशुचि निहारिये हो सात धातुमय देह । काल अनन्त सहे दुख जानें, ताको तजो अब नेह ॥ घटमें० ॥२॥ ज्ञानावरनादिक जमरूपी, जिनतै भिन्न निहार । रागादिक परनति लख न्यारी, न्यारो सुबुध बिचार ॥ घटमें ॥ तहां शुद्ध आतन निर विकलप, व करि तिसको ध्यान । अलप कालमें घाति नसत हैं, उपजत केवल ज्ञान ॥ घटमें० ॥४॥ चार अघाति नाशि शिव पहुंचे, विलसत सुख जु अनन्त । सम्यक दरशनकी यह महिमा, चानत लह भव अंत ॥ घटमें०॥शा समझत क्यों नहिं वानी, अज्ञानी जन ॥टेक॥ स्यादबाद अङ्कित सुखदाय, भागी केवलज्ञानी ॥ ॥ समझत० ॥१॥ जास लरखें निरमल पद पावै, कुमति कुगतिकी हानी । उदय भया जिहमें परगासी, तिहि जानी सरधानी ॥ समझत० ॥२॥ जामें देव धरम गुरु वरने, तीनौं सुकतिनिसानी । निश्चय देव धरम गुरु आतम, जानत विरला Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ । प्रानी ॥ समझत० ॥३॥ या जग माहिं तुझे तारन को. कारन नाव वखानी । द्यानत सो गहिये निहचैसों हूजे ज्यों शिवथानी ॥ समझत० ॥४॥ धिक ! धिक ! जीवन समकित बिना ॥टेक॥ दान शील तप व्रत श्रुतपूजा, आतम हेत न एक गिना ॥ धिक० ॥१॥ ज्यों बिनु कन्त कामिनी शोभा, अंबुज बिनु सरवर ज्यों स्कृना । जैसे बिना एकड़े बिन्दी त्यों समकित विन सरव गुना॥धिक जैसे भूप बिना सब सेना, नीव विना मन्दिर चुनना । जैसे चन्द बिहूनी रजनी, इन्हैं आदि जानो निपुना ॥ धिक० ॥३॥ देव जिनेन्द्र, साधु गुरु, करुना धर्मराग व्योहार मना । निहचै देव धरम गुरु आतमः द्यानत गहि मन वचन तना ॥ धिक०॥४॥ (३६) गुजरातीभाषा-गीत । जीवा ! शं कहिये तने भाई का पोता । रूप अनूप तजीन; शामाट, विषयी थाई ॥ जीबा० ॥१॥ इन्द्रीना विषय विषथकी मौटा ज्ञान नू अनंत गाई । अमृत छोड़ीनै विषय विष पीधा साता तो नथी पाई ।। जीवा० ॥२॥ नरक निगो Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २० ] दना दुख सह आव्यो, बली तिहनैं मगधाई एहवी बात रूड़ी न छै तमनैं तीन भवनना राई॥ जीवा० ॥३॥ लाख बातनी बात ए छै, मूकीनै विषयकषाई द्यानत ते वारै सुख लाधौ, एम गुरु समझाई॥४॥ (३७ ) राग मल्हार। ज्ञान सरोवर सोई हो भविजन ॥टोक॥ भूमि छिमा करुना मरजादा, सम-रस जल जहं होई ॥ भविजन० ॥१॥ परहति लहर हरख जलचर बहु, नय पंकति परकारी । सम्यक कमल अष्ट दल गुण हैं, सुमन भँवर अधिकारी ॥ भविजन ॥२॥ संजम शील आदि पल्लव हैं कमला सुमति निवासी । सुजस सुवाल कमल परिचयतें, परसत भ्रम तप नासी ॥ भविजन० ॥३॥ भव मल जात न्हात भविजनका, होत परम सुख साता । द्यानन यह सर और न जानें, जानें बिरला ज्ञाता ॥भ०४॥ (३८) जीव ! तैं मूढ़पना कित पायो टेक॥ सब जग स्वारथको चाहत है, स्वारथ तोहि न भायो ॥ जीव० ॥१॥ अशुचि अचेत दुष्ट तनमांहीं कहा जान विरमायो । परम अतिन्द्री निजसुख हरिक, Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] विषय रोग लपटायो ॥ जीव० ॥२॥ चेतन नाम भयो जड़ काहे, अपनो नाम गमायो । तीन लोक को राज छाँडिकै, भीख मांग न लजायो ॥ जीव० ॥३॥ मूढ़पना मिथ्या जब छूट, तब तू संत कहायो । द्यानत सुख अनन्त शिव विलसो, यों सदगुरु बतलायो । जीव० ॥४॥ (३६) राग सारंग। हम लागे आतमरामसों ॥टेक॥ विनाशोक पुदगलकी छाया, कौन रमै धनवानसों॥हम०॥१॥ समता सुख घटमें परगास्यो कौन काज है काम सों। दुविधा-भाव जजांजुलि दीनौँ, मेल भयो निज स्वामसों । हम० ॥२॥ भेदज्ञान करि निज परि देख्यौ, कौन विलोकै चामसौं । उरै परैकी बात न भावै, लौ लाई गुणग्रामसों ॥ हम० ॥३॥ विकलप भाव रंक सब भाजे, झरि चेतन अभिरामसों। धानत आतम अनुभव करिकै छुट भव दुखधामसों ।। हम० ॥४॥ (४०) प्रभु अब हमको होहु सहाय ॥टेका। तुमषिन हम बहु जुग दुख पायो, अब तो परसे पांय ॥प्रभु Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ | तीन लोक में नाम तिहारो, है सबको सुखदाय | सोई नाम सदा हम गावैं, रीझ जाहु पतियाय ॥ प्रभु० ॥२॥ हम तो नाथ कहाये तेरे जावैं कहां सु बताय । बांह गहेकी लाज निबाहौ जो हो त्रिभुवनराय || प्रभु० ॥३॥ द्यानत सेवकने प्रभु इतनी, विनती करी बनाय । दीनदयाल दया धर मनमें, जमतें लेहु बचाय ॥ प्रभु० ॥४॥ ( ४१ ) " बस संसार में मैं, पायो दुःख अपार ॥ टेक ॥ मिथ्याभाव हिये धो नहिं जानों सम्यकचार ॥ बसि० ||१|| काल अनादिहि हौं रुत्यौ हो, नरक निगोद मंकार । सुर नर पद बहुते धरे पद, पद प्रति आतम धार ॥ सि० ||२|| जिनको फल दुखपुंज है हो, ते जानें सुखकार । भ्रम मद पीय बिकल भयो नहि, गह्यो सत्य व्योहार ॥ बसि० ॥३॥ जिनबानी जानी नहीं हो, कुगति विनाशन हार । द्यानत अब सरधा करी दुख मेटि लह्यो सुखसार ॥ बसि० ॥ ४॥ ( 1 ( ४२ ) धनि धनि ते सुनि गिरिवनवासी ॥टेक॥ मार Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] मार जगजार जारते, द्वादस व्रत तप अभ्यासी ॥ धनि० ||१|| कौड़ी लाल पास नहि जाके जिन छेदी आसापासी । आतम-आतम, पर-पर जानें, द्वादश तीन प्रकृति नासी ॥२॥ जा दुख देख दुखी सब जग हवै, सो दुख लख सुख ह्वै तासी जाकों सब जग सुख मानत है, सो सुख जान्यो दुखरासी ॥ धनि ||३|| वाहन भेष कहत अंतर गुण, सत्य मधुर हितमित भासी । द्यानत ते शिवपंथपथिक हैं, पांव परत पातक जासी ||४|| ( ४३ ) राग कल्याण ( सर्व लघु ) कहत सुगुरु करि सुहित भविकजन ! ॥टेक॥ पुद्गल अधरम धरम गगन जम, सब जड़ मम नहिं यह सुमरहु मन ॥ कहत० ॥ १॥ नर पशु नरक अमर पर पद लखि, दरव करम तन करम पृथक भन । तुम पद अमल अचल विकलप बिन अजर अमर शिव अभय अखय गन ॥ कहत० ||२|| त्रिभुवनपतिपद तुम पटतर नहिं, तुम पद अतुल न तुल रविशशिगन । वचन कहत मन गहन शकति नहिं, सुरत गमन निज निज गम परनन || कहत० ॥ ३॥ इह विधि बंधत खुलत इह Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ 1 विधि जिय, इन विकलपमहिं शिवपद सधत न । निरविकलप अनुभव मन लिधि करि, करम सघन वनदहन दहन-कन ।। कहत० ॥४॥ हो भैया मोरे ! कहु कैसे सुख होय ॥टेक। लीन कषाय अधीन विषयके, धरम करै नहिं को. य॥ हो भैया० ॥१॥ पाप उदय लखि रोवत भोदू, पाप तजै नहिं सोय । स्वान-बान ज्यों पाहन संघे, सिंह हनै रिपु जोय ।। हो भैया० ॥२॥ धरम करत सुख दुख अघसेती, जानत हैं सब लोय । कर दीपक लै कूप परत है, दुख पैहै भव दोय ॥ हो भैया० ॥३॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म भुलायो, देव धरम गुरु खोय । उलट चाल तजि अब सुलटै जो, द्यानत तिरै जग तोय ॥ हो भैया०॥४॥ (४५) प्रभु मैं किहि विधि थुति करौं तेरी ॥टेक॥ गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ॥ प्रभु० ॥१॥ शक जनम भरि सहस जीभ धरि तुम जस होत न पूरा । एक जीभ कैसे गुण गावै, उलू कहै किमि सूरा ॥ प्रभु० ॥२॥ चमर छत्र Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] सिंघासन घरनों, ये गुण तुमते न्यारे। तुम गुण कहन वचन वल नाहीं, नैन गिनें किमि तारे ॥३॥ (४६) भज श्रीआदिचरन मन मेरे, दूर होय भव भव दुख तेरे ॥टेक॥ भगति बिना सुख रंच न होई, जो ढूंतिहुं जगमें कोई ॥ भज० ॥१॥ प्रान-पयान-समय दुख भारी, कंठविर्षे कफकी अधिकारी । तात मात सुत लोग घनेरा, तादिन कौन सहाई तेरा ॥ भय० ॥२॥ तू बसि चरण चरण तुझमाहीं, एकमेक ह्वै दुविधा नाहीं । तातै जीवन सफल कहावै, जनम जरा मृत पास न आवै॥ भज० ॥३॥ अब ही अवसर फिर जम घेरै, छांदि लरक बुध सद्गुरु टे। द्यानत और जतन कोउ नाही, निरभय होय तिहूँ जगमाहीं । (४७) प्राणी लाल ! धरम अगाऊ धारौ ।।टेक॥ जब लौं धन जोवन हैं तेरे; दान शील न विसारौ ॥ प्राणी० ॥१॥ जपलौं करपद दिढ़ हैं तेरे, पूजा तीरथ सारौ। जीभ नैन जबलौं हैं नीके, प्रभु गुन गाय तिहारौ ॥ प्राणी ॥२॥ आसन श्रवण सबल Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] हैं तोलौं, ध्यान शब्द सुनि धारौ । जरा न आवै गद न सतावै, संजम परउपकारौ ।। प्राणी ॥२॥ देह शिथिल मति विकल न तौलौं, तप गहि तत्त्व विचारौ । अन्तसमाधिपोत चढ़ि अपनो, द्यानत आतम तारौ ॥ प्राणी० ॥४॥ (४८) राग सोरठ। नेमि नवल देखें चल री । लहैं मनुष भवको कलरी ॥टेका। देखनि जात जात दुख तिनको भान जथा तम दल दल री। जिन उर नाम वसत है जिनको, तिनको भय नहिं जल थल री ॥ नेमि० ॥१॥ प्रभुके रूप अनूपम ऊपर, कोट काम कीजे बल री । समोसरनकी अद्भुत शोभा नाचत शक्र सची रल री । नेमि० ॥२॥ भोर उठत पूजत पद प्रभुके, पातक भजत सकल टल री। द्यानत सरन गही मन ! ताकी, जैहैं भवबंधन गल री ॥३॥ (४६) सचि ! पूजौ मन वच श्रीजिनेन्द्र, चित्तचकोर सुखकरन इंद ॥टेका। कुमति कुमुदिनी हरनसूर, विधनसघन वनदहन भूर ॥ भवि० ॥१॥ पाप उ-, रग प्रभु नाम मोर, मोह महा-तम दलन- भोर । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ ] ॥ भवि० ॥२॥ दुख दालिद-हर अनघ-रैन, द्यानत प्रभु र्दै परम चैन ॥ भवि० ॥३॥ (५०) मगन रहु रे ! शुद्धातममें मगन रहु रे ॥टेका। राग दोष परको उतपात, निहचै शुद्ध चैतनाजात ॥ मगन० ॥१॥ विधि निषेधको खेद निवारि,आप आपमें आप निहारि ॥ मगन० ॥२॥ बंध मोक्ष विकलप करि दूर, आनन्द कन्द चिदातम सूर ॥ मगन ॥३॥ दरसन ज्ञान चरन समुदाय, द्यानत ये ही मोक्ष उपाय ॥ मगन० ॥४॥ आतम जानो रे भाई ! ॥टेक॥ जैसी उज्जल आरसी रे, तैसी आतम जोत । काया-कर-मनसौं जुदी रे, सबको करै उदोत ॥ आतम०॥शाशयन दशा जागृत दशा रे, दोनों विकलप रूप। निरविकलप शुद्धातमा रे, चिदानन्द चिद्र प ।। आतमः ॥२॥ तन वचसेती भिन्न कर रे, मनसों निज लौं लाय। आप आप जब अनुभवै रे. तहां न मन वच काय ॥ आतम० ॥३॥ छहौं दरब नव तत्वतैरे, न्यारो आतम राम । द्यानत जे अनुभव करें Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० । तू अपनो विगारे, जाय दुर्गति परै ॥ रे जिय० ॥२॥ होय संगति गुन सबनिकों, सरव जग उच्चरै तुम भले कर भले सवको, बुरे लखि मति जरै ॥रे जिय० ॥३॥ वैद्य परविष हर सकत नहिं, आप भाखिको मरै। बहु कपाय निगोद-वामा, छिमा द्यानत तरै ॥ रे जिय० ॥४॥ (५७) फूली बसन्त जहं आदीसुर शिवपुर गये । टेक ॥ भारतभूप बहत्तर जिनगृह, कनकमयी सब निरमये ॥ फूली० ॥१॥ तीन चौवीस रतनमय प्रतिमा, अंग रंग जे जे भये । सिद्ध समान सीस सम सबके, अद्भुत शोभा परिनये ।। फूली०॥२ बालि आदि आहूठ जोड़ सुनि, सबनि मुकति सुख अनुभये । तीन अठाई फागनि (?) खग मिल गावै गीत नये नये ॥ फूली० ॥६॥ वस्तु जोजन वस्तु पैड़ी (?) गंगा फिरी बहुत खुरआलये। द्यानत सो कैलास नमौं हौं, गुन कापै जा वरनथे। फूली० ॥४॥ (५८) तुम ज्ञानविभव फूली वसन्त, यह मन मधु Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३१ ] कर सुखसों रमन्त ॥ट का दिन बड़े भये बैराग भाव, मिथ्यामत रजनीको घटाव ॥ तुम० ॥१॥ धहु फूली फैली सुरुचि वेलि, ज्ञाता जन समता संग केलि ॥ तुम० ॥२॥ द्यानत बानी पिक मधुर रूप, सुर नरपशु आनन्दघनसुरूप ॥ तुम० ॥३॥ (५६) राग मल्हार । जगतमें सम्यक उत्तम भाई टक॥ सम्यक सहित प्रधान नरकमें, धिक शठ सुरगति पाई ॥ जगत•॥१॥ श्रावकब्रत मुनिव्रत जे पालें, ममता बुद्धि अधिकाई । तिनतें अधिक 'असंजम चारी, जिन आतम लब लाई ॥ जगत० ॥२॥ पंच परावर्तन तैं कीनै, बहुत बार दुखदाई । लख चौरासि स्वाँग धरि नाच्यो, ज्ञानकला नहिं आई॥ जगत. ॥३॥ सम्यक विन तिहुं जग दुखदाई, जहँ भाव तहँ जाई । चालत सम्यक आतम अनुभव, सद्गुरु सीख बताई । जगत० ॥४॥ (६०) राग गौड़ी। भाई ! अब मैं ऐला जाना ॥टेक॥ पुद्गल दरव अचेत भिन्न हैं, मेरा चेतन बाना ॥ भाई० ॥१॥ कलप अनन्त सहत Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर माना । सुख दुख दोऊ कर्म अवस्था, मैं क. मनतै आना | माई० ॥२॥ जहां भोर था तहां भई निशि, निशिकी ठौर बिहाना। भूल मिटी जिनपद पहिचाना, परमानन्द निधाना ॥ भाई० ॥ ॥३॥ D गेका गुड़ खांय कहैं किमि, यद्यपि स्वाद पिछाला । द्यानत जिन देख्या ते जाने, मेंडक हंस पखाना ॥ आई०॥४॥ (६१) राग ख्याल । आतम जान रे जान रे जान ॥टका जीवन की इच्छा करै, कबहुं न मांगे काल । (प्राणी) सोई जान्यो जीव है। सुख चाहै दुख टाल ॥ आ० ॥१॥ नैन बैनमें कौन है, कौन सुनत हैं बात । (प्राणी) देखत क्यों नहिं आपमें, जाकी चेतन जात ॥ आतम० ॥२॥ वाहिर ढूढं दूर है, अंतर निपट नजीक । (प्राणी !) दंढनवाला कौन है, सोई जानो ठीक । आतम० ॥३॥ तीन भवनमें देखिया आतम सम नहिं कोय । (प्राणी ! ) द्यानत जे अनुभव करें। तिनकौं शिवसुख होय ।४। (६२) राग सोरठ। मन ! मेरे राग भाव निवार ॥टेक॥ राग चि Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] कनतें लागत है कर्मधलि अपार ॥ मन० ॥१॥ राग आस्रव मूल है, वैराग्य संवर धार। जिन न जान्यो भेद यह, वह गयो नरभव हार ॥ मन० ॥२॥ दान पूजा शील जप तप, भाव विविध प्रकार । राग विन शिव सुख करत हैं, राग” संसार ॥ ॥ मन० ॥३॥ बीतराग कहा कियो, यह बात प्रगट निहार । सोड कर सुखहेत धानत, शुद्ध अ. नुभव सार ॥ मन० ॥४॥ (६३) राग रामकली। हम न किसीके कोई न हमारा, झूठा है जगका व्योहारा ॥टेक॥ तन सम्बन्धी सब परवारा सो तन हमने जाना न्यारा ॥ हम० ॥१॥ पुन्य उदय सुखका बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा। पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सब देखन हारा ॥ ॥ हम० ॥२॥ मैं तिहुं जग तिहुं काल अकेला, पर संजोग भया बहु मेला । थिति पूरी करि खिर खिर जाहीं, मेरे हर्ष शोक कछु नाहीं ॥ हम० ॥३॥ राग भावतें सज्जन मान, दोष भावतें दुर्जन जानैं। राग दोष दोऊ मम नाहीं, द्यानत मैं चेतनपद माहीं ॥ हम० ॥४॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] (६४) राग पंचम। भ्रस्यो जी भ्रम्यो, संसार महावन, सुख तो __ कबहुं न पायो जी ॥2॥ पुदगल जीव एक करि जान्यो, भेद-ज्ञान न सुहायो जी ॥ भ्रम्यो० ॥१॥ मनवचकाय जीव संहारो, झूठो वचन बनायोजी चोरी करके हरष बढ़ायो, विषयभोग गरवायोजी ।। भ्रम्घो० ॥२॥ नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, साधारण वसि आयो जी । गरभ जनम नरभव दुख देखे, देव मरत बिललायोजी ॥ भम्यो० ॥३॥ द्यानत अब जिनवचन सुनै मैं, भवमल पाप वहायो जी । आदिनाथ अरहन्त आदि गुरु, चरनकमल चितलायो जी ॥ भम्यो०॥४॥ (६५) राग रामकली। जियको लोभ महा दुखदाई, जाकी शोभा (2) वरनी न जाई ॥टेका। लोभ करै मूरख संसारी छांई पण्डित शिव अधिकारी ॥ जियको० ॥१॥ तजि घरवास फिरै वनमाहीं, कनक कामिनी छांडै नाहीं । लोक रिझावनको व्रत लीना, व्रत न होय ठगई साकीना ॥ जियको० ॥२॥लोभवशात जीव हत डारे, झूठ बोल चोरी चित धारै । नारि गहै Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ ] परिगृह विस्तारै, पांच पापकर नरक सिधारै ॥ जियको ० ॥३॥ जोगी जती गृही बनवासी, वैरागी दरवेश सन्यासी | अजस खान जसकी नहि रेखा, द्यानत जिनके लाभ विशेखा || जियको ० ||४|| ( ६६ ) रे मन ! भज भज दीनदयाल ॥ टेक ॥ जाके नाम लेत इक छिनमैं, करें कोट अघजाय ॥ रे मन ॥१॥ परमब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखें होत निहाल सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भाजै काल || रे मन० ||२|| इन्द्र फनिन्द चक्रधर गावैं, जाको नाम रसाल । जाको नाम ज्ञान परगासै, नाशै मिथ्याजाल | रे मन० ॥३॥ जाके नाम समान नहीं कछु, करध मध्य पताल | सोई नाम जपो नित द्यानत, छांड़ि विषय विकराल || रे मन० ||४|| ( ६७ ) तुम प्रभु कहियत दीनदयाल || टेक ॥ आपन जाय मुकत मैं बैठे, हम जु रुलत जगजाल ॥ तुम० ॥ १ ॥ तुमरो नाम जपें हम नीके, मन वच तीनों काल | तुमतो हमको कछू देत नहि, हमरो कौन हवाल || तुम० || २ || बुरे भले हम भगत तिहारे, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] जानत हो हम चाल | और कछू नहिं यह चाहत हैं, राग दोषकों टाल ॥ तुम० ॥३॥ हमसौ चूक परी सो वकसो, तुम तो कृपाविशाल । द्यानत एक बार प्रभु जगतै, हमको लेहु निकाल ॥४॥ *( ६८ ) राग ख्याल | मैं नेमिजीका बंदा, मैं साहबजीका बंदा ॥ टेक॥ नैन चकोर दरसको तरसें, स्वामी पूरनचंदा || मैं नेमिजी० ॥ १॥ छहौं दरवमें सार बतायों, आतम आनन्दकन्दा । ताको अनुभव नित प्रति कीजे, नासै सब दुख दंदा || मैं नेमिजी ||२|| देत धरम उपदेश भविक प्रति इच्छा नाहिं करंदा | राग दोष मद मोह नहीं नहीं, क्रोध लोभ छल छंदा || मैं नेमिजी० ||३|| जाको जस कहि सकैं न क्योंही, इन्द फनिंद नरिन्दा || मैं नेमि० ॥४॥ ( ६६ ) मैं निज आतम कब ध्याऊँगा || टेक || रागादिक परिनाम त्यागकै, समतासौं लौ लाऊँगा ॥ मैं निज० ॥ १ ॥ मन वच काय जोग थिर करके, ज्ञान समाधि लगाऊंगा । कब हौं क्षिपकश्रेणि चढ़ि ध्याऊँ चारिक मोह नशाऊँगा ॥ मैं निज० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] ॥२॥ चारों करम घातिया खन करि परमातम पद पाऊँगा। ज्ञान दरश सुख बल भंडारा, चार अघाति बहाऊंगा ॥ मैं निज० ॥३॥ परम निरंजन सिद्ध शुद्धपद, परमानन्द कहाऊँगा। द्यानत यह सम्पति जब पाऊँ, बहुरि न जगमें आऊंगा ॥४॥ अरहन्त सुमर मन बावरे । टेक ॥ ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लौ लावरे ॥ अरहन्त० ॥१॥ नरभव पाय अकारथ खोवै, विषय भोग जु बढ़ावरे। प्राण गये पछितैहै मनवा, छिन छिन छीजै आव रे ॥ अरहन्त० ॥२॥ जुवती तन धन सुत मित परिजन, गज तुरंग रथ चाव रे। यह संसार सुपनकी माया, आंख मीच दिखराव रे। अरहन्त ॥३॥ ध्याब ध्याब रे अब है दावरे, नाहीं मंगल गाव रे । द्यानत बहुत कहां लौं कहिये, फेर न कछू उपाव रे ॥४॥ (७१) वन्दौ नेमि उदासी, मद मारिनेकौं । टेक ॥ रजमतीसी जिननारी छाँरी, जाय भये बनवासी ॥ बन्दो० ॥१॥ ह्य गय रथ पायक सब छोड़े, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ ] तोरी ममता फांसी। पंच महाव्रत दुद्धर धारे, राखी प्रजति पचासी ॥ बन्दौं० ॥२॥ जाकै दरसन ज्ञान विराजत, लहि वीरज सुखरासी। जाकौं बन्दत त्रिभुवन नायक, लोकालोक प्रकासी। बन्दौं० ॥३॥ सिद्ध शुद्ध परमारथ राज, अविचल थान निवासी । चानत मन अलि प्रभु पद पंकज, रमत रमत अघ जासी ॥ बन्दौं ॥४॥ (७२) आतम अनुभव कीजै हो ॥टेक।। जनम जरा अरु मरन नाशक , अनत काल लौं जीजै हो । आतम० ॥१॥ देव धरम गुरुकी सरधा करि, कुगुरु आदि तज दीजै हो। छहौं दरब नव तत्त्व परखकै चेतन सार गहीजै हो ॥ आतम० ॥२॥ दरव करम नोकरम भिन्न करि, सूक्षम दृष्टि धरी. जै हो। भाव करमतें भिन्न जानिक, बुधि पिलास न मरीज हो ॥ आतम०॥३॥ आप आप जानै सो अनुभव, द्यानत शिवका दीजै हो। और उपाय बन्यो नहिं बनिहै, करै सो दक्ष कहीजै हो ॥ आतम०॥४॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t [ ३६ ] ( ७३ ) रे ! तू आतम हित गयो जग भमतें, कर रे ! कर रे ! कर कर रे ॥ टेक ॥ काल अनन्त भव भवके दुख हर रे || कर रे० ||१|| लाख कोटि भव तपस्या करतैं, जितो कर्म तेरी जर रे । स्वास उस्वासमाहिं सो नासै, जब अनुभव चित धर रे || कर रे० ||२|| काहे कष्ट सहे बनमाँहीं, राग दोष परिहर रे । काज होय समभाव विना नहिं, भावौ पचि पचि मर रे ॥ कर रे० ॥३॥लाख रे सीखकी सीख एक यह, आतम निज, पर पर कोट ग्रंथको सार यही है, द्यानत लख भव तर रे || कर रे० ||४|| 1 ( ७४ ) भाई ज्ञानका राह सुहेला रे | भाई० ॥टेक॥ दरव न चहिये देह न दहिये, जोग भोग न नवेला रे || भाई ० ||१|| लड़ना नाहीं मरना नाहीं, करना बेला तेला रे । पढ़ना नाहीं गढ़ना नाहीं, ना चन गावन मेला रे || भाई० ॥ २ ॥ न्हान नाहीं खाना नाहीं, नाहिं कमाना धेला रे । चलना नाहीं जलना नाहीं, गलना नाहीं देला रे || भाई ० ॥३॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० ] जो चित चाहै सो नित दाहै, चाह दूर करि खेला रे । द्यानत या मैं कौन कठिनता, वे परवाह अकेला रे || भाई० ॥ ४॥ (७५) प्रभु तेरी महिमा किहि मुख गावैं ॥ टेक ॥ गरभ छमास अगाउ कनक नग ( ? ) सुरपति नगर बनावै ॥ प्रभु० ॥१॥ क्षीर उदधि जल मेरु सिंहासन, मल मल इन्द्र न्हुलावै । दीक्षा समय पा लकी बैठो, इन्द्र कहार कहावै ॥ प्रभु० ||२|| समोसरन रिध ज्ञान महातम, किहिविधि सरव बतावैं । आपन जातकी बात कहा शिव, बात सुनें भवि जायें || प्रभु० ||३|| पंच कल्याणक थानक स्वामी, जे तुम मन वच ध्यावैं । द्यानत तिनकी कौन कथा है, हम देखें सुख पावैं ॥ प्रभु० ॥४॥ ( ७६ ) प्रभु तेरी महिमा कहिय न जाय ॥ टेक ॥ श्रुति करि सुखी दुखी निन्दात, ते समता भाय ॥ प्रभु• ॥१॥ जो तुम ध्यावै, थिर मन लावै, सो किंचित सुख पाय । जो नहिं ध्यावै ताहि करत हो, तीन भवनको राय || प्रभु० ||२|| अंजन चोर Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ ] महा अपराधी, दियो स्वर्ग पहुंचाय । कथानाथ - णिक समदृष्टी, कियो नरक दुखदाय || प्रभु०॥३॥ सेव असेव कहा चलै जियकी, जो तुम करो खु न्याय । द्यानत सेबक गुन गहि लीजै, दोष सबै छिटकाय || प्रभु० ||४| (७७) राग विलाबल । प्रभु तुम सुमरनहीमें तारे ॥ टेक ॥ सूअर सिंह नौल वानरने, कहाँ कौन व्रत धारे ॥ प्रभु० |१|| सांप जाप करि सुरपद पायो, स्वान श्याल भय जारे । भेक वोक गज अमर कहाये, दुरंगति भाव विदारे ॥ प्रभु० ॥२॥ भील चोर मातंग जुगनिका, बहुतनिके दुख टारे । चक्री भ रत कहा तप कीनौ, लोकालोक निहारे ॥ प्रभु० || ३ || उसम मध्यम भेट् न कीन्हों, आये शरन उबारे । धानत राग दोष बिन स्वामी, पाये भाग हमारे ॥ (७८) राग भैरों । ऐसो सुमरन कर मेरे भाई, पवन भै मन कितहुँ न जाई ॥टेक॥ परमेसुरसों सांच रहीजै लोकर जना भय तज दीजे ॥ ऐसी० ॥ १ ॥ जप अरु नेम दोउ विधि धार, आसन प्राणायाम सं Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] भारो । प्रत्याहार धारना कीजै, ध्यान समाधि महारस पीजै । ऐसो० ॥२॥ सो तप तपो बहुरि नहिं तपना, सो जप जपो बहुरि नहिं जपना । सो ब्रत धरो बहुरि नहिं धरना, ऐसे मरों बहुरि नहिं मरना ॥ ऐसो० ॥३॥ पंच परावर्तन लखि लीजै, पांचों इन्द्रकी न पतीजै । द्यानत पांचों लच्छि लहीजै, पंच परम गुरु शरन गहीजै ॥४॥ (७६) राग विलाबल । __ कहिवेको मन सूरमा, करवेकों काचा ॥टेक॥ विषय छुड़ावै और पै, आपन अति माचा ॥ क. हिबे० ॥ १॥ मिश्री मिश्रीके कहैं, मुंह होय न मीठा । नीम कहैं मुख कटु हुआ, कहुं सुना न दीठा ॥ कहिवे० ॥२॥ कहनेवाले बहुत हैं, करने कों कोई । कथनी लोक रिझावनी, करनी हित होई ॥ कहिवे० ॥३॥ कोड़ि जनम कथनी कथै, करनी बिनु दुखिया। कथनी विनु करनी करै, द्यानत सो सुखिया ॥ कहिवे० ॥४॥ (८०) राग विलावल । श्री जिननाम अधार, सार भजि ॥टेक॥ अगम अतट संसार उदधितै, कौन उतारै पार ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ४३ । श्रीजिन० ॥१॥ कोटि जनम पातक कटैं, प्रभुनाम लेत इक बार । ऋद्धि सिद्धि चरननसों लागै, आनन्द होत अपार ।। श्रीजिन० ॥२॥ पशु ते धन्य धन्य ते पंखी, सफल करें अवतार । नाम बिना धिक मानवको भव, जल बल व है छार ।। श्री. जिन० ॥३॥ नाम समान आन नहिं जग सब, कहत पुकार पुकार । द्यानत नाम तिहूं पन जपि लै, सुरगमुकति दातार ॥४॥ (८१) देखे सुखी सम्यकवान ॥टेक॥ सुख दुखको दुखरूप विचार, धारै अनुभव ज्ञान ॥ देखे० ॥१॥ नरक सातमेंके दुख भोगैं, इन्द्र लखें तिनमान । भीख मांगकै उदर भरै न करें चक्रीको ध्यान ॥ ॥ देखे ॥२॥ तीर्थकर पदको नहिं चावें जपि उदय अप्रमान । कुष्ट आदि बहु व्याधि दहत न, चहत मकरध्वज थान ।। देखे०॥३॥ आधि व्याधि निरबाध अनाकुल, चेतन जोति पुमान । धानत मगन सदा तिहिमाहीं, नाहीं खेद निदान ॥४॥ ज्ञानी जीव दया नित पालें ॥टेक॥ आरम्भत Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ ] परघात होत है, क्रोध घात निज टालें ॥ ज्ञानी० ॥ १ ॥ हिंसा त्यागि दयाल कहावै, जलै कषाय व दनमें । बाहिर त्यागी अन्तर दागी, पहुंचे नरक - सदनमें || ज्ञानी० ||२|| कर दया कर आलस भावी, ताको कहिये पापी । शांत सुभाव प्रमाद न जाकै, सो परमारथ व्यापी ॥ ज्ञानी० ॥ ३॥ शिथिलाचार निरुयम रहना सहना बहु दुख भ्राता । द्यानत बोलन डोलन जीमन, करें जतनसों ज्ञाता ॥ ज्ञानी० ॥४॥ ( ८३ ) कारज एक ब्रह्महीसेती || टेक || अंग संग नहिं बहिरभूत सब, धन दारा सामग्री तेती ॥ कारज० ||१|| सोल सुरंग नव विकमें दुख, सुखित सातमें ततका वेति । जा शिवकारन मुनि गन ध्यावैं, सो तेरे घट आनन्दखेती || कारज० ॥ ||२|| दान शील जप तप व्रत पूजा, अफल ज्ञान विन किरिया केती । पंच दरब तोतें नित न्यारे, न्यारी राग दोष विधि जेती ॥ कारज० ॥३॥ तू अविनाशी जगपरकासी, द्यानत भासी सुकलावेती । तजौ लाल ! मनके विकलप सब, अनुभव 1 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] मगन सुविधा एती ॥ कारज० ॥४॥ ( ८४ ) चेतन खैलै होरी ॥ टेक ॥। सत्ता भूमि हिमा वसन्तमें, समता प्रान प्रिया संग गोरी | चेतन० ॥ १ ॥ मनको माट प्रेमको पानी, तामें करुना केसर घोरी | ज्ञान ध्यान पिचकारी भरि भरि आपमें छोर होरा होरी | चेतन० ||२|| गुरुके वचन मृदंग बजत हैं, नय दोनों डफ ताल टकोरी । संजम अतर विमल व्रत चोवा, भाब गुलाल भरै भर भोरी ॥ चेतन० ॥३॥ धरम मिठाई तप बहु मेवा 'समरस आनन्द अमल कटोरी । द्यानत सुमति कहै सखियनसों, चिरजीवो यह जुग जुग जोरी ॥ चेतन० ||४|| (८५) भोर भयो भज श्रीजिनराज सफल होंहिं तेरे सब काज ॥ टेक ॥ धन सम्पत मनवांछित भोग, सव विधि आन बर्नै संयोग ॥ भोर० ॥ १॥ कल्प वृच्छ ताके घर रहै, कामधेनु नित सेवा वहै । पारस चिन्तामनि समुदाय, हितसों आय मिल सुखदाय || भोर० ||२|| दुर्लभतै सुलभ्य ह्वै जाय " Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ ] रोग सोग दुख दूर पलाय । 'सेवा देव करें मन लाय, विघन उलट मंगल ठहराय ॥ भोर० ॥३॥ डायन भूत पिशाच न छल, राजचोरको जोर न चलै । जस आदर सौभाग्य प्रकास, धानत सुरग मुकतिपदवास ॥ भोर० ॥४॥ ___ आयो सहज बसन्त खेल सब होरी होरा ।। ॥टेक। उत बुधि दया छिमा बहु ठाढ़ी, इत जिय रतन सजै गुन जोरा ॥ आयो० ॥१॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत हैं, अनहद शब्द होत घनघोरा । धरम सुराग गुलाल उड़त है, समता रंग दुहुँने घोरा ॥ आयो० ॥२॥ परसन उत्तर भरि पिचकारी छोरत दोनों करि करि जोरा। इतनै कहै नारि तुम काकी, उततै कहैं कौनको छोरा ॥ आयो० ॥ ॥३॥ आठ काठ अनुभव पावकमें, जल वुझ शांत भई सब ओरा । धानत शिव आनन्दचन्द छवि, देखें सज्जन नैन चकोरा ॥४॥ (८७) अजितनाथसों मन लावो रे ॥ टेक ॥ करसों ताल वचन मुख भाषौः अर्थमें चित्त लगावो रे Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अजित० ॥१॥ ज्ञान दरस सुख बल गुनधारी, अनन्त चतुष्टय ध्यावो रे। अब गाहना अवाध अमूरत, अगरु अलघु बतलावो रे ॥ अजित० ॥२॥ करुनासागर गुनरतनागर, जोति उजागर भावो रे । त्रिभुवननायक भवभयघायक आनन्द दायक गावो रे॥ अजित० ॥३॥ परम निरंजन पातकभंजन, भविरंजन ठहरावो रे ।द्यानत जैसा साहिब सेवो तैसी पदवी पावोरे ॥ (८८) राग असवारी अब हम अमर भये न मरेंगे ॥टेक॥ तन कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों करि देह धरेंगे ॥ अव० ॥१॥ उपजै मरै कालतें प्रानी, तातै काल हरेंगे। राग दोष जग वंध करत हैं, इनको नाश करेंगे। अब० ॥२॥ देह विनाशी मैं अविनाशी भेदज्ञान पकरेंगे । नासी जासी हम थिरवासी, चोखे हों निखरै गे॥ अघ० ॥३॥ मरे अनन्त बार पिन समझै, अब सब दुख विसरैगे। द्यानत निपट निकट दो अक्षर विन सुमरै सुमरेंगे ॥४॥ (८६) राग आसावरी । भाई ! ज्ञानी सोई कहिये ॥ टेक ॥ करम Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८ । उदय सुख दुख भोगेतैः राग विरोध न लहिये ॥ ॥ भाई० ॥१॥ कोऊ ज्ञान क्रियातँ कोऊ, शिवमारग बतलावै । नय निहचै विवहार साधिके, दोऊ चित्त रिझावै ॥ भाई० ॥२॥ कोई कहै जीव छिनभँगुर, कोई नित्य बखानै । परजय दर बित नय परमाने, दोऊ समता आने ॥ भाई० ॥३॥ कोई कहै उदय है सोई, कोई उद्यम बोलै । द्यानत स्यादवाद सुतुलामें, दोनों वस्तँ तोले ॥ भाई० ॥४॥ (६०) राग आसाबरी भाई ! कौन धरम हम पालैं ॥ टेक॥ एक कहैं जिहि कुलमें आये ठाकुरको कुल गालैं॥ भाई ॥१॥ शिवमत बौध सु वेद नयायक, मीमांसक अरु जैना। आप सराहैं आगम गाहैं, काकी सरधा ऐना ॥ भाई० ॥२॥ परमेसुरपै हो आया हो, ताकी वात सुनी जै। पूछ बहुत न बोलैं कोई बड़ी फिकर क्या कीजै ॥ भाई ॥३॥ जिन सब मतके मत संचय करि, मारग एक बताया । द्यानत सो गुरु पूरा पाया भाग हमारा आया ॥४॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूची-पत्र पद्मपुराण। स्वर्गीय कविवर रविषेणाचार्य कृत संस्कृतका अनुवाद पडित दौलतरामजाने इतनी सरल और मिष्ट भाषामें लिखा है कि उसको आजकलकी भाषामें बदलनेकी इच्छा नहीं होती कारण वे सीधे साधे और भावपूर्ण शब्द पुरुष ही नहीं हमारा स्त्री समाज तथा बालक बालिकायें भी सरलतासे समझ लेता है। ., जबकि देशमें रामायणका प्रचार जोरोंसे है, तब उसी कथाको समझानेके लिये पद्मपुराणका स्वाध्याय अत्यंत उपयोगी है। शास्त्राकार खुले पत्रोंके ग्रन्थकी न्याछावर १०) रुपया। __ हरिवंशपुराण। श्री कृष्णको जैन धर्ममें कितनी मान्यता है तथा कौरव, पांडव आदिका इतिहास, इस महान ग्रन्थमें सपूर्ण भरा हुआ है। भगवान नेमिनाथ की जीवनीसे तमाम जैन समाजको काफी शिक्षा मिलती है। नौतिपूर्ण एतिहासिक घटनायें पढ़कर मन गदगद हो जाता है। इस अन्यके लेखक वही स्वर्गीय प० दौलतरामजी हैं जिन्होंने सरल भाषा लिखनेमें काफी ख्याति प्राप्त की है, यह प्रन्थ भी शाखाकार सरल भाषामे छपा है। न्यो००). Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या उसक श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार । यह ग्रन्थ पांच वार छप चुका है, इसके सम्बन्धमें कुछ भी लिखना सूर्यको दीपक दिखाना है। प० सदासुखजीने श्रावकोंके लिये यह पथप्रदर्शक ग्रन्थ लिखकर महान उपकार किया है । शास्त्राकार न्यो० ५॥ रुपया पुरुषार्थ सिद्धयुपाय । शास्त्राकार पुरानी और नवीन टीकाओं सहित (स्व० प० टोडरमलजी कृत) छपाया है। न्योछावर ४) रुपया मात्र । ___ तत्वार्थ राजवार्तिक स्त्र० प० पन्नालालजी दूनीवाल कृत पुरानो भाषामें एक खड ही छपा था उसका मूल्य सिर्फ ४) रक्खा है। जैनक्रिया कोष । स्व० प० दौलतरामजीने आचार सम्वन्धी इस गन्थको लिखकर बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया है। वही दुवारा छपाया था पर थोड़ी कापी बाको हैं, अतएव जिन्हें दरकार हो शीघ्र ही मगा लें। न्योछावर ३) रुपया। - चरचा समाधान । स्व० पं० भूधरदासजी कृत शास्त्राकार यह छपाया गया है, इसमें तमाम प्रामाणिक ग्रन्थोंके आधारसे सैकड़ों शकाओंका समाधान किया है (गोमट्टसार, राजवार्तिक जैसे गन्योंके आधारसे ) न्यो० २) रु० मात्र । सुकुमाल चरित्र इसका मिलना भी दुष्प्राप्य था, अतएव उसी शास्त्रीय भाषामें जो जयपुर निवासी श्रीमान प० नाथूलालजी दोशीने सकलकीर्ती कृत सस्कृतसे भाषामें लिखी थी प्रगट की है, वास्तवमें सुकमालकी जीवनी पढ़कर आपका हृदय पवित्र हो जायगा, कई उत्तमोत्तम रगीन चित्र भी दिये हैं। मो०१) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहद्विमल पुराण | यह ग्रन्थ अप्राप्य था इसको सस्कृतमें प्राप्त कर उसकी सरल भाषाटीका श्रीमान माननीय पत्र गजाधरलालजी, न्यायतीथसे लिखाकर छपाया गया है । द्वितीय वृत्तिका मूल्य ६) मात्र । शांतिनाथ पुराण | यह ग्रन्थ भी सस्कृतमें था, इससे हिन्दी भाषा वाले स्वाध्यायसे चितव ही रह जाते थे, अतएव इसका सरल भाषामें पर लालारामजी शास्त्री द्वारा अनुवाद कराया गया है । शास्त्राकार छाया है । मूल्य ६) रुपया । ✓ आदिपुराण । इस बड़े भारी ग्रन्थको सार रूपमें सरल भाषा बेचनिकामें पं० लाल श्रावकसे लिखवाया गया है। सिर्फ शृङ्गार भाग छोड़कर बाकी विषयको ग्रन्थमें लानेका प्रयत्न किया है, यही कारण है कि थोड़े ही ग्रन्थकी द्वितियावृत्ति करानी पड़ी। शास्त्राकार, मूल्य ६ ) रुपया 1 1 1 "1 - F मल्लिनाथ पुराण | प० गजाधरलालजी शास्त्रीने संस्कृतसे हिन्दीमें इसकी भाषाटीका को है । ग्रन्थको हिन्दी जाननेवालोंके लिये हो छपाया है। जैन समाजने इसको थोड़े ही समय में मगाकर खतम कर दिया है। यह द्वितीय वृत्ति है 1 न्योछावर. ४) रुपया मात्र । ' 1 बुद्धि प्रत्येक समय में 1 पुन्याश्रव कथा कोष ८ इस ग्रन्थका मिलना १५ वर्षसे बन्द हो गया था उसीको सचित्र ४८ चित्र देकर छपाया है, इसकी कथायें कितनी सुन्दर और शिक्षाप्रद हैं यह हमारे धर्मात्मा पाठक स्वाध्याय करके ही अनुभव प्राप्त कर सके हैं भाषा वर्तमान ढंगको सरल और मुहावरेदार है। फिर भी इस ४०० पृष्टके ग्रन्थकी न्योछावर २ || ) मात्र है । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्य पूजा संग्रह ३२ पृष्ठकी पुस्तकमें दैनिक काममें आनेवाली तमाम पूजाओंका संग्रह किया गया है। मू०८) सचित्र कथा ग्रन्थ शील कथा-सचित्र कई चित्रोंसे विभूषित, कई एडीशन हो चुके हैं। मूल्य ।।) दर्शन कथा--कई चित्रोंसे विभूपित मूल्य ॥) मात्र । श्रावकाचारकी कहानियां-इसमें मोक्षमार्गकी सच्ची कहानियां हैं। ६ उत्तमोत्तम हाफटोन चित्र भी दिये गये हैं, तिस पर भी मू० ।।) मात्र । दान कथा-सचित्र कई वार छप चुकी है। मू०।) निशिभोजन कथा-रात्रि भोजनका ज्वलत दृयत कव्हर पर है मू०) मौनव्रत कथा-सचित्र द्वितीवृत्ति मू० ।) जैनव्रत कथा-छोटी कथाओंकी पुस्तक है । मू० =)॥ सप्त व्यसन कथा-(सचित्र ) कई चित्रोंसे विभूषित नवीन ढगसे छपी है । मू० १॥ चरुदत्त चरित्र--संगीतके ढंगसे वर्तमान हाथरसी गानोंको लक्ष्यमें रखकर सुंदर ढगसे लिखा गया है, सचित्र है, मू०॥) प्रद्युम्न चरित्र-प० गुणभद्रजी कविरनको लेखनीसे लिखा हुमा काव्य-गन्य है तीनरगा कव्हर मू० ॥) सुकुमाल चरित्र-इसकी पुण्यमय जीवनी पढ़कर आपका मन गदगद हो जायगा। तीनरगा चित्र भी दर्शनीय है। मू० १) आराधना कथा कोष (प्रथम भाग)-८ चित्रोंसे विभूषित होकर नवीन हो छपकर तैयार हुभा है, इसमें २५ धार्मिक कथायें हैं। पृष्ठ २०० मू० ११) नाटक दरशवत नाटक-दरशन कथाके आधार पर लिखा हुवा खेलने योग्य मच्छा सचित्र है। मू०) । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचंद चौबीसी पाठ मारवाड़ प्रतिमें प० रामचदजी कृत चौवीसी पाठका अधिक प्रचार है। । अतएव दुबारा हमने फिर इसको छपा दिया है। प्रथमावृत्तिकी अपेक्षा अवकी वार बड़ा बड़ा टाइप तथा पुष्ट कागज और सुन्दर जिल्द भी बधवा दी है। न्यो०११ रुपया मात्र। नित्य पाठ गुटका सस्कृत भाषाके १८ पाठोंका पाकेटमें रखने योग्य गुटका है ।। न्यो० ॥) मात्र। सामायक पाठ मेरी भावना यह भी गुटका साइजमें सार्थ छाकर चार वार विक चुकी है। न्यो०-) राम बनवास उर्फ जैन रामायण । पद्मपुराणके आधारसे सुन्दर जोशीली रामायणकी तरह भावपूर्ण कविता में कविरत्न प० गुणभद्रजीने इसको लिखकर साहित्यका बड़ा उपकार . किया है। पृष्ठ संख्या १७० कई हाफटोन सुन्दर चित्र हैं। मूल्य केवल १) मात्र । . षोड़ससंस्कार आदि पुराणके आधारसे इस पुस्तकका सपादन कराया गया है, जन्मसे लेकर मरण पयंत सोलह संस्कार होते हैं उनको पूर्ण विधीसे सरल भाषामें समझाया गया है, प्रत्येक गृहस्थके यहां इसकी १ प्रति अवश्य ही रहनी चाहिये। कव्हर पर एक सुंदर रंगीन चित्र दिया गया है। इसको प्रथमावृत्तिका मूल्य १) था पर द्वितिया वृत्तिका मूल्य ॥) मात्र कर दिया है। • भाद्रपद पूजा संग्रह इस पुस्तकमें तमाम मावश्यकीय पूजामोंका संग्रह कर दिया गया है। मादो महीनेमें इस पुस्तकको मगा लेनेसे फिर और कोई पुस्तकको आवश्यकता नहीं रहेगी। मू० ॥३) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शतक-इसमें १०० उपयोगी शिक्षाप्रद सवैये स्व० कविवर भूघरदासजीके दिये गये हैं। त्यो० =) मात्र ।। सूत्र भक्ताभर महावीराष्टक-तोनों पाठ एक साथ बड़े अक्षरों में दिये हैं। न्यो० =)। समायक पाठ सार्थ-पं० कस्तूरचंद कृत मू० -) __पंच मंगल-मूल पांचों मंगल और अभिषेक पाठ भी है। मू०-) समाधि मरण-बबईया टाइपमें नया ही छपा है। बड़ा समाधिमरण यही है। न्यो० -) दर्शन पाठ-पृष्ठ १६ प्रतिदिन काममें आने वाले पूजा पाठ स्तुति, आरती आदि हैं। न्यो०-) मेरी भावना-पं० जुगलकिशोर कृत पृष्ठ १६ च्चम वार्डर वाली मू०)। कुमारी अनंतमतीको ५ गुणभद्रजी कविरत्नने कवितामें लिखा है। न्यो० ) विद्युत चोर-नाटक नवीन छपा है। मू०१) अरहंतपासा केवली- इस छोटीसी पुस्तकमें कविवर वृन्दावनदासजीने शुभ अशुम जाननेके लिये बड़ा सुन्दर उपाय बताया है। न्यो० ॥ मात्र । निर्वाणकांड आलोचना, सामायक पाठ मू० -- विनती संग्रह-सचित्र नवीन छपकर तैयार है। -)| छहढाला-मूल दौलतरामजी कृत मू० -) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहमासा संग्रह - सीताजी, राजुल,मुनिराज, वनदन्त चक्रवर्ती आदिके बारहमासा सम्मलित हैं । मू -)। श्रावकबनिता रागनी-स्त्रियोंके लिये मंगलीक अवसरोंपर गाने योग्य उत्तमोत्तम धार्मिक राग-रागनी हैं। न्यो०३) सुगंध दशमी कथा-की तीसरी आवृत्रि तैयार है - रविब्रत कथा-की सातवीं आवृत्ति छप गई है -JIL रक्षाबन्धन कथा-सचित्र तैयार है मूल्य ) भक्तामर संकटहरण विनती-भी दूसरी बार छपा दी है मूल्य - भाग्य और उद्योग यह उन आलसी व्यक्तियोके लिये है जो भाग्यके भरोसे बैठे रह कर जीवन बिताना चाहते हैं इसमें उद्योगी की तारीफ की गई है-तीनरङ्गा चित्र कव्हर पर दिया है । मूल्य 110 मात्र । का गदर यह हिन्दी की सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना पर लिखी गई पुस्तक है पृष्ट संख्या ४०० के लगभग होते हुए भी न्यो० ॥ रू पोपोंकी ५ कहानियां वर्तमानमें जो लोक मूढ़ताके कारण धार्मिकता की ओटमें भन्याय अत्याचार किये जाते हैं उनकी इसमें खूब ही मजेदार भाषामें धज्जियां उड़ाई हैं, हँस २ आप लोट पोट हो, जांयगे सचित्र पुस्तकका मूल्य ।।।) माना । भैयाको कहानी 12) मिठाईका दोना =) मधुवन १) प्रेम ॥) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीस दंडक - भाषा कवितामे मू० -) संसार दुःख दर्शन — अच्छी भावपूर्ण कवितामें लिखा - है । मू कर्मदहन विधान - कवि चंद्रजी कृत सरल हिन्दी कवितामे यह विधान लिखा गया है। मू० =) पंच परमेष्ठी विधान - यह भी सरल हिन्दीमें पथ रूपमे लिखा गया है । न्यो० =) पंचकल्याणक विधान - कविवर ताराचंदजी कृत यह २८ पृष्ठका विधान है । मू० =) सम्मेद शिखर विधान – कई बार छप चुका है। सू०-) जैनपद भजन दौलत जैनपद संग्रह - मे अध्यात्मिक कविने ऐसे उत्तमोत्तम भजनोंको लिखा है कि उसकी तारीफ करना सूर्यको दीपक दिखाना है | मू० 11) जिनेश्वरपद संग्रह -- इसके कई एडीशन हमारे यहां हो चुके हैं । न्यो० /-) धानतपद संग्रह —— इसमे द्यानतरायजीके उपयोगी पड़ है महाचंद पद संग्रह - यह मारवाड़के अच्छे कवि हुए हैं, उनके भजनोंका संग्रह है । मू० ।) --- इष्ट छत्तीसी - (सार्थ) कई बार छप चुकी है । न्यो० ) आना । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम तरंग (प्रथम भाग)-कविवर सूरजभानजी "प्रेम" नवीन तर्जको कविता करनेमें कमाल करते हैं आपने वाइसकोपकी नवोन २ त में इस प्रेम तरंगको लिखा है। न्यो० एक आना। प्रेम तरंग (द्वितीय भाग)-उक्त कविने ही यह दुसरा भाग लिखा है । न्यो०) ना-त्र० प्रेमसागरजीने भक्तिसे प्रेरित होकर आ० सूर्यसागरजीकी पूजन लिखी है । न्यो००) पिंड शुद्धि अधिकार-अर्थात् मुनिराजकी आहार विधी वर्तमानमें जो मुनियोंका भ्रमण हो रहा है, इसलिये यह पुस्तक बहुत उपयोगी है। सचित्र पुस्तकका मूल्य =) सज्जन चित्त बल्लभ-आचार्य मल्लिषेण कृत मुनियोंको शिथिलावादी न होनेके लिये यह मास्टरका काम करेगी. प्रत्येक श्रावकको चाहिये कि इसे अवश्य देखें। न्यो०३) दश लक्षण धर्म संग्रह-~अर्थात धर्म कुसमोद्यान नामक पुस्तक बिलकुल नवीन पं० पन्नालालजी, साहित्याचार्यसे लिखवा कर तैयार को है, प्रत्येक श्रावकको इसे अवश्य ही पढ़ना चाहिये। ऊपर संस्कृत नीचे हिन्दी टीका दी हुई है जिससे सबको समझनेमें सुविधा होगी। न्यो०।-) छहढालाकी कंजी-(सचित्र) छहढालाकी छहोंढालोंके शब्दार्थ इस तरह सरल भाषामें लिख दिये हैं कि मास्टरकी जरूरत नहीं है। इस कुंजीको मंगा लेनेसे बालक स्वयं पढ़ सकते हैं। मू००) मात्र। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श नाटक-इसमें दिल्ली अनाथाल्यके वालकों द्वारा गाये जाने वाले इमाओंका सगृह सचित्र है। मू ।) सोमासती या बिगड़ेका सुधार-रात्रि भोजनपर अच्छा शिक्षा प्रद ड्रामा लिखा गया है । मू०३) । स्कूली पुस्तकें रत्नकरन्ड प्रावकाचार-सचित्र (सार्थ ) मय चार्ट सहित इतना उत्तम अभीतक नहीं छया था उसे बहुत परिश्रमसे एक सुप्रसिद्ध विद्वान द्वारा सम्पादन कराया है। मू०।-) द्रव्य संग्रह-(सचित्र ) मुख पृष्टपर छह द्रव्योंका भावपूर्ण दोरंगा चित्र देखकर आप द्रव्योंका रूप आसानीसे समझ लेंगे। उपयोगी कई चार्ट मी दिये गये हैं। सार्थ अन्य तमाम द्रव्य-संगहोंसे उत्तम। छपाई सफाई सर्वोत्तम मू० ।-) छहढाला-(सार्थ) कव्हर पर "जिन सुधिर मुद्रा देख मृग गण उपल खाज खुजावते" का भावपूर्ण चित्र अन्यय अर्थ आदि कठिन-कठिन उलमानों को हमारे सुयोग्य सम्पादकने सुलझानेका प्रयास किया है। छाई सफाई सर्वोत्तम होनेपर भी मू0 1-) मात्र । शिशुवोध जैन धर्म-प्रथम वालबोध जैन धर्मकी तरह बड़े-बड़े वम्बईया टाइपोंमें छपा है। १४ पृष्ठका यह प्रथम भाग है, वारह बार छप चुका है। मु०-) द्वितीय भाग-१० वार छप चुका है। मू० -)॥ तृतीय भाग-सचिःा बहुत ही उत्तम ढगसे लिखा गया है। मू०३) आर वार छप चुका है। ___चौथा भाग-सचित्र बहुतही सुंदरताके साथ छाया गया है । मू०) भावना संग्रह-पृष्ठ संख्या ३२ इसमें धर्म पञ्चीसी, 'वारह भावना, भूधर, बुधजन, भगौतीदास, जयचंद, मंगतरायको भावना सम्मिलित हैं, सोलह कारण भावना, वैराग्य भावना, मेरी भावना, ज्ञान पञ्चीसी आदि भी सम्मिलित हैं। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन स्कूलों के लिये (पठनझमकी पुस्तकें तैयार हैं ) सचित्र जैन पुराणोंकी तरह पठनक्रमकी पुस्तकें नवीन ढंगसे सरल भाषामें अनुवाद कराके, सुन्दर नवीन टाइपोंमें छपवाकर, भाव पूर्ण रंगीन चित्रोंको देकर जैन-साहित्यका घर घरमें प्रचार सुलभत से हो यही ध्यान कार्यालयके संचालकोंका सदैव रहा है। पाठको आप नीचे माफिक नवीन पुस्तकोंको मंगाकर देखें मगर पसन्द न हो तो दाम वापिस भेज दिये जायेंगे। द्रव्यसंग्रह सार्थ (सचित्र ) पृष्ठ ६६ मूल्य छहढाला सार्थ (सचित्र) पृष्ठ ६० मूल्य छहढालाकी कुञ्जी ( सचित्र) रत्नकरन्ड श्रावकाचार (सार्थ) सचित्र श्रावकाचारकी सच्ची कथायें (सचित्र) जैन-भारती ( कविरत्न पं० गुणभद्रजी कृत) ११) रामवनवास अथवा जैन रामायण (काव्य-सचित्र) १) कुमारी अनन्तमती ( सचित्र) जैन शतक (भूधरदासजी कृत) छहढाला (मूल) शिशुबोध जैनधर्म प्रथम भाग " , द्वितीय भाग " , तृतीय भाग " , चतुर्थ भाग मनधर्म शिक्षावली ( सचित्र) (पं० मूलचन्दजी', Dinman Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्ष में एक मात्र दिगम्बर चित्रो को तीन रंगमें छापकर प्रकाशित करने वाला सञ्चा जिनवाणी संग्रह सम्मेद शिखर जी द्रव्यसंग्रह (सचित्र) पावापुरी । म्हढाला (सचित्र) गिरनार जी छहढाला को कुखी चंद्रगुप्तक १६ स्वप्न रत्नकरन्डावकाचार सार्थ || सीताकी अन्नि परिक्षा श्रावकाचारकी कहानियां । नेमप्रभूका विवाह कुमारी अनन्तमती (काव्य) समोशरण की रचना अरहंतपासा केवली - बारहमासा संग्रह -॥ राजगृही सम्मेदशिखर विधान मधुविन्दु दरशवत नाटक पटलेल्या माताकं स्वप्न विजातिय विवाह मीमांसा ||DJ भरतचक्रवर्तीक स्वप्न प्रद्युम्न चरित्र (सचित्र) कमठका उपसर्ग छप रहा है न्यो० ३) द्रौपड़ी चीरहरण पुन्यात्रव कथा कोष ४ तीर्थङ्कर चित्रावली वड़वानी = ست Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्यकुमार चरित्र इस ग्रंथको नवीन टाइपमें पुस्तकाकार अभी छपाया गया है । कविता बहुत ही भावपूर्ण तथा चरित्र आदर्श है । इसको पढ़कर प्रत्येक प्राणी शिक्षा ग्रहणकर सकता है । न्यो० ॥) आराधना कथा-कोष तीनों भाग छपकर तैयार हो गये हैं । पृष्ठ संख्या ६०० के लगभग, सजिल्द ग्रन्थका दाम ३॥) रखा गया है। कथायें इस ग्रन्थमें लिखी गई हैं। प्रत्येक कथा को इतनी सरल भाषामें लिखाया गया है कि १० वर्ष के बालकसे लेकर स्त्रिये तथा पुरुष उपन्यासकी तरह आद्योपान्त पढ़े वगैर पुस्तकको छोड़ नहीं सकते। कई एक कहानियां इतनी भावपूर्ण हैं कि, पढ़तेपढ़ते आप कभी रो पड़ेंगे कभी हँसने लगेंगे और कभी तो जैन-धर्मकी उदारता देखकर आप उछल पड़ेंगे। वास्तव में इस ग्रन्थका आजकलके युगमें खूबही प्रचार करना चाहिये। कई वर्षोंसे इस ग्रन्थकी एक भी प्रति नहीं मिलती थी। इतना बड़ा ग्रन्थ करीब ४ महिनेके कठिन परिश्रमसे तैयार हुआ है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ बड़ी बहू बड़े भाग यह १ वर्ष पहिले खतम हो चुकी थी पर गत वर्ष इसकी खूब मांग हुई इससे हमने दुवारा छपा दी है। गल्प क्या है एक जीता जागता समाजका नग्न चित्र है। जिसे पढ़कर वाल्यविवाहके समर्थकोंका सिर नीचा हो जाता है । न्यो० एक आना मात्र सै० ३) वैराग्य-शतक इसमें आ० गुणविजयजीने चुने हुए उपदेशांको एकसाथ संग्रह करके मनुष्य मात्रका उपकार किया है। इसको पढ़कर तथा घराबर पढ़ते रहने से यह जीव संसारी झंझटोंसे छुट्टी पा सकता है, संसारकी अनित्यताका खासा दिग्दर्शन कराया गया है । न्यो० -) सै० ३) पार्श्वनाथ पुराण शास्त्राकार पुष्ट कागज बड़ाटाइप और सुन्दर छपाईके साथही जिल्द भी बंधा दी है। स्व. भूधरदासजीने इस महत्वपूर्ण ग्रंथको रचकर जैन सिद्धान्तके रहस्यको खूब ही स्पष्ट कर दिया है। प्रत्येक धर्म प्रेमी सज्जनको इसकी १ प्रति अवश्य ही मंगाकर देखनी चाहिये । न्यो० खुले पत्र १॥) सजिल्द २) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसी पुराण अभीतक अलग २ तीर्थकरोंके अलग २ नामोंसे पुराण निकाले गये थे, मुझे कई ग्राहोंने उक्त पुराणकी आवश्यकता दर्शाई तब मैंने पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यसे उक्त ग्रंथका सम्पादन कराके ग्रंथ प्रकाशन किया है । ग्रंथ शास्त्राकार साइजमें चारों तरफ वार्डर देकर बहुतही सुन्दर छपाया गया है। मुख पृष्टपर जन्म कल्याणकका तिरंगा चित्र भी दिया गया है। जो दर्शनीय है। एकबार प्रत्येक भाई व बहिनोंको इसका स्वाध्याय अवश्य ही करना चाहिये । न्यो० ३) सजिल्दका ४)। नवीन तीर्थ यात्रा यात्राका समय आ गया, सारे भारतवर्षके क्षेत्रों - का समझमें आने लायक यही संग्रह है जो एक अनु भवी विद्वान द्वारा सम्पादन कराके ८ उत्तम दर्शनीय चित्रोंसे विभूषित किया है जहां २ रेल, मोटर कच्चा रास्ता है इसका पूरा विवरण है पुराने बड़े २ पोथोंसे जो लाभ नहीं निकल सकता वह हमारी इस ६० पृष्ठकी पुस्तकसे आसानीसे निकल जायगा, परदेशमें एक मित्र की तरह आपको पथप्रदर्शक होगी। न्यो० ॥) मात्र । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन गायन सुधा नई तर्जके बाइस्कोपके गानोंको सुन २ कर छोटे छोटे बालक उन्हीं अश्लील और भद्दे सारहीन गानों को अलापा करते थे, उनको सुनकर जैन समाजके बड़े २ कवियोंने उसी तर्ज पर अपनी लेखनी उठाकर वास्तवमें एक बड़ी भारी आवश्यकताकी पूर्ति कर दी है। चुने हुए करीब १३६ गायनोंका . संग्रह हमने एकत्रित कराके इस जैन गायन सुधाको सचित्र सुन्दर छापकर आपके समक्ष रखा है। पृष्ठ संख्या होनेपर भी मूल्य ॥) मात्र । प्रद्युम्न चरित्र सचित्र ( शास्त्राकार ) आज कलकी सरल भाषा में सम्पादन करके सुन्दर बार्डर सहित कई चित्रोंसे विभूषित कराके छपाया गया है । टाइप सच्चा जिनवाणी संग्रहकी तरह बड़ा और पुष्ट कागज देकर ग्रन्थको उत्तम बनाने में कुछ भी कसर नहीं रखी गयी है। इतनी सब कुछ विशेषतायें रहते हुए भी न्यो० ३) मात्र । सजिल्दका ४) रखी है। बड़ा सूचीपत्र मंगाकर देखें। जिनवाणी प्रचारक कार्यालय १६४१ हरीसनरोड, कलकत्ता। Page #119 --------------------------------------------------------------------------  Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षमें सोने चांदी की उत्कृष्ट कारीगरी सोने चांदी के उपकरणकी सूची .. छत्र ३) रुपयेसे ५००) समोसरण १०००) ,, , १५०००). भामण्डल ३) , ५००) पाडुकशिला ५००), १००००) सिंहासन ५) , ५००) नालकी ५००), ३०००) पंचमेरू ५०), ५०००) ससारवृक्ष १००), १५०००) अष्टमंगल ४०) , . १६००) पटलेश्या १००), २००००) अष्टप्रतिहार्य ४०), १६००) अहिंसापरमोधर्म ५०), ७००) सोलहस्वपन ८०),, ३२००) मुकुट . ५), २५) आसा. ३०), . १५०) हार ५),, - २५) | सोटा' ५०)., २००) चंवर ५), ४०) झंडी , ३०), १००), रथ २०००), ५००००)/ वैलकासाज ,५०), , , , २००) उपरोक्त हरएक उपकरणका नाप छोटा वड़ा कमसे कम) भरी है। ऊपरमें ।) भरी है। __हमारे यहां चांदीमें नवीन कारीगरी दिखलानेवाले दिमागदार, .' 'अच्छे अच्छे कलाकारोंका बहुत अच्छा,समुदाय है--- .. . सिंघई मोतीचंद फूलचंद जैन जौहरी ' .. . नवीन आविष्कारमे अपनी समानता न रखनेवाला , . - , प्राचीन भारी कारखाना । बनारस ।, Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - -- - - बुधजन. विलास ल ००००००००3800A १००००००००० प्रकाशक :-दुलीचंद परवार जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, ० १६१।१, हरीसन रोड, कलकत्ता । SPERSOCIE - - --000--- छः आना - - - - - Page #122 --------------------------------------------------------------------------  Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास Acror १ प्रभाती प्रात भयो सब भविजन मिलिक,जिनवर पूजन आवो॥प्रातः ॥ टेक ॥ अशुभ मिटाको -पुन्य बढ़ावो,नैननि नींद गमावो॥ प्रा०॥१॥ तनको धोय धारि उजरे पट,सुभग जलादिक ल्यावो। वीतरागछबि हरखि निरखिकै, भागमोक्त गुण गारो॥प्रा०॥२॥शास्तर सुनोभनो जिनवानो, तप संजम उप जावो। धरि सरधान देव गुरु आगम.सात तत्व रुचि लावो।प्रा०॥३॥ दुःखित जनकी दया ल्याय उर, दान चारिविधि द्यावो । राग दोष तजि भनि निज पदको, बुधजन शिवपद पावो ॥ प्रा०॥ ४॥ - २ प्रभाती। . किंकर अरज करत जिन साहिव, मेरी ओर Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ वुधजन विलास निहारो ॥ किंकर ॥ टेक ॥ पतितउधारक दीन दयानिधि, सुन्यै तोहि उपगागे । मेरे गुन मति जावो, अपनो सुजस विचारो || किं० | १ | बज्ञानी दीसत हैं तिनमैं, पक्षपात उरकारो । नहीं मिलत महाब्रतधारी, कैसैं है निरवारो ॥ किं० ॥ २ ॥ छबी रावरी नैननि निरखी, आगम सुन्यौ तिहारो | जात नहीं भ्रम क्यों अब मेरो, या दूषनको टारो ॥ किं० ॥ ३ ॥ कोटि बात की बात कहत हूं, यो ही मतलब म्हारो । जोजौं भव तौलों बुधजनको, दीज्ये सरन सहारो ॥ किं० ॥ ४ ॥ ३ तिताला पतितउधारक पतित रटत है, सुनिये रज हमारी हो || पतित• ॥ टेक ॥ तुमसो देव न या जगतमें, जाम करिये पुकारी हो ||१०|| १ || साथ अविद्या लागमनादिकी, रागदोष विस्तारी हो । याही सन्तति करमनिकी, जनममरनदु खकारी हो ॥ प० ॥ मिले जगत जन जो Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास भरमा, कहै त सारी हो । तुम बिनकारन शिवमगदायक, निजसुभावदातारी हो ॥० ॥३॥ तुम जाने बिन काल अनन्ता, गति गति के भव धारी हो । अब सनमुख बुधजन जांचत है, 'भवदधि पार उतारी हो ॥ पतितन ॥ ४ ॥ ४ तिताला और ठौर क्यों हेरत प्यारा, तेरे हि घटमें जाननहारा || और० |टेक। चलन हलन थल वास एकता, जात्यान्तरतै न्यारा न्यारा । और ||१|| मोहउदय रागी द्वेषी है, क्रोधादिकका सरजनहारा । भ्रमत फिरत चारों गति भीतर जनम मरन भोगतदुख भारा ॥ और० ॥ २ ॥ गुरु उपदेश लखै पद आपा, तबहिं विभाव करे परिहारा । है एकाकी बुधजन निश्चल, पावै शिवपद सुखद अपारा ॥ और० || ३ || ५ तिताला ३ T काल अचानक ही ले जायगा, गाफिल होकर रहना क्यारे ॥ कालः ॥ टेक ॥ छिन हूं Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास तोकू नाहिं बचा, तो सुभटनका रखना क्यारे ।। काल• ॥ १॥रंच संबाद करिनके काज,नर कनमैं दुख भरना क्या रे। कुलजन पथिकनिक हितकाजै,जगत जालमें परना क्या रे काल ॥२॥ इंद्रादिक कोउ नाहिं बचैया, और लोकका शरना क्या रे । निश्चय हुश्रा जगतमें मरना,कष्ट परै तब डरना क्यारे काल• ।३। अपना ध्यान करत खिर जाव, तो करमानेका हरना क्या रे। अब हित करि भारत तजिबुध. जन, जन्म जन्ममे जरनाक्यारे।।काल १४ ६ भजन म्हे तो थापर वारी, वारी वीतरागीजी शांत छबी थांकी शानदकारी जी ॥ म्ह• ॥ टेक । इंद्र नरिंद्र फनिंद्र मिलि सेवत,, मुनि सेवत रिधिधारी जी ॥ म्ह॥ १॥ लख अविकारी परउपकारी, लोकालोकनिहारी जी॥ म्हे.२॥ सब त्यागी जा कृपातिहारी बुधजन ले बलिहारी जी। म्है• ॥३॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास __७ भजन । या नित चितवो उठिकै भोर, मै हूं कौन कहांत प्रायो, कौन हमारी ठौर ॥ या नितष्टेक॥ दीसत कौन कौन यह चितवत,कौन करत है शोर । ईश्वर कौन कौन है सेवक, कौन करे झकझोर ॥ या नित०॥१॥ उपजत कौन मरैको भाई, कौन डरे लखि घोर। गया नहीं प्रावत । कछु नाही, परिपूरन सब ओर ॥ या नित० ॥२॥ और और मैं और रूप है, परनतिकरि लह और। स्वांग धरै डोलो याहीतैं तेरी बुधजन भोर ॥ या नित० ॥३॥ ८ भजन। श्रीजिनपूजनको हम आये, पूजत ही दुखदुंद मिटाये॥ श्रीजिन०॥टेक ॥ विकलप गयो प्रगट भयो धीरज अद्भुत सुख समता बरसाये। आधि व्याधि अब दीखत नाही, धरम कलपतरु प्रांगन थाये ॥ श्रीजिन० ॥१॥इतमै इन्द्र चक्रवति इतमैं इतमै फर्निद खड़े सिर नाये। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास मुनिजनबंद करै थुति हरषत, धनि हम जनमें पद परसाये॥ श्रीजिन० ॥२॥ परमौदारकमैं परमातम, ज्ञानमई हमको दरसाये। ऐसे ही हममें हम जानें, बुधजन गुन मुख जात न गाये ॥ श्रीजिन० ॥३॥ ६ राग-ललित एकताली। ___ बधाई राजै हो आज राजै, बाई राजे, नाभिरायके द्वार । इन्द्र सची सुर सब मिलि आये, सजि ल्याये गजराजै ॥बधाई ॥१॥ जन्मसदन” सची ऋषभ ले, सोपिदये सुरराजै गजपै धारि गये सुरगिरिपै, न्होंन करनके काजै बधाई० ॥२॥ आठ सहस सिर कलस जु ढारे, पुनि सिंगार समाजै । ल्याय धरयो मरुदेवी करमैं हरि नाच्यो सुख साजै ॥ बधाई ॥३॥ लच्छन व्यंजन सहित सुभग तन, कंचनदति रवि लाजै । या छबि बुधजनके उर निशि दिन, तीनज्ञानजुत राजै ॥ बधाई. ॥४॥ १०-ललित तितालो। हो जिनवानी जू, तुम मोकौं तारोगी॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास ama हो० ॥टेक ।। आदि अन्त अविरुद्ध वचनतै, संशय भ्रम निरबारोगी॥हो०॥१॥ज्यौं प्रतिपालत गाय वत्सकौं, त्यों ही मुझकौं पारोगी। सनमुखकाल बाघ जब आवै, तब तत्काल उवा रोगी॥ हो॥२॥ बुधजन दास बीनवै माता, या विनती उर धारोगो। उलझि रह्यो हूं मोहजालमें, ताकौं तुम सुरझारोगी॥हो ॥३॥ ११-राग विलावल कनड़ी। ___ मनकै हरष अपार-चितकै हरष अपार, वानी सुनि ।।टेक। ज्यौं तिरषातुर अम्रत पीवत, चातक अंबुदधार ॥ वानी सुनि० ॥१॥मिथ्या तिमिर गयोतताखन हो, संशयभरम निवार। तत्वारथ अपने उर दरस्यौ, जानि लियो निज सार । वानी सुनि० ॥२॥ इन्द नरिंदं फनिंद पदीधर, दीसत रंक लगार। ऐसा आनंद बुधजनके उर, उपज्यौ अपरंपार ॥ वानी सुनि०।३। ११-राग अलहिया। चन्दजिनेसुर नाथ हमारा, महासेनसुत Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X बुधजन विलास लगत पियारा ॥ चन्द || || सुरपति नरपति फनिपति सेवत, मानि महा उत्तम उपगारा । मुनिजन ध्यान धरत उरमाहीं, चिदानंद पदवीका धारा || चन्द० ||१|| चरन शरन बुधजन जे याये, तिन पाया अपना पद सारा । मंगलकारी भवदुखहारी स्वामी अद्भुत उपमावारा॥ चन्द० ॥ २ ॥ राग - अलहिया विलावल ताल धीमा तैताला । I - करम देत दुख जोर हो साईयां || करम• |||| कैइ परावृत पूरन कीनै संग न छोड़त मोर हो साईंयां ॥ करम ||१|| इनके वश मोहि बचावो महिमा सुन प्रति तोर हो साईंयां ॥ करम ||२|| बुधजनकी विनती तुम हीसौं तुमसा प्रभु नहिं और हो साईंयां ॥ करम० ॥३॥ १४ राग - सारंग | तन देख्या अथिर घिनावना ॥ तन । टेक ॥ बाहर चाम चमक दिखलावै, माहीं मैल पावना Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह बुधजन विलास बालक ज्वान बुढ़ापा मरना, रोगशोक उपजावना ॥ तन० ॥ १ ॥ अलख मूरति नित्य निरञ्जन, एकरूप निज जानना । वरन फरस रस गंध न जाकै, पुन्य पाप बिन मानना ॥ तन०॥२ करि विवेक उर धारि परीक्षा, भेद - विज्ञान वि चारना | बुधजन तनतें ममत मेटना, चिदानंद पद धारना || तन० ॥ ३ १५ राग – सारंग लूहरी तेरो करि लै काज बखत फिरना || तरो ॥ टेक ॥ नरभव तेरे वश चालत है, फिर परभव परवश परना || तेरो० ॥ १ ॥ आन अचानक कंठ दवेंगे, तब तोकौं नाही शरना । यातें विलम, न ल्याय बावरे, अब ही कर जो है करना ॥ तेरो० ॥ २ ॥ सब जीवनकी दया धार उर दान सुपात्रानि कर धरना । जिनवर पूजि शास्त्र सुनि नित प्रति, बुधजन संवर श्राचरना ॥ तर० ॥ ३॥ १६ राग - लूहरी मीणांकी चालमे अहो ! देखो केवलज्ञानी, ज्ञानी छबि . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास भली या विराजै हो भली या विराजै।अहो। टेक ॥ सुर नर मुनि याकी सेव करत हैं, करम हरनके काजै हो ॥ अहो० ॥ १॥ परिग्रहरहित प्रातिहारजुत, जगनायकता छाजै हो। दोष बिना गुन सकल सुधारस, दिविधुनि मुख” गाजै हो॥ अहो देखो० ॥ २॥ चित में चितवत ही छिनमाहीं, जन्म जन्म अघ भाजै हो । बुधजन याकौं कबहु न बिसरो, अपने हितके काजै हो ॥ अहो० ॥३॥ ___१७ राग-सारंग लूहरि। __ श्रीजी तारनहारा थे तो, मानें प्यारा लागो राज॥ श्री टंक ॥ बार सभा बिच गंधकुटीमें राज रहे महाराज ॥ श्री०॥१॥अनंत कालका भरम मिटत है, सुनतहिं अाप अवाज श्री० ॥२॥ बुधजन दास रावरो बिनवै, थांसू सुधरै काज ॥ श्री० ॥३॥ १८ राग-पूरवी एकताला। तनके मवासी हो, अयाना ॥ तनके० ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास टेक चहुंगति फिरत अनंतकालतें, अपने सदनकी सुधि भौराना ॥ तनके० ॥१॥ तन जड़ फरस गंध रसरूपी, तू तो दरसनज्ञान निधाना, तनसौं ममत मिथ्यात मेटिकै, बुधजन अपने शिवपुर जाना ॥ तनके ॥२॥ १६ राग-पुरवी एकतालो। नैन शान्त छबि देखि छके दोऊ ॥ नैन टेक॥ अब अद्भुत दुति नहिं बिसराऊं, बुरा भला जग कोटि कहो कोऊ ॥ नैन० ॥१॥ बड़ भागन यह अवसर पाया सुनियोजी, अब अर ज मेरा कहूं । भवभवमें तुमरे चरननको, बुधजन दास सदा हि बन्यौ रहूं ॥ नैन० ॥२॥ ___२० पूरवी जल्द तितालो। हरनाजी जिनराज, मोरी पीर हरना०॥ टेक ॥ श्रान देव सेये जगवासी, सरयो नहीं मोर काज ॥ हरना० ॥१॥ जगमें बसत अनेक सहज ही, प्रनवत विविध समाज । तिनपै इष्ट अनिष्ट कल्पना, मैटोगे महाराज ॥ हरना०२ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ womanmmmna oram बुधजन विलास पुद्गल रात्रि अपनपौ मुल्यो, विस्था करत इलाज । अबहिं जथाबिधि वेगि बतायो बुधजनके सिरताज ॥ हरना० ॥३॥ २२ राग-पूरवी।। - भजन बिन यौँ ही जनम गमायो॥ भजन• ॥ टेक ॥ पानी पल्यां पाल न बांधी, फिर पाखें पछतायो । भज•॥ रामा-मोह भये दिन खोबत, आशापाश बंधायो । जप तप संजम दान न दीनों, मानुष जनम हरायो । भजन ॥२॥ देह सीस जब कापन लागी, दसन चला चल थायो। लागी आगि भुजावन कारन, चाहत कूप खुदायो । भजन• ॥३॥ काल अनादि गुमायो भ्रमतां, कबहु न थिर चित लायो। हरी विषयसुख भरम भुलानो, मृग तिसना-वश धायो ।। भजन ॥ ४ ॥ २२ राग-पूरवी - तारो क्यों न, तारो जी म्हें तो थांके शरना. आया ॥ टेक ॥ विधान मोका चहुंगति फेरत, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास anvwanav ~ ~ बड़े भाग तुम दरशन पाया ॥ तारो० ॥१॥ मिथ्यामत जल मोह मकरजुत, भरम भैरमें गोता खाया। तुम मुख वचन प्रलंबन पाया, अब बुधजन उरमे हरषाया ॥ तारो० ॥२॥ भवदधि-तारक नवका, जगमाहीं जिनवान॥ भव० ॥टेका नय प्रमान पतवारी जाके, खेवट प्रातमध्यान। भव० ॥१॥ मन वच तन सुध जो भवि धारत, ते पहुंचत शिवथान । परत 'अथाह मिथ्यान भवर ते, जे नहिं गहत अजान भव० ॥२॥ विन अक्षर जिनमुखतें निकमी परी वरनजुत कान। हितदायक बुधजनकों गनधर गूथे ग्रंथ महान ॥भव० ॥३॥ _____२४ राग-धनासरी धीमो तितालो प्रभु, थांसूं अरज हमारी हो ॥ प्रभु ॥ टेक ॥ मेरे हितू न कोऊ जगतमैं, तुम ही हो हितकारी हो ॥ प्रभुः ॥१॥ संग लाग्या माहि मेकन छाड़े, देत माई.दुख भारी । भवनमाहिं Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास नचावत मोकौं, तुम जानत हो सारी । प्रभु २ ॥ थांकी महिमा अगम अगोचर, कहि न सकै बुधि म्हारी । हाथ जोरकै पांव परत हूं, आवागमन निवारी हो ॥ प्रभु० ॥ ३ ॥ २३ : याद प्यारी हो, म्हाने थांकी याद प्यारी ॥ हो म्हाने• ॥ टेक ॥ मात तात अपने स्वारथके तुम हितु परउपग़ारी || हो म्हान• ॥१॥ नगन छवी सुन्दरता जापै. कोटि काम दुति वारी । जन्म जन्म अवलोकौं निशिदिन, बुधजन जा बलिहारी ॥ हो म्हानें ॥ २ ॥ १४ AN २६ राग -- गौड़ी ताल | अरे हां रे तैं तो सुधरी बहुत बिगारी ॥ अरे ॥ टेक ॥ ये गति मुक्ति महलकी पौरी, पाय रहत क्यों पिछारी ।' अरे० ॥ १ ॥ परकौं जानि मानि अपनो पद, तजि ममता दुखकारी | श्रावक कुल भवदधितट आयो, बूड़त क्यौरे अनारी ॥ अरे. - ॥२॥ अबहुं चेत गयो कछु नाहीं राखि श्रापनी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास बार । शक्तिसमान त्याग तप करिये तब बुधजन सिरदारी ॥ अरे ॥३॥ २७ राग-काफी कनड़ी मैं देखा आतमरामा॥ मैं ॥ टेक ॥ रूप फरस रस गंधतै न्यारा दरस-ज्ञान-गुनधामा। नित्य निरंजन जाकै नाहीं क्रोध लोभ मद कामा॥ मैं॥१॥ भूख प्यास सुख दुख नहिं जाकै नाहीं वन पुर गामा । नहिं साहिब नहिं चाकर भाई नहीं तात नहि मामा॥ में ॥ २॥ भूलि अनादिथकी जग भटकत लै पुद्गलका जामा । बुद्धजन संगति जिनगुरुकीतै मैं पाया मुझ ठामा ॥ मैं ॥३॥ २८ राग काफी कनड़ी पसतो अब अघ करत लजाय रे भाई॥ अब•॥ टेक ॥ श्रावक घर उत्तम कुल आयो भैंटे श्रीजिनराय ॥अब० ॥ १ धन वनिताश्राभूषण परिगह त्याग करौ दुखदाय । जो अपना तू तजि नसकै पर सेयां नरकन जाय॥ अब. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nhvvvr. वुधजन विलास ॥२॥ विषयकाज क्यौं जनम गुमावै, नरभव कब मिलि जाय । हस्ती चढ़ि जो ईंधन ढोबै, बुधजन कौन वसाय ॥अब० ॥३॥ २६ राग-काफी कनड़ी। तोकौं सुख नहिं होगा लोभीड़ा ! क्यों मूल्या रे परभावनमें। तोकौं ॥ टेक॥ किसी भाँति कहका धन आवै,डोलत है इन दावन में । तोकौं ॥१॥ व्याह करूँ सुन जस जग गावे, लग्यो रहै या भावनमैं । तोकौं ॥२॥दव परिनमत अपनी गति, तू क्यों रहित उपायनमैं तोकौं ॥३॥ सुख तो है सन्तोष करनमैं, नाहीं चाह बढावनमैं ॥ तोकौ ॥४॥कै सुख है बुधजनको संगति, कै सुख शिवपद पावन में । तोकौं ॥ ५ ॥ ३. राग-कनडी। - - । ' निरख नाभिकुमारजी, मेरे नैन सफल भये निर० ॥ टेक ॥ नये नये वर मंगल आये, पाई निज रिधि सार । निरखे ॥१॥रूप निहारन Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास १७ वान हरिने, कीनी यांख हजार । वैगगी मुनिवर हू लखिकै ल्यावत हरप अपार निरखे ||२|| भरम गयो तत्वारथ पायो, आ. वन ही दरवार | बुधजन रचन शरन गहि जांचन, नहिं जाऊं परद्वार || निरखे० ॥ ३ ॥ ३१ राग- बिलाबल धीमो तेताला । नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐमा वाज न करना हो । नरभव० ॥ टेक ॥ नाहक ममत ठनि पुलों, करमजाल क्यौं परना हो ॥ नग्भा० ॥ १ ॥ यह तो जड़ तू ज्ञान रूपी, तिल तुष ज्यौं गुरु वरना हो। गंग दोष तजि भजि समताक, कर्म साथ के हरना हा ॥ नरभव० ।। २ ।। यो भव पाय विषय - सुख सेना, गज चढ़ ईंधन ढोना हो । बुधजन समुझि सेय जिनवर पद, ज्यौं भवसागर तरना हो || नरभव० ॥ ३ ॥ ३२- गग विलाल इकताली । साग्द ! तुम परसादतें, श्रानंद उर याया ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ बुधजन विलास सारद० ॥ टेक ॥ ज्या तिरसातुर जीवका, अम्रत जल पाया ।। मारद०॥ १ ॥ नयं परमान लिखपत तत्वार्थ बताया। भाजी भूलि मिथ्यातकी, निज निधि दरसाया ।। सारद. ॥२॥ विधिना माहि अनादित. चहंगति भरमाया । ता हरिबकी विधि सवै, मुझमाहिं बताया ॥ सारद० ॥३॥गुन अनंत मति अलपत, मोपे जात न गाया । प्रचु। कृपा लखि रावरी, बुधजन हरषाया। सारद० ॥ ४॥ गुरु दयाल तेरा दुख लखिक, सुन लें जो फुरमावै है ॥ गुरु०॥ तोम तेरा जतन वतावै, लोभ कछु नहिं चावै है ॥ गुरु० ॥१॥ पर सुभावको मोरया चाहै, अपना उसे बनावै है। सो तो कबहुं हुवा न होसी, नाहक रोग लगाव है। गुरु०॥२॥ खोटी खरी जस करी कमाई. तैमी तेरै प्राव है। चिन्ता आगि उठाय हियाम, नाहक जान जलावै है ।।गुरु०॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास ।। ३ ।। पर अपनावै सो दुख पावै, बुधजन ऐमें गांव हैं। परको त्यागि श्राप थिर तिह, सो अविचल सुख पावै है ।। गुरु०॥४॥ ___३४ गग-असावरी। __ अरज झारी मानो जी, याही मारी मानो, भंवदधि हो तारना मारा जी ।।अरज०॥ टंक पतितउधारक पतित पुकारै, अपनों विरद पिछानो ॥ रज० ॥१॥ मोह मंगर मछ दुख दावानल, जनम मरन जल जानो।गति गति भ्रनने भवरमैं डूबत, हाथ पकरि ऊंचो आनों अरज० ॥२॥ जगमैं अनि देव बहुं हेरे, मेरा दुख नहिं भानो । बुधजनकी करुमा ल्यो सा. हिब, दीजै अविवल थानो ॥ अरज० ॥३॥ ___३५ गग-असावरी जोगियो ताल धीमों तेतालो। तू काई चालै लाग्यो रे लोभीड़ा, आयो छै बुदाौँ।तू ।। टेक ॥धंधामाहीं अंधा है के, कयों खोवे छै आपरे॥ तु० ॥२॥ हिमत घटी थारी सुमतं मिटो छ, भाजि गयो तरुणांपों। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wuuuuuuu ___ बुधजन विलास जम लै जासी सब रह जामी. संग जामी पुरु पापो रे । तू. २ ॥ जग स्वारथ को कोइ न तेरा, यह निह उर था। बुध जन ममत मिटावो मनने, करि मुख श्राजिनजापारे ।। तू ॥३॥ ___३६ राग-असावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। थे ही माने तारो जा, प्रभुजो कोई न ह. मारो॥थे ही० ॥ टेक ॥ हूं एकाकि अनादि कालते, दुख पावन हू भागे जी ।। थे ही० ॥१॥ बिन मतलबको तुम ही स्वामी, मतलबको मंसागे। जग जन मिलि मोहि जगमै राखें तू ही काढनहागे ॥ थे ही० ॥ २ ॥ बुधजनक अपगध मिटावो, शरन गह्यो छै थागे भवदधिमाहीं डूबत मोशे, कर गहि श्राप निवागं थे ही० ॥३॥ ___ १७ राग-असावरी भांझ, ताल धीमो एकताले। प्रभू जो अरज मरी उस धो ।। प्रभू जी० टेक॥ प्रभू जी नरक निगोधाम रल्या. पायो दुःख अपार ।। प्रभू जी० ।। १ ।। प्रभू जी, हूं Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास २१ पशुगतिमैं ऊाज्यों, पीठ स्ह्यौ अतिभार ॥ प्रभू जी० ॥ २ ॥ प्रभूजी विषय मगन में सुर भयो, जात न जान्यौ काल ॥ प्रभू जी ॥३॥ प्रभु जी नरभव कुल श्रावक लह्यौ, श्राया तुम दरवार ॥ प्रभु जी० || ४ || प्रभृ जी, भव भरमन बुधजनतनों, मेटौ करि उपगार ॥ प्रभू जी० ॥ ५ ॥ " ३८ राग- आसावरी जगतमैं होनहार सो होवै, सुर नृप नाहिं मिटावै ॥ जगत० ॥ टेक ॥ श्रादिनाथसेकौं भोजन में, अन्तराय उपजावै । पारसप्रभु ध्यान लीन लाख. कमठ मेघ बरसावे || जगत• ॥१॥ लखमण से संग भ्राता जाके, सीता राम गमावै प्रतिनारायण रावण सेकी, हनुमत लंक जरावें । जगत० ॥ २ ॥ जैसों कमात्रै तैमो ही पालै यों बुधजन समझावै । आप आप आप कमाव क्यौं प द्रव्य कमरे || जगत० ॥ ३ ॥ ३६ राग - आसावरी जलद तेताली । आगे कहा करसी भैया, ग्राजासी जब Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ बुधजन विलास . काल रे ॥ भाग० ॥ टेक ॥ ह्यां तो तेने पोल मचाई, व्हां तो होय समाल रे ॥ भाग० ११ झूठ कपट करि जीव सताये, हग्या पराया माल रे। सम्पतिसैनी धाप्या नाही, तकी विरानी वाल रे ॥ श्रागैं० ॥ २६॥ सदा भोगमैं मगन रह्या तू .लरूप नहीं निज हाल रे। सुमरन दान किया नाहि भाई, हो जासी पैमाल रे॥ अ.ग. ॥३॥ जोवन में जुक्ती संग भल्गा, भूल्या जब था बाल रे । अब हूं धारा बुधजन समता, सदारहह खुश हाल रे ॥ प्रांग: ।४। ४. राग-आसागरी जोगियो जलद् तेनालो। चेतन, खेल सुमतिसंग हारी ।। चनन टेक तोरे श्रानकी प्रीति सयाने, भली वती या जौरी वेतन ॥१॥ डगर डगर डोले है यौँ हो, श्राव श्रापनी पौरी निज रस फगुभाक्या नहिं बांटा नानर रूगरी तारी॥ चेतनः॥२॥बार कलाय त्यागि या गहि लै, समाहित केसर लोरी । मिथ्या पाथर डारि धारि लै, निज़ गुलालको झोरी ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN बुधजन विलास चेतन०॥३॥खोटे भेष धरै डोलत है, दख पावै बुधि भोरी । बुधजन अपना भेष सुधारो, ज्यों विलसो शिवगोरी ॥ चेतन०॥४॥ ४१ राग-आसावरी जोगिधा जल्ल तेतालो। हे श्रातमा ! देखी दुति तोरी रे ॥ हे अात. मा०॥ टेक ॥ निजको ज्ञात लोकको ज्ञाता, शक्ति नहीं थोरी रे ॥ हे प्रातमा० ॥१॥ जैसी जोति सिद्ध जिनवर, तैसी ही मोरी रे ॥ हे यातमा० ॥२॥ जड़ नहिं हुवा फिर जड़केवमि, के जड़की जोरी रे ।। हे प्रातमा०॥३॥जगके कानि करन जग टहलै, बुधजन मति भोरी रे॥ है श्रातमा० ॥४॥ (४२) बाबा! मैं न काहूकाकोई नहीं मेरा रे॥ बाबा०॥ टेक ॥ सुर नर नारक तिरयक गतिमें मोकों करमन घेरा रे ॥ बाबा० १॥ मात पिता सुत तिय कुल परिजन,मोह गहल उरझंगरे। तन धन वसन भवन जड़ न्यारे, हूं चिन्मूरति Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वुधजन विलास न्यारा रे ॥ बाबा ॥२॥ मुझ विभाव जड़ कर्म रचत हैं, करमन हमको फेगरे । विभाव चक्र तजि धारि सुभावा, अब अान्दघन हेगरे।। बाबा० ॥३॥ खरच खेद नहिं अनुभव करते, निरखि चिदानंद तेरा रे। जप तप व्रत श्रुतमार यही है, बुधजन कर न अबेरारे ॥ बाबा०।४। (४३) ___ और सबै मिलि होरि रचावै, हूं काके संग खेलौगी होरी। और०॥टेक।। कुमति हरामिनि ज्ञानी पियापे, लोभ मोहकी डारी ठगैरी। भारै झूठ मिठाई खवाई,खों मिल ये गुन करि बरजोरी ॥ और० ॥१॥ आप हि तीन लोकके साहब, कौन कर इनकै सम जोरी। अपनी सुधि कबहूं नहिं लेत, दाम भये डोले पर पौरी ॥ौ ०२।। गुरु बुधजनतें सुमति कहत हैं, मुनिये अरज द__ याल सुपारी । हा हा करत हूं पांय परत हूं, चेतन पिय कोजे मोोग ॥ और० ॥३॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुधजन विलास ( ४४ ) धर्म विन कोई नहीं अपना, सब संपति धन थिर नहिं जग में, जिसा रैन सपना || धर्म० || टेक आगे किया सो पाया भाई, याही है निरना । अब जो करेगा सो पावैगा, तातै धर्म करना ॥ धर्म || १ || ऐसें सब संसार कहत है, धर्म किये तिरना। परपीड़ा विमनादिक सेवै, नरकविषै परना || धर्म० || २ || नृपके घर सारी सामग्री, ता अर तपना । अरु दारिद्री हूं ज्वर है, पाप उदय थपना || धर्म • || ३ || नाती तो स्वास्थ के साथी, 'तोहि विपत भरना । वन गिरि सरिता अगनि जुमैं,, धर्महिका सरना ॥ धर्म• ॥ ४ ॥ चित बुत्रजन संन्तोपधारना, परचिन्ता हरना । विपति पड़े तो समतारखना, पर मातमजपना || धर्म ||५|| २५ (४५) राग - टोडी ताल होली की । कंचन दुति व्यंजन लच्छन जुत, धनुष पांच से ऊंची काया ॥ कंचन० ॥ टेक ॥ नाभिराय मरुदेवी सुत, पदमासन जिन ध्यान लगाया ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... . AAA बुधजन विलास - ॥१॥ ये तिन सुत व्योहार कथनमैं, निश्चय एक चिदानंद गाया । अपरस अवरन अरस अगंधित, चुवजन जानि सु सीस नवायर्या । कंचन ॥२॥ धनिसरधानीजगमैं ज्यौं जलकमलनिवास। धनि० ॥ टेक ॥ मिथ्या तिमिर फट्या प्रगट्यो शशि, चिदानंद परकास ॥ धनि ॥१॥ पूरब कर्म उदय मुख पावें भोगत ताहि उदास । जो दुखमैं न विलाप करें, निरवेर सहैं तन त्रास॥ धनि ॥२॥ उदय मोहचारित परवाश है बन नहिं करत प्रकास । जो किरिया करि हैं निर वांछक, करें नहीं फल आस ॥ धनि० ॥३॥ दोषरहित प्रभु धर्म दयाजुत, परिग्रह बिन गुरु तास। तत्वारथरुचि है जाकेट बुधजनतिनका दास ॥ धनि० ॥ ४॥ (४७) गग-सारंग। बाह भई हो,तुम निरखत ज़िनराय, वर्धा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास भई हो ॥ टंक ।। पातक गये भये सब मंगल; भेटत चरनकमनजिनराई ॥वधाई॥१॥मिटे मिथ्यातभरमकेत्रादर,प्रगटत अातम रवि अरुनाई। दुग्बुध चोर भने जिय जागे,करन लगे जिन धर्म कमाई || बधाई• ॥२॥ग सरोज फूले तुम दरसनतें, कता कीनी सुखदाई। भाषि अनुबन महाविरतको बुधजनका शिवराह बताई ॥ वर्धाई ॥३॥ (४८) राग-सारंगकी माँझ ताल दीपचन्दी। म्हारी सुणिज्यो परम दयालु तुमसों अरज करूं ॥म्हारी० ॥ टेक ॥ आन उपाव नहीं या जगन, जग तारक जिनराज तेरे पांय परूं ॥म्हारी ॥१॥ साथ अनादि लागि विधि मेरी, करत रहत बेहाल इसको के ला भरूं ॥ म्हारी ॥२॥ करि करना करमनको काटो जनम मरन दुखदाय इनत बहुत डरूं ॥म्हारी ॥३॥चरन सरन तुम पाय अनूपम बुधज़न मांगत येह गति गति नाहि फिरूं । म्हारी ॥४॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास तुम सब ज्ञायक मोहि उबारो, बुधजनको अपनो करिकै ।। मो० ॥३॥ (५३) राग सारंग। हम शरन गयौ जिन चरनको हम टेक अत्र औरन की मान न मेरे, डर हुँ रह्यो नहिं मरनको ॥ हम० ॥१॥ भरम विनाशन तत्वप्रकाशन, भवदधि तारन तरनको। सुरपति नरपति ध्यान धरत वर, करि निश्चय दुग्ख हरनको हमा२॥ या प्रसाद ज्ञायक निज मान्यो, जान्यौ तन जड़ परनको । निश्चय सिधमो पै कष:यने, पात्र भयो दुख भरनको ॥हम०॥३॥ प्रभुबिन और नहीं या जगम, मेरे हितके करन की। बुधजनकी अरदास यही है, हर संकटं भर फिरनको ।। हम ॥४॥ (५४) मैं तेरा चरा,अंरज सुनो प्रभु मेग ॥ मैं॥ टैक ।। अष्टकन मोहि घेरि रहे है, दुख दें है वह तेरा । मैं ॥१॥ दीनदयाल दीन मो लसिके, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास मँटा गति गति फेरा मैं० ॥ २ ॥ और जंजाल टॉल सब मेरा, राखौ चरनन चैरा ॥ मैं० || ३ || बुधजन और निहारि कृपा करि, बिन वै वारूं वेरा ॥ मै• ॥४॥ ३१ ५६ रोग -अहिंग | क्या किया नादान, तैंतो अमृत तजि विष लीना ॥ तैः ॥ टेक ॥ लख चौरासी जोनि माहित, श्रावक कुल मैं आया | अब तजि तीन लोकके साहिब, नवग्रह पूजन धाया ॥ तें ॥१ ॥ वीतराग के दरसन हीतें, उदासीनता श्रावै। तू तौ जिनके सनमुख ठाड़ा, सुतको रुपाल खिलावे ॥ तै० ॥२॥ सुरंग सम्पदा सहजै पावै, निश्चय मुक्ति मिलावे । ऐसी जिनवर पूँजन सेती, जगत कामना चावै ॥ तै० ॥३॥ बुधजन मिलें सलाह कहैं तब, तू वा खिजि जावें । जथाजोग जथा माने, जनम जनम दुख पावै ॥ ते ०|४| ५६ रांग - खमाव ! सुनियों हो प्रभु आदि जिनंदा, दुख पावत Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास है बंदा ।। सुनियो० ॥ टंक ॥ खोमि ज्ञान धन कीनों जिन्दा (?), डारि ठगौरी धंदा । मुनिया० ॥१॥ कर्म दुष्ट मेरे पीछ लाग्यौ, तुम हो कर्मनिकंदा ॥मुनियो० ॥२।। बुधजन अरज करत है साहिब, काटि कर्मके फन्दा मुनियो० ॥२॥ ५७ राग-खमात्र । _ छवि जिनगई गनै छै ॥छवि० ।टेका तरु अशोकतर मिहामनग, वैठे धुनि घन गाजै छ । छवि० ॥१॥ चमर छत्र भामंडनदुर्तिपै, कोटि भानदुति लाजै छै। पुष्पवृष्टि मुर नभ दुन्दुर्भि, मधुर मधुर सुर बाजै छै छाब० ॥२॥ सुर नर मुनि मिलि पूजन आवै, निरखत मनड़ा छाने छै । तीनकाल उपदेश होत है, मवि बुधजन हित काजे छ । छबि० ॥३॥ ५८ राग- खंमाच। ऐमा ध्यानलगावा भव्य जामौं, सुरग मु. कति फल पावो जी। एमा०॥ टक ॥ जामैं बंध परै नाहिं ग्रागें पिछले बंध हटाबो जी ।। एमा० Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास ॥१॥ इष्ट अनिष्ट कल्पना छोड़ो, मुख दुख एक हि भावो जी। पर वस्तु नमों ममत निवारी निज प्रातम लौ ल्यावो जी॥ ऐमा० ॥२॥ माल नदेहकीसंगतिछूटे, जामन मरन मिटावो जी । शुद्ध चिदानंद बुधजन है के, शिवपुरबसावो जी ॥ ऐमा०॥३॥ (५६) राग-खंमाच। मेरा सांई तो मो में नाहीं न्यारा, जानें सो जाननहाग । मेरा० ॥टेक ॥ पहले खद सह्यो विन जानें, अब सुख अपरंपारा ॥ मेग०॥१॥ अनंत चतुष्टय-धारक ज्ञायक.गुनपरजेंद्रामारा जैसा राजत गंधकुटी मैं, तैसा मुझमैं म्हाग॥ मेरा० ॥२॥हित अनहित मम पर विकलपत, करम बंध भये भाग। ताहि उदय गति गति सुख दुख में, भाव किये दुखकाग॥ मेरा० ॥३॥ काललबधि जिनआगममेती,संशयभरमावदारा। बुधजन जान करावन करता, हौं ही एक हमारा ॥ मेरा० ॥ ४ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास (६०) राग-गारो जल्द तेतालो। ___ म्हारी भी सुणि लीज्यो, हो मोकौं तारण, सुफल भये लखि मोरे नैन ।। म्हारी० ॥ टेक ॥ तुम अनंत गुन ज्ञान भरे हो. वरनन करते देव थकत हैं, कहि न सकै मुझ वैन ॥ म्हारी ॥१॥ हमतो अनत दिन अनत भरम रहे,तुमसा कोऊ नाहिं देखिये,प्रानंदघन चित चैन ॥ म्हारी. ॥२॥ बुधजन चरन शरन तुम लीनी,बांछा मेरी पूरन कीजे,मंग न रहै दुखदैन म्हां ॥३॥ (६१) राग-गारो कान्हरो। थांका गुण गास्यां जी श्रादिजिनंदा ॥ थांका० ॥टेक ॥ थांका वचन सुण्यां प्रभु मून म्हाग निज गुण भास्यां जी॥ आदि० ॥ १॥ म्हारा सुमन कमल मैं निशिदिन, थांका चरन वसाच्या जी ॥ आदि. ॥ २॥ यही मृन लगन लगी छ, सुख द्यदुःख नसास्वां जी ॥ आदि. ॥३॥ बुधजन हरष हिये अधिकाई, शिवपुरवासा पास्यां जी ॥ आदि. ॥ ४ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास ३५ (६२) राग-कान्हरो। हो मना जी,थारी वानि,बुरी छै दुखदाई हो० ॥ टेक ॥ निज कारिजमें नेकु न लागत, परसौं प्रीति लगाई हो० ॥ १॥ या सुभावसों अति दुख पायो सो अब त्यागो भाई ।। हो०२ बुधजन औसर भागन पायो, सेवो श्रीजिनराई हो० ॥ ३॥ (६३) राग-गारो कान्हरो। - हो प्रभुजी,म्हारो छै नादानी मनड़ो ॥ हो. टेक ॥ १ ल्यावत तुम पद सेवन कौं, यो नहिं आवत है-बगड़ो जी ॥ हो ॥ १॥ यावौ सुभाव सुधारि दयानिधि,माचि ग्टो मोटो झगड़ो जी ।। हो ॥२॥ बुधजनकी विनती सुन लीजे कहजे शिवपुरको डगड़ो जी ॥ हो० ॥३॥ रे मन मेरा, तू मेरो क्यों मान मान रे ॥ रे मन० ॥ टेक म अनत चतुष्टय धारक तूही, दुख पावत बहुतेग॥ रे मन० ॥१॥ भोग विष. यकाअातुर है कै, क्यों होता है चेरा॥ रे मन Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ वुधजन विलास ||२|| तेरे कारन गति गतिमाहीं, जनम लिया हैघ नेरा ॥ रे मन० || ३ || अब जिनचरन शरन गहि बुधजन, मिट जावें भव फेरा ॥ रे मन० ॥ (६५) गग — कनडी । भला होगा तेरा यों ही, जिनगुन पल न भुलाया हो । भला० ॥ टेक ॥ दुख मैटन सुखदैन सदा ही. नमिकै मन वत्र काय हो ॥ भला॥ १ ॥ शकी चक्री इन्द्र फनिन्द्र सु बग्नन करत थकाय हो । केवलज्ञानी त्रिभुवन स्वामी, ताक. निशिदिन ध्याय हो । भला० ||२|| श्रावागमनसुरहित निरंजन, परमातम जिनराय हो ।' बुधजन विधितै पूजि चरन जिन, भव भव सुखदाय हो || भला• ॥ ३ ॥ ( ६६ ) गग - कनड़ी । उत्तम नरभव पायकै, मति भूलै रे रामा || मति भू० ॥ टेक ॥ कीट पशूक्तन जब पाया तब तू ह्या निकामा । द्यव नरदेही पाय सयाने क्यों न भजै प्रभुनामा || मति भू० | १|| मुर 、 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास पति यावी चाह करत उर कब पाऊँ नरजामा। ऐमा रतन पाय भाई क्यों खोबत विन कामा मात भू० ॥२॥ धन जोबन तन सुन्दर पाया, मगन भया लखि भामा।काल अचानक झटक खायगा,परे रहेंगे ठामा॥मति०॥३॥ अपनेस्वामीके पदपंकज, करो हिये विसगमा । मैं टि कपट भ्रम अपना बुधजन, ज्यौं पावौ शिवधामा मति भू० ॥४॥ __ धनि चन्द्रपभदेव, ऐपी सुबुधि उपाई ॥ धनि० ॥॥ जगमैं कठिन विराग दशा है, सो दरपन लखि तुरत उपाई ॥ धनिः ॥ १ ॥ लौकान्तिक आय ततखिन ही, चढ़ सिविका बनोर चलाई। भये नगन सब परिग्रह तजि के, नग चम्गातर लौंच लगाई ॥ धन० ॥२॥ महासेन धनि धनि लच्छमना, जिनके तुमसे सुत भये साई वुधजन बन्दत पाप निकन्दत, ऐमी सुबुधि करो मुझमाई ॥ धनि ॥३॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ बुधजनं विलास (६८) चुप रे मूढ़ अजान,हमसौं क्या बतलावै ॥ चुप ॥ टंक ॥ ऐसा कारज कीया तैनै, जासौं तेरी हान ।। चु० ॥१॥ राम विना है मानुष जेते भ्रात तात सम मान । कर्कश वचन बकै मति भाई-फूटत मेरे कान । चु०॥२॥ पूरव दु. कृत कियाथा मैंने, उदय भया ते भान । नाथबिछोहा हूवा यातें.पै मिलसी या थान॥ चुा ॥३॥ मेरे उरमैं धीरज ऐपा, पति प्रावै या ठान। तब ही निग्रह है है तेरा, होनहार उर मान।।चुा०॥४॥ कहां अजोध्या कहं या लं. का कहां सीता कहंसान । वुधजन दखोविधि का कारज,पागममाहिं बखान ।। चुप० ॥५॥ (६) राग-कनड़ी एकतालो।। त्रिभुवननाथ हमारी हो जी ये तो जगत उजियारो ॥ त्रिभुवन० ॥ टेक ॥ परमौदारिक देहके माहीं.परमातम हितकारी ॥ त्रिभूवन०॥ १॥ सहमैं ही जगमाहिं रह्यो छ, दुष्ट मिथ्यात Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास ३६ अँधारौं । ताक हरन करन समकित रवि के - वलज्ञान निहारौ । त्रिभुवन० ॥ २ ॥ त्रिविध शुद्ध भवि इनकों पूजौ, नाना भक्ति उचारौ । कर्म काट बुधजन शिव लै हो, तजि संसार दुखारौ त्रिभु• ॥ ३ ॥ ( ७० ) राग - दीपचन्दी | मेरी अरज कहानी, सुनि केवलज्ञानी ॥ मेरी• ॥ टेक ॥ चेतनके संग जड़ पुद्गत जिमि सारी बुध बौरानी ॥ मेरी० ॥ १ ॥ भव मनमाहीं फेरत माकौं, लख चौरासी थानी । कोल वर - नौं तुम सब जानो, जनम मरन दुखखानी ॥ मेरी• ॥ २ ॥ भाग भले मिले बुधजनको, तुम जिनवर सुखदानी | मोह फांसिका काटि प्रभूजी, कीजे केवलज्ञानी ॥ ३ ॥ ; ( ७१ ) तेरी बुद्धिकहानी, सुनि मूढ़ अज्ञानी | तेरी० ॥ टेक ॥ तनक विषय सुख लालन लाग्यो, नंत काल दुखखानी !! तेरी ॥ जड़ चेतन मि Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बुधजन विलास लि बंध भये इक, ज्यों पयमाहीं पानी। जुदा जुदा सरूप नहि मान, मिथ्या एकता मानी। ॥तरी० ॥२॥हूं तो बुधजन दृष्टा ज्ञाता, तब जड़ सरधा पानी । ते ही अविचल सुखी रहँगे होय मुक्ति वर प्रानी ।। तेरी ॥३॥ (७२) राग-ईमन । तू मेग कह्या मान रे निपट अयाना ॥तू. ॥टेक॥ भव वन वाट मात सुत दारा, बंधु पथिकजन जान रे । इन” प्रीति न ला बिछुड़ेंगे, पावैगो दुख खान रे ।। तू० ॥१॥ इकसे तन आतम मति आन, यो जड़ है तू ज्ञान रे। मोह उदय वश भम्म परत है, गुरु सिखवत सरधान रे ॥ तू० ॥ वादल रंग सम्पदा जगकी, छि_ नमैं जान बिलान रे । तमाशवीन वनि यात वुधजन, सव” ममता हान रं ॥ तू.॥३॥ (७३) गग-ईमन तेतालो। हो विधिनाकी मोपै कही तौ न जाय ॥ हो. ॥टेक । मुनट उलट उलटा सुलटा दे, अदरस Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ वुधजन विलास पुनि दरमाय ॥हो ॥१॥ उर्वशि नृत्य करत ही मनमुग्व, अमर परत है पाय (?) । ताही छिनमें फून वनायौ, धूा परै कुम्हलाय (?) । हो. ॥२॥ नागा पाय फिरत घर घर जब सा कर दीनौराय । ताहीको नरकन मैं कूकर, तोरिनोरि तन खाय॥हो० ॥३॥ करम उदय भूलै मति श्रापा, पुरषारथको ल्याय । बुधजन ध्यान धरै जब मुहुरत,तब सबही नसिजाय ॥हो० ॥४॥ (७४) जिनवानी के सुनौं मिथ्यात मिटै । मिथ्यात निटै ममकित प्रगटै।। जिनवानी०॥ टेक ॥ जैमैं प्रात होत रबि ऊगत, रैन तिमिर सब तुरत फटे ॥जिनबानी।।अनादि काल की भूलि मिटावै पानी निधि घट घटमैं उघटै। त्याग विभाव मुभाव सुधार, अनुभा करतां करम कटै।। जिन वानो० ॥२॥ और काम तजि सेवो वाकौं, या बिन नाहिं अज्ञान घटै। बुजन वाभव परभव मांहीं, वाकी हुंडो तुरत पट ॥ जिनवानी० ॥३॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ वुधजन विलास (७५) राग-सोरठ। कर लै हौ जीव, सुकृतका सौदा करलै परमारथ कारज कर लै हो। करि०॥टेका उत्तम कुलकौं पायकैं, जिनमत रतन लहाय । भोग भोगवे कारनैं, क्या शठ देत गमाय ॥ सौदा. १ व्यापारी विनाइयो, नरभर हाट बजार। फल दायक व्यापार करिनातर विपति तयार । सो० ॥२॥ भव अनन्त धातौ फिाया चौरामी वनमाहि। अब नरदेही पाय अघ खोवै क्यों नाहि ॥ सौदा० ॥ ३॥ जिन मुनि प्रागन परख के, पूजौ करिसरधान । कुगुरु केदेव के मान फिायो चतुर्गति थान ॥ सौदा०॥४॥ मोह नींदमां सोवतां डूबा काल अटूट । बुधजन क्यों जागो नहीं, कर्म करत है लूट ॥ सौदा० ॥ ५॥ (७६) राग-सोरठ बेगि सुधि लीज्यो मारी, श्रीजिनराज गि० ॥टे डरपाबत नितप्रायु रहत है, संग लग्या जमराज ॥बेगि ॥१॥ जाके सुरनर नारक Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास तिरजग, सब भोजन के साज । ऐमौकाल हरस्यै तुम साहब, यातें मेरी लाज ॥ बेगि ।२। पर घर डोलत उदर भरनकौं, होत प्रात” सांज । डूबत पाश अथाह जलधिमैं, यो समभाव जि. हाज ॥बेगि० ॥३॥ धना दिनाको दुखो दयानिधि,ौमर पायौ आज । बुधजन सेवक ठाड़ो बिनवै, कीज्यौ मेरो काज ।। बाग०॥४॥ (७७) राग-सोरठ। गुरुन पिलायोजी, ज्ञान पिलाया ॥ गुरु० ॥ टेक॥ भइ बेखबरी परभावांकी, निजासमैं मनवाला ॥ गुरु०॥ यों तो छाक जात नहिं छिनई, मिटि गये भान जाला। अद्भुत प्रा. नद मगन ध्यान, बुधजन हाल समाला गुरु: (७८) राग-सोरठ। मति भोगन राचौजी, भव भवमैं दुख देत घना ॥मति०॥ टेक। इनके कारन गति गति मांही, नाहक न चौनी । झूठे मुखके काज धरममें पाडौ खांची जी मतिः ॥ १ ॥ पूरवकर्म Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '४४ वुधजन विलास उदय सुख प्रायां.राजो मात्रौ जी। पाप उदय पीड़ा भोगनमैं, क्यों मन काचौ जी। मतिः॥ २। सुख अनन्तके धारक तुम ही,पः क्यों जांचों जी।बुधजन गुरुका वचन हियाम, जानौ सांचौ जी॥ मति० ॥३॥ (७६) थांका गुन गास्यांजी जिनजी राज, थांका दरसनअघ नास्या ॥ थांका०॥ टेक ॥ थां सारीखा तीन लोकमैं, और न दूजा भास्या जी ॥ जिनजी० ॥१॥ अनुभव रस सींचि सींचिकै, भव प्राताप बुझास्यां जी। बुधजनको विकलप सब भ.ग्यौ, अनुक्रमशिव पास्यां जी। जिनजी०॥२॥ (८०) सम्यग्ज्ञान बिना, तेरोजनम अकारथ जाय ॥सम्यग्ज्ञान० ॥टेका अपने सुखमैं मगन रहत नहिं परकी लेत बलाय । सीख सुगुरु की एक न माने, भव भवमै दुख पाय ।। सम्यग्ज्ञान० ॥१॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास · ज्यौं कपि प काठ लीलाकरि, प्रान तजै बिललाय । ज्यौं निज मुखकरि जाल मकरिया, आप मरे उलझाय ॥ मम्यग्ज्ञान ० ॥२॥ कठिन कमायो गमाय । जैसे सब धन ज्वारी, छिनमै देत रतन पायके भोंदु, विलखे आप गमाय । सम्यग्ज्ञान० ||३|| देव शास्त्र गुरु को निचे हरि, मिथ्यामत मतिध्याय । सुरपति बांबा राखत याकी, ऐसी नर परजाय || सम्यग्ज्ञान• ॥४॥ (८१) राग-कोटी । ० शिवधानी निशाशानी जिनवानि हो || शिव ॥ ॥ भववन भ्रमन निवारन - कारन, आपा-पर पहचानि हो || शिव• ॥ १ ॥ कुमति पिशाच मिटावन लायक, स्याद मंत्र मुख आनि हो । शिव• ॥२॥ बुधजन मनवचतनकरि निशिदिन सेवो सुख की खानि हो । शिव ॥३॥ ( ८२ ) देखो नया. आज उछाव भया || देखो ० || टेक ॥ चंदपुरी महासेन घर चंदकुमार जया । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ बुधजन विलास ॥ देखो० ॥१॥ मातलखमना सुतको गजपे, लै हरि गिरि पैगया। देखो. '२॥ आठ सहम कलता सिर ढारे, वाजे बजत नया देखो ॥३॥ सौपिदियो पुनि मात गोदमैं, तांडव नृय थया ॥ देखो०॥४॥ सो बानिक लखि बुधजन हरले जै जै पुरमें किया । देखो० ॥४॥ (८३) __मैं देखा अनोखा ज्ञानी वे ॥ मैं ॥ टेक ॥ लारै लागि अानकी भाई, सुध विसरानी वे ॥ में० ॥१॥ जा कारन कुगति मिलत है, सोही निजकर आनी वे ॥ मैं ॥ २॥ झठे सुखके काज सयानें, क्यों पीड़े है पानी वे॥ मैं ॥३॥ दया दान पूजन वन तप कर, बुधजन सीख बखानी वे ॥ मैं ॥४॥ (८३) राग-जंगलो। मेरो मनुवा अति हरषाय, तोरे दरसनसौं॥ मरौ० ॥ टेक ॥शांत छत्री लखि शांत भाव है, श्राकुलता मिट जाय, तोरे दरनसौं मेरो ॥१॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुधजन विलास जब लौं चरन निकट नहिं आया, तब श्राकुलता थ. य । वावत ही निज निधि पाया, निति नव मंगल पाय, तोरे दरसनसों || मेरो० ॥ २ ॥ बुध करै कर जोरै, सुनिये श्रीजिनराय जब लौं मोख होय नहिं तव लौं, भक्ति करूं गुन गाय, तोरे दरसनसौं | मेरो० ॥ ३ ॥ ४७ (5%) मोहि अपना कर जान, ऋषभजिन ! तेरा हो || मोहि० ॥ टेक ॥ इस भवसागरमाहिं फिरत हूं, करम रह्या करि घेरा हो || मोहि० ॥ १ ॥ तुमसा साहिब और न मिलिया, सह्या भौतभट भेग हो || मोहि • ||२|| बुधजन अरज करे निशि वासर, राखौ चरनन चेरा हो || मोहि० ३ ( ८६ ) ज्ञान विन थान न पावगे, गति गति फिरोगे अजान ॥ ज्ञान० ॥ टेक ॥ गुरुउपदेश लह्यौ नहिं उर में, गह्यौ नहीं सरधान ॥ ज्ञान० ॥ १ ॥ विषयभोग में राचि रहे रति राद्रे कुध्यान Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ बुधजन विलास श्रान-पान लखि प्रान भगे तुम, परनति करि लई भान ज्ञान० ॥।' निपट कठिन मानुष ___ भव पायौ, और मिले गुनवान। अब बुधनन जिनमतको धारौ, कारे पापा परिवार ज्ञा. (८७) राग-केदागे एकतालो। अहो मेरी तुममौं बनती, सब देशनि के देव • अहो०॥टफा य दूरानजुन तुम नि दूषन जग. तहितू स्वयमेव । अहा०॥१॥ गति अनेकने अनि दुव प.यो, लीने जम अली । हामंकट हर दे बुमन सकौं, भाभा तुम पद सेव ॥ अहो० ॥२॥ (८८) राग-केदारो। याही मानौं निश्च र मानौं तुम बिन और न मानों याही० टंक । अवलौं गति गति, दुख पायौ, नाहि लायों सरधानों ॥याही० ॥ दुष्ट मतावत कर्मनिरंतर कमें कृपा इन्हें भानों भक्ति तिहारी भत्र भा पाऊं, जौलो लहों शिक्ष__ थानौं। याही ।।२।।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ वुधजन विलास (८६) राग-सोरठ। भोगांरा लोभीड़ा, नरभव खोयो रे अजान भोगांरा० ॥ टेक ॥ धर्मकाजको कारन थौ यौ, सो भूल्यौ तू बान । हिंसा अनृत परतिय चोरी, सेवत निजकरि जान ॥ भोगांरा० ॥१॥ इन्द्रीसुखमैं मगन हुवौ तू, परकौं अातम मान । बंध नवीन पड़े छै यातें, होवत मौटी हान॥ भोगांरा०।२। गयौ न कछु जो चेतौ बुधजन, पावा अविचल थान । तन है जड़ तू दृष्टा ज्ञाता कर लै यौं सरधान ॥ भोगांरा० ॥३॥ (६०) म्हारी कौन सुने, थे तौ सुनिल्यो श्रीजिनराज ॥ म्हारी० ॥ टेक ॥ और सरब मतलवके गाहक,म्हारौ सरत न काज । मोसे दीन अनाथ रंकको, तुमतें बनत इलाज ॥ म्हारी ॥ १ ॥ निजपर नेकु दिखावत नाही, मिथ्या तिमिर समाज । चंदप्रभू परकाश करौ उर, पाऊं धाम निजाज ॥ म्हारी० ॥२॥ थकित भयौ है गति Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास गति फिरतां, दर्शनपायौ आज। बारंबार वीनवैबुधजन, सरन गहेकी लाज॥म्हारी० ॥३॥ (६१) राग-सोरठ। छिन न बिसारां चितसौं, अजी हो प्रभुजी थांनै ।चिन टेक। वीतरागछवि निरखत नयना, हरष भयो सो उर ही जानै । छिन० ॥१॥ तुम मत खारक दाख चाखिके, प्रान निमोरी क्यौं मुख प्रावै। अब तो सरन राखि रावरी, कर्म दुष्ट दुख दे छै म्हांनै ॥ छिन० ॥२॥ वस्यौ मिथ्यामत अम्रत चाख्यौ, तुम भाख्यौ, धारया मुझ कानै। निशिदिन थांकौ दर्शमिलौ मुझ बुधजन ऐसी अरज बखानै ॥ छिन० ३ बन्यौ म्हारै या घरीमै रंग ॥ बन्यौ टेक ॥ तत्वारथकी चरचा पाई, साधरमीको संग ॥ बन्यौ० ॥१॥ श्रीजिनचरन बसे उरमाहीं, हरष भयो सब अंग। ऐसी विधि भव भव, मिलिज्यौ, धर्मप्रसाद अभंग ॥ बन्यौ ॥२॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANNown.--- बुधजन विलास ५१ (६३) राग-सोरठ। । कीपर करौ जी गुमान, थे तौ कै दिनका मिजमान ॥ कींपर० ॥ टेक ॥ आये कहांत कहां जावोगे, ये उर राखो ज्ञान ॥कीपर० ॥१॥ नारायण बलभद्र चक्रवार्त,नाना रिद्धिनिधान । अपनी बारी भुगतिर, पहूंचे परभव थान ।कीपर० ॥२॥ झूठ बोलि मायाचारीत, मति पीड़ा परप्रान । तन धन दे अपने वश बुधजन; करि उपगार जहान ॥ कींपर० ॥३॥ (६४) राग-सोरठ, एकतालो। चंदाप्रभु देव देख्या दुख भाग्यौ ॥ चंदा० टेक । धन्य दहाड़ो मन्दिर प्रायो, भाग अपूरब जाग्यौ ॥ चंदा०॥ १॥ रह्यो भरम तब गति गति डोल्यो, जनम-मरन दौं दाग्यौ। तुमको देखि अपनपो देख्या, सुख समतारस पाग्यौ ॥ चंदा०॥२॥ अब निरभय पद बेगहि पास्यों हरष हिये यौँ लाग्यौ । चरनन सेवा करै निरं तर, बुधजन गुन अनुरागों ॥ चंदा० ॥३॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ बुधजन विलास (६५) राग - सोरठ । ज्ञानी थारी रीतिरौ अचंभा मोनें वे है ज्ञानी० ॥ टेक ॥ भूलि सकति निज परवश है क्यौं, जनम जनम दुख पावै छै ॥ ज्ञानी० ॥ १ ॥ क्रोध लोभ मद माया करि करि, आप आप फँसा छै । फल भोगन की बेर होय तब, भोगत क्यौं पिछतावे है || ज्ञानी० ॥ २ ॥ पाप काज करि धनको चाहै. धर्म विषमें बतावै है । बुध1 जन नीति अनीति बताई, सांचौ सौ बतरावै वै ॥ ज्ञानी• ॥ ३ ॥ (१६) अब घर आये चेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी ॥ ० ॥ टेक ॥। आरस सोच कानि कुल हरिके, धरि धीरज वरजोरी | सजनी० १ बुरी कुमतिकी बातनबू, चितवत है मोओोरी वा गुरुजनकी बलि बलि जाऊं, दूरि करी मति भोरी || सजनी ० ||२|| निज सुभाव जल हौज भराऊं, घोरूं निजरंग रोरी । निज ल्यौं ल्याय Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास ५३ शुद्ध पिचकारी, छिरकन निज मति दोरी । सजनी ० || गाय रिझाय आप वश करिकै, जावन द्यौं नहि पोरी । बुधजन रचि मचिरहूं. निरंतर, शक्ति अपूरब मोरी || सजनी ० |४| (६७) राग - सोरठ । • हमको कछू भय ना रे, जान लियौ संसार | हमकौं० ॥ टेक ॥ जो निगोद मैं सो ही मुझ मैं, सोही मोखमँझार | निश्चय भेद कछू भी नाहीं भेद गिनै संसार ॥ हमकौं |१| परवश है आपा विसारिकै, राग दोषकौं धार । जीवत मरत अनादि कालते, यही है उरभार ॥ हमकौं | २ ॥ जाकरि जैसैं जाहि समयमैं, जो होतब जा द्वार । सो बनिहै रिहै कछु नाहीं, करि लीनों निरधार || इमकौं ० || ३ || अगनि जरावै पानी बोवै, विरत मिलत पार । सो पुगल रूपी में बुधजन सबक जाननहार ॥ हमक• ॥ ४ ॥ (६८) राग - सोरठ । या तौ बधाई हो नाभिद्वार ॥ ज० ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास टेक ॥ मरुदेव माताके उरमैं, जनमैं ऋषभकुमार ॥श्राज०॥ १॥ सची इन्द्र सुर सव मिलि आये,नाचत हैं सुखकार । हरषि हरषि पुरके नर नारी, गावत मंगलचार॥आज ॥२॥ ऐसौ बालक हूवो ताकै,गुनको नाहीं पार । तन मन वचते बंदत बुधजन, है भव-तारनहार ॥ आज० (६६) सुणिल्यो जीव सुजान, सीख सुगुरु हितकी कही। सुणिः ॥ टेक ॥ रुल्यो अनन्ती बार,गति गति साता ना लही ॥ सुणि० ॥१॥ कोईक पुन्य संजोग, श्रावक कुल नरगति लही। मिले देव निरदोष,वाणी भी जिनकी कही। सुणि॥२॥ चरचाको परसग अरु सरध्यामैं वैठिबो । ऐसा अवसर फेरि,कोटिजनम नहिं भौटिवो ॥सु०॥३॥ झूठी अाशा छोड़ि तत्वारथ रुचिधारिल्यो । या में कछू न विगार आपोआप सुधारिल्यो। सु. णि०॥४॥तनको प्रातम मानि, भोग विषय कारज करौ।यौ ही करत अकाज,भव भव क्यों Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwmovanna बुधजन विलास ५५ कूवे परो ॥ सुणि०॥ ५॥ कोटि ग्रंथको सार, जो भाई बुधजन करौ । राग दोष परिहार,याही भवसौं उद्धरौ ॥ सुणि० ॥६॥ (१००) राग-सोरठा। अब थे क्यौं दुख पावौ रे जियरा, जिनमत समकित धारौ ॥अब० ॥ टेक ॥ निलज नारि सुत व्यसनी मूरख,किंकर करत बिगारौ । सासूम अदेखक भैया, कैसे करत गुजारौ॥ अब० ॥१॥वाय पित्त कफ खांसी तन दृग, दीसत नाहिं उजागै। करजदार अरुबेरुजगारी,कोऊ नाहिं सहारौ ॥अब० ॥ २ ॥ इत्यादिक दुख सहज जानियौ, सुनियौ अब विस्तारौ । लख चौ. रासी अनत भवनलौं, जनम मरन दुख भारी ॥ अब० ॥३॥ दोषरहित जिनवरपद पूजौ, गुरु निरग्रंथ विचारौ।बुधजन धर्म दया उर धारौ, व्है है जै जैकारौ॥अब०॥४॥ (१०१) राग-सोरठा। म्हारौ मन लीनौ छै थे मोहि, आनन्दधन Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास जी॥ म्हारो० ॥टेक ॥ ठोर ठौर सारे जग भटक्यो, ऐसो मिल्यौ नहिं कोय । चंचल चित मुझि अचल भयौ है, निरखत चरनन तोय॥ म्हारो० ॥१॥ हरप भयौ सो उर ही जानें,वरनौं जात न सोय । अनंतकालके कर्म नसेंगे सरधा बाई जोय॥ म्हारो० ॥२॥ निरखत ही मिथ्यात मिट्यौ सब, ज्यौं रवितें दिन होय । बुधजन उरमैं राजौ नित प्रति, चरनकमल तुम दोय ॥म्हारो० ॥ ३ ॥ (१०२ ) राग-विहाग । सीख तोहि भाषत हूं या, दुख मैंटन सुख होय ॥सीख ॥ टैक ॥ त्यागि अन्याय कषाय विषयकों, भोगि न्याय ही सोय ॥॥ सीख० ॥१ म. धरमराज नहिं दंडे, सुजस कहै सब लोय । यह भी सुख परभौ सुख हो है, जन्म जन्म मल धोय॥ सीख० ॥२॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म न पूजौ, प्राण हरौ किन कोय । जिनमत जिनगुरु जिनवर सेवौ, तत्त्वारथ रुचि जोय ॥ सीख० ३ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास हिंसा अनुत परतिय चोरी, क्रोधलोभ मद खोय दया दान पूजा संयम कर, बुधजन शिव है तोय ॥ सीख० ॥४॥ (१०३) तेरौ गुण गावत हूं मैं, निजहित मोहि जताय दे। तेरौ० ॥ टेक ॥ शिवपुरकी मोकौं सुधि नाहीं, भूलि अनादि मिटाय दे॥ तेरौ ॥ १ ॥ भ्रमत फिरत हूं भव वनमाही, शिवपुर वाट बताय दे। मोह नींदवश घूमत हूंनित, ज्ञान वधाय जगाय दे ॥ तेरौ०॥२॥कर्म शत्रु भव भव दुख दे हैं, इनतें मोहि छुटाय दे । बुधजन तुम चरना सिर नावै,एती बात बनाय दे। तेरौ० (१०४ ) राग-विहार । मनुवा बावला हो गया॥ मनुवा० ॥ टेक ॥ परवश वसतु जगतकी सारी, निज वश चाहै लाया ॥ मनुवा० ॥१॥ जीरन चीर मिल्या है उदय वश, यो मांगत क्यों नया ॥ मनुवा० ॥२ जो कण बोया प्रथम भूमिमैं, सो कब औरै भ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ बुधजन विलास या || मनुवा० ||३|| करत काज आनको निजगिन, सुधपद त्याग दया ॥ मनुवा० ॥ ४ ॥ आप आप वोरत विषयी है, बुधजन ढीठ भया मनुवा ॥ ५ ॥ ० ( १०५) भज जिन चतुर्विंशति नाम ॥ भजि• ॥ टेक || जे भजे ते उतरि भवदधि, लयौ शिव सुखधाम ॥ भज• ॥ १ ॥ ऋषभ अजित संभव स्वामी, अभिनंदन अभिराम । सुमति पदम सुपास चंदा, पुष्पदन्त प्रनाम ॥ भज• ॥ २॥ शीत श्रेयान वासुपूजा, विमल नन्त सुठाम | धर्मशां तिजु कुंथु अरहा मल्लि राखें माम ॥ भज• ॥ ३ मुनिसुव्रत नमि नेमिनाथा, पार्श्व सन्मति स्वाम राखि निश्चयजपौ बुधजन, पुरै सबकी काम । भज० ॥ ४ ॥ ( १०६ ) राग - मालकोष । अब तू जान रे चेतन जान, तेरी होवत है नित हा ॥ अ० टेक ॥ रथ वाजि करी - Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास सवारी, नाना विधि भोग तयारी। सुंदर तिय सेज सँवारी,तन रोग भयौ या ख्वारी॥ अब० ॥१॥ ऊंचे गढ़ महल बनाये,बहु तोप सुभट रखवायें। जहां रुपया मुहर धराय,सब छांडि च ले जम आये।।अब०॥२॥ भूखा बै खाने लागै धाया पट भूषण पागे । सत भये सहस लाख मांग, या तिसना नाहीं भाग ॥ अब० ॥३॥ ये अथिर साँज परिवारौ. थिर चेतन क्यों न सम्हारौ । बुधजन ममता सब टारौ, सब पापा आप सुधारौ ॥ अब० ॥ ४॥ ___(१०७ ) राग-कालिंगड़ो परज धीमो तेतालो। म्हे तो थांका चरणांलागां आन भावकी परणति त्यागां ॥ म्हे०॥टेक ॥ और देव सेया दुख पाया,थे पाया छौ अब बड़भागांम्हें०२ एक अरज म्हांकी सुण जगपति, मोह नदिसौं अबकै जागां । निज सुभाव थिरता बुधि दीजे. और कछु म्हे नाहीं मांगा । म्हे० ॥२॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुधजन विलास (१०८) राग-कालिंगड़ो। अाज मनरी बनी छै जिनराज ॥ अाज०॥ टेक॥ थांको ही सुमरन थांको ही पूजन,थांको तत्वविचार । अाज०॥१॥थांके बिळूरै आत दुख पायौ, मोपै कह्यौ न जाय । अब सनमुख तुम नयनों निरखे, धन्य मनुष परजाय अाज०॥२॥ आजहि पातक नास्यौ मेरो, ऊतरस्यौं भव पार । यह प्रतीत बुधजन उर आई, लेस्यौं शिवसुख सार ।। प्राज०॥३॥ (१०६) हा जी म्हे निशिदिन ध्यावां, ले ले बलहारियां ॥ होजी० ॥ टेक ॥ लोकालोक निहारक स्वामी, दीठे नैन हमारियां हो जी० ॥१॥षट चालीसौं गुनके धारक, दोष अठारह टालियां। बुधजनःशरनैं श्रायौ थांके,थे शरणागत पालियां ॥हो जी० ॥२॥ (११०) राग-पराज म्हे तो ऊभा राज थान अरज करां छां मानौं महाराज म्हे० ॥ टेक ॥ केवलज्ञानी त्रिभुवन Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास नामी, अंतरजामी सिरताज म्हे० ॥१॥ मोह शत्रु खोटी संग लाग्यौ, बहुत करै छै अकाज। यात बेगि बचावौ म्हान, थाने म्हाकी लाज ॥ म्हे ॥२॥ चोर चडाल अनेक उबारे,गीधश्याल मृगराज तौ बुधजन किंकरके हितमैं, ढील कहा जिनराज म्हे. ॥३॥ ____ (१११) राग-कालिंगड़ो ___ कुमतीको कारज कूड़ौ, हो जी॥कुमती ॥टेक।।थांकी नारि सयानो सुमती, मतो कहै छै रूडो जी॥कुमती॥१॥ अनन्तानुबंधकी जाई, क्रोध लोभ मद भाई। माया बहिन पिता मिथ्यामत, या कुल कुमती पाई जी॥कुमती० ॥२॥ घरको ज्ञान धन वादि लुटावै, राग दोष उपजावै। तब निर्बल लखि पकरि करम रिपु, गति गति नाच नचावै ॥कुमती॥३॥ या परिकरसौं ममत निवारौ, बुधजन सीख सम्हारो। धरमसुता सुमती सँग राचौ, मुक्ति महलमें पधारो॥कुमती०॥४॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ बुधजन विलास (११२ ) राग कालिंगडो। हूं कब देखू वे मुनिराई हो ॥ हूं. ॥ टेक ॥ तिल तुषमान न परिग्रह जिनकैं, परमातम ल्यौं लाई हो।हूं॥१॥निज स्वारथके सब ही बांधव, वे परमारथभाई हो। सब विधिलायक शिव मग दायक तारन तरन सहाई हो। हूं० ॥२॥ अजी हो जीवा जी थानै श्रीगुरु कहै छै, सीख मानौं जी अजी० ॥ टेक ॥ विन मतलबकी थे मति मानौं. मतलबकी उर प्रानौं जी॥ अजी० ॥१॥राग दोषकी परिनति त्यागौ, निज सुभाव थिर ठानौं जी। अलख अभेद रु नित्य निरंजन, थे बुधजन पहिचानौं जी॥अजी० ॥२॥ (११४) आयौ जी प्रभु थांपै,करमारौ पीड्यौ प्रायौ।। आयो ।टेक। जे देखे तेई करमनि वश, तुम ही करम नसायौ । अायौ० ॥ १ ॥ सहज स्वभाव नीरशीतलको, अगनि कषाय तपायौ। सहे कुलाहल अनंतकालमैं,नरक निगोद डुलायो Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास ६३ || यौ० ॥२॥ तुम मुखचंद निहारत ही अब, सब ताप मिटायो । बुधजन हरष भयौ उर ऐसे, रतन चिन्तामनि पायौ || यौ० ॥ ३ ॥ ( ११५ ) राग - परज महाराज, थांनै सारी लाज हमारी, छत्रत्रयधारी || महाराज• ॥टेक॥ मैं तौ थारी अद्भुत रोती, नीहारी हितकारी || महाराज• ॥ १ ॥ निंदक तौ दुख पावै सहजैं, बंदक ले सुख भारी । सी अपूर्वं वीतरागता, तुम छविमाहिं विचारी । महाराज० ॥२॥ राज त्यागिकै दीक्षा लीनी, परजनप्रीति निवारी | भये तीर्थंकर महिमाजुत अब, संग लिये रिध सारी || ३ || मोह लोभ क्रोधादिक मारे, प्रगट दया के धारी । बुधजन बिनवे चरन कमलकों, दीजे भक्ति तिहारी || महाराज० ॥४॥ ( ११६ ) मुनि बन आये बना ॥ मुनि० ॥ टेक ॥ शिव वनरी व्याहनकों उमगे, मोहित भविक जना ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुधजन विलास मुनिः ॥१॥ रतनत्रय सिर सेहरा बांधे, सजि संवर बसना। संग बराती द्वादश भावन, अरु दशधर्मपना । मुनि०॥२॥ सुमति नारि मिलि मंगल गावत,अजपा (?) गीत घना। राग दोष की आतिशबाजी, छूटत अगनि-कना॥ मुनि ॥३॥ दुविधि कर्मका दान बटत है, तोषित लो. कमना। शुकल ध्यानकी अगनि जलाकरि,हीमें कर्मघना। मुनि० ॥४॥ शुभ बेल्यां शिव बनरि बरी मुनि, अद्भुत हरष बना । निज मंदिरमें निश्चल राजत बुधजन त्याग घना ।।मुनि०।५। (११७) लबँजी प्राजचंद जिनंद प्रभूकौं, मिथ्यातम मम भागौ।लखें०॥टक।। अनादिकालकी तपति मिटी सव सूतौ जियरौ जागौ ॥ लबँ० ॥शा निज संपति निजही मैं पाई तब निज अनुभव लागौ । बुधजन हरपत ग्रानंद वरपत अमृत झरमैं पागो॥ लखें ॥२॥ Page #185 --------------------------------------------------------------------------  Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगी ग्रन्थोंकी सूची १० ) महाराज श्रेणिक २) रेशमी २ ||) चरचा समाधान २) सप्तव्यसन चरित्र (1) पार्श्वनाथ पुराण २) पद्मपुराण ८) हरिवंश पुराण पांडव पुराण (सचित्र) ५) सजिल्द ६) रेशमी ६॥ ६) ६) "" शांतिनाथ पुराण आदिनाथ पुराण वृहद विमलनाथ पुराण रत्न करण्ड श्रावकाचार ५॥) चौबीसी पुराण ३) सजिल्द ४) प्रद्युम्न चरित्र ३) रेशमी ४) ४) पुरुषार्थ सिद्धुपा आराधना कथा कोष ३ |||) महावीरपुराण ३||) सजिल्द ४) ४) ४) मल्लिनाथ पुराण मोक्षमार्ग प्रकाशक३) सजिल्द ३||) पुन्याश्रवकथाकोष २ ||) रेशमी ३) जैन क्रिया कोष २॥ ) रेशमा ३) सच्चा जिनवाणी संग्रह ३) श्रीपालपुराण शास्त्राकार जैनव्रत कथा, कोष ३) २||) वडापूजा विधान २) कर्म पथ (उपन्यास) स० १ ॥ ) सादा १||) भक्तामरकथा मंत्रतंत्र १ ) स०१ ।।।) वीरपूजा नाटक 211) जैन महिलाभूषण १) सजिल्द १ ॥ ) जैन भारती १1) जापान ब्रिटेनकी छातीपर यूरुपमें जंगकी तैयारी धन्यवाद (उपन्यास) सुकमाल चरित्र वृन्दावन चौवीसी पाठ रामचंद्र चौवीसी 1 १1) १1) १1) १) १) राम वनवास नवीनतीर्थयात्रा |||) नकशायुक्त१) सुदर्शन चरित्र सचित्र चारुदत्त चरित्र १). संमग धनकुमार चरित्र शील सहिमा नाटक गौतम चरित्र सजिल्द २) पोपॉकी ५ कहानियां III) 1) 11) 11) पत्र व्यवहार करने का पता -- जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, १६१।१ हरीसन रोड, कलकत्ता Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ৫৮ ৫৯৫৮৪৮০x৮৫**** == বি প্রেমিকা চুদা ১ এস এস । ৬ » ~~ ~ | 24 . রিলিনৰাজী মাকে দায়ী साजिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्ता * , ~ = - = * +ম * প ~ {1 } । -~~- " -- ~~ খ , , , 1 ১ '}. ~~~ . . | * ~* ~~ ~ ~~~ ~ ~ ~ ~~ ~ Page #188 --------------------------------------------------------------------------  Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ మీ పడలిక పడ క క లతల లేడు ఆ RESEARNERATREAM श्रीमहाचंग-जैन-भजनावली er S NA tal. D R संग्रहकर्ता व प्रकाशकःचावू छोगालालजी सेठी, बावडी दरवाजा । सीकर ( राजपूताना) - वीर निर्वाण सं० २४५३ - PAREE s Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकछोगालाल सेठी; सीकर ( राजपूताना) मुद्रक'बाबू नरसिंहदास अग्रवाल, श्रीलक्ष्मी प्रिस्टिङ्ग वक्स, ३७०, अपर चितपुर रोड, • क्लकत्ता। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a fonte ६६ विज्ञप्ति आज मैं पाठकोंके समक्ष उन पण्डितजी महाराजके कथित भाषा पदोंका कुछ संग्रह लेकर उपस्थित हुआ हूं जो सीकर ( शेखावाटो ) में संस्कृत व प्राकृत भाषाके अच्छे विद्वान एवं क्षलक त्यागी हो चुके हैं और जिनके बनाये हुये संस्कृत व प्राकृत भाषाके जैनेन्द्र सारादि पांच सात महान ग्रन्थ सीकर शास्त्र भंडारमें विद्यमान हैं इनके अलावा संस्कृत भाषामें षटपदी नामक एक गायन ग्रन्थ बड़ा ही ललित रचा हुआ है वह भी उपरोक्त भंडारमें विद्यमान है परन्तु आज तक सिवाय एक सामा. यकपाठके कोई भी ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ कि जिससे समाजको इनका परिचय मिलता, हमने अपने इष्ट मित्रोंके अनु रोधसे उपरोक्त पण्डितजीके भाषा पदोंका (जो कुछ वृद्ध सजनोंसे सुने थे, उनका) संग्रह करके यह महाचन्द्र जैन भजनावली नामक पुस्तक प्रकाशित की है आशा है समाज इसको अपनावेगा तो मैं अपना परिश्रम सफल समभूगा। अलम् जैनसमाजका दासःछोगालाल सेठी। Tud Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नई चीज ! न देखी होगी !! और न सुनी होगी श्रीहरिवंशपुराण चित्रावली । श्री हरिवंशपुराणके चित्रोंका काम अब दो वर्षा पूरा हुवा है हजारों रुपया व्यय करके २५ रंग विरंगे चिकने आर्ट पेपर पर छपे हुए भाव पूर्ण चित्रोंका दर्शन - जिस समय आप करेंगे उस समय घंटो तक आप प्रत्येक चित्रको एक टक नजरसे अवलोकन करते हुए सनमें चतुर्थकाल के दृश्यका अनुभव करने लगेंगे । चित्रके बनानेमें ५०) से १५०) रु० तक खर्च हुवा है १५ चित्र तो तीन तीन रंगके छपे हुए इतने सुन्दर हैं कि हम लेखनी द्वारा कुछ भी नहीं बता सकते | चित्रोंकी सूची एक पत्र लिख कर मंगाइये । न्योछावर ३) रुपया मात्र रेशमी सुनहरी जिल्द बंधे चित्रोंका ४) । एक एक जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, पोष्टवक्स ६७४८, कलकत्ता Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRE RRRRRRRRRRR2523 . . . . Senyanranse Syeace - जैनबालबोधक पाठ संग्रह जो कि जैन पाठशालाओंमें पढ़ाने लायक उपयोगी पुस्तक है जिसमें भगलपाठ, अभिषेक पाठ, बधाई, आरती, दर्शनबिधि, भक्तामर स्तोत्र, लघु काल चर्चा इत्यादि ११ विषयोंका समवेष है और संगठन इस क्रमसे रखा गया है कि बाहर गांवों में भी बालक बगेर । अध्यापकके अपने आप सीखकर लाभ उठा सक्त हैं मूल्य सिर्फ लागत मात्र न्यों ३) हैं . पांच प्रति एक साथ खरीदने पर एक प्रति मुफ्त दी जाती हैं मिलनेका पताजिनवाणी-प्रचारक कार्यालय, पो० ब० ६७४८ NERISssettes . . . . . . ... 188888888888888888 . . . ... 1888888 कलकत्ता Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहत् जनपदसंग्रह में क्या है ? जिस संग्रह के लिये जैन समाज के कोने कोने से आर्डर आ रहे थे और हम उन्हें बराबर आस्वासन देते रहे थे-वही आज ६३५ पदों का संग्रह ४०० पृष्टोंमें छप कर तैयार हो गया इसमें बुधजनजी, द्यानतजी, भृधरजी, भागचन्दजी, जिनेश्वरजी, दौलतरामजी और महाचन्दजी, जैसे महान विद्वानोंकी चुनी हुई उत्तम २ राग रागनियों का संग्रह है। एक ही पुस्तक मंगा लेने से तमाम कवियों की कविताओं का स्वाद आनन्द से मिल सक्ता है। न्योछावर इतने बड़े ग्रन्थ की सिर्फ २) रेशमी जिल्द का २॥) रुपया रक्खा गया है। संग्रह बड़े २ अक्षरों में पुष्ट कागज पर शुद्धता पूर्वक छपाया गया है । मुख पृष्ट पर भाव पूर्ण सुन्दर चित्र भी दिया है। इतना सब होने पर भी सदैव की तरह कार्यालय के ग्राहकोंको पौना कीमत में भेजा जायगा। पत्र व्यवहार का पताः नृपेन्द्रकुमार जैन मैनेजर, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, ६७४८, कलकत्ता । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JILJI JILLUILJILI ENOUNNEL . . . 'ग्राहक होनेके नियम। १-१) रुपया प्रवेशफी देनेसे हर कोई भाई ग्राहक हो सक्त हैं परंतु प्रकाशित ग्रंथोंमें कमसे कम ५)रु०के ग्रंथ लेने होंगे। २–ग्राहकोंको १ वर्ष में कमसे कम १० रुपयाके नवीन 3 ग्रंथ जो प्रकाशित होंगे वह लेने ही होंगे। E, ३-जिन ग्राहकोंकी वी० पी०. वापिस आयगी उनको सूचना दे कर उनका नाम ग्राहक श्रेणोसे पृथक् कर दिया जायगा। ४-२०) रु०से ज्यादा ग्रन्थ मंगाते समय ५ रुपया पेशगी भेजना चाहिये, अन्यथा वी०पी० नहीं भेजी जायगी। ५-रास्तेमें अगर पार्सल खो जाय या खराब हो जाय तो उसके लिये कार्यालय दायी न होगा। ६-ग्रंथ तैयार होते हो प्राहकोंको सूचना दी जायगी अगर १० दिन तक उनकी इन्कारीको पत्र न आयगा. तो वी० पी० भेज दी जायगी-अगर हिसाबमें कुछ भूल हो तौ पासल छुड़ा कर यहां पत्र लिखें ठीक कर दी जायगी। पर पार्सल लौटानेसे उभयपक्षकी हानि ही है। . नृपेन्द्रकुमार जैन-मैनेजर, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, ८३ लोअर चिनपुर रोड कलकत्ता IIMTINI HIPIII!!!?18?11?!!?!? DIT NIEUNITS AIMINIMIMIMINAINITIANIMAL Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गोमसारजी बड़े | ३१) रुपया १०० ग्राहकों को दिया जायगा । पृष्ट संख्या ४१०० से भी अधिक होगी लब्धिसार चपणासार सहित खुले पत्रों में पद्मपुराणको साइज और बड़ े २ मोतीकी तरह सुन्दर अक्षरों में शुद्धता-पूर्वक छपाये जायगे । ६१) रुपया में मिलनेवाले से उत्तम बनाया जायगा । १०० ग्राहकोंकी स्वीकारता आनेपर छपना प्रारम्भ कर दिया जायगा अतएव शीघ्र हो ग्राहक श्रेणीमें नाम दर्ज कराइये । प्रत्येक जैनमन्दिर, पाठशाला, श्राविकाश्रम, सरस्वती भवनोंमें इसकी प्रति का रखना अत्यन्त जरूरी है । आज हो पत्र लिखें अन्यथा १०० ग्राहक हो जाने बाद दाम बढ़ जायगा । * निवेदक नृपेन्द्रकुमार जैन, मैनेजर - जि० प्र० का ० ६७४८, कलकत्ता । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः महाचन्द जैन भजनमाला !! (१) बधाई। बधाई आली नाभिराय घर आज ॥ टैर॥ मरुदेवी सुत ऊपजो है आदि जिनेंद्र कुमार। - इन्द्रपुरी तैं हू भली है आज अयोध्या द्वार ॥ बधाई० ॥ १॥ जन्मत सुरपति आइये हैं ले ले सब परिवार । मेरु शिखरपै न्हवन कियो है क्षीरोदधिजल धार ॥ वधाई ॥२॥ रूप जिनेंद निहारके है तृप्त न हुवो सुरराय । सहस्त्र नयन तबही रचे हैं ' देखनको जिनराय ॥ वधाई॥३॥ नाम दियो तब इन्द्रने है शुषभदेव महराज। सौपि नपति कौं नाचिके हैं निज निज स्थान विराज ॥ बधाई ॥४॥ बीन बांसुरी नोवत्यां है बाजत सुन झनकार । नर नारी सबही चले हैं देखनको जिन Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ महाचंद जैन भजनावली। द्वार ॥ बधाई० ॥ ५ ॥ आधि व्याधि सबही तजे हैं तज दिये घरके काज। बालक छोड़े रोवते हैं देखनको महाराज ॥ बधाई०॥६॥ जाचक जन बह पोषिये हैं दान देय राजेन्द्र । दीअशीस यों जिनबधो ज्यों दोयजको महाचंद्र ॥बधाई ० ॥७॥ (२) बधाई। सिद्धारथ राजा दरबारै बटत बधाई रंग भरी हो॥ टेक ॥ त्रिसला देबीनै सुतजायो वर्द्धमान जिनराज बरी हो । कुंडलपुरमें घर घर द्वारे होय रही आनंद घरी हो ॥ सिद्धा०॥१॥ रत्ननकी वर्षाको होते पन्द्रह मास भये सगरी हो । आज गगन दिश निरमल दीखत पुष्प बृष्टि गंधोद झरी हो ॥ सिद्धा० ॥ २॥ जन्मत जिनके जग सुख पाया दूरि गये सब दुक्ख टरी हो । अन्तर मुहूर्त नारकी सुखिया ऐसो अतिशय जन्म धरी हो ॥ सिद्धा० ॥३॥ दान देय नृपने बहुतेरो जाचिक जन मन हर्ष करी हो। ऐसे बीर जिनेश्वर चरणों बुध महाचंद्र जु सीस धरी हो ॥४॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली। (३) बधाई। धन्य घड़ी याही धन्य घड़ीरी । आज दिवस याही धन्य घड़ी री ॥ टैर ॥ पुत्र सुलक्ष्मण महासैन घर जायो चंद्रप्रभ चन्द्रपुरी री॥ धन्य० ॥१॥ गजके बदन शत बदन रदन बसु रदनपै तरवर एक करीरी। सरवर सत पणबीस कमलिनो कमलिनी कमल पचीस खरीरी॥ धन्य० ॥२॥ कमल पत्र शत आठ पत्र प्रति नाचत अपसरा रंग भरीरी। कोडि सताइस गज सजि ऐसो आवत सुरपति प्रीत धरीरी॥ धन्य ॥३॥ ऐसो जन्म महोत्सव देखत दूरि होत सब पाप टरीरी। बुध महाचन्द्र जिके भव मांही देखे उत्सव सफल परीरी ॥ धन्य० ॥४॥ (४) बिहाग। चिदानन्द भूलि रह्यो सुधि सारी। तू तो करत फिरै म्हारी म्हारी ॥ चिदा०॥ टैर ॥ मोह उदय तें सबही तिहारो जनक मात सत नारी। मोह दूरि कर नेत्र उघारो इनमें कोइ न तिहारी Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] महाचंद जैन भजनावली । ॥ चिदा० ॥ १॥ भाग समान जीवना जोविन परबत नाला कारी । धन पद रंज समान सबन को जात न लागे वारी ॥ चिदा० ॥ २॥ जूवा मांस मद्य अरु वेश्या हिंसा चौरी जारी। सप्त व्यसनमें रक्त होयके निज कुल कीनी कारी ॥ चिदा० ॥ ३ ॥ पुन्य पाप दोनों लार चलत हैं यह निश्चय उर धारी। धर्म द्रव्य तोय स्वर्ग पठावै पाप नर्कमें डारी ॥४॥ आतम रूप निहार भजो जिन धर्म मुक्ति सुखकारी। बुध महाचन्द्र जानि यह निश्चय जिनवर नाम सम्हारी ॥५॥ (५) सोरठ। जीव निज रस राचन खोयो, योतो दोष नहीं करमनको ॥ जीव०॥ टेर॥ पुद्गल भिन्न स्वरूप आपणं सिद्ध समान न जोयो ॥ जीव ॥१॥ विषयनके संग रक्त होयके कुमती सेजां सोयो। मात तात नारी सुत कारण घर घर डोलत रोयो ॥ जीव ॥२॥ रूप रंग नव जोविन परकी नारी देख रमोयो । परको निन्दा आप बड़ाई करता Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली। जन्म विगोयो । जीव० ॥३॥ धर्म कल्पतरु शिव फल दायक ताको जरतें न टोयो। तिसकी ठोड महाफल चाखन पाप बमूल ज्यों बोयो ॥ ४ ॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म सेयके पाप भार बहु ढोयो। बुध महाचन्द्र कहे सुन प्रानी अंतर मन नहीं धोयो ॥ जीव०॥५॥ निज घर नाय पिछान्यारे, मोह उदय होने तें मिथ्या भर्म भुलानारे ॥ निज०॥ टैर ॥ तूंतो नित्य अनादि अरूपी सिद्ध समानारे। पुद्गल जड़में राचि भयो तं मूखे प्रधाना रे ॥निज०॥१॥ तन धन जोबिन पुत्र बधू आदिक निज मानारे। यह सबजाय रहनके नांई समझ सियानारे ॥ निज० ॥२॥ बालपने लड़कन संग जोबिन त्रिया जवानारे। वृद्धभयो सब सुधिगई अब धर्म भुलानारे ॥ निज ॥ ३॥ गई गई अबराख रही तू समझ सियानारे। बुद्ध महाचंद्र बिचारिर जिन पद नित्य रमानारे ॥ निजधर ॥ ४॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] महाचंद जैन भजनावली । (७) पूजा रचाऊजो पूजन फल पाऊं तुमपद चाहूंजी ॥ पूजा०॥ टैर॥ निरमल नीर धार त्रय देकर चंदन पद चर्चाऊजी । उज्वल तन्दुल पुंज बनाकर पुष्प चढ़ाऊजी ॥ पूजा०॥१॥ नानारस नैवेद्य मंगाऊ दीपक जोति जगाऊ जी। धूप अनंग मद संग खेयफल अर्घ धराऊ. जी ॥ पूजा० ॥२॥ अष्टद्रव्यको अर्घ बनाऊ नाचि नाचि गुण गाऊजी। बुधमहाचंद्र कहै करजोड्या तुम पद चाहूंजी ॥ पूजारचाऊजो ॥३॥ (८) और निहारोजी श्रीजिनवर स्वामी अंतरयामीजी ॥ ओर नि० ॥टेर ॥ दुष्टकर्म मोय भव भव मांही देत रहैं दुखभारी जी। जरा मरण संभव आदि कछु पार न पायोजी ॥ और नि० १॥ मैं तो एक आठ संग मिलकर सोध सोध दुख सारोजी। देते हैं बरज्यो नहीं मानें दुष्ट हमारोजी ॥ और ॥ २ ॥ और कोऊ मोय दीस Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जन भजनावली। त नाही सरणागत प्रतपालोजी। बुधमहाचन्द्र चरणढिग ठाडो शरण थांकोजी ॥ और ॥ ३॥ (६) धमाल। धरमीके धर्म सदा मनमें । धरमोके ॥ टैर॥ रामचन्द्र अरु सीताराणी जाय बसे दंडकबनमें ॥ धरमी० ॥१॥ द्वारापेक्षण ताहूकीन मुनिवर एक मिले क्षणमें ॥ धरमी० ॥२॥ मास एक उपवासी मुनि लखि हरषे दोउ मन बच तनमें धरमी० ॥ ३॥ दोष रहित मुनिदान निरखके पक्षी जटायु अनुमोदनमें ॥ धरमी० ॥४॥ बुधमहाचन्द्र कहांहूजावो धरमीके धरम सदा मनमें ॥ धरमी ॥५॥ . (१.) ____ मैं कैसे शिवजाऊ रे डिगर भूलावनी ॥ मैं कैसे०॥ टैर ॥ बालपने लरकन संग खोयो, त्रिया संग जवानी ॥ मैं कैसे०॥ १॥ वृद्धभयो सब सुधिगई भजि जिनवर नाम न जानी ॥ मैं कैसे० ॥२॥ भवबनमें डिगरी बहु परती दुख Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] महाचंद जैन भजनावली। कंटक भरितानी ॥ मैं कैसे० ॥३॥ कामचोर ढिग मोह बढे दोउ मारगमांही निसानी ॥ मैं कैसे० ॥ ४ ॥ ऐसे मारग बुधमहाचन्द्र जिनवरवचन पिछानी ॥ मैं कैसे० ॥ ५ ॥ सुफल घड़ी याही देखें जिनदेव ॥ टेर ॥ मनतो सुफल तुम चितवन करतें पदजुग तुमपे आइ लयन सुफल तुम पद दरशेव ॥ सुफल॥ १॥ सील सुफल तुम चरणन मन” जीभसुफल गुणगाइ हस्तसुझल तुम पइकरशेव ॥ सुफल० ॥ २॥ श्रवण सुफल तुम गुण सुणनेमें जन्म सुफल भजि साँइ बुधमहाचन्द्रजु चर्णनमेव ॥ सुफल० ॥३॥ (२) येही अज्ञान पला जिबड़ा तूने निजपर भेद न जानारे ॥ येही ॥ टेर ॥ तो अनादि अमर अरूपी लिर्जर सिद्ध समानारे ॥ येही० ॥१॥ पुद्गलजड़में राचिके चेतन होयरहा सूर्ख प्रधाना Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली । [ S रे ॥ येही ० ॥ २ ॥ कहत सबै जगबस्तु हमारी जैसे बकत यानारे ॥ येही ० ॥ ३ ॥ आतमरूप सम्हारि भजो जिन बुधमहाचन्द्र बखानारे ॥ येही अज्ञान० ॥ ४ ॥ (१३) जिनबानी सदासुखदानी, जानि तुम सेवो भबिक जिनवानी || टेर || इतरनित्य निगोदमांहि जे जीव अनंत समानी । एक सांस अष्टादश जामण मरण कहे दुखदानी ॥ जानि० ॥ १ ॥ पृथ्वी जल अरु अनि पवनमें और वनस्पति आनी । इनमें जीव जिताय जितायर, जीवदयाकी कहानी || जानि० ॥ २ ॥ नित्य अकारण आदिनिधनकरि तीन लोक त्रयमानी । करता हरता कोउनाय याको, ऐसो भेद जतानी ॥ जानी ० ३ ॥ बात बलत्रय बेड़ि धनोदधि धन तनु तीन रहानी । इन आधार लोक त्रय राजत, और कछू न बखानी ॥ जानितुम० ॥४॥ ऐसी जानि जिनेश्वरबानी, मिथ्यातमकी मिटानी । बुधमहा Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] महाचंद जैन भजनावली। चन्द्र जानि जिनसेवे, धारि धारि मन मानी॥ जनि तुमसेवो ॥ ५॥ (१४) उदयज्यांको पापको बानैं कुण समझावेरे ॥ उदय । टैर ॥ मंत्री मिल जरासंधसे कही कृष्ण बली जगमाय। गोबरधन चिंट अंगुली धस्यो कंसको मास्यो आय ॥ उदय० ॥ १ ॥ लघु तुम भाई है बली अपराजित नाम कहाय। तॉको मारयो खड़गत जांकी नखन भई तुम थाय ॥ उदय० ॥२॥ समझायो समझे नहीं प्रानी कर्म उदय जब आय । कर्म किया सोहीभोगल्यो बुधमहाचन्द्र यं गाय ॥ उदय जाको० ॥३॥ (१५) भूल्योरे जीव तूपदतेरो। भूल्योरे ॥ टेर॥ पुद्गल जड़में राचि राचिकर, कीनों भवबनफेरो। जामण मरण जरा दोउ दाझ्यो भस्मभयो फल नरभव केरो ॥ भूल्योरे० ॥ १॥ पुत्र नारि बान्धव धन कारण पापकियो अधिकेरो। मेरो Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली । [ ११ मेरो यूं करिमान्यु इनमें नहीं कोई तेरो न मेरो भूल्योरे ● ॥ २ ॥ तीन खंडको नाथ कहावत Fiदोदरी भरतेरो । कामकलाकी फोज फिरी तब, राज खोय कियो नर्क बसेरो ॥ भूल्योरे० ॥ ३ ॥ भूलि भूलिकर समझ जीव तू अबहू औसर हेरो | बुधमहाचन्द्र जाणि हित अपण पीवो जिनबानी जलकेरो ॥ भूल्योरे० ॥ ४ ॥ ( १६ ) कुमतिको छाडो भाई हो ॥ कुमति || टैर ॥ कुमति रची इक चारुदत्तने, बेश्या संग रमाई | सब धन खोय होय अति फीके गुंथ ग्रह लटकाई ॥ कुमति ॥ १॥ कुमति रची इक रावण नृपर्ने सीताको हर ल्याई । तीन खंडको राज खोयके दुरगति बास कराई ॥२॥ कुमति रची कीचकने ऐसी द्रोपदि रूप रिझाई | भीम हस्ततैं थंभ तले गड़ि दुक्ख सहे अधिकाई ॥ कुम० ॥ ३ ॥ कुमति रची इक धवल सेठने मदन मजूसा ताई । श्रीपालकी महिमा देखिर डील फाटि मरजाई ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] महाचंद जैन भजनावली । कुमति० ॥ ४ ॥ कुमति रची इक ग्राम कूटने रक्त कुरंगी माई | सुन्दर सुन्दर भोजन तजके गोबर भत कराई ॥ कुमति ० ||५|| राय अनेक लुटे इस मारग बरात कोन बड़ाई । बुध महाचन्द्र जानिये दुखकों कुमती द्यो छिटकाई ||६|| (१७) माड़ । ऋषभ जिन वता ये माय, अमा मोरी नग्न दिगम्बर काय ॥ ऋषभ० ॥ टेर ॥ सब नर नारि मिल देखिया ए माय, अमा मोरी नजर भेट बहू लेय ॥ ऋषभ ॥ १ ॥ कइ गज कइ अश्व देवें ये माय, अमा मोरी कइ यक कन्या देत ॥ प० ॥२॥ कइ रतन नजर करया हे माय मा मोरी केई वस्त्र अपार ॥ ऋषभ० ॥ ३॥ इत्यादिक वस्तु देव हे माय, अमा मोरी वे कछू लेते नांय ॥ ऋषभ० ॥४॥ क्या जानें क्या चाहि है ए माय, अमा मोरी धन वे कछू यन लेय ॥ ऋषभ० ॥ ५॥ ऐसे जिन मोकू मिलो ऐ माय, मा मोरी बुध महाचन्द्रके भाव ॥ ऋषभ ० ॥६॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली। [१३ (१८) शीख सुगुरू नित्य उर धरो सुन ज्ञानी जी। एक भजो तज दोय ज्ञानीजी ॥ शीख ॥ टेर ॥ तीन सदा उरमें धरो सुन ज्ञानीजी, तजो चारको हेत ज्ञानीजो॥शीख॥१॥ पंचमको नित संग करो सुन ज्ञानीजी,षट तज नीका जानि ज्ञानीजो ॥२ सातनको चितवन करो सुन ज्ञानीजी,आठ तजो दुख कार ज्ञानीजी ॥ शीख ॥३॥ नौ हृदय नित धारिये सुन ज्ञानीजी,दश फुनि ग्यारा धारि ज्ञानी जी ॥ शीख ॥ ४॥ बारह फुनि तेरह भजो सुन ज्ञानीजी, बुधमहाचन्द्र निहार ज्ञानीजी ॥ शी०५ (१६) देखो पुद्गलका परिवारा जामें चेतन है इक न्यारा ॥ देखो॥ टैर ॥ स्पर्श रसना घ्राण नेत्र फुनि श्रवणपंच यह सारा । स्पर्श रस फुनि गंध बणं स्वर यह इनका विषयारा ॥ देखो० ॥१॥ चुधातृषा अरु राग द्वेष रुज सप्तधातु दुखकारा बादर सूक्ष्मस्कंध मणु आदिक मूर्तिमई निरधा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] महाचन्द जैन भजनावली। रा॥ देखो० ॥२॥ काय बचन मन स्वासोछ्वा' सजू थावर त्रसकरि डारा। बुधमहाचन्द्र चेतकरि निशदिन तजि पुद्गलपतियारा ॥ यह०॥३॥ (२०) अमृत भर झुरिझुरि आवे जिनबानी॥ अमृत टेर ॥ द्वादशांग बादल व्हे उमड़े ज्ञान अमृत रसखानी ॥ अमृत० ॥१॥ स्याद्वाद बिजुरी अति चमके शुभ पदार्थ प्रगटानी। दिव्यध्वनी. गंभीर गरज है श्रवण सुनत सुखदानी ॥अमृत॥ २॥ भव्यजीव मन भूमि मनोहर पाप कूड़कर हानी । धर्म बीज तहां ऊगत नीको मुक्ति महाफल ठानी ॥ अमृत०॥३॥ ऐसो अमत झर अति शीतल मिथ्या तपत भुजानी। बुधमहाचन्द्र इसी झर भीतर मग्न सफल सोही जानी ॥ अमृतझर० ॥ ४॥ (२१) सीतासती कहत.है रावण सुनरे अभिमानी तुम कुलकाष्ट भस्मके कारण हमें आगि आनी॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचन्द जैन भजनावली। [१५ टेर॥ कहा दिखावत हमको तेरी लंकाराजधानी तेरा राज्य बिभो हम दीसे जं जोणतृण समानी॥ सीता०॥१॥शीलवंत पुरषनके दारिद सोहू सुखदानी । शील हीन तुमसे पापिनके सम्पति दुखदानी ॥ सीता०॥२॥ हमरे भरता रामचन्द्र देवर लक्ष्मण जानी। महा बलवंत जगतमें नामी तोसे नहीं छानी ॥ सीता० ॥३॥ चन्द्रनखा तेरी बहिन तासको पुत्ररहित ठानी ॥ खरदूषण हति रंडाकीनी सोते नहींमानी॥ सीता०॥४॥जोतू कहै हम हैं विद्याधर चलतगगन पानी। काग कहा नहीं गगन चलत है सौ औगुन खानी ॥ सीता०॥ ५॥ प्रतिनारायण नकसूमिमें कहती जिनबानी। बुधमहाचन्द्र कहत है भावी मिटै न मेटानी ॥ सीता०॥६॥ (२२) रावण कहत लंकापति राजा सुन सीताराणी । काम अग्नि भस्मित हमको तू दे सरीर पानी ॥टेर ॥. देख हमारी तीनखंडको लंका Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] महाचन्द जैन भजनावली। राजधानी। भूमिगोचरी अरु विद्याधर रहत छदिखानी ॥ रावण ॥ १ ॥राज हमारो तीन खंड मंदोदरीसी रानी। इन्द्रजीतसे पुत्र विभीषणसे भाई ज्ञानी ॥ रावण ॥२॥ इन्द्र आदि विद्याधर हमने जीते सब जानी। छत्र फिरत इक हमरे ऊपर और नही ठानी ॥ रावण ॥३॥ रंक कहां तेरो भर्ता हमसे रामचन्द्र मानी महा दुर्बल बनबासी दीसे हमसे रहे छानी ॥ रावण. ॥४॥ इत्यादिक मानी नही सीता शीलरत्न खानी। बुधमहाचन्द्र कहत रावणकी सुधि बुधि बिसरानो ॥ ५॥ (२३) __विषय रस खारे, इन्है छाड़त क्यों नहिं जीव। बिषयरस खारे ॥ टैर॥ मात तात नारी सुत बांधव मिल तोकूभरमाई ॥ विषय भोगरसजाय नर्क तू तिल तिल खंड लहाई ॥ बिषय० ॥ १ ॥ मदोनमत्त गज बस करनेकू कपटकी हथनी बनाई। स्पर्शन इन्द्रिय बसि होके Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली। [१७ आय पड़त गजखाई ॥ विषय० ॥२॥ रसनाके बसिहोकर मांछल जाल मध्य उलझाई । भ्रमरकमलबिच मृत्यु लहत है विषय नासिका पाई ॥ बिषय० ॥३॥ दीपक लोय जरत नैन बसि मृत्यु पतंग लहाई । काननके बसि सर्प हायके पींजर मांहि रहाई ॥ बिषय० ॥४॥ विषखायेते इक भव माही दुख पावै जीवाई । बिषय जहर खायेतें भव भव दुख पावै अधिकाई ॥विषय० ॥५॥ एक एक इन्द्री” यह दुख सबकी कौन कहाई। यह उपदेश करत है पंडित महाचन्द्र सुखदाई ॥ (२४) भबि तुम छाडि परत्रियाभाई निश्चय बिचारकरा मनमेरे॥ टेर ॥ जप तप संजम नेम आकड़ी ध्यान धरत मुसानन मेरे । परत्रिय संगतसे सब निष्फल ज्यों गज जल डारे तनमरे॥ भवि०॥ १॥ पुज्यपना अरु मानपना फुनि धन्यपनार बड़ापन मेंरे । परत्रिय संगतसे सबनासे गगनमें धनुष पवन थकि तेरे ॥ भवि० ॥२॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] महाचंद जैन भजनावली। सिंह बघेरी और सर्पणी इनहीकी संगत दुख गिन तेरे। इनकी संगत दुख हैं थोड़े परत्रिय संग लगे घनमेरे ॥ ३ ॥ भबि० ॥ परत्रिय संगत रावण कीनी सीता हरलायो बन मेंरे। तीन खंडको राज गमायो अपजस लेगयो नर्कन मेंरे ॥ भवि०॥४॥ ज्यों ज्यों परत्रिया संगति करि हैं त्यो त्यों काम बढ़ा अंगमेंरे। बुधमहाचन्द्र जोनिये दूषण परत्रिय संग तजो छिनमेंरे ॥भ०५ (२५) रेखता। देखि जिनरूपद्व नयना हर्ष मनमें न माया हो ॥ टैर ॥ इन्द्रहु सहस्र नेत्रन रच तुम्हें जिन देखन ध्यायाहो ॥ देखि०॥ १॥ धन्यहो श्राजका यह दिन तुम्हारा दर्श पाया हो । रंक घर ज्यों सुऋद्धि होते त्यों हमैं हर्ष आया हो । देखि० ॥ २॥ सफल पद थान यह बातें सफल नयनों दर्श पाते। सफल रसना जुः पदगाते सफल कर पद पशवातें ॥ देखि०॥३॥ और कछु नांहि मोबांच्या सेवा तुम चरण पावांहो । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली । [ १६ मिलो भव भव हमें येही सीस महाचन्द्र नायाहो ॥ देखि जिन० ॥ ४॥ ( २६ ) जिनबाणी गंगा जन्म मरण हरणी । जन्म टेर ॥ जिन उर पदम कुंडमेंतें निकसी मुखही में गिर गिरणी ॥ जन्म० ॥ १ ॥ गौतम मुख हेम कुल पर्बत तल दरह बिचमें ढरणी || जन्म० ॥ २ ॥ स्यादवाद दोऊ तट अति दृढ़ तत्व नीर झरणी ॥ जन्म० ॥ ३ ॥ सप्तभंग मय चलत तरंगिनी तिनतैं फैल चलणी ॥ जन्म० ॥ ४ ॥ बुधमहाचन्द्र श्रवण अंजुली तैं पीवो मोक्षकर - णी || जन्म मरण ॥ ५ ॥ (२७) भाई चेतन चेत सके तो चेत अब नातर होगी खुवारीरै । भाई चेतन ॥ टेर ॥ लख चौरासीमें भ्रमता भ्रमता दुरलभ नरभव धारीरे । आयुलई तहां तुच्छ दोषतैं पंचम काल मकारी रे ॥ भाई ० ॥ १ ॥ अधिक लई तब सौ बरसन - Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] महाचन्द जैन भजनावली । की आयु लई अधिकारीरे। आधी तो सोनेमें खोई तेरा धर्म ध्यान बिसरारीरे ॥ भाई ॥२॥ बाकी रही पचास वर्षमें तीन दशा दुखकारीरे । बाल अज्ञान जवान त्रियारस वृद्धपने बलहारीरे ॥ भाई० ॥३॥ रोग अरु शोक संयोग दुःख बसि बीतत हैं दिनसारी रे। बाकीरही तेरी आयु किती अब, सोते नाहिं बिचारीरे ॥ भाई०॥ ४॥ इतनेहीमें किया जो चाहै सो तू कर सुखकारीरे॥ नहीं फंसेगा फंद बिच पंडित महाचन्द्र यह धारीरे ॥ भाई० ॥ ५॥ (२८) . जीव तू भ्रमत भ्रमत भव खोयो जब चेत भयो तब रोयो॥ जीव तू ॥ टेर ॥ सम्यकदर्शन ज्ञान चरण तप यह धन धूरि बिगोयो। बिषय भोग गत रसको रसियो छिन छिनमें अति सो. यो॥जीव० ॥१॥ क्रोध मान छल लोभ भयो तब इनहीमें उर झोयो । मोहरायके किंकर यह सब इनके बसिव्हे लुटोयो॥ जीब० ॥ २॥ मोह Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली। निवार संवारसु आयो आतम हित स्वर जोयो। बुधमहाचन्द्र चन्द्रसमहोकर उज्वल चित रखोयो ॥ जीव तू आमत० ॥३॥ (२६) ___मन बैरागीजी नेमीश्वरस्वामी शिवपुर गामीजी। मनः ॥टेर॥ अपनं राज राखनके कारण कृष्ण कपट करलीनंजी ॥ उग्रसैन पुत्री राजुलसे व्याह रचीनजी ॥ मन० ॥१॥ छपन कोड़ि जादवमिल भेला खूब बरात बणाईजी। तौरण आय देख पशुदु खिया बंद छुड़ाईजी ॥ मन० ॥ २ ॥ तौरणसे रथ फेर जिनेश्वर उर्जयं तगिरि ठाड़ेजी। कांकण डोरा तोड़ मोड़कर दिक्षा मांडीजी ॥ मन० ॥३॥ घातिया घाति अघाति बहुविधि मोक्ष महल गिर ठाड़ेजी। बुधमहाचन्द्र जान जिनसेवे नोनिध लागीजी॥ मनबैरा०॥४॥ जगमें जगती जिनबानीरे जगमें जगती Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] महाचंद जैन भजनावली । जिनबानी, भवतारण शिव सुखकारण || जगमें टेर ॥ स्यादवादकी कथनी वाली सप्तभंगजानी सप्त तत्व निर्णय में तत्पर नव पदार्थ दानी ॥ भवतार० ॥ १ ॥ मोह तिमर अधनको जो है ज्ञान शलाकानी । मिथ्या तप तप तनको जो है मलियागर खानी ॥ भवता ॥ २ ॥ इस पंचम कलिकाल मांहि जे हैं केवली समानी | धर्म कुधर्म कुदेव देवगुरु कुगुरु बतानी || भवता० ॥३॥ इन्द्र धणेन्द्र खगेन्द्रादिक पदकी निसानी । विपयादिक विष विध्वंस करसेव सुख सुधापानी ॥ भवता० ॥ ४ ॥ कुमग गमन करता भविजनकू सुद्ध मग जितानी । जड़ पुद्गल रत बुध महाचन्द्रकू निजपर समझानी ॥ भव० ॥ ५ ॥ आन ( ३१ ) जिया तूने लाख तरह समझायो, लोभीड़ा नाही मानेरे ॥ टेर ॥ जियातें ॥ जिन करमन संग बहु दुख भोगे तिनहीसे रुचि ठानै, निज स्वरुप न जानेरे ॥ १ ॥ विषय भोग विषं सहित 2 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावलो । [ २३ अन्नसम बहु दुख कारण खाने, जन्म जन्मान्त रारे ॥ २ ॥ शिव पथ छाड़ि नर्कपथ लाग्यो मिथ्या भर्म भुलानें, मोहकी घैल आनेरे ॥ ३ ॥ ऐसी कुमति बहुत दिन बीते अवतो समझ सयाने, कहैं बुधमहाचन्द्र छानेरे ॥ ४ ॥ 444 ( ३२ ) + ओर निहारो मोरे दीनदयाला ॥ ओर ॥ टेर || हम कर्मनतें भव भव दुखिया, तुम जग के प्रतिपाला ॥ ओर० ॥ १ ॥ कर्मन तुल्य नहीं दुखदाता, तुमसम नहिं रखवाला ॥ ओर० ॥२॥ तुमतो दान अनेक उधारे, कौन कहतैं सारा ॥ ओर० ॥ ३ ॥ कर्म अकौं बेगि हटाऊं, ऐसी कर प्रभु म्हारा ॥ ओर० ॥ ४ ॥ बुधसहाचन्द्र चरण युग चर्चे, जाचत है शिवमाला ॥ २० (३३) ओर तोर निरधारा जिनजी सच्चादेव हमारा है । ओरतोर ॥ टैर ॥ दोष अठारा रहित बिराज छियालीस गुण सारा है || ओर० ॥ १ ॥ " Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( G ___२४] महाचंद जैन भजनावली । क्षुधा तृश सय द्वष मोह मद स्वेद खेद निरबारा है। जन्म जरा अर मरण अरतिकरि रहित अये भव पारा है॥ ओर० ॥२॥ रोग शोक विस्मय निद्रा फुति चिन्ता राग विदारा है। यह अष्टादश दोष तिनं करि रहित निरंजन कारा है। ओर० ॥ ३॥ स्वेद रहित मलमूत्र रहित तनु रुधिर दूध प्राकारा है। वज वृषसनाराच सं- हनन सम चतुर ततु धारा है॥ोर० ॥ ४॥ रूप अनंत सुगंध सुलक्षण मंड अतुल वल भारा है । सवकों प्रिय हित मधुर वचन यह दश अतिशय जन्मारा है । ओर०॥५॥ वृक्ष अशोक चमर भामंडल छत्र सिंघासण न्यारा है। पुउपवृष्टि हुन्दुभि दिव्यध्वनी प्रातिहार्य अठकारा हैं। ओर० ॥ ६॥ जोजन शत दुर्भिक्ष गगन चल प्राणी बधकौं टारा है। निरुपसर्ग निहार चतुर्मुख सब विद्या आधारा हैं ॥ ओर० ॥ ७॥ छाया रहित शरीर फटिक सम नयन पलक नहिं डारा है। बढ़े नही नख केश ये केवल उपजे Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली | w. ~3 दशही प्रकारा हैं | अरो० ॥ ८ ॥ मागधि भाषा सब जीव मैत्री सब ऋतु फूल फलारा हैं । दर्प भू अनु पवन हर्ष सबै जोजन मरुत सवारा है ॥ ० ॥ ६ ॥ मेघागंधो पदतले कमल नभ भजय देवारा है | धर्मचक्र आगे मंगल बसु यह चौदाजु सुरारा हैं ॥ १०॥ ज्ञान अनंत बीर्य अनंतादर्श अनंत सुखारा है । ऐसा देव नि रंजन लखि बुधिमहाचन्द्र सिरधारा है ॥ ११ ॥ [ २५ ( ३४ ) मुनिजन जगजीव दयाधारी । मुनि ॥ टेर ॥ पक्षी जटाउ ज्ञान बसत बन ताको जैन धर्मकारी ॥ सुनि० ॥ १ ॥ सम्यक दर्शन प्रथम बतायो पांच बिस्तारी ॥ मुनि० ॥ २ ॥ धर्मध्यान रतकरके ताको हिंसक भाव सब निवारी ॥ मुनि० ॥ ३ ॥ ऐसे | मुनिवर पुन्य उदयतै भवि जीवनको मिलतारी ॥ मुनि० ॥ ४ ॥ बुधमहाचन्द्र मुनीश्वर ऐसे हम मिलनेकी बांछा भारी ॥ मुनिजन० ॥ ५ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली। (३५) लावनी मरहठी। तजो भविव्यसन सात सारी ॥ लगे निज कुलकै अतिकारी ॥ टेर ॥ जुवा सरव द्रव्यनाशे॥ करै नर मिल तांको हाँसै ॥ सवनमें नहीं प्रतीत तांस ॥ जुवारी घले राज फांसें ॥ दोहा॥ पांडवसे हो गये वली जबातें अतिख्वार। वारा वरसतक राज हारके अले महा वनचार ॥ तजो जूवा बहु दुखकारी । तजो० ॥१॥ लाँसते जीव घातते हैं। जीभके लम्पट लेबै हैं ॥ नर्कमें दुक्व लहेव हैं। पिंड अघको सुखले हैं। दोहा वक राजा बहु पुरूषहते मांस भक्षणके काज । पांडव भीमवलीसे पाये सरण नर्क दुख पाज॥ मांसत दुखपाने सारी ॥ तजो० ॥२॥होत मदिरासे मति हानी ॥मात अरु युवती समजानी वस्त्र की भी न शुद्धिठानी ॥ कहो वृषकी सुधि क्यों मानी ॥ दोहा ॥ जादव कुल मद्य पीयके द्वीपायणके योग । सश्न भये हैं सहित द्वारिका फेर नही संयोग ॥ मद्य सवसुधि नाशकारी॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचन्द जैन भजनावली। [२० तजो॥३॥ नोच कुकर खप्पर ज्यों हैं ॥ रजक की शिलाहोत त्यों हैं। नीच अर उच्च सेय यों हैं ॥ तजो वैश्या बहु दुखकौं है ॥ दोहा ॥ चारु दत्तसे सेठहुये बेश्यातै दुखरूप। सब धन खोय होय अति फीका पड़े गंथग्रह कूप ॥ तजो तात गनिका यारी ॥ तजो० ॥ ४॥ रोज भृग आदि जीवघातें ॥ शिकारी कहैं लोग तातें ॥ हो तबहु पाप खानि यात ॥ पापकरि जाय नर्क सातै ॥ दोहा॥ ब्रह्मदत्त नृप खेट” दंड लहे विधि पंच । परभवमें अति दुक्ख भोगिकै लह्यो खेट फलसंच ॥ खैटते होत बहुतख्वारो ॥ तजो० ॥ ५ ॥ लोभके लम्पट जीव हैं ॥ कपटकी खानि सदा तैं हैं॥ करें चौरीपर गृहत हैं ॥ खाय परिवार सहित वे हैं ॥ दोहा ॥ सत्य घोष मंत्री लहे चो रिरत्न शुभपंच। मल्ल मुष्टि गौमय हराधन दंड तीन लहे खैच ॥ होय यही दुक्ख भयकारी ॥ तजो॥६॥ परत्रिया सेवन दुखकारी ॥ विचारी ना कछु अबिचारी ॥ पति निज संग विचारण Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावलो। 5 हारी॥ कहो कैसे होय तिहारी ॥दोहा ॥ राव गले वलवंत महा तीनखंडो ईश । परत्रिया वाँछे दुखभोगे नर्कमांहि वरील ॥ पराई नारि तजो प्यारी ।। तजो० ॥ ७॥ जुवात पांडव बक पललें ॥ मयले जादव बहु गिलते ॥ वैश्यां चारू दत्त मलतें ॥ ब्रह्मदत्त नप खेट वलः ॥दोहा ॥ चोरी शिवभूति दुखी रावण परत्रिय संग। एक एकसे हो अति दुखिया सातनको कहारंग कहत बुध महाचन्द्र हारो॥ तजोभवि०॥८॥ (३६) धमाल। __ नेमि रमते वालब्रह्मचारी ॥नेमि० टेर॥ हांस्य विनोद कर हरि रामा देवर लखि निज संसारी ॥ नेमि० ॥ १ ॥ कोऊ कहत देवर तुम पररण देखो पोड्स सहन कृष्णधारी ।। नेमिः ।। २॥ कोई कहें देवर तुम नहीं सूर ये कहु तिय तुम नहिकारी ॥ २॥ काम खेल करती कर करसे नेमिनाथ न भये विकारी ॥ ४ ॥ बुध महाचन्द्र शीलकी महिमा तियमधि रहते अविकारी ॥५॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली। [२६ (३७) मिटत नही मेटेसै यातो होणहार सोई होय ॥ मिटत न० ॥टेर ॥ माघनंद मनिराज_जी गये पारणे हेत । व्याह रच्यो कुमहार की धीसू बासण घड़ि घड़ि देत ॥ मिटत० ॥१॥ सीता सती बड़ी सतवंती जानत है सब कोय । जो उदियागत टले नहीं टालो कर्म लिखा सो ही होय ॥ मिटत० ॥२॥ रामचन्द्रसे भर्ता जाके मंत्री बड़े बिशेष । सीता सुख भुगतन नहीं पायो भावनि बड़ी बलिष्ट ॥ मिटत० ॥३॥ कहां कृष्ण कहां जरद कुवरजी कहां लोहाकी तीर । मृगके धोके बनमें मास्यो बलभद्र भरण गये नीर मिटत० ॥ ४॥ महाचन्द्रः नरभब पायो तू नर बड़ो अज्ञान। जे सुख भुगते भाव प्रानी भजलो श्रीभगवान ॥ मिटत० ॥ ४॥ (३८) ___ तुम्हें देखि जिन हर्ष हवो हम आज ॥ टेर जन्मत सहस्र नयन हरि रचिये तुम छबि देखन Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] महाचन्द जैन भजनावली । काज ॥ तुम्ह० ॥ १॥ तुम तनतेज शीतल तल लखिके रवि शशि छवि कृत लाज ॥ तुम्हें ॥२॥ रंक रत्न ऋद्धि धरि घरनतें होते आनंद समाज तुम्हें ॥३॥ चातक चितमें हर्ष होत है ज्यों सुनि सुनि घन गाज ॥ तुम्हें ॥४॥ तुम जग तारण तिरण भवोदधि कीनी धर्म जिहाज॥ तुम्हें० ॥ ५ ॥ तुम भवि भाव भक्ति बसि बंदत तिने पाई भव पाज ॥ तुम्हें० ॥ ६ ॥ बुध महाचन्द्र चरण चर्चन करि जाचै अजाचिक राज ॥ तुम्हेंजि० ॥७॥ (३६) वधाई। देखो आज वधाई रंगभीनी हो ॥ देखो॥ टैर ॥ समद विजै शिवादेवीने सुत नेमीश्वर प्रभू कीनी हो ॥ देखो० ॥ १॥ इन्द्र ही नाचत इन्द्र वजावत बीन वंसी सुर झीनी हो ॥ देखो० २॥ कई सचि नाचत कई सचि गावत कई करताल वजीनी हो ॥ देखो० ॥३॥ जादवकुल आकास चन्द्रसम उपजे हर्ष नवीनी हो ॥ देखो० ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली। [३१ ४॥ ऐसे हर्ष देखनेमें बुध महाचन्द्र मति दीली हो ॥ देखो० ॥५॥ (४०) . अरज मोरी एक मानंजो, होजिन जी चमत्कारि महाराज ॥ टेर ॥ तुम तोशिव पुर बास कीनंजी, होजिनजी हम डुवै भवमांहि, तार मोहि दीन जानंजी ॥ होजिनजी ॥१॥ तुम निजरूपी व्हे रहेहो राज होजिनजी, हम पर परिणति लीन करो निजरूप बानंजी ॥ होजिनजी॥ २॥ तुमतो कर्म विनाशियेजी राज हो प्रभूजी हमको करम दुख देत, जन्म जन्मांतरानोंजी ॥ होजिनजो ॥३॥ भव भवमें तुम चरणकी होराज होजिनजी सेबाबुध महाचन्द्रक मांगत सो मिलानजी ॥ होजिनजी ॥४॥ . (४१) देखो काल बली भव बनमें। नही कछु जीव दया जांके मनमें ॥ टेर ॥ राव रंकसब गिणत एकसे अधिक हीन न. गिणनमें ॥ देखो० ॥१ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] महाचंद जैन भजनावलो। ॥ इन्द्र धणेन्द्र नरेन्द्र खगेन्द्र जले जीते सवरणमें । वाल जवान बृद्ध नहीं पूछ निरधन सधन गिलनमें । देखो० ॥ २ ॥ साह चोर सूरे कायर सब तिष्ठ जाके बदनमें । रोगी सोगी भोगी दी न सब चरबण किये जिही छिनमें ॥ देखो० ॥ ३॥ उद्धं अधः सागर गिर गहरे कहांहु नाहि सरनमें। जहां जहां जाय जीव सरनाके तहां तहां खाक जगनमें ॥ देखो० ॥४॥ ऐसो काल वलीको जीते तिष्ट शिव महलनमें । तिनको देखि हर्ष है पंडित महाचन्द्रके तनमें ॥देखो० ॥ ५॥ (४२) मिथ्याती जीवड़ा मुनि बचन न मानैरे ॥ मिथ्या० ॥ टेर ॥ अंति मुक्ति मुनियूकहीजी जो देवकी सुतहोय। सोही हणे जीवंजिसा तेरा नाथ तात यह दोय ॥ मिथ्या० ॥ १॥ कंस जाय बसुदेव सेकही जाचतहैं हम तोय । देवकी के सुत मोघरा होवै यह वर दीजो.मोय ॥ मिथ्या० ॥२॥ मल्ल युद्ध के मायनैजी हरिबृन्दा बनते Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली। [३३ आय । पंकडि वरण पृथ्वी पटकि मास्यो महाचंद्र कंसराय ॥३॥ मिथ्याती० ॥ (४३) बिबेकी जोव गुरु उपगारी मान हो ॥ टेर॥ देव स्वर्ग से आयके जी बंदे श्रीजिनराय । चारुदत्तको बंदके फिर बंदे श्रीमुनिराय ॥बिबे०॥१ मुनिसुत पूछी देवसं तुम हो अबिबेक लखाय । प्रथमहि गृहस्थि बंदिकेजी बंदे श्रीमुनिराय ॥ बिबे० ॥२॥ देव कही हमरे गुरू यह प्रथम चारुदत्त राय । कान मंत्र नवकार दियो उपगार कियो मुझ थाय ॥ बिबे०॥३॥. एकहि अक्षर देय सो गुरु जिनबाणीमें गाय । शिक्षा दे सो धर्मकी जानें, भूले पापी थाय ॥ बिबे०॥ ४ ॥ देव बचन ऐसे कहोजो समझे खग दोऊ भाय । बुध महाचंद्र न भूलिये उपगार कियो मुझथाय ॥ बिबेकी जीव०॥५॥ (४४) सदा दुख पावरे प्रानी तूतो चौरासी लख Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvv ३४. महाचंद जैन भजनावलो। योनिमें ॥टेर ॥ द्वनिगोद वसि एक स्वास, अष्टादस मरण लहानी । सात सात लख योनि भोगिक पडियो थावर आनी ॥ सदा०॥ १॥ पृथ्वी जल अरु अग्नि पवनम, सात सात लख जानी। बनस्पती की काय मैं रे दश लख योनि करानी ॥ सदा०॥२॥ बेइन्द्री संखादि जीवकी द्वलख योनि बखानी । तेइंद्री चोइन्द्री जूक, अलो च्यारि लाख परवानी ॥ ३ ॥ तिरजंच माहि च्यारि लख धारी योनि महादुख दानी, भूख तृपा अरु शीत उष्णता अधिक भार लदानी ॥ सदा०॥४॥ पाप उदै जब नक योनिमें च्यारि लाख ठहरानी । छेदन भेदन ताड़न तापन दुक्ख सहे अधिकानी ॥ सदा ॥ ५ ॥ किंचितपुन्य वसाय देव पद योनि च्यारि लख मानी परकी ऋद्धि देखि अतिभूयो फूलमाल कुम्हलानी ॥ सदा ॥६॥ मनुष योनि लख चौदह सोते बहबेर पाय अज्ञानी। जैन धर्मको मर्म न जान्यौं मिथ्या भर्म भुलानी ॥ सदा०॥७॥ पुन्य Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावलो । [ ३५ उदय श्रावक कुल पायो जैन धर्म चितलानी । चौरासीके दुक्ख हरन बुध महाचन्द्र कहै बानी ॥ सदादुख पावेरे ॥ ८ ॥ (४५) प्रभाती । बिपुलाचल शिखर आजि और रूप राजै ॥ टेर || आये जिन वर्द्धमान समवसरण युत महान सुरनर तियंच नि निजस्थान विराजे || बिपुला ॥ १ ॥ षट ऋतु फल फूल सबै फलिये इक काल अदाडिम अरु दाख फ ात्र पुंग ताजे ॥ विपुला० ॥ २॥ सिंह गौवत्स हेत मृषक मार्जार पेत न्योला अरु नाग केत बैर रहित छाजै ॥ विपुला० ॥ ३ ॥ सुणियो अतिशय प्रवीन श्रेणिक नृप धर्मं लीन करमे वसु द्रव्य कीन, पूजन के काजै ॥ बिपुला० ॥ ४ ॥ कीनूं बहु पुन्य जिने तप करिकैं रैन दिन पंडित महाचन्द्र तिनैं देखे महाराजै ॥ बिपुला० ॥ ५ ॥ (४६) राग द्वेष जाके नहिं मनमैं हम ऐसेक चाकरहैं || टेर ॥ जो हम ऐसेके चाकरतो कम Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] महाचंद जैन भजनावली। रिपू हम कहा करि हैं॥रांग ॥ १॥ नहिं अष्टा दश दोष जिनमें छियालीस गुण आकर हैं। सप्त तत्व उपदेशक जगमें सोही हमारे ठाकुरहैं ॥ राग ॥ २॥ चाकरिमें कछु फल नहिं दीसत तोनर जगमें थाकि रहैं । हमरे चाकरिमें है यह फल और जगतके ठाकर हैं ॥राग ॥३॥ जांकी चाकरि बिन नहि कछु सुख तातें हम सेवा करिहैं ॥ जाकै करणे तैं हमरे नहिं खोटे कर्म विपाक रहैं ॥ राग ॥ ४ ॥ नरकादिक गति नाशि मुक्ति पद लहैं जु ताहि कृपाधरहैं ॥ चंद्र समान जगतमें पंडित महाचन्द्र जिनस्तुति करिहैं ॥राग० (४७) याही अरज हो मोरी श्रीजिन सांई ॥ टेर अबलौं हम तुम भेदन जान्यों मिथ्या भर्म भुला ई ॥ याही ॥१॥ अन्य देवकी सेवा करिके लख चौरासी भरमाई ॥ याही० ॥ २ ॥ जाके सेवन” भव भव दुख सोही हमने सुहाई ॥ याही० ॥ ३॥ धन्य घड़ी पल आज दिवसकी तु Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ More महाचंद जन भजनावलो। ३७] म पद मस्तक नाई॥ याही० ॥ ४॥ जन्म मरण दुख बेगि मिटावो करि त्रिभुवनमें राई ॥ या ही० ॥ ५ ॥ बुध महाचन्द्र चरण पै ठाडी जाचत है शिव सुख दाई । याही० ॥ ६॥ (४८) कैसे कटै दिन रैन दरस बिन, कैसे ॥ टेर जोपल घटिका तुम बिन बीतत सोही लगै दुख देन ॥ दरश० ॥ १॥ दरशन कारण सुरपति रचिये सहस नयन की लैन ॥ दरव० ॥२॥ज्यों रवि दर्शन चक्र वाक युग चाहत नित प्रनि सैन। दर्श० ॥३॥ तुम दर्शन तै भव भव सुखिया होत सदा भबि मैन ॥ दर्श० ॥ ४ ॥ तुमरो सेवक लखि हैं जिन बुध महाचन्द्र को चैन ॥ दर शबिन०॥५॥ जिनराज अरज हमरी याही ॥ टेर ॥ आप तो नाथ मुकतिपुर बैठे हम भव रूप परे खाई जिन० ॥ १॥ तारण तरण बिरद तुम सुणियो Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __३८] महाचद जैन भजनावलो। ___तात आयो सरणाई ॥ जिन० ॥ २ ॥ पशुवादि क कोभी तुम तारे हमरी वेर मून कांई ॥ जिन० ३॥ मोह अरी को हनि के हम को वेगहि सुखि या करि सांई ॥ जिन०॥ ४॥ तुम पै ठाडो जा चत शिव सुख बुध महाचन्द्र जु सिरनाई। जिन० (५०) वसंत। खल नेम महा मुनि मन बसंत तजि राजुल शिव सुंदरि तैं संत ॥ खेलें ॥ टेर ॥अनित्य असत्यहि जग लखंत, असरण रण जिम जोधा लरंत। संसार असार लखे महंत, खेलें नेम ॥१॥ जीव एक अनादि भ्रमैं अनंत, पुद्गल खलु भिन्न अभिन्न अनंत । अपवित्र वपु मल मूत्र भ्रत, खेलें नेम ॥ २॥ कर्म "द्वार सतावनतें डरंत, संवर अंवर तैं नित रुकंत। तप प्रबल ब. ली निर्जर करंत, खेल नेम ॥३॥ लोक कर्ता हर्ता हीन मंत, है दुर्लभधर्म प्रवोध मंत। बुध महाचन्द्र प्रभूको नमंत, खेलें नेम० ॥४॥ ॥ इति ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाचंद जैन भजनावली। वाल-शिक्षा : कररहे बालक हाहाकार, अबतो चेत मूर्ख मतवाले ॥ टेर ॥ बालापनमें लाड़ लड़ाया, जेवर तनपै खूब सजाया, फूटा अक्षर नाहि पढ़ाया झूठा मोह बढाने बाले ॥१॥ फिर सादीकी धूम मचाई, नृत्यको वैश्या भी बुलवाई। खासी फुलवाड़ी लुटवाई, धनकी धूर उड़ाने वाले ॥२॥ यूंही बाली उमर बिताई, विद्या कुछ भी नाहिं पढ़ाई फिरतो जोर जवानी छाई, अबतो बार बार पछिताले ॥३॥ रहगये पूरे मूर्ख गंबार, न जाना जैन धर्मका सार । कर लिया विषयन को अखत्यार, पड़गये दुरमति के अब पाले ॥ ४ ॥ होवे इनका जब अपमान, रो● मात पिताकी जान । आया लाड़ प्यारक्या काम, दर दर भीख मंगा नेवाले ॥ ५॥ छोडो लडुवोंका गटकाना, बिगड़े सम्पति फिर पछताना । खोटी रूढो रोक अयाना, दुखमें दुख भुगतानेवाले ॥ ६॥ आवो व्यथ ब्ययसे बाज, तुमकोतनिकन आवे लाज। अब तो गहरा हुवा अकाज, मोटी तंद हिलाने वाले ॥७ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] 'महाचंद जैन भजनावली। करदो विद्यादान महान,यह सब दाननमें परधान तभीहो जैन धर्मका ज्ञान, संतति सुखके चाहने बाले ॥८॥ तुम सब धनमें माला माल, देरी हानहि होत कंगाल । कहता येही छोगालाल, लोभी संजी पैसे वाले॥६॥ कर रहे बालक हा हाकार, अवतो चेत मूर्ख मतवाले ॥ आत्म-शिक्षा। मना तूने यह क्या काम किया। तूतोरे बिषियनमें राच गयारे॥टेर ॥ कपट क्रोध मद लोभ बसी हो झूठ ही बंध कियारे । हिंसा चोरी झूठ परिग्रह व्यभिचार का यत्नकियारे । मना० ॥१॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म सेयकरि मिथ्यातको धार लियारे मना० ॥२॥ रात दिवस धंधामें डोलत नाम प्रभू न लियारे। हीन भया तब विलखन लाग्या कोइयन साथ हवारे ॥मना० ॥३॥ गुप्तित्रय प्राचार पंच नहिं सम्यक ग्रहण कियारे । दश लक्षण वृष धारि नांहि प्रभू साहू शरण लियारे ॥ मना० ॥ ४ ॥ 30/073 Page #237 --------------------------------------------------------------------------  Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rar रुपयेकी चीज बारह आनेमें कार्यालयमें १) रु० जमा कराके ग्राहक होनेसे तमाम ग्रन्थ पौनी कीमतमें बराबर मिलते रहेंगे अभीतक जो ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं उनको सूची पढ़ डालिये। पद्मपुराण १०) पोडश सस्कार हरिबश पुराण ८) सरलनित्यपाठ संग्रह ,, (सचित्र) ११) | नित्य पाठ गुटका रेशमो शांनिनाथ पुराण ६) भाद्रपद पूजा सगह ॥ ई वृहद विमलनाथ पुराण । - है। नित्य पूजा संग्रह * मल्लिनाथ पुराण पंचश्तोत्र * प्रादिपुराण वचनिका | अहन्त पासा केवली * रत्नकरन्ड श्रावकाचार ५) शीलकथा (सचित्र ) चर्चासमाधान मौन वृत कथा - राजवार्तिक ( प्रथमखंड) ४) जैनबृतकथा जिनवाणो समूह तृतिया वृत्ति २) श्रावक वनिता रागनी (रेशमी) शिखर विधान २) वृहद जैन पद सग्रह दिवाली पूजन ,, (रेशमी) पच मगल दौलत विलास समाधि मरण बुधजनबिलास त्रिमुनि पूजन द्यानतविलास 1) सजन चित्त बल्लम जिनेश्वरपद समूह निर्वाणकांड पालोचना भागचन्द भजनमाला सामायक पाठ सार्थ जैग शतक छहढाला महानन्द भजनमाला 1) द्रव्यमगह सार्थ भूधर बिलास 1-) | अठारह नातेको कथा वहा सूची-पत्र मंगाकर देखिये-हमारा पता । जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, पोष्टवक्स ६७४८ कलकत्ता । + + + + + + METTTTTTTT Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . . FERENTIANETAREERENTINENEPAL न्य अहिसा परमोधर्मः । ॐ धर्मस्ततो जयः॥ Page Labe ममत श्री जैन भजन संग्रह . ...mast. ... - . . ...m- -- ----- रचितन यति नयनसुखदास, कांधला, जिला मुज़फरनगर । दर असल यह शील ही मुक्ति का सच्चा द्वार है। शीलधारी को सदा बरती सुमुक्ति नार है। ----- , प्रकाशकः-- पं० अतरसैन जैन मैत्तिल, मालिक श्री दि० जैन पुस्तकालय, महोल्ला अवुपुरा, मुजफ्फरनगर । भजन पढ़ो मङ्गल करो, सन्मुख श्री जिनराज । बिधन हरोसब सुख करो, दीजो सुख जिनराज ॥ दीपमालिका, सं० १९९२ चावूगम शम्मा मैनेजर के प्रबन्ध मे स्वतन्त्र मुद्रणालय, मुजफ्फरनगर में मुद्रित । द्वितीय चार १०००] १९३५ [ मूल्य ! Page #240 --------------------------------------------------------------------------  Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनमः सिद्धेभ्यः ॥ नयनसुखदास रचित --- ॥ जैन भजन संग्रह || मंगलाचरण | दोहा - ज्ञानानंद मनंत शिव, अर्हन मंगल मूल । 4 कलिल कुलाचल तोड़कर, हरोनाथ भवसूल || } तुम शिव भगनेतार हो, भेत्ता कर्म पहार | विश्व तत्व ज्ञाता परम, लो सुधि बेग हमार ॥ तुम त्रिभुवन के भनु हो, मैं खद्योत समान । कैसे तुम गुण वर्णऊ, अल्प मतिन की वान ॥ हृदय भक्ति प्रेरक भई, बलकर पकरे कान | ला पटक्यो पदकमल बिच, सकल जगत गुरुजान ॥ तुम अनंत गुण आगरे, पटतर अवरन कोय | तुम वाणी तैं जानिये, जो कछु जग में होय ॥ भूत भविष्यत कालकी, पट द्रव्यन पर जाय । वर्तमान रूम तुम लखो, हस्तामलक सुभाय ॥ सकल चराचरजगतथित, ज्ञान मुकररही सूझ । ताते तुम अर्हत हो, सकल जगत करि पूज ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] तुमतें गणधरनै सुन्यो चहुँ गत्ति मय सार । तातें तुम हो परम गुरु, पतित उधारन हार ॥ वीतराग सर्वज्ञ तुम, तारण तरण महाल । ताते तुमरे बचन प्रभु, हैं षट् मत परवान ॥ धरम अहिंसा तुम कहो, जहँ हिंसा तहँ पाप ! दयावंत अवजल तिरै, पापी जग संताप । जीव दया गुण वेलड़ी, बोई ऋषभ जिनेश । षटदर्शन मंडप चढ़ो, सींची भरत तृपेश ॥ मिथ्या वचन अनादरे, तुमने हे जग सेत। तातै झूठन की झरत, जहां तहां सिर रेत ॥ सत्य धर्म से होत है, त्रिभुवन में परतीत । लततें गोला लोहका. होय तुषार प्रतीत ॥ चोरी तुम वर्जनकरी परम पाप लख धीर । त्यागी पद पद पूजिये, चोर लहैं वहुपीर । अनाचार वर्जन कियो ग्रहणकरणमहोशील । जिन धारी सो जग तरे, जिन छाड़ो कढीकोल ॥ शील लिरोमणिजगतमें, यालम धर्म न और । अग्निहाय जल परणवै. विप हो अमृत कोर ॥ खड़गमालह्व परण वै, सूल संज मखतृल । माधिव्याधि आवि नहीं, शीलवत ढिगफुल ॥ भव तृष्णा दुख दायनी भाषी तुम भगवान । त्यागी त्रिभवनपतिभये, रागी नर्फ निदान ॥ देवधर्स गुरु हो तुम्ही, ज्ञान ज्ञेय जातार। . ध्यान ध्येय ध्याता तुम्ही, हेया हेय विचार ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण हो शिव पंथ के, उद्धारण जग कर। कारज सारन जीव के, हो तुमही शिव भूप ॥ उत्तम जन बहु जगतसैं, तारे तुम भगवान । अधम न तारो एक मैं, तारो हे जग जान ॥ आयो तुम पद पूजने, भजन करन के चार । राखो भव भजन में, जब लग जग भग्माघ । भजत करत संसारसुख, भजन करतनिर्वान । भजन बिना नर जगतमें, है तिजं च ममान ।। भजन करत जग उद्धरे, सिंह नवल फाप मूग । गण धरहो वृषभेशक, मुक्ति मय अत्रचूर ॥ निर अंजन अंजन भय, गज किगतमय सिद्ध। स्वान जटी पन्नगतिरे, तिनकी कथा प्रग्निन्छ । कहां पशूपर जायनर, कहां मुक्ति का धाम | तृ भी मृरख मजनकर, मुम्न में टीन चाम ।। या जरा विषम विदयाम बंधु मजन भगवान । सार्थ वाह निवृत्तिका, लग्नि निश्चयवान ।। भजनवाद जिनमक्ति विन, मनियाद बिन मात्र । भाव बाद अबगाढ़ विन गाद बाद बिन बाय॥ धन्य महात वन बड़ी धन्य दिवग्न गिनना। तमनग्न कारण जुट्टो धाजिनामजनम्नमाal रही नासली म्मुत्री. रहो मदा मत संग। जाते श्रीजिन भजन में प्रति दिन हाय उमंग ! वन्य पुन मन मिले, मयं सहायक श्रमं । मजन व भगवन का, मात्र सरस्वति धर्म Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तू कैवल्य उद्योत की, परम ज्योति तमहार । नयनालंद गरीब की, यह विनती उरधार ॥ मोह महातम दूर कर, शुद्ध ज्ञान परकाश । स्यों अब सांचे देव का, गाऊं भजन विलास ॥ यह विधि मंगल मानकै, कहूँ भजन दो चार । भाषू नयना नंद के, कृत बिलास अनुसार ॥ धुरपद। १-चाल धुरपद (२४ तीर्थंकर के नाम) ऋषभोजित संभवेद अभिनंदन सुमतिफंद पद्मप्रभपादबंद, भगवत गुणगावरे ॥ टेक ॥ लेवो शुभपास संत, चंद्रप्रभ , ५ शीतल श्रेयांस कंत, सीधेमन ध्यावरे ॥१॥ वासवनुत वासपूज भजिकर निर्मूल अरूज भाग अघ अनन्त धूज, सद्धर्म म. ॥२॥ धरले मनशांति कुथु, एरले अरमल्लिपंथ वरले सुवृत - नमि नेमीश पावरे ॥३॥ करले पारससे भेट सन्मति गहि । मेट बीत्यो चिरकाल क्यों न, उरझो सुरझावरे ॥४॥ २-चालधुरपद (तीर्थंकरों के पिता के नाम) चंदू जगनाथ तात, नाभिरु जितशत्रुनाथ । धार के जुग . मोथ, धन धन बलधारी ॥ टेक ॥ जयतार सुवीरमेघ, सुप्रतिष्ठ नेघा महसेन सुकंठ वेग दृढरथ सुखकारी ॥६॥ ले। वासुदेव, जयबृष लिघलेन एव । भावन विसुसेन सेव, . दुखहारी ॥२॥ सुन्दर दर्शन नरेश, कुभरु श्रीसमंतेश । विज Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय जलनिधेश, पुन्यातम भारी ॥३॥ भजरेमन अश्वलेन, सिद्धारथ सिद्धदेन । ये जिन चौबीस तात, एका भवतारी ॥४॥ ३-चालधुरपद (तीर्थंकरों की माता के नाम) सुनरेमन मेरी बात, जाएजिन जगत तात । ऐसी जिन मात ताहि, वंदन नित करनी ॥ टेक ॥ मरुदे बिजया मतीय, श्रीयुतघेणा लतोय । सिधअर्था मंगलीय सीमा सुखभरणी ॥१॥ पृथवी शुभलक्षणीय, रीमारु सुनंदनीय । बिमला जयदेबि रमा, सूर्या दुखहरणी ॥२॥ सुभवतधरणी सतीय, एला अरुश्रीमतीय। मित्रा सारस्वतीय, श्यामा भवतरणी ॥३॥ विशिषा शिव देवि माय, वामा त्रिशलादिध्याय । वंदू वह कोष जगत, चूडामणि धरणी॥४॥ ४-चालधुरपद (तीर्थंकरों के सोलह जन्म नगर) कौशल सावत्थि धाम, काशी कोशं विठोम । तीर्थ कर जन्म ग्राम, तीरथ कर प्यारे ॥ टेक ॥ चंपापुर चंद्रपुर भद्दलपुर, सिंहपुर । मिथुलापुर रत्नपुर गजपुर नितजारे ॥१॥ काफंदी कपिलादि, सूरजपुर राखयाद । जाकरकुषअन्नपूर मुनिसव्रतध्यारे ॥२॥ कुंडलपुर वीरदेव, षोडश हैं नगर एव । जन्मे भगवंत जहां आए सुरसारे ॥३॥ घर घर भई रत्न वृष्ठि, धर्मातम भई सृष्ठि सोभा बरनी न जाय, नरभव फलपारे ॥४॥ ५-चालधुरपद (तीर्थंकरों के चरण चिह्न) भावू जिन चरण चिह्न, प्रभु के तनतें अभिन्न । सुनकै चित हो प्रसन्न, संशय सब टारिये ॥ टेक ॥ वृप गज घोटक कपीश, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] मैचर अंभोजदोश । स्वस्तिक निशईश मच्छ, श्रीवत्ल विचारिये ॥२॥ पंगपग महिषा बराह, बाजरु बज्रायुधाह । मृग बोक धनुर्गिनाह, कलशा उरधारिये ॥२॥ कच्छप अरुकमलशंप, सर्परु केहरिनिशंक । लखिकै जिन अंक नाम, निश्चय चित पाड़िये ॥३॥ धरिये उर ध्यान देव, करिये प्रभु चरण सेव । जाते भव सिंधु खेव, शिवमे ले तारिये ॥४॥ ६-चालधुरपद (गुरु नमस्कार) बंदू नित्रंथसाधु, त्यागी जिनगज उपाधि । आतम अनुभव अराधि, परपरणतिछारी ॥ टेक ॥ तजि तजि पदचक्रवर्ति, मन बचत न हो निवर्त । पायन पृथिवी विचर्त, जिन दिक्षा धारी ॥६॥ सम दम संवरसंभार, निर्जर कर कर्मटार । षट तन प्राणी उबार, करुणा विस्तारी ॥ जीते त्रय शल्यदल्ल, सुर गि रसम भये अचल्ल । रत्नग्य धरणमल्ल, कष्ट सह भारी ॥३॥ जय जय महमा निधान, जंगम तीरथ समान । मेरे उर वसो आन, बंद जगतारी॥४॥ ७-चालधुम्पद [जिन बाणी नमस्कार] निकली गिरवर्द्धमान, सेती गंगा समान । गोतम मुखपरी आन, सारद जगमाता ॥ टेक ॥ तारेत भ्रमगज सुदंत, जड़ता तपकरि प्रशंत । रत्नाकर ज्ञान अंत, पहुँची भवत्राता ॥१॥ जाम सप्तांगभंग, उ? निर्मल तरंग । अमृत को कोर सोख, मारग की दाता ॥२॥ आदिरु मध्यावसान, निर्मल किरपा निधान । धारा पर वाह वान, त्रिभवन बिख्याता॥३॥ वंदै दृग सुक्खदास, मेरे उर कर निवास । गाऊं जिनगुण बिलोल, कीजै सुख साता ॥४॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] ८- चाल धुरपद [ रत्नत्रय धर्म को नमस्कार ] लागरे तू मोक्ष मग्ग, रत्नत्रय मांदि पग्ग । मोरै मतनाहि डग्ग, पहुँचै शिव धामरे ॥ टेक ॥ सम्यकू मई दृष्टिठान, हित अरु अनहित पिछान | संशय भ्रमभान ज्ञान, चिंतामणि थामरे ॥ १॥ पूंजी परभवको जान, सम्यक् चारित्र आन । टूटैं अघजाल मुक्ति, पावे विन दामरे ॥ २ ॥ तन धन आशा विहाय, कृषकर काया कषाय । कोई न करि है सहाय, जवह अघलामरे ||३|| नैनानंद कहत मीत, भाषी सतगुरुनै नीत । वोवै बबूल तौ न, लागैंगे आमरे ||४|| ६- चालधुरपद [ १६ कारण भावना ] भारे दर्शन विशुद्ध, तजकर परणति विरुद्ध । प्रवचन वत्स लसुबुद्ध, आदिक बल फुरकै ॥ टेक ॥ तीर्थ कर प्रकृतसार ताकी यह देनहार | आराधन युत संभार, अपनी उर दुग्कै ॥१॥ जिन पद अरिविंदसेय सतगुरकी सरण लेय || आगम में चित्त देय, टै अचुरिकै ||२|| आगे कुछ सिद्ध नाहि दोनो भव विगड जाय भरमै गो फेर २ रोगे झुरझुर के ॥३॥ भरमों चहुँगति मंझार, नैनानंद सुनले यार । कुविसन की देवटार, भागै मति दूरिकै ॥४॥ १० - चाल धुरपद (पंचपरमेष्टि नमस्कार ) चेतरे अचेत मीत लीनों चिरकाल बीत तजकै परमाद रीति अवतो तू जागरे ॥ टेक ॥ भजले पर ब्रह्मरूप अर्हन सर्वज्ञभूप सिद्धन के गुण अनूप चितवन में लागरे ॥ १ ॥ आचारज अरु Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] उबज्झाय, लाधुन पदशीसनाय, पैंडोक्षुड़वाय, दुष्ट विषयन लं भागरे ॥२॥ हिंसा अरु झूठ नाख मत कर चोरी भिलाख मैथुन लिर डार खाक तृष्णा जग त्यागरे ॥३॥ पांचों पद ध्याय पंच पापत पलाय अव पूरी कर नींद नाहीं खावैगे कांगरे ।॥ ४॥ ११-चाल धुरपद (संसार व्यवस्था) देखरे अज्ञान भौन तेरो जगमांहि कौन कीने सब स्वांग तौन तो मन अपकायो ॥ टेक ॥ लेयकै निगोदकीय पृथिवी अप तेजबाय तरवर चरथिर भ्रमाय चहुँगति भरिआओ ॥ १॥ सुरनर पशुनथान कवहुक विचरयो विमान कवहुक नरपति प्रधान लटक्रम कहलायो॥२॥ कबहुक बन्धखम्भलाल तन की उचराय खोल कवहुक चण्डाल अभक्ष भक्षण को धायो ॥३॥ अवतोनर चेत चेत विषयन सिर डार रेत पौरुष परकाश तू है सिंहनि को जोयो॥४॥ १२-चाल धुरपद (सम्यक्त महिमा) वंदं समकित निधान जिन पति के नन्दजान नन्दनबनकी समान लवकू सुखकारी ॥ टेक ॥ जिनके घर माहिराज उमड्यो घनज्ञान गाज समरस भई घृष्टि सृष्टि तृष्णा सब टारी ॥१॥ अनभव अंकूर फूट शंसय गुठली प्रटूट चारितरुचि ब्रह्मभाव शाखा विस्तारी ॥२॥ सुव्रत पुग्योन्मीत करके जिन बच प्रतीत शिवफल में धारनीत परपरणति छारी ॥३॥ करुणा छाया पसार भोगी जोगी अपार ठाडे भव वन मझार निर्भय अधिकारी ॥४॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९] १३-चाल धुरपद । बंकोन मझोल गोल, कर्मन केहैं झकोल । मेरी महिमा अडोल चेतन अविनाशी ॥ टेक ॥ लघुगुरु मम रूप नांहिं मृदु कठिन सरूप नांहि हिम उष्णप्ररूप नाहिं रूखन चिकनासी ॥१॥ षट्रल अनमिष्ट खार चर्चरन कषाय सार कटुकन दुर्गन्ध गन्ध श्याम न पीतासी ॥ २॥ हरि तन आरक्त श्वेत धूपन तम ज्योति देत शन्दन सुरनर परत नर्क न बन बासी ॥३॥ जल थल बिलनभ चरीन त्रिय पुन्स न पुन्स कीन धनवन्त न रङ्क हीन सम्यक् करिभासी ॥४॥ १४-चाल धुरपद । धर्मी न अधर्म पाल अनमें आकाश काल पुग्दल से भिन्न एक चेतन चित्सारी ॥१॥ परजयगति थिति धरंत त्रिभुवन नभ में भ्रमंत त्रिपणी मोहि सब कहंत अयधा तपधारी ॥२॥ भूजल अनतेजवाय दोबिधि तर वर न काय विकलत्रय रूप नाहिं इंद्रिय सब न्यारी ॥ ३॥ सब से अनमेल खेल जैसे तिल मांहिं तेल पावक पाषाण जेम हमरी विधिसारी। ऐसे विज्ञान भानु दृगसुख महिमा निधान तिनकू जुग जोरि पान बंदन बिस्तारी ॥५॥ १५-शूलताल । आत्म दरवको भेद न पायो परपरणतिकर, यह नर जन्म गंवायो॥ टेक ॥ भरम भगल वस, पंच दरच फंसि नटवत नवरस, कर्म नचायो ॥ १॥ सपरस रल अरु गंध वरण स्वर, Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] इनते पर निज, क्यों न लखायो॥२॥ वन्श अगिनि ज्यों, दधि में घृत त्यों, किम तिल तेल, जतन विन पायो ॥ ३ ॥ तजि परपश्चन, माटी कञ्चन, दंदि निरंजन, सतगुरु गोयो ॥ ४॥ दृगसुखसिंधन, दाहनिकंदन, शूलताल करि ज्ञान सुनायो ॥५॥ १६-रागधनाश्री ताल तैलंगी । अरे नर तनको मोह न कर रे, तू चेतन यह जर रे ॥ टेक || , सपरस पोषि विषय कं चाहै सो मोरी रही सर रे ॥१॥ रसना क्या न भखो या जग में लव पुग्दल लियेचर रे ॥२॥ नांक फांक मत फूल घुसे रे रही सिनक सं भर रे ॥ ३ ॥ जिन आंखन पर गोरीनिरखै सो ढोढों रही झर रे ॥४॥ धर्म कथा सुन मोक्ष न चाहे तो यह कान कतर रे ॥५॥ तू निरअञ्जन है भयभजन तन कठिन को घर रे ॥६॥ दधिवत् मथि षट भास निरालो भाषत हैं सत गुरु रे ॥७॥ दृगसुख होय निजातम दर्शन भवसागर लं तर रे ॥८॥ १७-राग दादरा। करै जीव का कल्याण, सदा जैन बानीरे, जैनबानी जैनवानी जैन वानी रे, करै जीव का कल्याण ॥ टेक ॥ संशयादि दोषहरै, मोहळू निमूल करे, तोषदाय नल्दन, बन समानी रे ॥ १॥ कर्मजाल भेदनी, है भर्म की उछेन्नी, वस्तु के स्वरूप की है लाभ दानी रे ॥२॥ वस्तु कं विचार जीव, पार होत हैं लदीव, केवलादि ज्ञान की, कलानिधानी रे॥३॥ नैन सुक्ख अन्तकाल, में करै सबै निहाल, नाग वाघ स्वान किये स्वर्ग थानी रे ॥ ४॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] चौबीस तीथं करों के भजन । १८-राग कालङ्गड़ा (श्री ऋषभजनाथ) अबतो सखी दिन नीके आये, आदीश्वर लीनो अवतार ॥टेक॥ सरवारथ सिद्धितें चय आये, मरुदेवी माता उरधार । नाभि नृपति घर बटत बधाई, आज अयोध्यानगर मझार ॥१॥ सुखम दुखम में तीन वरष, अरु शेष रहे वसुमास अवार । अबतो जा जाग मोरी आली, हिल मिल गावे मंगलचार ॥२॥ पुण्य उदयते नर भवपायो, अरु, पायो उत्तम कुलसार । धर्म तीर्थ करता गुरु पायो, अब कटि हैं सब कर्म बिकार ॥ ३ ॥ स्वयंबुद्धः पूरण परमेश्वर, मोक्ष पंथ दर्सावन हार । नयनसुख्य मन वचन कायकरि, नमूं नमूंवसु अङ्ग पसार ॥४॥ १६-रागनी भैरवी (श्रीअजितनाथ) अजित कथा सुनि हर्ष भयोरी ॥ टेक ॥ विजयविमान त्याग के प्रभुजी, जेठ अमावस आनिचयोरी। माघ सुदी दशमी नवमी कू जनम तथा जग त्याग कियोरी ॥१॥ जित रिपु तोत मात विजयादे, नगर अयोध्या दरस दियोरी। जाके चरण चिह्न गजपति को, ढोंच शतक तन तुङ्ग थयोरी ॥२॥ लाख बहत्तर पूरवायू , इन्द्र ने पांच उछाव कियोरी।। पोष शुक्ल एकादशि अवसर, सकल चराचर 'बोध भयोरी ॥३॥ मधुसित पांचे कू शिवपाई, भवि अनन्त उद्धार कियोरी। दृगसुख तीन काल तिहुँजग में, सो जिनवर जैवन्त जयोरी ॥४॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] २०-राग विलावल (श्रीसंभवनाथ) सभवनाथ हरो मम आरत, आ पकड़े प्रभुचरण तुम्हारे ।। टेक ।। तुम विन कौन हरै मम पातक, तुम बिन कौन सहाय हमारे । धनुषच्यार शत मुरति तुमरी, निरखत उपजत हरप अपारे । सुनियत जन्मपुरी सावस्ती, सुनयत घोटक चिह्न तुम्हारे । पिता जितारथ सेना माता, साठलाख पूरव थिति धारे ॥२॥ ऊरय ग्रीवकत चय आये, तुम जग जाल विदारन हारे । गसुख देखि दिगम्बर तुमको, और लगें लव देव ठगारे ॥३॥ २१- रागनी टोड़ी (श्रीअभिनन्दननाथ) जै जै जै संवर नृपनन्दन अभिनन्दन तृप जगत अधार ॥ टेक ॥ विज विमान त्यागि तुम आये, सिधअर्था के गर्भ मझार । जन्मे माघ सुदी द्वादशि को. नगर अयोध्या सुखदातार ॥ १॥ जिस दिन जन्म उसी दिन दिक्षा, ज्ञान पौषवदि चौथ अपार । भये सिद्ध वैशाख सुदी छठ, पूरव लाख पचास उमार ॥२॥ धनुष तीनसै साढे काया, स्वर्ण वर्ण कपि चिह्न तुम्हारे । तुम इक्ष्वाकुवंशके भूषण, सुरनर गावत सुजस अपार ॥ ३ ॥ नैनानन्द भयो अब मेरे, देख दिगम्बर मुद्रासार। सुन सुन वचन विगतमल तुमरे दीने कुगुरु कुदेव विसार ॥४॥ २२-रागनी जोगिया असावरी श्रीमुमतिनाथ म कुमति बिनाशन हारे, सुमति जिन कुमति विनाशन होरेटेका तात सुमेध मंगला माता, खग पग क्रौंच तुम्हारे। लीनो जन्म अयोध्या नगरी, वन्श इक्ष्वाकु मझारे ॥ १॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] धनुप तीनसै तुङ्ग प्रभु तुम, सब भव भोग बिसारे । कर्मघातिया तोड़ छिनक में, लोकालोक निहारे ॥२॥ विश्वतत्व ज्ञायक जगनायक, जीव अनन्त उबारे । बिन कारण भ्राता जगत्राता, हगसुख शरण तिहारे ॥३॥ २३-राग भैरूंनर [श्रीपद्मप्रभु] बन्दन फूप्रभु बन्दन कुं हम आये हैं, पदम प्रभु बन्दन फं।टेक ॥ जन्म लियो कोशाम्बी नगरी, भविजन पाप निकन्दन कुं॥ १॥ मात सुसीमा गोद खिलाये, पूजं धारण नन्दन कुं ॥२॥ बन्श इक्ष्वाकु कृतारथ कीनो, दूर किये दुखद्वन्दन कू॥३॥ नयनानन्द कहें सुनि स्वामी, काटि मेरे भव फन्दन कुं॥४॥ २४-रागसारङ्ग (श्रीमुपाश्वनार्थ) देव सुपारस ध्याइये, अरे मन देव सुपारस ध्याइये ॥ टेक ॥ भव आबाप निवारण कारण, घसि घनसार चढाइये ॥१ अक्षत ले प्रभु चरण चढावो, तुग्त अखय पद पाइये ।।२।। भरि पुष्पांजली पूजन कीजै, मद कन्दर्प नसाइये ॥३॥ अपनी क्षुधा हरण के कारण, उत्तम चरु अरचाइये ॥४॥ नाशे मोह महा तम भारी, दीपक ज्योति जगाइये ॥ ५॥ करमवन्श बिध्वन्स करन को, धूप दशांग जराइये ॥ ६ ॥ फलते फल शिव पद को पावै, नयनानन्द गुणगोइये ॥ ७ ॥ ___२५-राग पीलू-पंजाबी ठुमरी श्रीचंद्रप्रभु दिल लागा मेरावे, भलादिल लागा मेरावे, श्रीचंदाप्रभुदेनाले ॥टेक॥ भव अनन्त उद्धार कियो तुम, ऐसे दीन दयाले ॥१॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] जाके बचन सुलत भय भागे, हट पडे अघजाले ॥ २ ॥ दस टेखि मेरे नैन सुफल भये, चरण परसि के भाले ॥ ३॥ गुण सुमरत भयो जनम लफल अरु, पुण्य कलपतरजाले ॥४॥ कहत नैनसुख भवसागर से हे प्रभु बेग निकाल ॥ ५ ॥ २६-गग झंझोटी [श्री शीतलनाथ] हे परलिकै मूरति शीतल को मेरा शीतल भयो शरीर ॥ टेक ।। परमानन्द घटा उर छाई, वरले सानन्द नीर ॥१॥ भागी जनम जनम की मेरी भव तृष्णा की पीर ॥ २ ॥ मुद्राशांति निरखि भयभागे, ज्यों घन लगत समीर ॥ ३ ॥ दाल नैनसुख यह वर मांगे, हरो नाथ भव पीर ॥ ४ ॥ २७-रागवरवा [श्री पुष्पदंत गावोरी अलंदबधाई मोरी आली. पुष्पदंत जिन जन्मलियो है। दे, काकन्दीपुर चामादेउर वैजयंत ले आन चयो है ॥ १ ॥ वन्श इक्ष्वाकु सफल किया जाने, कुल सुग्रीव कृतार्थ भयो है ॥ सकल सुरासुर पूजन आये सुरगिरि अभिषेक कियो है ॥ ३ ॥ नैनानन्द धन धन वे प्राणी, जिन प्रभु भक्ति सुधार वुपियो है॥४॥ २८-गगनी झझोटी [श्रीश्रेयांसनाथ] श्रीश्रेयॉसजिनेश्वर ने सखि सकल कर्मदल हरे हरे ॥ टेक ॥ सजिसंयम सन्नाह महाभाट, धीर धरा पग धरे धरे।।। क्षमा ढाल लामभाव खड़ग ले, अष्टकर्म संग अरे अरे ।। १ ।। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है: सन्नाली जगनायक, चारों घातक हरे टरे । चार मानक शक्ति निना निन, मारे आपही मरे मरे ॥२॥ निज अनुभूति पग पर हायन, नाकारन खि लारे लरे॥ जय मा अपन करमें तय, सरल मनारथ सरे मरे ।। ३ ।। ॐ कार भया त्रिभुवन में. इन्द्रादिक पग परे परे । नैनानन्द मन बचन कायसं , दित कर चन्दन कर करे ॥ ४ ॥ २६- राग जाला-ठुमरी [श्रीवासुपूज्य] पुजत क्यों नहिरे मतिमंद, वासपूज्य जिनपद अरबिंद ॥ टेक ॥ बाल ब्रह्मचारी भवतारी, परम दिगम्बर मुद्रा धारी। दुविधि परिग्रह संगतजोजिन, गुण अनन्त सुख संपतसिधु ॥१॥ ध्याना ध्येयं ध्यान विमाशी, ज्ञाता शेयं ज्ञान प्रकाशी । पापातिक विमुक्तमलोपं, तारण तरण लहज निरद्वन्द ॥२॥ मदीमा वर्णत गणधर हारे, बचन अगोचर है गुणसारे । परम्मत सात जनम लगदरसे, भामडल आंतशय अचलंत ॥३॥ प्रातिहार्य वसुमङ्गल दयं, सेवन सुर नर मुनि गण लवं । पांचवार जाहि पृजन आये, चंपापुर सुर इन्द्र फनेन्द्र॥४॥ बालदेव कुल चढ़ उजागर, जयो जयावति सुत गुण नागर । दृगसुख वीतराग लखि तुमकं, आये शरण काटि भवफंद ॥५॥ ३०-रागनी धनाश्री ( बिमलनाथ ) अन मोहि विमल करो, हे विमल जिन अवमोहि विमलकरो। टेक धर्म सुधारल प्यास- जगत गुरु, विषय कलंक, हरी ।. वीतरागता भाव प्रकाशी, शिव मग माहिं धरो॥१॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम सेवा का यह फल चाहूं क्रोध कपाय टरो। माया मान लोभ की परणति, ये जग जाल जरो॥२॥ जव लग जगत भ्रमण नहीं छूटे, ऐसी टेव परो। सच्चे देव धरम गुरु सेऊ, नयनानन्द भरो ॥३॥ ३१–रागनी धानीगौरी के जिले में ग़ज़ल के तौर पर [श्री अनंतनाथ] स्वामी अनंत नाथ चरनों के तेरे चेरे हैं ॥ टेक ॥ सेवा करी न तेरी तकसीर है यह मेरी जी। तुमको नहीं हैं चाह पापों ने हमको घरे हैं ॥ १ ॥ विभ्रम मुझे जो आया, संशय ने फिर भ्रमायाजी। पकड़ी करम ने वाह ले ज्ञार से गेरे हैं ॥२॥ करता हूँ तेरी आला, मेटो जगतका यासाजी। तुमहो त्रिलोकसाह, संजम के भाव मेरे हैं ॥३॥ चरणों में राख लीजै, आनंद नैन दीजै जी।। अव तो बता दे राह, जैसे हैं तैसे तेरे हैं ॥ ४॥ ३२-राग श्यापकल्याण [श्रीधर्मनाथ तारधनी अवमोहि जगत से तारधनी, अब मोहि जगतसे ॥टेक॥ भटकत भटकत भवसागर में, भोगी त्रिविधि विपत्ति घनो ॥ १॥ लख चौरासी जो दुख देखे, सो विपदा नहीं जाय गिनी ॥ २ ॥ धरमनाथ प्रभु नाम तिहारो, धरम करौ मोपै आन बनी ॥ ३॥ करि उद्धार निकारि जगत् से, दृगसुख भक्ति विधान भनी ॥४॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] ३३ – गगनी खम्माच की ठुमरी [ श्रीशान्तिनाथ ] हमारी प्रभु शांति से लगन लागी रे, हो विघन गये भजिक प्रभू के पद जजि के, हमारी प्रभु शांति से लगन लागी रे ॥ टेक जीव अजीव सकल दरबनि को, जी बखानी गुण परजै, अनघ धुनि गरजै ॥१॥ सब मापा मय वचन प्रभु के, जी सभी के मन भावें । भरम बिन सावें ॥२॥ वित कारण जग जंतु उभारे जी, नयनसुखदाता, सभी के जग त्राताजी ॥ ३४ - खम्माच की ठुमरी (श्रीकु थुनाथ ) आज आली श्रीमती जननि सुत जायोरी । आज आली । टेक | सोम वंश हथनापुर नगरी, सूरज नृप सुख पायोरी ॥ १ ॥ लख योजन गज सजिकै सुरपति, उत्सव उमगायोरी ॥ २ ॥ पांडुक चन सिंहासन ऊपर, क्षीरो दधि जल न्हायोरी ॥ ३ ॥ कुथु कुथु कहि संस्तुति कोनी, तांडवनृत्य करायोरी ॥ ४ ॥ सखियनमिलिजिन मंगल गाये, मोतियन चौक पुरायोरी ॥ ५ ॥ | सोंपि पिता जननी गयो सुरपति, नैनानंद गुण गायोरी ॥ ६ ॥ ३५ - रागदेश ( श्री अरहनाथ) तुम सुनोरी सुहागन चतुरनार, श्ररहनाथ प्रभुभये वैरागी |टेक | सखि लख चौरासी गयंद तजे, जो कंचन मोतियन माल सजे । तजिघोटक ठाराकोड़ि सखी, अरु छ्यानवै सहस्रत्रिया त्योगी ॥१॥ सखि चौदह रतन विसार दिये, अरु पंच महाव्रत धारि लिये । तजि वस्त्र अभूषण जोग लिये, भये परम धरम से अनुरागी ||२|| Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] सखि निरखि निरखि पग गमनकियो, समताधरिधर्मविपाकमहो चलो परम पुरुष के बंदन कू, अब केवल ज्ञान कला जागी ॥२॥ हथनापुर तीरथ प्रगट करो, जहां गर्म जन्म तप ज्ञान बगे। नयनानंद पायन आनि परो. वाही के चरणस लो लागी ३६- रागनी सोरठ (श्रीमल्लिनाथ) थे देखो आली गे मलिनाथ कुमार ॥ टेक ॥ माता जाकी प्रभावती देवी है जी. तात कुभ भूपाल, त्यागो सब परिवार ॥१॥ तजि मिथुलापुर जोग लिया है, रीवंश इक्ष्वाकु विसार कीनो सुवन विहार ॥२॥ भोगो राज न व्याह न कीलो रो, वाल ब्रह्म तपधार, कोनो धैर्य अपार ॥३॥ कहत नैनसुख जोग जुगति से, री पहुँचे मुक्ति मझार, गावो मंगलवार ॥४॥ ३७-गग विहाग (श्रीमुनिसुव्रतनाथ) अब सुधि लेहु हमारी मुनि सुव्रत स्वामी ॥ टेक ॥ तुमलो देव न जग में दूजो. मैं दुस्त्रिया संसारी ॥१॥ तुमहीं वैद्य धनत्तरि कहियो, तुमही मूल पंसारी ॥२॥ घट घट की सव तुमही जानो, कहा दिखाऊ नारी ॥ ३ ॥ करम भरम ममरोग तलाबो, इल मोहि दुख दिये भारी || तुम जग जीव अनंत उवारे, अक्कं बार हमारी ॥५॥ हग सुख तारण तरण निरनि के, आयो शरण तिहारी ॥६॥ ३८ रागनी जय जयवंती [श्रीनमिनाथ] कर बड़ भागन आलस त्यागन, नमि जिन पति तेरे पुन भयो है ॥ टेक ॥ तू सुख नींद मगन मइ सोबत, हम प्रभु Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९] मानित सपा गया है। जागा तात विजय रथ राजा, नगर पान लिया है||२॥ बापन रतन सुधारस र. मिलनगर टन्द्रि गयो है ॥ ३॥ विधा मात उठी नान संस्तुनि. र प्रभु गांव पसार लिया है ।॥ ४॥ नील कमल गनत, या धाक रानार्थ किया है ॥५॥ गनुग्नदार साल पूण सव. सुग्न दुगइन्द विमार दिया है॥६॥ ३६-गग जगला और गाड़ की टुपरी (श्रीनागनाथ) नेमि पियार ग मा जान म वारी नमि पियाक ढिग मी, जानंदे ॥ टेकी काया नटी माया. छठा सब संसार । उठी जग की कामना मौत, करमी केलख मिटान ॥ १॥ भजन करूंगी जागरगो, भजन जगत मसार। भजन बिना में बहु दुख पाय मग भव बाबा मिट जानटे ॥ २॥ सब जग स्वारथ कामगारो सपना नगा न कोय । अपना साथी धम्म है, मोहि भव सागर तिरजान ॥: मोग विना निरधन दुखारा, तृणाचन धनवान । नाम बिना सब जग दुखियारी, नमी से नेम नहान दे ।। ४ ।। नम किये बढते जन सुरझे, मेरे नमि अधार । दृग सुख गजुलि कहत लखा नान अब मात्र नमि लहाण दे । ५। ४०-गगपरज [श्री पार्श्वनाथ मजि भजि रे मन परम सुधारन, नजि आरस पारन भगवान टे० होय फुधात लगत जिस काचन, वचन सुनत मिटि जाय अज्ञान । पूजत पद वसु कर्म विनाशे, होय त्रिविध संकट अवसान ॥१॥ मंगल होय उदंगल विघटे, प्रग, ऋद्धि लमृद्धि अमान || नागभये धजेन्द्र छिनक में, बढ़ते जीव पाये निर्वान ॥२॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] अश्वसेन वामा कुल नन्दन, जग बन्दन बन्धन विघटान ।। प्राणत स्वर्ग थकीचय आये, नगर बनारस जन्मे आन ॥३॥ नव कर उच्च सजल घन तन पग, पन्नग वन्श इक्ष्वाकु प्रमान ।। अवधिशतान्द धरण दुखनारुण, हरण कमठ शठ विधन वितान । ४ विषम रूप भव कूप विषे हम, पावत है प्रभु दुःख महान ॥ नयनानंद विरद सुनि तुमरो, गावत भजन करो कल्यान ॥ ५ ॥ ४१-रागपरन [श्रीवर्द्धमान] जय श्री वीर जयति महावीरं. अतिवीरं सन्मति दातार | टेक ।। वर्द्धमान तुमरो जस जग में, तुम अन्तिम तीर्थ कर सार । पंचम काल विपें तुम शासन, करत जगज्जीवन उद्धार ।।१।। षोडस स्वर्ग थकी चय आये, साढ शुकल छठ गमे मझार । चैत्र शुकल अोदशी के अवसर, कुंडलपुर तुमरो अवतार ॥२॥ सिद्धारथ तृप चाप तुम्हारे, त्रिशला देवी मात तिहार । सोत हाथ तन तुंना तुम्हागे, नाथ वन्श के तुम सिरदार ॥ ३ ॥ सिंह चिह्न तुमरे पद सोहै, माघ अमित द्वादश जग छार । दशमी असित बैलाख भये तुम, सकल दग्व दरसी इकबार ॥४॥ पानांपुर लरवरपै प्रभु तुम, ध्यान धरो संयोग विलार । कार्तिक कृष्णा चौदसि की निशि, मावस प्रात बरी शिवनार ॥५॥ दुखम सुखम के तीन वरल अरु, शेष रहे वसुमास जवार । तादिन तुम्हें रतन दीपकते, पूजें सुर नर करि त्योहार ॥ ६ ॥ उस्से पांच वरस जब बीते, तव विक्रम सम्मत विस्तार । जव लग रहै धग नभ मंडल, नयनालंद जपो नवकार ॥ ७॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] ४२-राग बरवा। कब धो मिलें गुरुदेव हमारे, भर जोवन वनवास सिधारे ॥टेक॥ आतम लोन अनाकुल देवा, जाके सुमति उदै स्वयमेवा ॥१॥ परहित हेत वचन विस्तारै, सो गुरु भी मौ सरण हमारे ॥ २॥ प्रगट करें शिव मारग नीका, बरस रहो मनु मेघ अमीको ।।३।। वैरी मीत बरावर जाकै, कांचन कांच उपल सम ताकै ॥ ४ ॥ महल मसान उद्यान सरीखे, जीवन मरन बराबर दीखे ॥५॥ करुणा अङ्ग रतन त्रय धारी, नैनानंद ताहि धोक हमारी॥६॥ ४३-गग भैरूनर । चरणन से आज मोरी लागी लगन ॥ टेक ॥ हाथ कमंडल कर में पीछी, मिले गुरु निस्तारन तरन । बन में बर्से कसैं इन्द्रीनिकू, धारें करुणा रुप नगन ।। हित मित वचन धरम उपदेशै, मानो वर्ष मेघ झरन । नैनानन्द नमत है तिनकू, जो नित आतम ध्यांन मगन ।। ४४ – गगनी झंझोटी खम्माचका जिला- ठुमरी पूर्वी । हे बहनिया मेरा अङ्गना पावन भयोरी, हे दयाल गुरु आये, ॥ कृपाल गुरु आये, री बहनियां मेरा अङ्गना पावन भयोरीटेक॥ मुक्ति पंथ दरसावन हारे री, हे रतन त्रय साथ, मयूरपिच्छ हाथैरी युगत कर मंडल भयोरी ॥१॥ गमन ईर्याकर तपधारेरी, हैं विसारे मान माया, उवाएँ षट कायारी, असन म्हारे आगम भवन भयोरी ॥२॥ पांच प्रकार रतन की धारारी, विवुध चन्द गरे, हे जै जै धुनि टेरै री, सबन दग आनन्द छावन भयोरी ॥३॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] ४५ - राग जंगला- ठुपरी । इक जोगो असन बनावै, तमु भखत असन अघन लन होत ।।टेक ज्ञान सुधारस जल भरलावे, चूल्हा शोल वतावै ।। करम काष्ठकू चुग चुग बाले, ध्यान अगिनि प्रजलावे जी ॥ १ ॥ अनुभव भाजन निजगुण तंदुल, समता क्षीर मिलावै । लोह मिष्ठ, निशांक्ति व्यंजन,समकित छौंक लगावै जी ॥२॥ स्यादवाद, लतमा मलाले, गिणती पार न पावै।। निश्चय नयका, चमचा फेरे, विरध भावना भावजी ॥३॥ आप पकावै, आपहि खावै, खावत नाहि अघावै । तदपि मुक्ति, पद पंकज सवै, नयनानन्द सिरलाजी ॥४॥ ४६-रागधना श्री अथवा सोरठ । सतगुरु परम दयाल जगत में सतगुरु परम दयाल ॥ टेक ॥ लव जीवनि को संशय मेटें, देत सकल भय टाल । दुख सागर में डूबत जनकों. छिन में देत निकाल ॥ १॥ सुरग मुकति को पंथ बतावे. मेरि करम भ्रम जाल । धरम सुधारल प्याय हरै अघ, छिन में करत निहाल ॥ २॥ स्वान सिंह सतगुरु ने नारे तारे गज विकराल । सुगुरु प्रताप भये तीर्थ कर, अरु तारे श्रीपाल ॥३॥ पांच शतक मुनि कोल्हू पाड़े दंडक नृप चांडाल । होय जटायु सुगुरु पद सेये, पायो सुरग विशाल ॥ ४ ॥ चलि से दुष्ट सुपंथ लगाये, सतगुरु विष्णु दयाल । नयनानन्द सुगुरु सम जग में कौन कर प्रतिपाल ॥ ५॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] [४७] अब मुझे सुधि आई. जैन वाणी सुनि पाई ॥ टेक ॥ काल अनादि निगोद वेदना, भुगती कहिय न जाई । पड़ा नरक चिरकाल बिलायो, कोइ न शरण सहाई ॥ १ ॥ कबहुँक कंठ कुठारनि चीरा, दियो बांधि लटकाई । कबहुँक चार डारि कोल्ह में, तिलवत देह पिलाई ॥२॥ ताते नेल भाड़ में भुलो, कबहुँक शूल दिखाई। आंखन नून कान में डाटे, नाला चीर बगाई ॥३॥ वैतरनी में गेर घसीटो, गाल फुधात पिलाई। तांबा प्याय लोह की पुतली, ताती कर लिपटाई ॥४॥ मात पिता युवती सुत वांधव, संपति काम न आई । कबहुँक पशु पर जाय धरी तहां, बध बंधन अधिकाई ॥ ५॥ खनन तपन दाहन अरु धोकन, बहुविधि मरन कराई। नमन अमन दोउ भांति भरे दुख, छेदन वेदन पाई ॥ ६ ॥ कबहुँक मानुप देह विडंबो, विषयनि में लवलाई । अन्ध पंगु अरु रावरंक भयो, रोग सोग दुखदाई ।। ७ ॥ कुष्ठ जलोदर सोर कठोदर इष्ट वियोग गई । देव भयो पर संपति निरखत, झुरझुर देह जराई ॥ ८॥ वाहन जाति तथा भव पुरण, निरखि रहो पछिताई। यह विधि काल अनन्त भजो हम, मिथ्या भाव कपाई ॥६॥ अबत जोग फिरा भटकत ही, सम्यक दृष्टि न आई । अब जिन धर्म परम रस बरसे, भव तृष्णा न रहाई ॥१०॥ हग सुखदास आस भई पूरण, धन जिन वैन सहाई ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] ४८ - राग धना श्री । जिन मत पर निधान, जगत में जिनमत परम निधान || टेक जिन मारग तें उरझी सुरझे, छूटै पाप महान । अरु जियाकूं अनुभव सुधि आवै, भागे भरम वितान ॥ १ ॥ वस्तु स्वरूप यथावत दरसै, सरसै भेद विज्ञान | सव जीवन पर करुणा उपजै, जाने आप समान ॥ २ ॥ शूकर सिंह नवल मर्कट को, वर्णन आदि पुरान | भील भुजङ्ग मतंगज सुरझे, कर याको सर धान ॥ ३ ॥ अञ्जन आदि अधम बहु उतरे, पायो सुरग विमान | नर भव पाय मुकति पुनि पाई, नयनानन्द निघान ॥ ४ ॥ ४६ - गगनी इंडोल- मल्हार । सुनोजी सुनोजी समभावसुं श्रीजिन वचन रसाल ॥ टेक ॥ द्रव्य करम ने तुम ठगे, भाव करम लये लार । नोकर मनिसं बाधिये, दीनो चहुँ गति डार ॥ १ ॥ कबहुँक नर्क दिखाईयो, कबहुँक पशु पर जाया नव श्रोवक लों ले चढ़े, पटको भाव डिगाय ॥ २ ॥ जिसने जिनवच नहिं सुने, विकथा सुनी अपार । नर भव चिंतामणि रतन, दियो सिंधु में डार || ३ || पंच महाव्रत ना लिये, श्रावक व्रत दिये छार । तिनकूं नरक निकेत में, मारो चाम उपार ॥ ४ ॥ मति थोड़ी विपता प्रणी, कहै कहालों कौन । थोड़ी में वहुती लखो, होय सुघर नर जौन ॥ ५ ॥ पायो धरम जहाज अब, पायो नरभव सार । नैन सुक्ख भवसिंधु से, उत्तर उत्तर हो पार ॥६॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] ५० - राग काफ़ी चाल होली की । जिन वाणी को सार न जानी ॥ टेक ॥ नरक उधारण, शिव सुख कारण, जनम जरा मृतहानी | उदर जलोदर, हरण सुधारस, काटन करम निहानी, बहुर तेरे हाथ न आनी ॥ १ ॥ कल्पवृक्ष चिंतामणि अमृत, एक जनम सुखदानी । दुजे जनम फिर होय भिखारी, यह भवभ्रमण मिटानी । तजो दुर्व्यसन कहानी ॥ २ ॥ व्याह सुता सुत वांटिलूं भाजी, हरिलूंना विरानी । ऐसे सोचत जात चले दिन होत सरासर हानी । समझ मन मूरख प्रानी ॥ ३ ॥ भव वारिध दुस्तर के तरणकं, कारण नाव बखानी । खोल नयन आनन्द रूप से, घर सम्यक्त अज्ञानी | मोक्षपद मूल निशानी ॥ ४ ॥ ५१ - राग यमन कल्याण । जडता जिनराज बिना कौन हरै मेरो ॥ टेक ॥ सुनत हो जिनेद्रवैन, भयो मोहि अतुलचैन, सम्यक्के अभाव मैने कीनी भव फेरी || १ || अतुल सुक्ख अतुल ज्ञान, अतुल वीर्य को निधान, काया मे विराजमान, मुक्ती मेरी बेरी ॥ ॥ द्रव्य कर्म विनिर्मुक्त, भाव असंयुक्त, निश्चयनय लोक मात्र, परजय वपुधेरी ॥ ३ ॥ जैसे दधिमांहि घीव तैसँ जड़मांहिजीव देखी हम अपने नैन, आनन्द की ठेरी ॥ ४ ॥ ५२ -- राग भैरूनर । संशय मिने मेरी संशय मिटै, जिनवानी के सुने से मेरी संशय मिटै ॥ टेक ॥ पाप पुण्य का मारग सूझे भवभवकी मेरी Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] व्याधि कटै ॥ १ ॥ और ठौर मोहि विफलप उपजै हां आ आनन्द उटै ॥२॥ निज पर भेद विज्ञान प्रकाशै विपयन की मेरी चाह घटे ॥ ३॥ बानी सुन नैनानद उपजै मोह तिमर का दोष हटै॥४॥ ५३-रागनी खम्माच की ठुमरी मल्हार | जिया तृने तजो धरम हितकारी । ऐसा जग जन तारक, कलमलहारक, अधम उधारक रतनसार, तेन तजा धरम हितकाग ।। टेक॥ तेरे कर्म बंध तोर डारे, तीनों दुक्खत उवारैभवतें निकार अबहारी ॥१॥ नरक निकार लेय, तीर्थराज पद देय, धमिलो न कोऊ उपगारी ॥२॥ नैनसुख धर्मसेवी, मातमस्वरूप वेवो लागे पार खेवो तत्कारी ॥३॥ ५४-धनसारी। जिनवानी रस पी हे जियरा जिनवानी रसपी॥टेक॥ तुम हो अजर अमर जगनायक ज्ञानसुधा सरसी। नरो हरनहार नहीं कोई, क्यों मानत डरली ॥१॥ काम लिपत करमनतें न्यारो केवल मैं दरसी। ज्यो तिल तेल मैल सुवरण में, क्यों पुदगल परली ॥२॥ जबलग एरर्फ निजकर मानत, तवलग दुखभरसी। छुटै नाहिं काल के करसैं, मर मर फिर मरसी ॥३॥ पूजा दान शील तप धारो, सब पातिग धरती। नयनानद सुगुरुपद सेवो, मरसागर तरसी ॥४॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] ५५ - रागनी जंगला झंझौटी। सुगुरुजी वानीजी सुगुरुकी वानी-तेरे दिल में क्यों न समानी सुगुरु की बानी-अरे अभिमानी सुगुरु की चानी || टेक ॥ वीतराग हिम गिरते निकली, यह गंगा सुखदानी, सप्तविभंगा, अमल तरंगा, भव आताप मिटानी ॥१॥ जग जननी परमारथ करनी-भापी केवल मानी सत्य सस्प यथास्थ निर्णय, सो तैनै विसरानी ॥ २॥ जामें बंध मोक्षकी कथनी, सुन सुरझै बहु प्राणी-पशु पक्षी से पाय मनुप पद, होय रहे शिवथानी ॥३॥ ते मिथ्या मत देव धरम भज पियो मूढ़ मद पानी कीनी भूत ऊत की सेवा-मिली न कौड़ी कानी॥ ४॥ मर्म अविद्या बस या जग में. ख़ाक बहुत ही छानी । अब जिन चैन गंगतट संवो, दृग सुख शिव सुखदानी ॥५॥ ५६-द्वंदत्रोटक वृत सरस्वती अष्टक । मुनि भाव तरंग विशुद्ध तरे-रज पाय प्रताप विभाव हरे मद मोह मरुस्थल भेज जवे, जय वीर हिमाचल बाग भवे ॥१॥ षट नंद तपालर को नगरी, लख तोही मिटे भव के भयरी, जड़ जीव चितावन रूप नवे ॥२॥ भव कानन आंगन भोर भरयो, बहुवार कुजन्म कुयोनि परयो जग शूल निमूल निवन्न दवे ॥३॥ मम केश करांकुर जोरि धरै-लख कोट सुमेरु सिवाय परै, हग पात पिता जननी सुचवे ॥ ४ ॥ लख सिंधु समाय न अश्रु मम-मम सर्व हितू अन एक ममं, अति खेद भरे कर्मोद्भः ॥ ५ ॥ अब आन परयौ तुमरे दपै-अपवर्ग धरो हमरे करप, जग जाल विमोचन भाल नवे ॥ ६ ॥ तुम नोम हरै भव पेद घना Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] जिम तीव्र तपोहत पांथ जनान, पद्मालर आसर वात भवे॥७॥ सव देवयजे अनतोष भयो-लखरूप कृतारथ जन्म थयो-चख अमृत वारिध कौन पिवे ॥४॥ गीता छंद। कुज्ञाल छौनी मोक्ष दैनी आतमा दरसावनी । घट पट प्रकाशन जैन सासन संत जन मनभावनी।। रविनंद जुग जुग अन्द विक्रम साठ सित तेरस लसी। अरदास हग सुख दासकी सुन नाश भव बंधन फंली ॥ ५७-अर्हतस्तुति वरवेकोठुमरी । लगे नैना समोसृत वारेसँ, हे वारेसे जग प्यारेलैं ।। टेक ॥ विश्व तत्त्व ज्ञाता जगत्राता, करम भरम हर तारेसे ॥१॥ तारण तरण सुभाव धरो जिन, पार लंघावन हारेसे ॥२॥ विन स्वारथ परमारथ कारण, डूवत काढ़न हारेसें ॥३॥ दृगसुख परम धरम हम पायो, स्याद्वादमत वारे से ॥४॥ ५८-गगमांड देश की ठुमरी । प्रभु तार तार भवसिंधुपार-संकटमंझार-तुमहीअधार-टुक दे सहार, वेगी काढो मोरी नय्या ॥टेका। परमाद चोर कियो हम पै जोर, भगशेततोर, दिये मझमें चोर तुम सम न और तारन तग्वय्या ॥ १॥ मोहि दंड दंड दियो दुख प्रचंड, कर खंड खंड चहुँगति में भंड तुम हो तरंड-तारो तारो मोरे संय्यां ।।२।। दृग सुखदाम तोगे है हिरास-मेरी काढ़ फांस, हर भवको बास, हम करत आस-तू है जग उधरय्या ॥३॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९ ] ५६ - खमाचकी ठुमरी । सेवें सब सुरनर मुनि तेरोद्वार - तू है धरम अरथ काम मोक्ष को दिवय्या, तोहि तजि अब जाऊं प्रभु किसके बार ॥ टेक ॥ अतुल दरसपुन, अतुल ज्ञान घन, अतुल सुख्य, बलको न पार ॥ १॥ सकल छतरपति, करत भगति अति, चरण परत मस्तकपसार || २ || तुमकूं नमाय माथ, कौन पै पसारू' हाथ, तुषको दवय्या देत लाखन गार || ३ || तुम बिन रागदोष, देत हो सवन मोक्ष, लिये हैं पजोष, सबही प्रकार ॥ ४ ॥ तुम सनमुख रहे, तिन्हें नैन सुख भये, तुम से विमुख, रुले जग मझार || ५ || ६० - रागभौरवी भाग जगोजी, आजतो म्हारो भाग जगोजी ॥ टेक ॥ आज भयो मेरा जन्म कृतारथ, आज भवदधि पार लगोजी ॥ १ ॥ मैं तुम ढिंग कहूँ नहिं आयो, कर्मन के वल आप ठगो जी ॥२॥ वैनतेय सम दरस तिहारो, निरखत काल भुजङ्ग भगोजी ॥३॥ आज भई नेरी मनसा पूरण, आजही नयनानन्द पगोजी ॥ ४ ॥ ६१ - रागनी गाग और जिला | ܐ दरशन के देखत भूख दरी ॥ टेक ॥ समोशन महावीर विगर्जे, तीन छत्र शिर ऊपर छाजैं । भामण्डलसे रवि शशि लाजैं, चँवर दुरत जैसे मेघ झरी ॥ १ ॥ सुरनर मुनि जन बैठे सारे, द्वादश सभा सुगणधर ग्यारे । सुनत धरम भये हरष अपारे, बानी प्रभु जी थारी प्रोतिभरी ||२|| Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] मुनिवर घग्म और गृहवानी दोन गनि जिनेश प्रजाशी। सुनत कटी ममता की बांसी तृष्णा डायन आप मनी ॥ ३ ॥ तुम दाना तुम ब्रा, महेशा तुमही धनत्तर वद्य जिनशा । काटो नबनानन्द चलेगा, तुम ईश्वर तुम गम हरी ॥४॥ ६२---गगनी जंगला-ठुमरी। मिटाटो प्रभु व्यथा हमारी जी एजो हम आये हैं दर्शन काज ॥ टेक ॥ सेठ दर्शन को प्रण गखो शली संज समान । अगनिले सीता उवारी जी॥१॥ नाग नागनी जगत उचारे, दियो मन्त्र नकार । मग्न गति उनकी सुधारी जी ॥ २॥ त्रिभुवननाथ सुनो जस तेरी जब आयो तुम पास । कगना प्रभु मेरी गुजाराजी ॥ ३॥ मरकत भटकत दर्शन पायो जनम सफल भयो आज । लती जो मैन मुद्रा तुम्हारी जी ॥ ४ ॥ मैं चाहत तुम चरण शरण गत मांगत हूँ नाज लाज । सुपोजी नैनानन्द की पुकारी जी ॥ ॥ ६३-गगनी भैरूंनर-जंगला संझौटीका जिला जबसे तेरा मत जाना, तभी ले आपा पिछाना ।। टैक।। निज पर भेद विज्ञान प्रकाशो, तव प्रकाशे नाना । दर्शन मानचरित्र आगधो. धरी जैन मनवाना ॥ १ ॥ काल अनादि भजो यिथ्यामत धर्म मर्म अव जाना । अब इट्टी ममता की फासी, समता ओर लुभाना ॥२॥ अब ही मैं यह वात पिछानी, यह भव बन्दीखाना। करम वन्य जग में दुख पाऊं. में त्रिभुवन को राना ॥३॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] दत नैनलत तार तार प्रभु. तुम हो सतगुरु दाना। नातर विग्द ल्जाव तेगे, देत सलल जग ताना ॥ ४॥ ६४ गगदेश ठाड़े जी गुसइय्यां तेरे दरबार में, स्वामी म्हागरे । टंक ।। करम हमारे बध गये भारे जी, हो इन दोजे निकार ॥१॥ विधनहरन तुम सबही के दाताजी, हो अतिशय अगमापार ॥२॥ निरखत रूप पुरन्दर हारे जी, हो जस गावत गणधार ॥ ३ ॥ मनमयूर नैनानन्द मानत जी, सुन सुन बचन तिहार ॥ ४ ॥ ६५ - रागनीजंगला। भगवान दर्शन दीजे, जी महाराज दर्शन दीजे, अजि मैं तो दर्शनकारण आया, जी महाराज दर्शन दीजै ॥टेक॥ कोई ती मागे प्रभु स्वर्ग सम्पदा, मैं था. पूजन आया ।। १ ।। इन्द्र न्हुलावे तुमैं क्षीरोदधि से, मैं प्राशुक जल लाया ॥२॥ इन्द्र चड़ावै प्रभु रतन अमोलक, मैं तंदुल चुग लाया ॥ ३ ॥ इन्द्र करें प्रभु ताडव नाटक, में जल गावन आया ॥४॥ कहै नैनसुख दर्शन करके, अब नर भी फलाया ॥ ५ ॥ ६६-राग कालंगड़ा । जो तुम प्रभु हो दीनदयाल, तो तुम निरखो मेग हाल ॥ टेक ॥ नरक निगाद भरे दुःख भारी, हाल निकस भ्रमोजगजाल । जल थल पावक पवन तरोवर, धर घर जन्म मरो बेहोल ॥१॥ क्रम पिपीलिका भ्रमर भये हम, विकलत्रय की सीखी चाल । फिर हम भये असैनी सैनी, चढ़ि नव मीच गिरे ततकाल ||२|| Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] कहैं नैनसुख भवसागर से, वांह पकरि मोहि वेगि निकाल । समरथ होयहुँ मैन उवारो, तो न कहूं फिर दीनदयाल ॥ ३ ॥ ६७-कुदेवत्याग विषय-राग-ठुपरी जंगला संझौटी । मैं दरश बिना गया तरस, दरश की महिमा न जानी जीटेक में पूजे रागी देव गुरु, सेये अभिमाली जी। हिंसा में माना धरम सुनी मिथ्या मत बानी जी ॥ १ ॥ से फिरा पूजता भूत ऊन अरु सढ मसानी जी। मैं जंत्र मंत्र बहु करे मनाये नाग भवानी जी ॥२॥ मैं भैंसे बकरे भेड हते वहुतेरे प्राणी जी । नहि हुघा मनोरथ सिद्धि भये दुर्गति के दानी जी ॥३॥ मैं पढ़ लिये वेद पुगण जोग अरु भोग कहानी जी। नहीं आसा तृष्णा मरी सुगुरु की शीख न मोली जी ।।४।। मैं फिरा रसायन हेत मिली नहीं कड़ी कानी जी। नहि छुटा जन्म अरु मरन खाक बहुतेरी छानी जी ॥ ५ ॥ लई भुगत चौरासी लाख सुनी नहीं तेरी बानी जी । हुवा जन्म जन्म में ख्वार धरम को लार न जानी जी ॥६॥ तेरी वीतराग छवि देखि मेरे घट मांहि समानी जी। हो तुम ही तारण तरण तुमही हो मुक्ति निसैनी जी ॥ ७॥ है दयामई उपदेश तेरा तुम हो गुरु ज्ञानी जी। हो षटमत में परधान नैनसुखदास बखानी जी ।। ८॥ ६८-राग खम्माच । लागा हमारा तोसे ध्यान, दाता भवसे निकारो मोकों जी ।टेका तुम सर्वज्ञ सकल जग नायक, केवल ज्ञान निधान ॥१॥ जीव दयामई धर्म तिहारो जी, पट मत माहिं प्रधान ॥ २ ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३] तुम बिन कौन हरै भव बोधाजी, सब जग देखा छान ॥३॥ दासनैनसुख कछु नहिं मांगत, जीदीजिये शिवपुरथान ॥४॥ ६९-रागनी जगला झंझोटी मारवा दादग किस विधि कीने करम चकचूर, थारी परम छिमापै जी अचंभा मोहि आवै मभु, किस विधिः ॥ टेक ॥ एक तो प्रभु तुम परम दिगम्बर, वस्त्र शस्त्र नहिं पास हजुर। दूजे जीन दया के सागर, तीजे संतोषी भरपूर ॥१॥ चौथे प्रसु तुम हित उपदेशी, तारण तरण जगत मशहूर । कोमल सरल पचन सतवक्ता निर्लोभी संजम तपसूर ॥२॥ त्यागी वैरागी तुम साहिब, आकिंचन व्रत धारी भूर । कैसे सहस्त्र अठारह दुषण, तजि जीतो काम करूर ॥ ३ ॥ कैसे ज्ञानावर न निवारो, कैसे गेरो अदर्शन चूर । कैसे मोहमल्ल तुम जीतो, अन्तराय कैसे कियो निमूर ॥४॥ कैसे केवल ज्ञान उपायो, कैसे किये चारू घाती दूर । सुरनर मुनि सेवे चरण तुम्हारे, फिर भी नहिं प्रभु तुमकू ग़रूर ॥ ५॥ करत आल अरदास नयनसुख, दीजे यह मोहि दान ज़रूर । जनम जनम पद पङ्कज सेऊ, और न कछु चित चाह हजूर ॥ ६॥ (७०) जिल बिध कीने करम चकचूर-सोई विधि बतलाऊं-तेरा भरम मिटाऊं बीरा जिस विधि कीने करम चकचूर-टेकसुनो संत अरहंत पंथजन-स्वपर दया जिसघट भरपूर-त्याग प्रपंचनिरीह करें तप-ते नर जीतें कर्म करूर ॥ १॥ तोड़े क्रोध Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] निठुरता अग्रतग-कपट कर लिर डारी धूर-अलत अंगकर भंग बतातेनर जीत करम करूर ॥२॥ लोम कन्दरा के मुखम भर काट असं जम लाय ज़रूर-विषय कुशील कुलाचल फूंकते नर जीतें करमफलर ॥ ३ ॥ परम क्षिमा मृदुभाव प्रकाशैंशरल वृत्ति निर्वाछ कपूर-धरसंजम तप त्याग जगत सबध्या लत्चित केवलनूर ॥ ४॥ यह शिवपंथ सनातन संतोलादि सनादि अटल मशहूर-या मारग नयनानन्द पायो-- इस विधि जोते करम करूर ॥ ५ ॥ ७१-गगदेश। राजरी सूरत प्यारी लागै छै, म्हानैं राजरी मूरत० ॥ टेक ॥ नाम मन्त्र परताप राजरे, पाप भुजङ्गम भागे छै ॥ १ ॥ वचन सुनत तन मन सब हुलसे, ज्ञान कला उर जागै छै ॥ २॥ ज्यों शशि निरनि कमोदिनि विकस. चिन चकोर,पट पागै छै॥३॥ हग सुख ज्यों घन विखि मगन है, मन.मयूर अनुरागै छै ॥ ४॥ ७२-रागनीट्यौड़ी-पंचपरमेष्टी स्तुनि । जै जै जै जिन लिद्ध सचारज उज्झाय लाधव शिवकत ॥ टेक।।। जैकल्याण धाम जग तीरथ, पोपक सकल चराचर जंत । पूजत नित पङ्कज तुमरे नर, नारायण अरु सवही संत ॥ १ ॥ शूकरसिंह नवल मर्कट के, सुनी सकल हमने विरतन्त | ऐस अधम उधारे तुमने, अरुकीने तिनकं अरहन्त ॥२॥ नाग वाघ दण्डक स्वानादिक, भील भेकस जांच अनन्त । कर उद्धार पार किये जग से, जिन पूजे तुमकं भगवन्त ॥ ३॥ रोव रद्ध लेवक अरु शत्रु, निगुण गुणी निर्धन धनवन्त । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५-] सवको अभयदान तुम बांटो, जो भव के भय से भयवन्त ॥ ४ ॥ है व्याकरण विषय तुम साखा, अर्ह इति पूजाया सन्त । शब्द अखण्डित पूता मडित, पंडित जन मानो सब भन्त ॥ ५ ॥ वीतराग सर्वज्ञ भये तुम, तारण तरण स्वभाव धरन्त । तीरथ परम परम पुरुषोत्तम, परम गुरु सब सृष्टि कहन्त ॥ ६ ॥ ताते जल चन्दन हम अरचैं, अक्षत पुष्परु चरु दीपन्त । धूप महाफल से तुम पूजा, है त्रिकाल त्रिभुवन जैवन्त ॥ ७ ॥ सब पर दया सभी के साहिब, दास नैनसुख एम भणन्त । कर उत्कृष्ट भृष्ट मत राखो, वेग करो भव बाधा अन्त ॥ ८ ॥ ७३ - रागनी ट्यौड़ी राज की सोच न काज की सोच न, सोच नहीं प्रभु नर्कगये की ॥ टेक ॥ स्वर्ग छुटेको' सोच नहीं है, सोच नहीं तिरजंच भये को । जन्म मरण को सोच नहीं है, साच नहीं कुलनीच " गये की ॥ १ ॥ ताड़न तापनकी सोच नहीं है, सोच नहीं तन अगिनि दहे की । सील छिदे की सोच नहीं है सोच नहीं व्रतभंग किये की ॥ २ ॥ ज्ञानलुने की सोच नहीं है सोच नहीं दुर्म्यान भये की। नयनानंद इक सोच भई अब, जिन पद भक्ति विसार दिये की ॥ ३ ॥ ७४ - राग भैरवी तथा खम्माच की ठुमरी । डूबी पड़ी भवसागर में, मोरी नय्याकं पार उतारो महाराज ॥ टेक ॥ वीतो है अनंत काल, हवी जन्म के ज़वाल । देके अवलम्ब, निस्तागे महाराज || १ || लोभ चक्र मांहि पीर, Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] क्रोध मान माया भरी । रोग द्वष मच्छ से उबारो महाराज ॥२॥ तारे धरमी अनेक, पापीहू उतारो एक । वीतराग नाम है तिहारो महागज ॥३॥ कह दास नैनसुक्ख, सेटो मेरा भव दुक्ख, खेचिके कुघाट से निकारो महाराज ॥४॥ ७५-राग सारंग। कर्मनिकी गति टारो म्वामी, कर्मनिकी गति टार ॥ टेक॥ कर्मनि ते मैं संकट पाये, गयो नर्क बहु बार ॥ १॥ कबहुँक पशु पर जाय धरी तहां, दुख पाये लद भार ॥२॥ देव मनुष गति इष्ट वियोगी, दुख को वार न पार ॥ ३॥ आयो वीतराग लखि तुमकू, राखो चरण मझार ॥ ४ ॥ लैनसुक्ख को अरज यही है, भवसागर से तार ॥ ५ ॥ ७६-राग खम्माच-जंगला गज़ल । सुनरी सखी इक मेरी बात, आज नगर वरसैं रतन ॥ टेक ॥ लीतो है आज ऋपभ अवतार, नाभिराय घर हरष अपार । रतन जु बरसैं पंच प्रकार, शातल पवन सुधाकी भरन ॥ १॥ पुष्प वृष्टि दुंदुभि जयकार, वटत बधाई घर घर बार । आज अजुध्या नगर मझार, पूजत इंद्र प्रभू के चरन ॥२॥ सवज़ हुआ उगल गुलज़ार, बन उपवन फूले उकवार । कामिनि गाय मंगलचार, चोलत पिक दिलचस्प वचन ॥ ३ ॥ चंदन से चरचे घर बार, लटकाये सखि वंदनवार । है वोग सुख को दातार, लीजे प्रभृ का चरने शरत ॥ ४॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] ७७-राग ट्यौडी। आदि पुरुष तेरी शरणगहीअब, टूटी सीनाव समुद्रबिचबेड़ाटेक॥ नाभि पिता मरु देवी के नंदन, इस अवसर कोई नहीं मेरा। अगम उदधिसैं पार लगावो, आन पहुंचा रहां काल लुटेरा ॥१॥ आतम गुणकी खेप लुटी सब, लूट लियो अनुभव धन मेरा। दीनबन्धु इस करम भंवर की, कठिन बिपति में पड़ा थारा चेरा॥२॥ क्यातो नय्या उलटी ही फेरो, क्या अब पार करो यह वेड़ा। नैनानंद की अरज़ यही है, नातर विरद लजावै तेरो ॥३॥ ७८ - राग जंगलेकी लावनी वा ठुमरी (बधाई) । नाभि धरले चलरी आली, जहां जन्मे दिजिनंद किया वैमान विजय खाली ॥ टेक ॥ ऐरावत गज साज सुरग में, सुर सेना चाली । फूलन के गजरा गंदलाये, वागन के माली ॥१॥ नंद बृद्ध जय जयधुनि टेरै, मोर मुकट वाली । झनन झनन हग दृगन करत सुर दे देकर ताली ॥२॥गंधोदक की वृष्टि रतनकी धारा सुरढाली । शीतल मंद सुगंध पवन अब चारों दिश चाली ॥ ३ ॥ जल चंदन अक्षत सुरलाये, फूलन की डाली। चरु दीपक शुभ धूप फलादिक, भर भर कर थाली ॥४॥ सुफल भयो अब जन्म हमारो, चहुँ गति दुख टाली । नैनानंद भयो भांबजनफँ, लखि यह खुशहाली ॥५॥ ७६-ठुमरी जंगला झंझोटीका जिला । नाभि कुघरका देख दरश सब दूर भयो दिलका खटका ॥ टेक ॥ इंद्र बधू जिन मंगल गावें, भेष किये नागर नट का। मेरु शिखर पर प्रथम इंद्रका, जिन उत्सवकं मन भटका ॥१॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] पांडुक बन सिंहासन ऊपर, रतन माल मंडप लटका । सुरगण ढालत क्षीरोदधि के, सहस अठोत्तर भर मटका ॥२॥ तांडव नृत्य कियो सुरराई, सकल अंग ,मटका मटका । । सुर किन्नर जहां बीन बजा, कर कंकण झटका झटका ॥३॥ कुगुरु कुदेव कुलिंगी दुर्जन, देखनकू भी नहिं फटका! . धर्मचोर पापी दुखदाई, देश त्यांग ह्वां सैं सटका ॥४॥ पुन्य भंडार भरे भविजीवन, सरन लह्यो प्रभु पद,पटका। सरधावंत भये मिथ्याती, पोप भार सिर से पटका ॥ ५॥ आज दिवस कूदास नैन सुख, फिरताथा भटका मटका। दीनबंधु अब वही दिवस है, देहू पुन्य हमरे चटका ॥ ६॥ ८०- ठुमरी जंगला। लिया आज प्रभुजी ने जनम लखी चलो अवधपुरी गुण गावन फू ॥ टेक ॥ तुम सुनोरी सुहागन भाग भरी, चलो मोतियन चौक पुगवन को ॥१॥ सुवरण कलश धरो शिर ऊपर जल लावे प्रभु न्हावन को ॥२॥ भर भर थाल दरव के लेकर, चालोरी अर्घ चढ़ावन को ॥३॥ नयनानंद कह सुनि सजनी, फेर न। अवसर आवन को ॥ ४ ॥ ' ८१-- रागभैरवी। तुम हमैं उतारो पार अजित जिन भवधि बांह पकर के जी ॥टेक ॥ हमक अष्ट कर्म वैरी ने लीने बांध जकर के जी। हम न चलेंगे उनके संग, रहें तेरे द्वार पसर के जी ॥ ३ ॥ अष्ट दरब ले पूजन आये, लेंगे दान झगर के जी । भावे दया निमित शिव Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९], दीजो, भाई दीजो अकर के जी ॥२॥ जिन जिन तुमको पूजे. ध्याये, भजि गये कर्म सुकरि फैं जी.] ग सुख के भेव बंधन, तोड़ो, सरि है नाहि मुकरि के जी । ॥३॥ ८२-रागधनाश्री। हेमकू पदम प्रभु शरण तिहारी जी ॥ टेक ॥ पदमा जिनेश्वर पदमा दायक, धायक ही भव के दुख भारी जी ॥ १॥ तुम सों देव न जग में दुजो, अरु हमसे दुखिया संसारी जी ॥२॥ अपने भाव वकस मोहि दीजे, यह तुमसे अरदास हमारी जी ॥३॥ नैनसुक्ख प्रभु तुमरी संघा, भवद्धि पार उतारनहारी जी ॥४॥ ८३-गगनी ट्यौडी। हमकू आप करो अपनी सम, पारस लखि अरदास करी है ॥ टेक ॥ नाम प्रभाव कुधात कनकहाँ. महिमा अंगम अनंत भरी है। सकल सृष्टि उत्कृष्ट संपठा. तुम पद पंकज आर्य परी है ॥ १ ॥ जे तुम पद पद्माकर संधै, तिनत भवं आताप डरी है। जनम मरण दुख शोक विनाशन, ऐसी तुम पै परंम जरी है ॥२॥ कहत नैनसुख हमरी नय्या, इस भव भंवर मँझार पड़ी है। ८४-होली अध्यात्म राजमती की-रागनीकाफ़ी । __ होरी खेलते राजमतीरी। हे सतीरी-होरी खेलत राजमतीरी ॥ टेकं ॥ संजमरूप वसंत धरी लिर, तजि भव भोग सतोरी। श्रीगिरनारि विजय वनं युजन कर्मन संग लॅरीरी-पंत जाके Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] भये हैं जतीरा॥१॥ भरि संतोष कुड रंग सोह, टेरपंच समिती री। रत्नत्रय व्रतधारि कोतुहल, आतमसू करती री, स्वांग जगलू डरती री ॥ २॥ रोके है आप्रव जन मतवारे, संवर डफ धरती री। तीन गुप्ति की ताल बजावन-भवसागर तरती री॥ भानको मद हरती री ॥३॥ कर्म निर्जरा बजत मजीग, शिव एथ गति भरती री।ग सुख धरि सन्यास छिनक में पाई है देव गतीरी । स्वर्ग अच्युत में सतीरी ॥४॥ ८५-राग काफी। बल खेलिये होरी नेमि वैरागी भयोरी ॥टेक ॥ केवल ज्ञान क्षीर सागर से, भाजन मन भग्लोरी। नामें पंच समिति की केशर घस घम रंग करोरी-ध्यान के ख्याल लगो री ॥१॥ लमक्ति की पिचकारी ले ले, गुप्त सखी संगलोरी। भव्य भाव शुभ हेरि हेरि फे, निज निज बसन रंगारी-धरम सबही को लगोरी ॥२॥ सप्त तत्व के लिये कुमकुमे, नव पदार्थ भर झोरी। भिन्न भिन्न भविजन पर फेंको, तृष्णामान हनोरी-वेग वनवास बसो रो॥ ३॥ मोह दंड होरी का फूको, जाते दुख न भरोरी। पंचमगति की राइ यही है, आरत चित विसरोरी-नैनसुख जोग धरोरी॥४॥ ८६-गग कान्हडा तथा काफी । अरी एरी में तो आज वसंत मनायो, पिया ज्ञान कान्हयर आयो सखी री मैं तो आज वसंत मनायो॥ टेक | कुवज्ञा कुमति दसोटादीनो, सुमति सुहाग वढायो। शाल चुनरियाप्रमुख Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ ] अभूषण, सहस अठारह लायो || १ | छिमा महावर हित मित महेंदी, सरल सुगंध रचायो । चुरला सत्य शौच भुज भूषण, संजम शीस गुरुंदायो ॥ २ ॥ तप दुलड़ी नथ त्याग अकिंचन, व्रत लटकन लटकायो । गुणगण गोप गुलाल करमरज, घट बृज मांहि उड़ायो || ३ | भर पिचकारी भाव दयारस, पिया संग फाग मचायो । राधे सुमति निरखि पिक नैनन, आनंद उर न समायो ॥ ४ ॥ } ८७- पढ उपदेशी - राग धमाल होली की चाल में । अरे करले सफल जनम अपना, अब करले, अब करले सफल० ॥ टेक ॥ करले देव धरम गुरु पूजा, जीवन है निशिका सुपना ॥ १ ॥ विषयन में मति जन्म गमावै, यह है शठ भुसका तपन ॥ २ ॥ दान शील तप भावन भाले, तन जोवन सब है खपना ॥ ३ ॥ दृग सुख पर उपगार बिना सब झूठी है जग की थपना ॥ ४ ॥ ८८ - रागकाफ़ी । } ऐसो नर भव पाय गँवायो । हे गँवायो - ऐसो नर भव ॥ टेक ॥ धन ' पाय दान नहिं दोनो चारित चित नहिं लायो श्री जिनदेव की सेवन कीनो, मानुष जन्म लजायो--जगत में आयो न आयो ॥ १ ॥ विषय कषाय बढ़ो प्रति दिन दिन, आतम वल खु घटानो । तजि सतसंग भयो तु कुलंगी, मोक्ष कपाट लगायो नरक को राज कमायो ॥ २ ॥ रजक श्वान सम फिरत निरंकुश, मानत नाहि मनायो । त्रिभुवन पति होय भयो है Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] • भिखारी, यह अचिरज मोहि आयो -कहते कनक फल खायो ॥ ३ ॥ कंद सूल मंद मांस भखन क्रू नित प्रति चित्त लुमायो । श्रीजित वचन सुधा लम तजि कैं, नयनानंद पछतायो- श्री जिन गुण नहीं गायो ॥ ४ ॥ ८६ - राग धनाश्री तथा देश भैरवी । अब तू निज घर आव विक्ल मन अब तू निज घर आव ॥ टेक ॥ विकलप त्याग सुनू जिने शासन, मत वीरते घरा । पावैगी निधि तुमरी तुमकू. श्रीजिन धर्म पचाव ॥ १ ॥ गति इंद्री अरू काय जोग पुनि जानो वेद कपाय | ज्ञान भेद अरु संजम दर्शन, लेश्या भव्य सुभाव ॥ २ ॥ समकित सैनी और अहारक, चौदह मारग नाव | नाम थापना दरव भाव करि, तत्व दरव दरसाव || ३ | यों जगरूप विनारि शुभाशुभ करिकरि धिरता भाव | हरें करम प्रगटै नयनानंद, भाषो सुगुरु उपाव ॥ ४ ॥ C ६ - गग घनाश्री तथा देश भैग्वी । क्यों तुम कृपण भये, हो सुघर नर क्यों तुम कृपण भये ॥ टेक ॥ घट में ज्ञान निधानं तुम्हारे, सो क्यों दाव रहे । भटकत विषय तुषन कूं डालत नृप हो विपत काल में धन सब संरचतः लें ले कथये ॥ १ ॥ करज़ नये । तुम धनवंत होय दुख पावो; मूरख व व्ये ॥ २ ॥ कबहुँक शूकर कूकर उपजत, कबहुँक बैल भये । पित पिटत नर्कनि के माहीं वालन एक रहो ॥ ३ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३ दान शील तप भावन भाकर, संजस कम्यों न लहे। जाते लैन सुख्य तुम पाते, जाते करम दहे ॥४॥ ६१-राग ठेठ बरवा ठगगे उपदेशी । जिया न लगावैरे, देख पराई मायो ॥ टेक | पुत्र कलत्र पराई संपति, इन संग मतना उगावैना ठगावैरे ॥ १ ॥ पुद्गल भिन्न भिन्न तुम चेतन, अंत न संग निभाव न निभावैरे ॥ २ ॥ मतकर विषै भोग की आशा, मत विष घेलि बढ़ावैरे बढ़ावरे ॥३॥ नयनानंद जे मूरख प्राणो, सोवत करम जगावेरे जगावरे ॥ ४ ॥ .. .१२-राग धनाश्री । नजि पुद्गल को संग, अज्ञानी जिया, तजि पुद्गल को संग ॥ टेक ॥ तुम पोषत यह दोष करत है, पय पिय जेम भुजंग। बड़वानल सम भूरि भयानक, घायक आतम अंग ॥१॥ यासंग पंचपोप में लिपटो, भुगती कुगति कुढंग-परिवर्तन के दुख बहुपाये, याही के परसंग ॥२॥ शीकर खातिसंग सोगर के होवत वारि विहंग । भूपनको भूषणको संगति, ठानन आदर भंग ॥ ३॥ अजहू चेत भई सो भई है, रेमद मत्त मतं । नयन सुख्य सतगुरु करुणानिधि, यकसत विभव अभंग ॥ ४॥ ६३-रागनी वरवा ठुमगे। लवकरनी दयाविन थोथीरे । टेक ॥ जीवदयाविन करनी निरफल, निष्फल तेरी पोथीरे ॥ १॥ चंद विना जैसे निष्फल, रजनी, आव विना जैसे मोतीरे ॥२॥ नीर बिना जैसे सरवर Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ ] निरफल, ज्ञान बिना जिय ज्योतीरे || ३ || छाया हीन तरोवर को छवि, नैनानंद नहिं होतीरे ॥ ४ ॥ ६४ - राग देश | अरुब्रह्मकूं जाना नहीं ॥ टेक ॥ अनुभावकूं ठाना नहीं । मुक्तिकी आशा लगी, घर छोड़ के जोगी हुवा, जिन धर्मकूं अपना सगा अज्ञान ते माना नहीं ॥ १ ॥ जाहिर में तू त्यागी हुवा, वातिन तेरा छाना नहीं । ऐ यार अपनी भूल में, विषबेल फल खाना नहीं ॥ २ ॥ संसार कू त्यागे बिना, निर्वाण पद पाना नहीं । संतोष बिन अब नैनसुख, तुमकू मज़ा आना नहीं ॥ ३ ॥ ६५ - राग सारङ्ग । न कर करम की तू आसरे, अरेजिया न कर करमकी तृ आसरे ॥ टेक ॥ अंतराय भई प्रथम जिनेश्वर, जाके सुग्पति दासरे । दरव क्षेत्र अरुकाल भाव लखि, तजि विधि को विसवासरे ॥ १ ॥ छहो खंडको नाथ भरथ नृप, मान गलत भयो तासरे । सीता सती इंद्र करि पूजित भयो बिजन बन वासरे ॥ २ खगचर वंश तिलक नृप रावण, करमनतै भयो नाशरे । तीर्थंकरकूं होत परिषद, करम बड़े दुख वासरे ॥ ३ ॥ पीवत खासरे । आशा करत करम सरसावत, ज्यों पय नैन सुख्य चिरकाल भयो अब काढ़ो गलकी फांसरे ॥ ४ ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५ ] ६६-लावनी राग जंगला गारा । क्यों परमादी हुवा वे तुझक वीता काल अनंता ॥ टेक ।। आयो निकल निगोद सेरे भटको थावर योनि । मिथ्या दर्शनते तन धारे, भूजल पावक पोन ॥१॥ धारी काया काष्ठ कोरे दहन पचन के हेत। सूक्ष्म ओर थूल तन धारो, अजहू न करता चेत ॥२॥ -', विकल त्रय म भरमतारे, भयो असैनी अंग। सैनी है हिंसा में राची, पीलई मिथ्या भंग ॥३॥ सुर नर नारक जोंनि मेरे, इष्ट अनिष्ट संयोग। दर्शन ज्ञान चरण धर भाई, नैनानंद मनोग ॥४॥ ६७-राग वरवा-परस्त्री निषेध का पद। यह तो काली नागनी रे, जीया तजो पराई नार ॥ टेक ॥ नारा नहिं यह नागनी रे, यह है विष की बेल । नागिनी काट क्रोधसों रे, यह मारे हॅस खेल ॥१॥ ___ बातें करती और सोरे, मन में राखै और । वा कू मिले और चाहै, वा कुंतजि के और ॥२॥ नैन मिलाये मनकं बांधै अंग मिलाये कर्म। धोखा देकर दुःख में डारे, याहि न श्रावे शर्म ॥३॥ तीर्थकर से याकू त्यागैं, जो त्रिभुवन के राय । नैनानंद नरक की नगरी, सत गुरु दई बताय ॥ ४॥ ६८-राग विहाग तथा खम्माच खास । अरे जिया जीव दया से तिरंगा, दया विन धर धर जन्म मरैगा 1 टेक ॥ पर सिर काट शीस निज चाहत रे शठ तापत Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८] ढत संपति पग पग मरे ॥३। भजन समाधि न भाव शील के भग से भागिरचे भग सैरे ॥ ४॥ किहि विधि सुख उपजै सुनि बीरण, कंटक ऋर वाये म मरे ।। ५। हग सुख धरम लखन जिन विसरो, अंतर कौन मनुष्य खग मेरे ॥ ६ ॥ १०४ राग जोगिया प्रासावरी । पापनि से नित डरिये, अरे मन पापन से नित डरिये ।। टेक ।। हिंसा झूठ वचन अरु चोरी, परनारी नहिं हरिये 1 निज पर दुख दायनि डायन, तृष्णावेग विसरिये ॥१॥ जासे परभव विग वीरण, ऐसो काज न करिये।। फ्यों मधु विंदु विषय के कारण, अंध कूप में परिये ।। २ ॥ गुरु उपदेश विमान बैठक, यहा ते वेग निकरिये । लयनानंद अचल पद पा, भव सागर सूतरिये ॥३॥ १०५ - रागनी जोगिया प्रासावरी में । है वोही हितू हमारे. जो हम इवत जग से निकारै ।। टेक ।। सांचो पंथ हमें चतलावे, सांचे वैन उचारे। राग दोप ते मत नहिं पापे, स्वपर सहित चित धारै ॥ १ ॥ हम दुखिया दुख मेटन आये, जनम मरण के हारे । जो कोई हमकू कुमति लिखावे, लोई शत्रु हमारे ॥ २॥ कोटि प्रथ का सार यही है, पुण्य स्वपर उपगारे । हग सुख जे पर अहित विचारे, ते पापी हत्यारे ॥३॥ १०६-राग देशवा सोरठ । म्हारी सरधा में भंग परो, लरधा में भंग परो। हे विभावों में भाव धरो। म्हारी सर्धा में भंग परो॥ टेक ॥ चारों कपाय Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४९ ] गिनी हम अपनी, मद जोवन से भगे। हे कुदेवों को संग कगे ॥१॥ दरब करम की ममता नल में, आपही आप जरो-हे कुलिंगो को स्वांग भरी ॥२॥ भाव करम नो कर्म जुदे हैं, मैं चैतन्य खरो-हे कुवानी के पंथ परो॥ ३ ॥ ज्यों तिल तेल मैल सुवरण में, दधि में घीव भरो-हे अनादि को जोग जुगे॥४॥ मुकति भये बड़भाग नैनसुख, तेलखि तेल परो-हे जड़ाजड़ भिन्न करो ॥५॥ १०७-दया की महिमा-मरहटी लंगड़ी रङ्गत जिसके ४ चौक हैं। बंधे हैं अपनी भूल से भाई, बंधे बंधे मरजावेंगे, दया जीव की करेंगे तो हम भी सुख पावेंगे॥ टेक ॥ दया से परजा कहेगी राजा, दया से संत कहाधेंगे। दया के कारण, सेठ अरु साहूकार यनाबैंगे ॥ जे दुखिया की मदद करेंगे, इस जग में जल पावेंगे। विपत काल में, वही फिर मदद हमें पहुँचायेंगे॥ धन जोबन के मद में हम तुम, जिसका जीव दुखावैगे। पुण्य गिरैगा, तो वे फिर छाती पर चढ़ जावेंगे । छेदँ अरु भेदेंगे तनफं, काढ़ कलेजा खावेंगे। दया जीव की. करेंगे तो हम भी सुख पायेंगे ॥१॥ झूठ वचन से मान घटेगा, अरु जिसके लिंग जावेंगे। सत्य वचन भी, कहेंगे तो सब झूठ बतायेंगे ॥ बसु राजा की तरह झंठ से नरक कुण्ड में जावेंगे। सत्यघोष की, तरह फिर राजदण्ड भी पायेंगे ॥ चोरी के कारण से प्राणी, कुल कलङ्क लग जावेंगे। रावण की ज्यों, वंश अरु वेलिनाश होजावेंगे ॥ फिर नरकों में उनके मुख को फंचा बाल जलावेगे। दया जीव की, करेंगे तो Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५०] हम भी सुस्त्र पावेंगे ॥२॥ मैथुन व्यलन बुरा है प्राणी, जो इन में फंस जावेंगे। उन जीवों के, वीज अरु वंश नष्ट हो जायेगे । फिर उनके संतान न होगी, होगी तो मर जायेंगे। जो न मरेगे तो उनके तन से होगन नावेंगे॥ नग्कों में उनकं लोहे के, यंभों से लटकावेगे। लोह की पुतली, गरम कर छाती से चिपकावेंगे॥ हाहाकार करेगा जब वह, मुख में बांस चलावेगे। दया जीव की, करेंगे तो हम भी सुख पावेगे ॥ ३ ॥ जिनके नहीं परिग्रह संख्या, तृष्णावन्त कहावेंगे। लोभ के कारण, झंठ और चोरी में मन लावेगे। गुरुकं मार देवकं वेच, समा से धर्म उठावेगे। बाल बृद्ध के, कण्ठ में फांसी दुष्ट लगावेंगे॥ राजा पकड़ धरैशूली पर, फेर नरक में जावेगे। बचन अगोचर, नर्क के बहुत काल दुख पावेंगे ॥ कह नैनसुख दास दया से, सब सङ्कट कट जावेगे। या जीव की, करेंगे तो हम भी सुख पावगे ॥४॥ १०८-राग विहाग की ठुमरी } देखो भूल हमारी, हम सङ्कट पाये ॥ टेक ॥ सिद्ध समान स्वरूप हमारा, डोलू जेम भिखारी॥ १ ॥ पर परणति अपनी अपनाई, पॉट परिग्रह धारी ॥२॥ द्रव्य कर्म बस भाव कर्म कर, निजगल फांसी डारी ॥३॥ नो करमेन ते मलिन कियो चित, बांधे बंधन भारी ॥४॥ वोये पेड़ बंबूल जिन्होंने, लावै क्यों सहकारी ॥ ५ ॥ करम कमाये आगे आवे, भाग सब संसारो॥६॥ नैन सुक्ख अब समता धारो, सतगुरु लीख उचारी ॥७॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५१ . १०६ - राग जंगला। कीना जी में कीना जग में, जैन वनज जसकारी जी ॥ टेक॥ धर्म द्वीप दुर्गम्य दिशावर, सतगुरु संग व्यापारी जी। कंवल ज्ञान खान से लेकर, माल भरे हैं भारी जी ॥१॥ कर्म काष्ट के शकटा कीन, द्विविध धरम विष भारी जी। भक्ति आर से हांक चलाये, आगम सड़क मंझारी जी ॥ २॥ सप्त तत्व अरु नव पदार्थ भरि, तीन गुप्त मणि भारी जी। भवि जहुरी विन कौन खरीदै, खेप अमोलक म्हारी जी ॥३॥ मिथ्या देश उलंघ जतन से, भव समुद्र से पारी जी। नयनानन्द'खेप गुरु जन संग, मुक्ति दीप में बारी जी ॥४॥ ११०-राग जंगले की ठुमरी । हथना पुर तीरथ परसन , मेरा मन उमगा जैसे सजल घटोटेक पृजत शांत प्रशांत भई मेरी, विषय अगन आताप लटो ॥ १॥ सुख अंकूर बढ़े उर अन्तर, अब सब दुख दुर्भिक्ष हटा ॥२॥ धन यह भूमि जहां तीर्थकर, धरि आतापन जोग डा॥३॥ नयनानन्द अनन्द भये अक, परसि तपोबन गङ्ग तदा ॥४॥ १११-नाग बरवे की ठुमरी। यह तपोबन वह बन हैरी, जहां लिया श्रीजी ने जोग ॥ टेक ॥ चक्रवर्ति भये तीन जिनेश्वर, जानत हैं सब लोग री॥१॥ तृणवत तजि बनफं गये प्रभु, त्याग सकल सुख भोगरी ॥२॥ गरभ जनम तप केवल ह्यांभयो, वानीखिरी थी अमोघ री.॥३॥ बहुत जीव तिरे इस वन से, कट गये कर्म कुरोग री॥४॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५२ ] शांति कुन्ध अरु मल्लि परलि के, मिटगये मेरे सब रोग ग॥५॥ नयनानन्द भयो बढ़भागन, हथनापुर संजोग री॥ ६H ११२-खयाल चौवंध गग जंगला। नृतो कर ले श्री जी का न्हवन जातरा जल की। तेरे सिरसे पाप की पोट जो हो जाय हलकी ॥ टंक अरे तेने मल मल धोई देह खिंडाये पानी। नहीं किया श्रीजी का न्हवन अरे अझानी ॥१॥ अरे तैने सपरश के बल भोगे भोग घनेर । नहीं मये तदपि संपूर्ण मनोरथ तेरे ॥ २॥ सर तैने ब्रह्मचर्य गजराज वेचि स्वर लीनो। ल जगत कला चल दुर्गति कहो कीनो ॥ ३ ॥ भरे अजहूँ चेत अचेत ख़बर नहीं कल की। तेरे सिरसे पाप की पोट जो होजाय हलकी ॥४॥ ११३-कलंगी छन्द । तेने रसना के बम पुद्गल सव वख लीने । तैने भून भुलस पटकायकू सङ्कट दीने ॥ १ ॥ तेने भाषी वीरण विकथा असत कहानी। दुर्वचन से वीधे मरम सताने प्राणी ॥ २॥ तेने चाखे नागर पान, जीभ छीली। तेरी नदपि रही यह जीभ थूक से गीली ॥ ३ ॥ अब करले मजन मेरे वीर, आश तजि कल की। तेरे सिर से पाप को पोट ज्यू होजोय हलकी ॥ ४ ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३] ११४ - कलंगी छंद। तूतो टांक मास की डली को नाक बतावै । अरु बांध लोकसं खड़ग कंबांक धरावै॥१॥ उसकी तो तीन है फाफ समझले मन में। . हो जैसा तीन का आंक देख दर्पण में ॥२॥ तैंतो इससे सूंघ लिये पुद्गल जग के सारे । नहीं गई सिणक रही भिणक समझले प्यारे ॥३॥ अब प्रभु की सेवा करो तजो पुद्गल की। तेरे सिरसे पाप की पोट जो होजाय हलकी ॥४॥ ११५ -कलंगी छंद। तेने आंखों में अअन बोर अनन्ती डारे। लिये तीन लोक के आँज पदारथ सारे ॥१॥ लिये निरख जन्म अरु मरण अनन्ती बारे। सब जानत हैं पर मानत क्यों नहीं प्यारे ॥२॥ तृ तो धोवत अपनी सौ घर आंख अज्ञानी। वहुतेरे रिताए कुप खिंडाये पानी ॥३॥ कर दर्श प्रभू जी का दृष्टि हदै तेरी छल की। तेरे सिरसे पाप की पोट जो होजाय हलकी ॥४॥ ११६-कलंगी छंद। तेने कानों से सुनलई जगत की अलत कसानी। नहि सका तदपि सुन छैल मैल का पानी ॥ १॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] तू तो सुन रहा निशदिन हरदम मौत बिरानो । तेरे लिर पर खेल रहा काल क्या यह नहीं जानी ॥२॥ अब करले प्रभु जी का न्हवन सुनले जिन बानी। तेरी होजाय निर्मल देह यह फेर न आनी ॥३॥ कहै नैनसुक्ख अब तज दे वात छल बल की। तेरे सिर ले पाप की पोट जो होजायाहलकी ॥ ४॥ ११७-लावनी जंगले की। सवण से श्री रघुबीर कह निज मन की। तू जनक सुता दे लाय चाह नहिं धन की ॥ टेक ।। अरे मेरा जो कोई करै बिगाड़ कटुक नहीं भाखें । मैं औगुण पर गुण करू वैर नहीं गर्ख ॥१॥ अरे मैं सतगुरु के मुख सुनी जैन की बानी। यह कलह जगत के बीच स्वपर दुख दानी ॥ २॥ अरे यह बिन कारण बहु जीव मरेंगे रण में। तू अनकसुता दे ल्याय जाऊं मैं वन में ॥३॥ अरे मुझे जगत सम्पदा लिया वित्त फीकी। तू लादे सीता सती कहत हूँ नीफी ॥४॥ अरे वह मो जीवत दुख सहै पड़ी बस तेरे । अब तोकू हतनो परो शोच मन मेरे ॥ ५॥ तव लड्रपती यूं कहै सुनो रघुगई। जो लिखी हमारे फर्म मिटै न मिटाई ॥ ६ ॥ अब पछताये क्या होय जीव लू तेरा। कहै नैनसुख्य रावण षं काल ने घेरा॥ ७ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ - गगनी जोगिया असावरी की चाल में। जिया तैने करी है कुमति संगयारी, मैं जानी वात तुम्हारी रे । टेक हमस तो तू टलता ही डोलै, उनसे प्रीति करारीरे । जी का झाड़ होयगी तेरा, जो तोहि लागत प्यारी-रे ॥ १॥ क्या तुम भूलगये उस दिनकू, पड़े थे निमोढ़ मंझारी । एक स्वास म जनम अठारा, पाते वेदन भारा र॥२॥ अजहूँ हम तुमकं समझावत, सुनरे पीव अनारी । तजि परसङ्ग कुमति सौतन की, नातर होगी ख्वारी रे ॥३॥ नयनानन्द चलो जब ह्यांसे, कीजो याद हमारी। जो न करू उपगार तुम्हारा, तो मोहि दीजो गारी रे ॥४॥ ११६ रागनी खास देश की ठुमरी । हम देखे जगत के साधु रे, कहीं साधु नज़र नहीं आते हैं । टेक कोई अङ्ग भभूति रमाते हैं, कोई केश नखून बढ़ाते हैं। कोई कन्द मूल फल खाते हैं, वे साध का नाम लजाते हैं ॥१ कोई नाहक कान फडाते हैं, फिर घर घर अलख जगाते हैं। कलि झुट जगत भरमाते हैं, गहि हाथ नरक लेजाते हैं ॥३ घर छोडि विपन चले जाते हैं, मठ छाप धुजा बनवाते हैं। वे पूजा भेट घराते हैं, सो बमन करी फिर खाते हैं ॥३ निम्रन्थ गुरू नहीं पाते हैं, जो मारग मोक्ष बताते हैं। नयनानन्द सीस नमाते हैं, हम उनके दाल कहाते हैं ॥४ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] १२० - ठुमरी देश और माह की । । प्रभु धन्य धन्य, जग मन्य मन्य, तुम हो प्रछन्न, हम लिये जन्य तुम सम न अन्य, जग जन हितकारी ॥टेक॥ सुनिये जिनेन्द्र, मैं हूं सुरसुरेन्द्र, ये हैं मस उपेन्द्र, ये हैं सुर गजेन्द्र, चलिये जिनेन्द्र, कीजे न्हवन त्यागे ॥१॥ हे जगत भान, किरपानिधान, मोहि लो पिछान, सौधर्म जान सुरपति ईशान, ये हैं मंग हमारी || २ || सन्मति कुमार, माहेन्द्र सार, अरु सुर अपार, चारों प्रकार, मैं तो ले कैलार, तोरी सेवा उर धारी ॥ ३ ॥ हे दीनबंधु, हे दयासिंधु, मैं महरचंद, तोहि बंदिबंदि, लूंगा उछंग - कीजै गज असवारी ॥ ४ ॥ नहीं करी देर, गये गरि सुमेर, पांडुक बनेर, पांडुक सिलेर, लाय जाय घे - ताकी पूजा विस्तारी ॥ ५ ॥ भरि क्षीर वारि, कलशा हज़ार, प्रभु सीस ढार, जिन गुण उचार, करि जै जैकार- अरु कोनी विघिसारी ॥६॥ कहि मिष्टवैन, हरिमात सैन, करि सुजस जैन, लगे गोददैन, भई मुख्य नैन-मानो फूली फुलवारी ॥ ७ ॥ ॥ १२१ - राग देश विहाग परज के जिले की ठुमरी । भजन से रख ध्यान प्राणी, भजन से रख ध्यान ॥ टेक ॥ भजन से इंद्रादि पद हों, चालन बैठ बिमान । भजन सैं होत हरि प्रति हरी वलि बलवान ॥ १ ॥ भजन से खट खंड नव निधि, होत भरत समान । तिरै भवसागर तुरत, है पाप को अवसान ॥ २ ॥ नवल शूकर सिंह मर्कट, करि भजन सर्द्धन । मये वृषभ सेनादिक जगत गुरु, भजन के परवान || ३ || Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७ ] भजन से भये पूज्य मुनिजन, गोतमादि महान ! भजन ही से तिरे भील जटायु, मोंडक स्वान ॥४॥ कहत नयनानंद जग में, भजन सम न निधान । भये भजन से अहंत सिद्ध, आचार्य गये निर्वान ॥५॥ ऋषभ जिन जन्म मंगल बधाई । १२२- रागनी भैरबी तथा खास धनाश्री । अवधिपुर आज कृतार्थ भयो, हे अवधिपुर आज. ॥ टेकं ॥ तजि सरवारथ सिद्धि परमारथ, दायक देव चयो । नाभि नृपति मरु देवी के मंदिर, श्रा अवतार लयो ॥१॥ , रंक भये धनवंत जगत मैं, कृपण कलेश वह्यो। ननि में नारक सुख पायो, मोपे न जाय कहो ॥२॥ जो आनंद त्रिकाल चतुर्गति, भाषी भूत भयो । सो आनंद नयन हम निरखो, आदि जिनेंद्र जयो ॥३॥ १२३-लावनी पीलू वरवा । चल मुरासुर सकल अवधिपुर, श्रीजिन जन्म न्हवन करनें ॥टेक।। हुकम सुधर्म सुरेंद्र चढ़ायो, अपने निकट कुवेर बुलायो। श्रीजिन जन्म घृतांत सुनायो, सकल संपदा सार, प्रभु पै वार लगी रौसी पग्नें ॥ १॥ चले कलप वासी सब देवा. चल भुवन पति करने सेवा । ज्योतिष अरु व्यतंर वसुभेवा, चौबीस अरु चालीस दोय बत्तीस इंद्र चाले शर ने ॥२॥ सेना सप्त सप्त विधि लाये, गज घोटक रथ पत्ति सजाये । वृष गंधर्व Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८ ] नृत्य को धाये, बन धन गगन मझार- हो जै जै कार सो महिमा को वरदैँ || ३ || नागदत्त ऐरावत सुन्दर, सो सजि ले प्रथम पुरंदर | गये अवधि नृप नाभि के मंदिर, माया निद्रा रची हैरे प्रभु शची- लगी जब कर धरनें ॥ ४ ॥ लोचन सहल सुरेंद्र चनाये, उमंग नयन सुख धाये हृदय लिपटाय — लगै संस्तुति करनें ॥ ५॥ - १२४ - ठुमरी पीलू नरवा । भयो पावन आज जनम हमरो, है जनम हमरो, तनमन इमगे ॥ दे० अब सुरेंद्र पद को फल पायो, आन कियो दर्शन तुमगे ॥ १ ॥ बिन तुम भक्ति वृथा था यह तन, जा मैं था अस्थि न चमरो ॥२॥ तुम सेवा ते सर्वे सुग्गण, नातर कोई न दे दमरो || ३ || अब मैं अमर यथार्थ कहायो, करसी क्या दुर्जन जमसे ॥ ४ ॥ लेय जिनेन्द्र सुरेद्र चढो गज, चलद्यो सुर्गगरि पै अमरो ॥ ५ ॥ पढ़ियो हग सुखजिनगुण मंगल, हरियो भव भव को भमरो ॥ ६ ॥ १२५ - रागनी गौंड की पुर्वी ठुमरी । जनमे जिनेंद्र, आये सुरेंद्र. लेगये गिरेंद्र, पांडुक बनेंद्र, थापे शिलेद्र पीठंद्र विछायो । जन्मे जितेंद्र० ॥ टेक ॥ 1 तजि तजि विमान, सुर अनि आनि दियो नभ समान् मंडप व्हां तान, छवि निरखि परख अमर न मन भायो ॥ १ ॥ जामें लगे लाल, मोतियन की माल, गावें देव बाल, जिन गुण विशाल, लखि असम काल सुरपति फरमायो ॥ ६ ॥ भो भो सुरेंद्र, भो भो उपेन्द्र, भो भो धर्मेंद्र, सेवा यह जिनेंद्र Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५९ ] जावो सूर्य-चंद्र क्षीरो दैधि जललायो-।। ३॥ रचि असंख्यात, पैड़ा, विख्यात, सब एक साथ, पुल्कंत, गात हाथों हाथ कलश लाये लीजै स्वामी न्हावो॥ ४॥ फरि भुज हज़ार, पढ़ि मंत्रसार, सब कलश ढार, दिये एक ही वार-पड़ी धारा धध धध भई अज्ञालो लगावो ॥ ५॥ या जिन प्रसंग, भई जैन रांग, प्रगटी अभंग, उछटी तरंग लई सुर न अंग-सोई गङ्गा नित ध्यावो ॥६॥ यह अति विचित्र, गङ्गा है मित्र सुनि चरित्र चित्त हो पवित्र, जित तित न भ्रम हग सुख नहिं पायो ।॥ ७॥ १२६ गगनी जंगला। . ले गये अवधिपुर प्रभुजी को सुर जय जय उन्नारै । लेगये अ०। अजि जै जै उच्चारै अघजार भरि अंजुलि अरघ उता । वजत तात तुम, तननननन; सब इंद्र चवर ढारें । लगये॥टेक॥ एजी धूधूफिट, धूधूकिट बजत मजीरा धुन झाझाड़ा, झाझाड़ा कदै, सारंगी सितार पुन छम छम छमक पखावज़, मृदंग बाजे, भेरी बीणा बांसरी, तबल ढोल गाजै, गावें लेले चकफेरी नाचे नभ में सुरी, छम छननन् नल, इतनी जितने तारे ॥१॥ कोई कहै नंदोबृद्धो, जीवो एजिनंद्रचंद्र, कोई कहै जीवो राजा, नाभि नगरी को इंद्र, कोई कहै भ्राता जग, त्राताका ए जीवो माता, जायो जिन मुकतो को, दाता सोवै साता पाय, सेजपै मगन, सन सन नननन इन हमकं निस्तारे ॥२॥ ऐसी विधि फरत उछाव गीत गावन तव, घेर लियो जगल ज़मीन असमान सव, जल थल वन घन घाट बाट कंजरोक, पूजै राम मंदिर बजाये शंख ठोक ठोक, लाये धाये झोकि के Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ] 7 गजेंद्र धंधन नननन नरचौक परेसारे ॥ ३ ॥ शचीने उतार जिन राज गोद माहिं लिये जाये खाने मांहि जाय माताकं प्रणाम किये, कैसे जिन माता कूं जगावै मीत गांवै गीत, कैसे इंद्र प्रभु के पिता से करै बात चीत, कहो नैनानंद विरतंत तुम तन नननन ज्यों सुनैं संत सारे ॥ ४ ॥ १२७ - चाल गंगावासी मेवाती । लिया ऋषभ देव अवतार, किया सुरपति नै निरत आकेलिया ऋषभ० । अजी निरत किया आके, हर्षा के प्रभूजी के नव भव को दरशाके, सरर सरर कर सारंगी तंबूरा, नाचै पोरी पोरी मटकाकै ॥ टेक ॥ अजी प्रथम प्रकाशी वानै, इंद्रजाल विद्या ऐसी, आज लो जगत में सुनी न काहू देखी तैसी, आयो वह छबीला चटकीला यों मुकट बांध-छम देसी दो मानं आकूदो पुनों का चांद, मनकूं हरत, गति भरत प्रभू को पूजे धरणी सो सिरन्या कै ॥ १ ॥ अजी भुजों पे चढ़ाये हैं हज़ारों देवी देव जिन - हाथों की हथेली पै जमाए हैं अखाड़े तिन ता धिन्ना ता धिन्ना - किट किट धित्ता उनको प्यारो लागे ''धुम फिट घुम किट वाजै तब्ला नाजै प्रभुजी के आगे सैनों में रिझावेतिछीं तिछ एड लगावै - उड़ जावै भजन गाकै ॥ २ ॥ अजी छिन मैं जा वंदे वह तो नंदीश्वर द्वीप आप पाचूं मेरु बंद आ मृदंग पै लगाव थाप - चंदै ढाई द्वीप तेरा द्वीप के सकल चैत्य- तीनों लोक मांहिं पूज आवै चित्र नित्य नित्य - आवै झपटि सम्ही पै दौड़ा लेने दम - करे छमछम - मन मोहे जी मुलका ॥३॥ अजी अमृत क लागे झड़, वरसी रतन धारा- सोरी सीरी चालै t Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौन-किए देव जै जै कारा, भर भर झोरी, बरसा फूल दंद ताल महकै सुगंध चहकै मुचंग, षडताल, अन्में जिनेंद्र, भयो नाभि के अनंद- नैनानंद यों सुरेंद्र गए भक्ति फं बतलाक ॥४॥ १२८-मल्हार । शुभ के बदरवा झुक आएरी-शुभक हे झुकिआएयुकि आएरीटे. सखी अब नीक दिन आए-देखो जगत पुन्य घन धाए-१ सखि भविजन भाग विजोए-अहमेंद्र चयो अघ धोए-२ उझली सर्वारथ सृष्टी-भई ऋषभ जनम की वृष्टी-३ सखि जमे हरष अंकूर-अब फले कलपतरु पूरे-४ धन फल दुर्भिक्ष हटायो-शिव फल को संबत आयो-५ अभिलाष अताप निवारी-चलै शीतल पवन पियारी-६ सखि बरसैं अमृत फुवारे-सुन जै जै कार उचारै-७ सुर पुष्प रतन बरसावे-गंधर्व प्रभु के जस गावं-८ चलो अवधिनगर सुखदाई-प्रभु तात को देन बधाई-९ आवो दर्शन प्रमु जी को करलो-नयनानंद सैं घर भरलो-१० (१२४) जुग जुग जीवा ऋषभ अवतार-तुम जुग जुग । तुम सकल जगत दुख हरण करन सुख, जुग जुग ॥ टेक। एक तो प्रभु तुम करी तपस्या, दूजे तीर्थकर अबतार । तीजे धर्म तीर्थ के कर्ता, मोक्ष पंथ दर्शावन हार ॥ १॥ चौथे स्वयं वुद्ध वृत धरिहो, करिहो भविजन को उद्धार । - तिरकै मोक्ष दरोगे साहिब, फेर न आवोगे संसार ॥२॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] चरम शगरी तुम हो माहिब, मैं चेग तुमरा नार । गखो नाथ चरण में अपने, तुम भगवत में भक्त तुम्हार ॥३॥ तारे बहुत भन्यजन तुमन, हमस अधम रहे मझधार । अब कै नाथ हमें निस्तारो, तुमग जन्म Fमारी बार ॥ ४ ॥ नाचें इन्द्र जिनेद्र निहारे. लेत वलय्यां भुजा पलार । लख २मुख एससुख न समाव, अविलाकै कर नयन हज़ार ॥ १३०-रागनी देशवा सोरठा । छाये पुन्य जगत जन शुभ की घड़ी, शुभकी घड़ी हे शुभ की घड़ी-छाये ॥ टेक ॥ जगो सुहाग भाग जग जनका-परजा सकल निहाल करी। जन्में तीर्थकर या भंपर-नर्कादिक में चैन परी ॥ ॥ चिरजीवो यह बालक जग में-जापै शिव त्रिय माँग भरी । जुग जुग जीवो तुम मात पित नित सूवस बसो यह अवधिपुरी ॥ २॥ घर घर पुष्प सुधारस बरसैं- लग रही पंचाश्चर्य झड़ी नयनानंद सुरेंद्र भगति लख-भवि जन सम्यक दृष्टि धरी ॥३॥ (१३) सुनरे अज्ञान, टुकटे के कान अपनी समान, लख सबकी जान. दशप्राण फिली प्राणी के ना संहारे । टेक ।। मत काट पीट. सपरस कं ढीठ, मतना घसीट, मतना उचींट, मत रस अनिष्ट, सींचे भींचे जारै मारै ॥ १॥ तु तो इष्ट मिष्ट खावे रस विशष्ट, योहि दिव्य दिष्ट लख हाल शिष्ट, होकै बलिए, रसना को न विदार ॥२॥ मत नाक तोड़, मत आंख फोड़, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] मत कान मोड़, ये पांच खोड़, दुख दे कठोड़ कोर्से जीव जन्तु नारे || ३ || मन टूट जाय, सुध छूट जाय, बोला न जाय, झोला न जाय, सब देत हाय, अरु भाषेंगे हत्यारे ॥ ४ ॥ ले हाय हंस, भयो नष्ट कंस, रावण का वंश, भयो सब विध्वंस, कौरव समस दुर्गति में पधारे ॥ ५ ॥ मत रुध स्वास, मूंद न उस्वाल, 룸 यही खास, जीवन की आस, मत करै-नास, ये वसीले है सारे ॥ ६ ॥ दिन दोकी जोत, है सिर पै मौत, जब लग उद्योत, ले जीन पोत, फिर रात होत, जीती बाजी मत हारे ॥ ७ ॥ सुन कर लमंत, चित कर प्रशांत, है यह ही तंत, जा बैठ अंत, ष्टिग सुख अगंत, मत अपने बिगारे ॥ ८ ॥ (१३२) भज राम नाम-मत चाँच चाम-दुनिया के नाम - आवै न काम धन धाम गाम- तेरे संग ना चलेंगे ॥ टेक ॥ रख छिमा भाव कोमल सुभाव छल मत चलाव- रख सत में चांव-लालच हटाव सब चरण में लगेंगे ॥ १ ॥ संजम कूं साध तपकूं अराध-तज अधि व्याधि-जग की उपाधि कर दोप याद - हर कर्म गलेंगे ॥ २ ॥ नित पाल शील- मत करै ढील-खड़ो सील झील पर काल भील-तेरी फौज फील कूं- कुशील ये दलँगे ॥ ३ ॥ यदि है अक़ील बनजा पिपील-मत कर दलील-मत वन रज़ील - तेरे सब चकील करील कूं टलेंगे ॥ ४ ॥ कहै नैनसुख - पलं मेट दुक्ख है यही मुख्य-मत रद्द विमुख्य तेरे छाड़ प्रमुख सब खाक में लेंगे ॥ ५ ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४ ] (१३३) कहें बार बार सत्तगुरु पुकार-सुनै दयाधार-पट मत को मार फरो दान चार-दोनों भौ में सुख पावो ॥ टेक ॥ यहां हो जश अपार म्हांहो जग उद्धार-टलै, पाप भार-फले पुन्यडार-कुछ ललोलार-खाली हाथों मत जावो ।। १॥ दीजो रोग जान-ओषधि को दान-जामै गुण महान-औगुण जरान-शुभ खान पानदेथकान को मिटावें ॥२॥ मूरख पिछान दीजो विद्यादानजामें पापहानि-संपति की खान-देके स्वर्थज्ञान-परमारथ सिस्नायो ॥३॥ भयवान जान-शक्ति प्रधान-धनजन मकान-पट भाजनानि-देकै दान मान समझायो भ्रम हटावो॥४॥ लगे भूख प्यास-अति होय बाल-नरपशु अताश-आवै संत पामकणमण गिगल-देकै शुद्ध जल प्यावो ॥ ५॥ इल भांति यारदीजो दान चार-औषधि सुधार-विद्याउदार सब भय निवारकै सहार करवायो-कहै दास नैन-आनंद-दैन-बोलो मिश वैनपावै सर्व चैन-सीखो जैन ऐन-जासं सूधे शिवजावो। . ( १३४ ) कब जगें भाग करूं जगत त्याग-होके वीतराग-सेऊ धर्म जाग-कब कर्म नाग-वन आग को वुझाओ ।। टेक ।। जाम भर्म कांस-कुकरम की तांस-पापों की फांल-व्यसनों की धांल-उत्पत्ति नास-से निकांस कव पांऊं ॥ ॥ जो मैं मोग भुड-विषयन के युड-चौबीस कुंड-पच्चीस रुड-कव अग्नि तुड-दुान को भगाऊ जाम धर्म फील-अधरम की ग्रोल-आकाश चील - पुद्गल के टील-भरे काल भील- क्या दलील ह्यांचलाऊं-3-वि कर Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलें गुरू दयाल- टूटै मोह जाल-मेरा होनिहाल-कह अपना हाल-मस्तक जा झुकाऊं ॥ ४ ॥ हर अशुभ बृत्ति-करशुभप्रवृत्तिशुभ अशुभ कृत्ति-तजहो निव्रत्ति-कब निज परमातम को एकी भावभाऊं ॥५॥ दृग सुखकुबुद्ध-कियो अती चिरुद्ध-दर्शन विशुद्ध बिन रहो अशुद्ध-कवशुद्धप्रवृत्तिकर-शिवपदणंऊ-६ १३५-जंगला ठुमरी ग़ज़ल जनम विरथा न गंवावोजी-पायो तरस तरस नरभव दुर्लभविर्थान-टेक-मतना मीत विषयतरु बोवै-मत सूली चढ़ निर्भय सोव-तज चारों पांचों सोतों-मत पाप कमावो जी ॥१॥ त्रिषट प्रोवषट जीव चितागे-झटपट षट अरु पाच बिचारो-द्वादशवाण चतुर शर धर तेरह मन ध्यावो जी॥२॥ यही मोक्ष का मूल बतायो-अरिहंतादि महंतन गायो-कर प्रतीत बरतो सम्यक्त-सच्चे कहलावो जी॥३॥ तज चौबीस अठाइस धारो-पाप पञ्चीस छत्तीस संभारो-ले छयालीस-खपाआठों-सीधे शिवजावो जी॥ ४॥ जो तो नाम नयन सुख पायो-तोत्तै निजपर क्यों न लग्वायो-तज परमार्थ निज अर्थ गहो मत नाम लजावो जी ॥ ५ ॥ १३६-रोगनी भैरवी-पूर्वी ठुमरी । देखो सुघड़ मधु बिंदु के कारण जग जीवन की मूढ़ दशा-टेक भूले पंथ फिरें भव कानन-जैसे कटक बिच व्याकुल शशाभटक चहुँगतिके पथ में नित-लागी अगनि जामें चारों दिशालटकै भवतह पकड़ कूप भ्रम-माखी परिजन खा तनसाकोटत स्याम स्वेत चूहे जड़-निश दिन आयुर्घसा घसा Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीचे नरक सरप मुख फाड़त-भक्षा गम लख हंसा हंसा-५ सिर पर काल वली गज गुंजत-कहत सुगुरू हाथ पसा पसा-६ काई तोहि विमान चढ़ाऊँ-पड़त वूद मुख लागी चला-७ भापत नाक चढ़ाय मूढ़ इम-कैले तजू मुख आयो गसा-८ हटी जड़ पाताल पधारे- नर्फ फंड में जाय धंला-९ धिन धिग भूल मूल नम खोयो-सारस में तज फेर फंसा-१० नैनानंद अंध जन दुख को-मानन सुख तन इलो डसा ११ १३७ - रागनी जंगला झंझोटी का जिला । समझ मेरे प्यारे जरा-अब तो समझ मेरे प्यारे जरा हे प्यारे जरो मतवारे जरा - टेकतुम त्रिभवन मैं फिर आए चौगसी में धक्के खाये - १ तेन स्वर्ग विमान सजाए-पशुगति में डल बहु नोए-२ चढ़ तख्त निशान बजाये-पड़े नर्फ शास छिदवाये-३ तूने सपरस सब करलीने-मरु पुद्गल सब चरलीने-४ तृनं दुग्धामृत बहुपोय-पड़ कुगति मूत पीजीयेतूने संघे तर हजारों-पड़ा नर्फ सहा हर बारों-६ ते तोगत व्यवस्था निरस्ती-अपनी गत फ्यं ना परखी-७ तु तो नो प्रीवक लो मारे-या नर्क अनंती वारे-८ किये ऊंच नीच सय काजा-भया पंडित मूरव राजा-९ रह्यो फोन काम तोहि बाकी-तुम आस करतही चाकी-१० तृने जो कुछ करी कमाई-भी भी अपनी कलाई-११ जाए नंग घडंग उघार-गये साली हाथ पसार-१२ पयं पाप करे पर कारण-कर सम्यक दर्शन धारण १३ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुँ काल अचल सुख पावो-तिहुँ लोक संत कहावो-१४ दृगसुख, सब पाप गलैया-नहिं काल अनन्त रुलैया-१५ , १३८-ठुमरी जंगला पूर्वी दादरा । ___कुछ ले चल भवोदधिपार-मंज़िल दूर पड़ी ॥ टेक ॥ थोड़ा सा दिन है अटक है भयानक-फर्मों के विकट पहाड़-१ दिन तो छिपैगा झुकैगी अंधेरी-दुख देगी लुटेरन की डार-२ लूटेंगे धन तेरा चूटेंगे तन-तुझे देंगे नरक में डार-३ आश्व रुकाद निराश्रव चुकादे-कोई रोके ना इस उस पार-४ मरजी पड़े तो चुकादे भली विध-जैसा सुजन व्यवहार-५ मंदिर बनादे प्रभावनाम देदै-साधू को देदे आहार-६ कंवली प्रणीत जिन शासन लिखायदे-बिद्याका करदे उद्धार-७ दुःखित को देदे खिलादे मुखित को-तीरथ पै करदे उपकार-८ तजदे कुबातों को सातों में देदे-सिर से पटक दे सारा भार-९ प्रन्थ कोविसारोपधारोशिवपंथको-नहिं त्यागीकोटोकैसरकार-१० भाषै हगानंद सदानंद पावो-आवो न जावो संसार-११ १३९-रागनी सारंग । वश कीजे-प्यारे वश कीजे-अरेहारे गुमानी मन वश कीजे । कै साधू उपधि तज सारी-जगत में जस लीजे ॥ टेक ॥ पाप करत गयो काल अनंता-अब होजा ब्रह्मचारी-कमर दृढ़ कसलोजे ॥१॥ उदय बिपाक सहा सव सुख दुख-जस अपजस सुनगारी-समाधी में धंल दीजे ॥२॥ समता सुधा सिंधु में Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६८ ] घुसकर-हरो कलुषता खारी-निजआत्म रस पीजे ॥ ३॥ नैनानंद बंध लब टूटें-क, व्याधि हत्यारी-मुक्ती में बस लीजे ॥४॥ १४०--राग बरचा पीलू खम्माचका दादारा वा कजरी रागनी पूर्वी । मेरी करो करुणा परूजी थारे पांव-मेरी ॥ टेक ॥ लीनी तोरी शरणाजी-तीनों मोरे हरणा-जनम जरा मरणा ॥१॥ मोसो नहीं दुखियाजो-तोसो नहीं सुखिया-मैं मंगता तुम राव ॥२॥ काढ़ो कारागृह सैं जी-उभारो भवदहसैं-फर्म महा गढढाव ॥ ३॥ दीजो नैना सुख तुम-कीजो सारै दुख गुम-रखियोमत उरझाव ॥४॥ १४१ बरवा जंगला। हे किसं बन ढूंढं आली-तज गये गुरु म्हारे संसार ॥ टेक ॥ होय बिरागी ममता त्यांगी-त्योगो मिथ्याचार-जन धन त्याग भये ब्रह्मचारी तृष्णा दई है बिसार ॥ १॥ साज दयारथ ले सतसारथ-सर्वपदारथडार-करपुरुषारथ-जय मदनारथ-पटक भएभवपार ॥२॥ भज भवभारथ-हरिभर्मारथ-धर्मारथ लियोलार-गयेकर्मारथ-विजय हितारथ-परमारथ पथसार ॥ ३॥ किस पर्वत किस फंदर अंदर किस समशान मंझार-ढं किस चौपट किस को टर-कौन नदी किलपार ॥४॥ के पक्षासन-कैखगाम्ननकैपर्य क पसार-जाने कहां तिष्टें किस ओसन जिन शासन अनुसार ॥ ५ ॥ मुनि अर्जिका श्रावक ऐय्यल-दुर्लभ इस संसार जो कहूँ दृष्टि पड़े तो बतादे-मानंगी उपगार ॥ ६ ॥ त्रिविध भेष Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९ ] गुण दोष नयन सुख - त्रिविध त्रिकाल निहार - करियो नवधा भक्ति भवि - कजन दीजे शुद्ध अहार ॥ ७ ॥ १४२ जंगला फोटी । करले कुछ अपना उपगार- मूढ तू तो बहुत रुला जग जाल मै- अज्ञानी अब ॥ टेक ॥ एक तो तजदे तू तीन मूढता-दूजे अष्ट महामदछार - तीजै शंकादिकमल आठों खोकर तू मन को धोडार ॥ १ ॥ चौथे तज दे तू षट अनायतन-दर्शन मोहनी तीन बिडार· चतु चारित्र मोहनि का मदहर अवसर आवै हाथनयार ॥२॥ वसो अनादिनिगोद विषैशठ-काल लग्धि कर भयो निकार - नर नारक पशु स्वर्ग विषै किये पंचपरावर्तन बहुवारं ॥ ३ ॥ चौदह लाख मनुष गति भरम्यो-पड्योढ्यो मल मूत्र मंझार बोल सकै अनहाल सकैनन ऊंधे मुख लटको हरवार ॥ ४ ॥ चारलाख परजाय नरक की भुगती मित्रकरम अनुसार कुट कुटपिट पिट छिद छिद भिद भिद-कियो सागरी हा हा कार ॥ ५ ॥ भरमे बासठलाख पशुषु गति नाना विधि किये मरण अपार । खिंच खिंच भिच सिंच कुचल कुचल मर-स्वांस स्वांस मैं ठारहवार ॥६॥ चारलाख सुर योनि विडंन्यो- जहां सागरां सुख भंडार - झुर झुर मर मर रुल्यो जगत में भोगे सुख ठाए विपति पहाड़ ॥ ७ ॥ कहत नैनसुख सुन मेरे मनबा-अत्र तो तज निज दोष गंवारआगम आप्त गुरू तत्वारथ-परखहोय जासे बेड़ापार ॥ ८ ॥ 1 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.] १४३-ठुमरी । मैं पूजे पंच कुमार-मिटी भव बंध अटक मेरी ॥ टेक। जब वासु पूज्य भगवान मल्लि मैं करी याद तेरीभए नेमिपाव महावीर प्रगट गई हट मोह वेड़ी ॥१॥ आयो तुम दार करी प्रक्षाल तीन बेरी. भई जन्म जरामरणादि भवांतप शीतल जिनमेरी ॥२॥ चर्चत चंदन शांति भए प्रभु पंच पाप बैगभई अक्षय ऋद्धि समृद्धि करी जव अक्षत की ढेरी ॥३॥ पुष्प हरें कंदर्प क्षुधा-नैवेद्य ठाय गेरीदीपक चढ़ाय चरणारविंद में आंख खुली मेरी ॥४॥ अष्ट कर्म को बंश भयो विध्वंस धूप खेरीफलतें अजरामर आश भई-शिव संपत अवनड़ी॥५॥ अर्घ अनर्घ आरती आरति मेटी सब मेरीकहै नैन चैन मांगै मंगत भव भव सेवा तेरी॥६॥ १४४-चाल तुलसा महारानी नमो नमो तुमही प्रभु सिद्ध महेश्वर हो-हे महेश्वर हो परमेश्वर हो ॥टेक॥ निरावरण चिद्ब्रह्म स्वरूपी-तुम जित कर्म. बलेश्वर हो॥१॥ तुम शंकर कल्यान के कर्ता-सुख भर्ता भूतेश्वर हो ॥ २॥ हर्ता हो सब कर्म कुलाचल-मृत्यु जय अमरेश्वर हो ॥ ३॥ निधन भव बंधन भेत्ता-नेत्ता-मुक्ति पर्थश्वर हो॥४॥ ध्यावै सुर नर मुनिगण तुमको-तात आप गणेश्वर हो॥५॥ पुजत पाप अतोप मिटै सब-शांतिप्प्रद चंद्रश्वर हो ॥ ६॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६] इन्द्रादिक पद पंकज सेवे-तातें पूज्य पृजेश्वर हो ॥७॥ मेटो जन्म जरादि त्रिपुर दुख-तुम सच्चे मुक्त श्वर हो ॥८॥ गृन्ह गृन्ह पर ब्रह्म आरती-तुम दृग सुख प्रदेश्वर हो ॥ ९॥ १४५-देश की ठुमरी । - जिनके हृदय सम्यक्त ना, करनी करैतो क्यो करो ॥ टेक ॥ षट खंड को स्वामी भयो, ब्रह्मांड में नामी भयो। दिये दान चार प्रकार अरु, दिक्षा धरी तो क्या धरी॥१॥ तिल तुष परिग्रह तजि दिये, अति उग्र तप जप व्रत किये। पाली दवा षट काय की, भिक्षा करी तो क्या करी ॥२॥ कल्पों किया उपदेश को, छुटवा दिये दुर्भेष को। पहुँचा दिये चहु मुक्ति में, रक्षा करी तो क्या करी ॥३॥ आतम रहा वहिरात्मा, जाना अनातम ओत्मा । परमात्म आतम नहिं लखा, शिक्षा करी तो क्या करी ॥४॥ गुरुमणिक रंड विषै कहैं, हग सुख बिना शिव पद चहैं। विन मूल तरु अनफूल फल, इच्छा करी तो क्या करी ॥५॥ १४६-गगनी धनाश्री। सकल जग जीव शिक्षा करयो॥ टेक ॥ कृतकारित अपराध हमारे-सो सब पर हरियो । तजकर बैर प्रीति की परिणति-समता उर धरयो ॥ १॥ या भव जाल सदा फंस हम तुम-बहुते दुख भरिया-हाथ जोड़ अब दोष छिमाऊं आगै मत लड़यो ॥२॥ कोनो हम संबर तुम संबर, सै-कबहुँ न टरियो- नयनानंद पंथ संतन के चल भव जल तस्यो ॥ ३ ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७२ ] , १४७-खम्माच रागनी झंझोटी । हमारी प्रमु नच्या उतार दीजै पार | टेक अटक रही भव दधि के भवर में, ऊरघ मध्य अधो मझधार ॥१॥ औघट घाट पड़ो टकरावै, चकित हरट घड़ी उनहार IIRAM अति व्याकुल आफुल चित साहिब, नाहो इधर न हो उस पार ॥३॥ दल में रुद्ध शशाकी गति-ज्यों, जित तित होत मार ही मार ॥४॥ अब चनीय मम दशा जिमेश्वर, काई न शरण सहाय अवार ॥५॥ व्याकुल वैन चैन नहिं निश दिन, केवल तुमरो नाम अधार ॥६॥ १४८-भैरवी । जिस दिन सैं मैंने दरस तोरे पाये, अनुभव घन वरसाए, दग्श तोरे । टेक। भेद विज्ञान जगो घट अन्तर, सुख अंकुर रस रसाए ॥२॥ शीतल चित्त भयो जिमि चन्दन, शिव मारग में धोए ॥R प्रघटो सत्य स्वरूप परापर, मिथ्या भाव नशाए ॥३॥ नयनानन्द भयो अब मन थिर, जग में संत कहाए ॥४॥ १४६–रागनी जंगला-गंगाबासी देहाती। तुम्हें त्रिभुवन के जन ध्या३, थारे सुन सुन गुण भगवान । टेक। अजी अर्ह धातुसे भये हो अर्हन्, बोधलन्धि से भयहो भगवन । धरो अनन्त दश सुख वीरज, किल मुख जस गावैं ॥१॥ अजी आप तिरो ओरन को तारों, शुभ शिक्षाकर भरम निवारो। तारण तरण निरख सुर नर मुनि, चरण शरण आई ॥२॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७३ ] अजी षटकी खटपट तज भविजन, सारभूत जिन चितमें धरमन धर्म अर्थ अरु काम मोक्ष, पुरुषारथ फल पाईं ॥३॥ अजी शंकरसिंह नवल कपि तारे, भील भुजङ्ग मतंग उवारे । दृग सुख के हग दोष हरो, थारे सेवक कहलाधैं ॥४॥ [ १५० ] मैं तज दिये सर्व कुदेव अठारह दोष धरण हारे, अजी दोष धरन हारे सब टोरे, निर्दोषी इक तुम ही निहारे, बीत राग सर्वज्ञ तरण तारण का विरद थारै ॥ टेक ॥ भूख प्यास तुमर्फ़ नहीं दाता, राग द्वेष अरु नाही असाता। जन्म मरण भय जरा न व्यापै, मद सघ निर्वारे ॥१॥ मोह खेद प्रस्वेद न आवै, विस्मय नींद न चिन्ता पावै। भजगई रति अरु अरति कहै, सुर नर मुनि जन सारे ॥ २॥ भूखा देव लिपटता डोले, प्यासा नित सिर चढ़ चढ़ बोले। रागी छोन पराया धन दे, द्वेषी दे मारै॥३॥ कि रोगी रोग सहित दुख पावै, जन्म धरै सो मर मर जावै । । डर कर बाँधै शस्त्र बुढ़ोपा, सुध बुध हर डारे ॥ ४ ॥ मद वाला नित मदिरा पीवै, मोह मूर्छित मरा न जीवै। स्वेद खेद बिस्मय कर व्याकुल, फिसको निस्तारै ॥ ५ ॥ सोवै सो परमादी होवै, डूबै अरु सेवग कु डबावै।। खोवै आतम गुण सुतुम्हारे, गुण कैसे निर्धारै ॥ ६ ॥ चिन्तातुर को चिन्ता सोखे, रति बेहोश अरति से होकै । भूत भवानी ऊत मसानी, तजदो सब प्यारे ॥ ७॥ ब्रह्मा विष्णु महेश हैं वोही, जिसने करभ कालिमा धोई। हगानन्द वोही देव हमारा, सेवो सब जन प्यारे ॥ ८ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७४ ] १५१ - रागधानी । राखो रुचि वीरा मत रूसो धरम से, राखो रुचि बीग, हे रूसो ना धरम सै जिनमत के मरम सैं, राखा ॥ टेक ॥ धर्म प्रभाव तिरोगे भवसागर, पिण्ड छूटेगा तेरा श्राठोंही करमसँ । साचेदेव धरम ही को सेवा, याहीसें तिरोगे न तिरोगे जी भरमसँ : सान नयनसुख लयानी, भाषै हैं सुगुरु तेरे जिया वेशरम सें ॥३॥ १५२ - रागनी भैरवी या खम्माच । जबसें वरन की शरण मैं लई प्रभु, जागी सुमति मोरी भागी कुमति, प्रभु० ॥ टेक ॥ छूटी अदर्शन अविद्या अनादि, जब से समाधी धरन मैं लई । १ अनुभव भयो नेरे मन में तुमारो, जबसे तेरी जप करन में लई । २ साताभई भगाई सब असाता, जो पूर्व जम्मन मरन मैं लई | ३ भजी सर्व चिंता भया सुख अनंता, हगानंद संपति भरनमें लई । ४ १५३ - चाल । १ ॥ २ ॥ मैं तो शान्ति पाई तृष्णा घटाने से ॥ टेक ॥ रागी में पूजे विरागा मैं पूजे, भ्रष्ट भयो बहकाने से ॥ धार कुभेप अनेक भरे दुख, दूर भगो जिन बाने से ॥ मिटी कुदृष्टि सुदृष्टि भई अब, श्री जिन के समझाने ले ॥ वंध मोक्ष का मारग सूझा, स्वपर स्वरूप पिछाने से ॥ ४ ॥ जाने पुण्य पाप दोउ बन्धन, शुद्ध भावना भान से ॥ ५ ॥ नैनानन्द मिटे सब सुख दुख, सम्यक दर्शन पाने से ॥ ६ ॥ ३ ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७५ ] १५४ -- रागनी बरवा या धनासरी या पीलू । क्या नर देह धरी, हे बतादे प्यारे क्यों नर देह धरी ॥ टेक ॥ तोले जोर गले पर मोलो, बोले बात जरी, खोसै धन अरु नार बिरानी पाप की पोट भरी, हे बतादे प्यारे क्यों नर देह धरी॥१॥ तृष्णा वश न कियो सठ संबर, दुर्गति वांध धरी। तिर कर सिन्धु किनारे डूबी, यह क्या कुबुद्धि करी ॥ २ ॥ यह तो देह तपस्या कारण, काहू पुण्य धरो। तै तप त्याग लाग विषियन में. राखी याहि सड़ी ॥३॥ बार अनन्त अनन्त जगत में, ते लब देह चरी। क्या न कियो न कियो सो करले, परजा जात मरी॥ ४ ॥ बहु आरम्भ परिग्रह में फँस, किसकी नाव तरी। दृग सुख नाम काम अन्धन के, रेसठ खाक परी ॥ ५॥ १५५-खम्माच पीलू का दादरा । विकलपता सारी टरगई, बिकलपता सारी, हे जिनजी तुमरे ध्यान सैं ॥ टेक ॥ तुमरे सुगुण सुन सोधे मैंने निजगुण करम भरम रज झारगई ॥१॥ सिद्ध भये मेरे सकल मनोरथ, शुभ गति पायन परगई ॥ २ ॥ पूजत तुम पद डूबत भवदधि, टूटी नवका तिरगई ॥ ३ ॥ चहुँ गति सैं तिरआन भयोनर, उमर भजन में गिरगई ॥ ४ ॥ तिरत तिरत प्रभु थारे चरनन में, नीच हमारी अब अड़गई ॥५॥ जो न करोगे प्रभु पार हमारी नय्या, तौ अब आगे तरलई ॥६॥ नैन चैन प्रभु लोग कहेंगे, ऐसे बाड़ खेत कू चरगई ॥ ७ ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६] १५६- राग भैरूनर ठुमरी। थारे दर्शन से लौ लगी लगी, थारे अजी लगी लगी लो लगी लगी, पर परसन सू लौ लगी लगी, थारे ॥ टेक ॥ परमारथ की प्राप्ति भई अब, तत्वारथ रुचि पगो एगी ॥१॥ सुन सुन जिन धुन मर्म भग्यो सब, ज्ञान कला उर जगी अगो२ आई सुमति सुगति की दायर्यान, कुमति कुभागन भगी भगी ॥३॥ नयनानन्द भयो मन मेरे, कर्म प्रकृति सब दगी दगी ॥४॥ १५७-संध्या भारती-चाल जै शिव ओंकारा। जै श्री जिन देवा-जै जै जिन देवा-पार लगादो खेवा-फरू चरण सेवा ॥ टेक ॥ वंदं श्री अरहंत परमगुरु, दया धरम धारीप्रभु दया धरमधारी-परमातम पुरुषोत्तम जग जन हितकारी ॥२॥ प्रभु भव जल पतित डधोरण, चरण शरण थारी-प्रभु चरणसद्वक्ता निर्लोभी, करम भरमहारी॥॥ स्वामी तुम पद सेवत गज पनि, भयो समता धारी-प्रभु भयो तीर्थकर पद पारसपा, भयो भवपारी ॥३॥ आयो पिहिता श्रव मुनि मारन मृग पति बलधारी-प्रभु मृग पति-भयो बीरतीर्थ कर सुन शिक्षाथारी ॥ स्वामी दोष फुशील धरो सीता प्रति दुर्जन अविचारी प्रभु दुर्जन-कूद पड़ी अग्नी में लेकै शरण थारो॥ ५॥ खिल गए कबल अगनी में प्रभु तुम मेटे भय भारी-प्रभु-अच्युतंद्रपद दोनो फिग्न होय नारी ॥६॥ बलि ने यज्ञ रचाय दुखी किये मुनि वर ब्रह्मचारी-विश्नुकुमार मुनीश्वर किये तुम उपगारी ||७|| पुष्पहार भए सर्प जिन्होंने तुम सेवा धारी-प्रभु-विदित कथा सतियन की गाः नरनारी ।। ८ । स्वामी वज्र किरण नृप मूरति Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७७ ] तुमरी कर मुद्राधारी-जीत्यो सिंहोदरसैं राम गरद झारी ॥९॥ स्वामी तिरगये नृप श्रीपाल भुजन तैं महा सिंधुखारी-कुष्ट व्याधिगई छिन मैं तुमही निर्वारी ॥ १०॥ महामंडलेश्वर पददे तुम कियो अगत पारी-वादिराय मुनिवर की हरीज्याधि सारी ॥१॥ मानतुंग मुनिवर के तोड़े राज बंध भारी-चढ़े सुदर्शन शूलीवरी मुफतिनारी ॥१२॥ इत्यादिक भगवंत अनंती महिमा तुमधारीतीनलोक त्रिभुवन में विदित कथा थारी ॥१३॥ शेष सुरेश नरेश मुनीश्वर जाधै बलिहारी-पावै अखै अचलपद टरै विपतसारी ॥१४॥ कहत नैन सुख आरति तुमरी करत हरन हारी-तारे जीव अनंते अबकै बार हमारी ।।१५।। दूर करो सब १५८-आरती। जय जय जिनवानी नमो नमो-त्रिभवन जनमानी नमो नमो गण धरने बखानी नमो नमो जय जय ॥ टेक ।। वीत राग हिम गिरतें उछरी-गणधर गुरुवों के घर में पसरी-मोह महा चल दमो दमो जय ॥१॥ जग जड़ता तप दूर करो सव-समतारस भरपूर करो अब-ज्ञान विषैलेरमोरमो ॥ २ ॥ सप्ततत्व षट दरव पदारथखो दिये तो विन मैं ये अकारथ, अब मेरे उर जमो जमो ॥३॥ जब लग शिव फल होय न प्रापत, चहुँ गति भ्रमण न होय समापत तवलों यह कृषि थमो थमो ॥४॥ शंकर सिंह नवल कपितारे, चील भील अरु फील उभारे, त्यों मेरे अघ क्षमो क्षमो ॥५॥ जै जग ज्योति सरस्वती प्यारी, हग सुख आरति परै तुम्हारी, अरतिहगे सुख समो समो॥६॥ खोहिन विषेलेरमो Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ १५६- रागनी झंझौटी। लारे जीवों की मय्या दया पालोरे, हेदया पालारे अदया टालोरे-तारे || टेक ॥ भय्या काया न खंडो न जिह्वा विदारानासा मैं रस्से मती डालोरे ।। १ ॥ भय्या अखि न फोड़ो न त्योरी चढ़ावो, कैड़े वचन के न घाव घालारे ।। २ ।। भय्या भोजन खिलादो पिलादो जी पानी-रोगी को औषध दे बैठालारे ॥३॥ ज्ञानी वनादो अज्ञानी को बीरन, करकै अभय सब के भय टालोरे ॥ ४ ॥ भय्या पालांगे अक्षा तो होमे नयन मुख सुनलो जिनेश्वर के मतवालोरे ॥५॥ अब तो चेतो पियग्वा चेतन चतुरप्यार मेटो अनादी ये भूल ॥ टेक ॥ हाथों सुमरनी कतरना बगल मैं, ये तो कुमतिया ऐसी बनाई जैसी होवे रजाई मैं शूल, पियारे ध्यारे जैसी होवै रजाई में शूल, अब तो-चेतो पियरवा चेतन ॥ १॥ धान दया पर पीड़ा विसारो, चोलो वचन लतवादी, रहोजी डारो चोरी के माथे में धूल ॥ २॥ मतना करो एरनारी की वांछा लघुदीरय सारी ऐसी गिनो जी जैसी माता वहन समतूल ॥ ३ ॥ त्यागी परिग्रह की तृश्ना नयन सुख, भाप सुमति मतराखै कुमति भाई बोवो न काटे चबूल ! जनम मतखोवे-जनम मत खावै अरे मतवारे ॥ टेक ॥ मत खवि तु धरम रतन को, मत भवसिंधु डवाव-१ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७९] कंचन भाजन धूर भरै मतरे, गज सज खात न ढाव-२ मत चढ़ चक्र बरत हो खरपै अमृत से ना पग धोच-३ मत चाटे असि सहत लपेटी, मत शूली चढ़ सोवै-४ मत मधुविंदु विषय के किारण, मग में काटे बोवै-५ श्री अरहंत पंथ में परले ज्यों नयनानंद होवै-६ ले लेरे सरन सले श्री भगवान ॥ टेक ॥ खेलरेने खेल घनेरे- पेलेरे पलान, सेले बांधे भेले कीये, पाप के सामान ॥ १ ॥ छोली रे तै छाती ले ले जीवन के प्राण, खोसेरेब्र परधन मोसे कंठ बेईमान ॥ २॥ देलेरे अनारी अपने हाथों से तू दान, जावोगे अकेले कागाखावेंगे मसान ॥३॥ एलेरे तू ग सुखदाई शिक्षा बुद्धिवान धेले को न लंगा कोई, काया ये निदान |॥ ४॥। १६३ राग जंगला झंझौटी । अरे मन मान मेरी फही, तज पाप चेत सही, संसार में तेरो कौन है क्यों मूढ़ पक्ष गही ॥टेक ॥ है परमब्रह्म तुही सर्वज्ञ ज्ञान मई, सम्यक्त बिन भया भ्रष्ट, तू चिरकाल विपति सही ॥१॥ ..स्वर्गादि विभव मई, तृश्शा तऊन गई, तो ओस सम नर भागते यह रोग जाय नहीं ॥ २॥ किन सीख तोहि दई, कर बमन फेर चही-मत खाय चतुप सुजान यह बहुबार भोगलाई ॥३॥ है समझमीत यही, तज भोग राख रही, कहै नैनसुख रहु विमुख इनरी, सीख सुगुरु की कही ॥४॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [८० ] १६४-राग समंदर खम्माच की धुन । तेरी नवका लगी है सुघाट किनारे, लागी मतना डबोवो जी ॥ टेक ॥ हर कर्म भर्म घर परम धरम मिथ्यातकरम से हाथ उठा, चिरकाल जगत में दुःख भरे जिस भांति बने ले पिंड छुटा, भा भाव अनित्य अशर्ण लदा संसार हरट सा चलता है एकत्व दशा समझो अपनी वह तत्व क्यों नहिं टलता है तुम अशुचि अंग के संग शुद्धता अपनी ना खोवोजी ॥ १॥ दे श्राश्रव वाट मैं संबर डाट प्रकाश महा वलर्म त्रिपा, ये पुरुषा कार है कारागार तू कैद पड़ा है वाद सफा, है दुर्लभवोध ले सोध जरा जिन धर्म की प्रापति दुर्लभ है, ले तत्व अतत्व विचार हृदै इस वक्त तुझै सव सुर्लभ है, तपाई नर पर जाय अगामी मत कांटे वोवो जी ॥२॥ ये मोग भुजंग भयानक है क्रोधादि अगन ह्यां जलती हैं, तुम जलते हो न सिंभलते हो ऐ यार बड़ी यह गलती है, जो इनको त्याग वसैं वन मैं वे मुक्ति वरांगन वरते हैं निर्वाण अचल सुख पाते हैं, वे जन्म मरण, दुखहरते हैं, तू धरले सम्यक दृष्टि नैन सुख जिन हित जोबोजी ॥३॥ इति शुभम् Page #319 --------------------------------------------------------------------------  Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचना हमारे यहां सर्व प्रकार के जैन ग्रंथ व जैन पुस्तकें हर समय तैयार मिलती हैं व हस्त लिखित पुस्तकें भी लिखी जाती हैं द तैयार रहती है। बहुत सी पुस्तकें हमने प्रकाशित करी हैं। सती अंजना नाटक (बहुत उपयोगी नया तैयार हुआ है) ) नैन सुख (यति) का विलास १६४ भजनों का संग्रह . । पखवाड़ा व अठाईगसा व भजन आदि १५ तिथियों का वर्णन -Jl मैं क्या चाहता हूँ (नया बहुत ही उपयोगी है) - अकलंक नाटक (बहुत ही उत्तम नाटक है धर्म के ऊपर प्राण दिये हैं) श्री हल्लनागपुर व नित्य भाषा पूजा संग्रह श्री जैन आल्हा रामायण (छए रहा है) मिलने का पता:पं० अतरसैन जैन मैत्तिल, श्री दि० जैन पुस्तकालय मोहल्ला अधुपुग मुजफ्फरनगर स्वतन्त्र मुद्रणालय, मुजफ्फरनगर । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितैषी गायन रत्नाकर प्रशाक_' ' तथा पुस्तक मिलने का पता- . मेनेजर भारत हितैषी पुस्तकालय — पो सीकर (जैपुर) H- . 7 - . . मूल्य ॥ , 5. गयादत्त प्रेस, बड़ा दरीघा देहली में छपी। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a amreamROGRemporamonarcosrirmaar-resumere * प्रकाशक के दो शब्द * ~~GAe. - प्रिय पाठक महाशयो ! मेरी बहुत समय से इच्छाथी कि एक पुस्तक गायन विषय की ऐसी प्रकाशित हो जावे जिस्में नवीन व पराचीन कवियों के स्तुति रूप व उपदेशी भजन, वीनती, ड्रामे, भारती, आदि हों जिसे पास रखने से प्रत्येक विषय का गाना पढ़ने को मिल सके । परन्तु अनेक कारणों से इच्छा पूर्ण न हो सकी। -अब अनेक प्रयत्न कर यह अपूर्व रत्न तैयार कराया है। प्रार्थना है धर्म का कार्य आवश्यक व उत्कृष्ट समझ एवं देशोन्नति की सदिच्छा से भारतवर्ष के प्रत्येक व्यक्ति के यह पुस्तक हस्तगत करने का प्रयत्न करें। तथा जिन जिन कवियों के भजन व गायन संग्रह किये हैं उनको शुद्धान्तः करण से कोटिश धन्यवाद समर्पण करता हूं। विनीत, AAWAAAAAA प्रकाशका Nar Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूची अकारादि कम से नम्बर सूधी भजन (अ) नंबर भजन १ श्रन्तिदेव तुमसे यह मेरी प्राथना है , श्रवारमारे स्वामी, भवदधि ले कर मुझको पार १५ ३ श्रपुरष है तेरो महिमा कही हमसे नहीं जाती ३५ ४ अपला तन लखि अल्पधीरजी मोहीमान फंसते ४३ ५ अजब तमाशा देखा हमने (श्रा) ६ आज जिनराज दर्शन से भयो आनदभारी है १८ ७ श्राई इन्द्रनार कर कर श्रगार ठाडो समुद्रद्वार७ २२ आयो खेले जुना श्राओ खेले जाक है इतनाती करदे स्वामी जय प्राहा तनसेट १० इस फूट ते विगाडी ११ उठाके आंख अब देखो जमाना कैसा छाया है ७ १२ किया प्रशानतिमि १३ क्या हुक्का पना ये साला-- १४ फाल अचानक लेयजाय० १५ फरो मिल वदे वीरमगान १६ शालो है जिन डगरिया तुम्हारी जी १७ चाहे तारो या न तारो चरणो में श्री पड़ा है १. चलो भगियां पियेलो भंगियां पियें १६ चलो चोरी करें चली चोरी करें। २॥ जगत में सांची निन हानी Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (?) २१ जाऊं जाऊ जी श्रादीश्वर० ૐ ५२ जाऊ जाऊ जी बामा सुत० २३ जय जिनवरदेवा जयजि० २४ जरा सट्टा लगा जरा सट्टी लगा २५ जो चाहते हो खुशी से जीना २६ जरा रडी नचा जग रडी ना० २७ जरा तो सोच श्रय गाफिल० २८ जैन मत जब से घटा मूरख० (ङ) टिक टिक करती ( त ) ३० तुम सुनो दीनों के नाथ अरज० ३१ तन मन सारे जो सांवरिया० ३२ तुम्हारा चन्द मुख निरखै० ३३- तुम्हारे दर्श विम स्वामी शु० (*) २४ देखकर हालते वतन की श्रव रहा० ३५ दुनियां में देखो सैंकडों० (थ) ३६ धर्म के है दश लक्षन यार ३७ धन्य तुम महावीर भग० (न) ३८ नाथ सुध लीजो जी ३६ नहीं कुछ इम किसी के हैं ४० नेम प्रभू की श्याम वरन० ४१ नरेद्र फनेद्रं सुरेन्द्र २६ ३० ३६ ५१ ५६ ६० ७३ e 38 २ १० ३३ २१ ほ ૪૬ १ ६४ ७० २० २३ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्रभु लीजो खबरिया हमारी ४३ प्रभु तार तार भवसिंधु पार ४४ प्रभु हरो मेरा प्रमाद० ४५ प्रभ मैं शरण हूं तेरी विप० ४६ पारस पुकार मेरी सनि० ४७ प्यारे जरा विचारो० ४८ पुलकत नयन चकोर० ४६ प्रभु पतित पावन में (फ) ५० फरसत नहीं म्हाने ले हम ५१ फिरे अरसे से हाता ख्बार (भ) ५२ भगवन समय हो ऐसा ५३ भज अरहन्त भजअरहन्तं ५४ भराम भरजाम भर० (म) ५५ मिलें कब ऐसे गुरु ज्ञा० ५६ मेरी नाव भव दधि में परी ५७ मुझे प्राधार है तेरा० ५- मंगल नायक भक्ति सहा० ५६ मुसाफिर क्यों पडा सोता० ६० मतमा मारो यार पशु जुबां ६१ मयकशी में देखलो यारो० ६२ सत वेश्या से प्रीति लगाओ. ६३ मैं तो शादी करूं मैं तो शादी ६४ मेरे भाई का व्याह मेरे भाई Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ मनुज नाग सुरेन्द्र जाके ६६ यारो मुझे सिगरट या वीडी ६७ रुमम ममझम बरर्षे वद० ६. राम नाम रस के एवज में है। ६६ रंडी बाजी में गरक जमाना ७० लीजो लीजो खबरिया हमारी ७. लीजिये सुध अय प्रभू श्रव० (स) ७२ शान्त प्रभू शान्त ताका स्वाद ७३ सन्मति भवसागर के मांहि ७४ श्रीजिनदेवा जय श्रीजिनदेवा. ७५ सांझ समय जिन वंदो० ७६ सब स्वारथ का संसार है त किस ७ सुनियो भारत के सरदार ७. समझ म्न स्वारथ का संसार ७६ सकल भाषाओं में है उत्तम । सकल शेयज्ञायक तदपि (ह) ो हो दोन बंधु श्रीपनी करु० ८२ हे प्रभू अशरण शरण तुम० -३ हे करणासागर जग के० ४ इया और शर्म तज रंडी Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ओ३म् * हितैषी-गायन रत्नाकर ... प्रथम भाग भजन मं० १ स्तुति महावीर भगवान। धन्य तुम महावीर भगवान, लिया पुण्य अवतार जगत का, करने को कल्याण ।। टेक ।। बिलबिलाहट करते पशुकुल को, देख दयामय प्राण। । परम अहिंसामय सुधर्म की, डालीनीव महान ॥धन्य० ॥१॥ ऊंच नीच के भेद भावका, बढ़ा देख परिमान । सिखलायासबकोस्वाभाविक,समतातत्वप्रधान ॥धन्य० ॥२॥ मिला समवश्रित में सुरनरपशु, सबको सबसम्मान । समता और उदारतो का यह कैसा सुभगविधान ॥धन्य० ॥३॥ अन्धी श्रद्धा का ही जगमें, देख राज बलवान । कहा न मानोबिना युक्तिके, कोई वचनप्रधान ॥ धन्यतुम०॥४॥ जीव समर्थ स्वयं करता है, स्वतः भाग्यनिर्माण । यों कह स्वावलम्ब स्वाश्रयका दियासुफलप्रदज्ञान ।। धन्य० ।५। इनही आदर्शों के सन्मुख, रहनेसे सुखखान । भारतवासी एकसमय थे भाग्यवान गुनवान ।।धन्य तुम०॥६॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) भजन नं० २ ( लावनी ) तुम सुनो दीनकनाथ विनय इकमरी, अब कृपा करो भगवान शरणमतेरी।।टेक ।। यह दास आपकी शरण चरण में आया, रखलीजे दीनकी लाज विश्वपतिराया। तुमनाम अनन्तअपार शास्त्र में गाया, गुणगावत गनधर आदि पार ना पाया ।। में क्या वरनन करसके अल्पमति मेग अवरुपा करो भगवान शरण में तेरी ।।१।। तुम नेमीश्वर महागज जगत के स्वामी, सचिादानंद सर्वज्ञ सकलजगनामी । में महामलिन मतिमन्द कुटिलखलकामी मोहिकीजेनाथ अब शुद्ध जान अनुगामी देउ मोको भक्तिवरदान कगै मति देरी । अब कृपा० ॥२॥ इस जगमें जन्मत मरत यहादुखपाया, लखोगसीमें भ्रमत भ्रमत घबराया। करुणानिधान जनजान करो अब दाया अति दुखित हुआ तव शरण आपकी आया ।। काटो श्री पार्श यह कठिन कर्म को बेड़ी ।। अब० ॥३।। मैं किसे सुनाऊं व्यथा अपने मनकी, यहां अपना कोई नहीं प्राश कलंकिनकी। मैं कहांलगकरूं बखान दशा निजतन की, तुम सब जानत सर्वज्ञ पीर निजजन की। अतिभारत हो फूला ये कहत प्रभु टेरी, अब कृपा करो भगवान शरण में तेरी ॥४॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) भजन नं० ३ ( गुरु स्तुति ) मिलें कब ऐसे गुरुज्ञानी ॥ टेक ॥ यश, अपयश, जीवन, मरा - जिन - सुख दुख, एकसमान । मित्ररिपु इकरामलखै - यमंदिर त्यो स्मशान । एकसम गिनें "लाभ हानी मिल क ऐसे ० ॥ १ ॥ कांचखंड, और रत्न, वरावर - ज्यों धन त्योंही धूल, एक है दासी और गनी मिलै कत्र ऐसे ० || २ || ऊंच नीच नही लखें किसीको, सब जिजिनको एक दोष अठारह त्याग जिन्होंने गुण मन घरे अनेक | है fast सिद्धारथ बानी || मिलै कब ऐसे० ॥ ३ ॥ जगजीवन का हित करे, श्ररु ता भवदधि पारज्ञानजोति जगमगे जिन्होंकी-तिन्हें नयूं हरवार | सुफल हो जासे जिंदगानी || मिलें कब ऐसे० || ४ || भजन नं० ४ ( जिनवानी महिमा ) जगत में सांची जिनवानी ॥ टेक ॥ महावीर स्वामी ने भाखी, जगतजीव, कल्याण, गौतम गनधर ने, समझाकर, उदय किया रविज्ञान | तिमिर मियात की कर हानी || जगत में सांची० ॥ १ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापी, अघतापी, कुटिलनर संतापी, अतिधोर, मिथ्याती,घाती, अधम, खल, हिंसक, हिये कठोर । सुगतिलई बनकर श्रद्धानी ॥ जगत में सांची० ॥२॥ सिंघ, वाघ, बानर, गज, शंकर कूकर, आदिक जीव, भील, चोर, ठग, गनिका, जाने-कीनेपाप सदीष । किया निजहित बनकर ज्ञानी ।। जगतः ॥३॥ पुन्य- उदय जिसजीव का, सोईपहै, सुनै जिनवैन तीनलोक की दिपै सम्पदा, खुल ज्ञान के नैन, इसी से जोती उरठानी ॥ जगत में साधी ॥४॥ भजन नं. ५ (जिनवानी स्तुति) दोहा-प्रगट वीरमुख से भई, गमधर किया प्रकाश | हे माता जगदीश्वरी, करी हृदय ममदास ।। - छन्द पद्धडी। किया अज्ञानतिमिर सब दूर-किया मिथ्यात सभी तुमचूर । किया गुण ज्ञान प्रकाश महान विनय मनधार नमूंजिनवान ।। लई जिनान शरण तुम मात,किये तिनजीवों के दुखघात । तुम्ही शिवमंदिरको सोपान विनय मनधार नमूंजिनधान ॥१॥ हुए वृषभादिजिनेश पहेश-दिया जगजीवन को उपदेश । किया खलपापिनका कल्यान विनय मनधार नमंजिनवान ।। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चहे नरघाती हो विकराल, चहे मिथ्यामति हो चंडाल । रहे विपलम्पट हो नादान. विनय मनधार नमूंजिनवान ॥३॥ चहे हो भील चहे ठग चोर-चहे गनिका अधकीने घोर । दिया गुणलान सभीकोदान विनय० ॥ ४ ॥ चहंगनघोनश सिंह सियाल-चहें शुकवानर शकर व्याल । वह अन, महिमा, गर्दभ रवान, विनय० ॥ ५ ॥ दिया उपदेश किये सबपार--किया भूमंडल मोहिबिहार । हरो मिथ्यात प्रकाशो ज्ञान । विनय मनः ॥६॥ किया फिर गौतम ने उपकार दिया उपदेश सुना संसार । हुये बहुजीवन के दुखहीन । विनय मन ।। ७ ।। भये श्रुतदेवलि केलि आदि-भये मुनिराज जयोजिन । धादिरचे तिनग्रंथसुपंथ दिखान । विनय मन० ॥८॥ सुही जिनहानि तुही निनग्रंथ, तुही जिनागम है शिवपंथ । तुही तम दूर करे अज्ञान, विनय यनधार नमू० ॥६॥ भया मम मात मेरे मन शोक, भया ज्ञान दशा विचलोक। किया जो मात तेरा अपमान-विनय० ॥१०॥ तुझे संदूकन में ली रोक-अलीगढ़ के हद ताले ठोक । नमें नित दूरखड़े अज्ञान-विनय० ॥११॥ नहीं दिन एकभी धूप दिखात--बड़े सुखचैन से दीमक खात । विनय वतलावत याहि अज्ञान-विन० ॥१२॥ लई मन मूर्खजनों ने धार, न होय किसी विधि सोयप्रचार । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) न आगमभेद कोई ले जान- विनय० ॥ १३ ॥ लवी सत्र महिना पञ्च काल, हुये मतिहीन फंसे भ्रमजाल । पढ़ें कोई शास्त्र न सुनियन कान बिन० || १४ | किया तीर्थकर यदि चार- यह रक्खें मूंदके मूढांवर । भला इनकेसम कौन अज्ञान, विनय न० ॥ १५ ॥ यदि तु वैन न पडै नत्रिकोन, यदि परचार न तेरा होय । तो कैसे हो फिर जग कल्यान, विनय मन धार० ॥ १६ ॥ नविन व जगमांहि, फहरा वै जैनपताका नाहि । न हो ज्योत रवी शशि ज्ञान, विनय ० ॥ १७ ॥ करो अब मात दया की, करो अमात सुद्धिकृ । हरो सव जीवन का अान, विनय मन० ॥ १८ ॥ करो सब जीवन का उपकार, यह दो सब जन के मन में धार । करें प्रचार बनै वस्वान विनय० ॥ १६ ॥ न होप प्रचार में तुन रोक, करें सब सत्यविनयदें धोक ! सभीजगवीच प्रकाशेहान, विनय मन० ॥ २० ॥ घत्ता जयजप जिनवानी, शिव सुखदानी, जगजिय पानीहितकरनी ! दुष्ट उचारन, पापी तारन, कुमति कुमतियों की हरनी । भील उतारे चोर उभारे, पशुवत को तारन तरनी । पारकिये जगजीव अन, यो महिमा जोती चरनी ॥ २१ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) भजन नं० ६ प्रार्थना। भमवन समय हो ऐसा-जब पान तन से निकले । तुम से ही लौ लगी हो, तुम नाम मन से निकले ॥टेक ॥ सिद्धगिर के शिखर पर, तेरी ही, टोंक भीतर । तुझ ध्यान हूं रहा धर, भक्ति दहन से निकले-भगवन०॥१॥ गुरुजी दरश दिखाते, उपदेश भी सुनाते, आराधना कराते मीठे वचन से निकले भगवन० ॥२॥ भूमीय हो संथारा, लगता हो ध्यान धारा, त्यागं सभीयाहारा, तुझनामधुनसे निकले भगवन० ॥३॥ सम्मुख छवी तेरी हो-उसपर निगाह मेरी हो । संसार सेवरी हो. श्रात्मा चमन से निकले । भगवन० ॥४॥ भक्ती के तेरे नारे, चहुंओर जां उचारे । जैनी कहे पुकारे, प्राणी मगन से निकले, भगवन ॥५॥ भजन नं०७(गजल शान्तनाथ स्तुति) शान्त प्रभू शान्तिता का स्वाद हम को दीजिये। नष्ट करके कर्म सारे, पार खेवा कीजिये ॥ टेक ॥ ___ भक्ती से ती शक्ती हमारी, हो प्रगट एरमात्मा । सुधरे भारत की दशा, होवे सभी धस्मात्मा ।। शांति० ॥१॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या की हो उन्नति, और नाश हो अज्ञान का। प्रेम से पूरित हों सारे, ९ मा सल्यानका ॥ शान्ति० ॥२॥ खोटे कामों से बचें, और तेरी थक्ति मन वसैं । शान्ति पावें पानी सारे, दुःख सबके ही नशै ।। शान्तिः ॥३॥ सारी विद्याओं को सीखें, ज्ञानाबरनी नाश कर । धर्म क्रिया नित्यकरपूजन सामायिक ध्यानधर ॥ शांति०॥४॥ कोगीमानो माया, वो लोभी हम में से कोई न हो । सप्त विश्नों से बचें, और छोड़ देवे मोह को॥शान्ति० ॥५॥ कर्म बाठों कारने में, मन लगा रहने सदा । होवे सभी पुरुषार्थी उपकार में चित रह लगा ॥ शान्ति०॥६॥ सत्संग अच्छे में रहें, और जैन मारग पर चलें। तेरे ही रहवें उपासक, सब कुकर्मों से टलें।शान्ति० ॥७॥ जैनी जवाहरलाल को, बिनती प्रभू स्वीकार हो । होवे सुधार समाज का, भारत का बेड़ा पार हो ।।शांति० ॥८॥ भजननं०८(अर्हन्त देव से प्रार्थना) ग़ज़ल अहन्त देव तुम से, यह मेरी प्रार्थना है। जोहर अनादि से, जो मुझ में भरा हुआ है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वो ढक रहा कर्म से, जाहिर हो इल्तजा है। श्रादर्श जिंदगी हो, यह मेरी भावना है ॥ १ ॥ शक्ती हो मुझ में ऐसी, सब की मदद करूं मैं । सब की भलाई कारन, आगे कदम धरूं मैं ।। ताकत हो मुझ में ऐसी, जैसी थी भीम अर्जुन! पालू मैं शील ऐसा, ज्यों सेठ थे सुदर्शन ॥ मुहब्बत हो ऐसी पैदा, ज्यों राम अरु लक्ष्मण । स्थूल भद्र जैसा, राख में पवित्र मन ।। २ ॥ वाहू वली सा मुझ में, बल और वीरता हो । गज सुखमाल के मुताविक, हां ध्यान धीरता हो । अभय कुमर जैसी, बुद्धि मेरी हो निर्मल । गुरु हेमचन्द्र जैसा, आलमवन में शामिल ॥ सिद्ध सैन की तरह से, विद्या करूं मैं हांसिल । दुनियां के प्राणियों का, दुख मेंट दूं में कामिल ||३|| हरिभद्र कालिकाचार्य, विश्नुकुमार स्वामी । रक्षा करूं धर्म की, ऐसे ही बन के हामी ।। धना वो शालिभद्र, जैसी हो अस्तकामत । खंदक मुनि को अर्जुन, माली सी हो वो हिम्मत ॥ वस्तुपाल की तरह से, खर्चे धर्म में दौलत । विजय वो विजिया जैसा, कायम रख में जतसत ॥४॥ रिद्धी हो भरत जैसी, वैराज्ञ भी हो पूरा ।। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनजाऊ फेवना में, श्रीपाल जैसा सरा ॥ खातिर वतन के ज़रदूं मैं भामाशाह जैसा । बहवदी मुल्क की में हो सर्फ मेग पैसा ।। सेवक बन गुरु का, कुमारपाल जैसा । श्रेयांस की तरह से दूं दान में भी वैसा ॥ ५ ॥ गुरु आत्माराम मानिंद, चर्चाधर्म फैलाएं। रहकरके ब्रह्मचारी, अज्ञान को हटादूं । दिक्षा के वास्ते में, ऐलान कृष्ण सा हूँ। गुण ग्रहण की भी आदत, उनकीसी में बनायूँ ।। खातिर वतन के अपना, सर्वस्व में लगाएं। गफलत की नींद से में, हरएक को जगाएं ॥ ६ ॥ दुनियां के प्राणियों को, रस्ता धर्म बताकर । सेवा करूं धन की, तन मन सभी लगाकर ।। साबितकदम रहूं मैं गरचे कोई सतावे । खुश हो तमाम सहलं, पेशानी खम न खाये।' इस तन से सर जुदा हो, और जान तक भी जाये। लेकिन धर्म मेरे मुतलक हर्फ न आये ॥ खिदमत करूं मुलक की, और धर्म को बढ़ाऊं। जैनी धर्म का डंका चहुंओर में बजाऊं।। ७॥ - Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ११ ) भजन नं०६ (गजल प्रार्थना) सन्मति भवसागर के मांदि, भैय्या पार सधानेवाले । टेका। आये पावापुर के बीच, मारे वैरी पाठो नीचे। अपने धनुष यान को खीच, कर्म के काट उड़ानेवाले ।। सन्म ॥१॥ लेकर चक्रसुदर्शनज्ञान, करके मिथ्यामत का मान । जिल्लाकर न्यामन परवान, मुक्ति की राह बतानेवाले । भजन नं० १० (लावनी देश) तन मन सारेजी सांवरिया, तुमपर वारमाजी ।। टेक ॥ पालापन में कमनिवारो, अगनीजलता नाग उवारो। धैरी करमन मारो तपबल धारनाजी तन मन ।।१।। जीवाजीव द्रव्य बतलाये, सब जीवन के भरम मिटाये। शिवमारग दरसाये, दुख पर हारनाजी तन मन सो० ॥२॥ स्याद्वाद सतभंग सुनायो, नय प्रमान निश्चय करवायो। झठे मत किये खंडन सतको धारनाजी तन मनः ॥ ३॥ न्यामत जिन पारस गुन गावे, पुनिपुनि चरनन शीस निवावे। वीतरागसर्वज्ञ वही हितधारनाजी तन मन सारेजी० ॥ ४॥ DR. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) भजन नं० ११ (दादरा थियेटर) पभ लीजो खबरिया हमारीनी ।। टेक ॥ मुझको कर्म डवोते हैं इस मोहजाल में, इससे वचाओ मुझको, फरूंअज हाल में कनो पार नबरिया हमारीजी मभु०॥१॥ निद्रा अनादि बीचपड़ा में ही तो सोनाई, सुमरन नकी भक्ति निहारीयोंही खोनाहूं सुबलीनो सरवरिया हमारीजी प्रभु० । तुम जगको त्याग जाय बस, मुक्तद्वार में। दिखलाओ राह मुक्त कहूं वार २ में । ग्ली मोक्षडगरिया हमारोजीप्रभु० ॥ मुझपर दया करो प्रभु होकर दयाल तुम । सुकवन है तुम्हारा दास, फगे प्रतिपालतुम नहीं तुमविन गुनरिया इमारीनी प्रभु लीजो० ॥ ४ ॥ भजन नं० १२ (दादरा थ्येटर) चलोहूं जिनडगरिया तुम्हारीजी । मिले मुक्तिनगरिया हमारीनी ॥ ठेक ।। (शेर ) भटका फिरा में पान मगों में जगह जगह । भ्रमता रहा हूँ नीचगतों में जगह जगह ।। पाई अब में खबरिया तुम्हारीजीचलोहूं ॥१॥ भवधि से पार अाके हो सम्यक्त के घाटपर। डाले र आंख भूल कभी राजपाट पर ।। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) पड़ी जिस पै नजरियां तुम्हारी जी चालो हूं जि०॥२॥ बाजों की लागती है भयानक भनक मुझे, भाता नहीं है रोग जगत् का तनक मुझे, सुन शासन बसरिया तुम्हारी जी। चालो हूंजि० ॥ ३ ॥ करमों की घास फेंकी प्रभू ने उखाड़ कर, वैराज्ञ की वढाई है खेती की वाढ़ कर, छाई करुणा वदरिया तुम्हारी जी। चालो हूंजी डगरिया० ॥४॥ ( दादरा थ्येटर) लीजो २ खबरिया हमारी जी ॥ टेक ॥ धोखे में आगये हैं कुमतिया की चाल में, रक्खा है हम को बांध के कम्र्मों के जाल में, लीजो० ॥१॥ बीता अनादिकाल हाल कह नहीं सक्ते, जो दुख हमें दिये है वो अब सह नहीं सक्ते, लीजो० ॥ २ ॥ तन धन का नाथ कुछ भी भरोसा मुझे नहीं, माता पिता भी कोई संगाती मेरे नही, लीजो० ॥३॥ सच है कहा संसार में कोई न किसी का, न्यामत को सिवा तेरे भरोसा न किसी का, लीनो० ॥४॥ १४ (प्रभु तार २ भव सिंधु०) प्रभु तार तार भवसिंधु पार, संकट मंझार, तुम ही Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) धार, दुकदो सहार, तारो तारो म्हारी नैय्या ॥ टेक ॥ परमाद चोर, कियो हम पै जोर, भवसिंधु पोत, दियो मंझ में बोर, तुम सम न और तारन तर नैय्या । प्रभु तार तार० ॥ १ ॥ मोहि || मोहि दंड२ दियो दुख प्रचंड, कर खंड २ चहु गति में भंड, तुम हो तरंड, काढ़ो काढ़ो गहि वहियां । प्रभु० || २ || दृग सुखदास, तेरो उदास, मेरी काट फांस, हरो भव को वास, हम करत ग्रास, तुम हो जग उवरैय्या | प्रभु० || ३ ॥ १५ ( दादरा थयेटर ) श्रवार मोरे स्वामी भव दधि से कर मुझ को पार ॥ टेक ॥ चहुं गति में रुलता फिरा मोरे स्वामी, दुखड़े सहे हैं अपार अपार, मोरे स्वामी । भव दधि० ॥ १ ॥ मिथ्या अंधेरा, मगर मोह ने घेरा, कर्मों के विकट पहार, पहार मोरे स्वामी भवधि से कर मुझ को पार ॥ २ ॥ सातों विषय क्रोध मद लोभ माया, प्राये लुटेरे दहार दहार मोरे स्वामी । भवदधि से० ॥ ३ ॥ सम्पति की बेड़ी भँवर में पड़ी हैं, वेगी से लेना उभार । उभार मेरे स्वामी भवद० || ४ ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) १६ ( तर्ज - चाहे बोलो या न बोलो ) * चाहे तारो या न तारो चरणों में पड़ा हूं ॥ टेक ॥ तेरे दरश को मैं आया, मन में तुही समाया, अति दीन हो खड़ा हूं । चाहो त्यारो० ॥ १ ॥ सब जगत में फिर आया, शरना कही न पाया, तेरी शरन आ गिरा हूं । चाहे त्यारो० || २ || निज दास जान लीजे, शिव मग वताय दीजे, वन २ भटक फिरा हूं । चाहो त्यारो० ॥३॥ १७ ( गज़ल ) य प्रभू जी, अब तो हमारी इन दिनों । हैगी वेकरारी इन दिनों ॥ टेक ॥ लीजिये सुधि गरदिशे दुनियां से आरि घेरे पड़े हैं कर दिया खाना खराब, बचने की सूरत नही इन से हमारी इन दिनों । लीजि० ॥ १ ॥ गुस्सागर हा बुराज लालच से नहीं मुझ को पनाह, हो गई वन बन के तबियत की खराबी इन दिनों । लीजि० || २ || क्या करूं किससे कहूं, कहां बचके इन से जाऊं मैं, कोल्हू के बैल जैसी गति हमारी इन दिनों । लोजि || ३ || तुम को बिन जाने दयानिधि चार गति भ्रमता - ० Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा,अब तो कदमों की शरण लीन्ही तुम्हारी इन दिनों। लीजि० ॥ ४ ॥ तुम गरीय निवाज हो, और मैं गरीबों का गरीव, जग उद्धारक की विरद जाहर है थारी इन दिनों । लीजि० ॥ ५ ॥ सख्त आफत में फंसा हूँ अय मेरे मुश्किल कुशां, कर दो मुश्किल सख्त को आसान मेरी इन दिनों। लीजि० ॥६॥ अपनी महफिल प्रालीका दीजे ज़रा रस्ता बता, मथुरा की ख्वाहिश वरारी होगी पूरी इन दिनों । लीजि० ॥ ७ ॥ १८ ( कव्वाली) आज जिनराज दर्शन से भयो आनद भारी है ।।टेक॥ लहें ज्यों मोर घन गर्जे, सुनिधि पाये भिखारी है, तथा नो योद की वातें, नहीं जाती उचारी है । आज० ॥१॥ जगद के देव सब देखे क्रोध भय लोभ भारी है, तुम्ही. दोषावरन विन हो कहा उपमा तिहारी है । आज़० ॥२॥ तुम्हारे दर्श विन स्वामी. भई चहू गति में ख्वोरी है, तुम्ही पदकंज नमते ही मोहनो धूल झारी है । आज० ॥३।। तुम्हारी भक्ति से भविजन, भये भवसिंधु पारी है, भक्ति मोहि दीजिये अविचल सदा याचक विहारी है । आज० ॥ ४ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) १६ (गज़ल) मेरी नाव भवदधि में पड़ी कर पार अब सुन लीजिये, जग वन्धुवामानंद से अरदास अब सुन लीजिये ।। टेक ।। है झांझरी नैय्या मेरी मंझधार गोते खा रही, वस कर्म बाम झकोरती, जगतार अब सुन लीजिये । मेरी नाव०॥ १॥ गति चार जलचर जहां वसैं मुख फाड़ फाड़ डरावते, तिन से बचाओ दीन पति इस बार अव सुन लीजिये। मेरी नाव० ॥ २ ॥ भव जल अथाही में मेरा तुम बिन नही है दूसरा, मेरी बांह को गहले प्रभु चितधार, अब सुन लीजिये । मेरी नाव० ॥ ३ ॥ सब कारज अब मेरे भये घट राम रत्न खुशाल है, दिन रैन जिनवर नाम का प्राधार, अब सुन लीजिये । मेरी नाव भवदधि में पड़ी० ॥४॥ २० (ठुमरी झंझोटी ) नेम प्रभू की श्याम वरन छवि नयनन छाय रही, मणिमय तीन पीठ पर अम्बुजता पर अधर ठही ॥टेक॥ मार मार तपधार जार विधि केवल रिद्ध लई । चार Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) तीस अतिशय गण नव दुग दोष नहीं ॥ नेम० ॥१॥ जाहि सुरासुर नमत सतत मस्तक तें परस मही । सुरगुरु वर अम्बुज प्रफुलावन अद्भुत भान सही । नेम प्रभ० ॥३॥ धरि अनुराग विलोकत जाको, दुरित नशै सब ही दौलत महिमा अतुल जा सकी कापै जात कही नेम प्रभु० ॥४॥ २१ (गज़ल कव्वाली ) तुम्हारे दरश विन स्वामी, मुझे नहीं चैन पड़ती है। छवी वैराग तेरी सामने आंखों के फिरती है ॥ टेक ॥ निराभूपण विगत दूषण पद्म श्रासन मधुर भापन, नजर नैनों की नासा की अनी परसै गुजरती है। तुम्हारे० ।। १ ।। नहीं कर्मों का डर हम को, कि जब लग ध्यान चरनन में, तेरे दर्शन से सुनते है कर्म रेखा बदलती है। तुम्हारे० ॥ २ ॥ मिले गर स्वर्ग की सम्पति अचम्भा कौन सा इस में, तुम्हें जो नयन भर देखे गति दुरगति की टलती है । तुम्हारे० ॥ ३ ॥ हजारों मरतें हमने बहुत सी गौर कर देखीं, शान्ति सरत तुम्हारी सी नहीं नज़रों में चढती है। तुम्हारे ॥ ४ ॥ जगत सिरतान हो जिनराज न्यामत को दरश दीजे, तुम्हारा क्या विगड़ता है मेरी बिगड़ी सुधरती है । तुम्हारे० ॥ ५ ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) २२ ( चाल प्रभु तार २ भव० ) आई इन्द्र नार कर कर सिंगार, ठाडीं समुद्र द्वार, शिव देवी माय चरनन मंझार मस्तक धरि दीनों || टेक || 'लखि भजोरीएम, सुत भयोरी नेम, तन प्राकृत यमचल मोर जेम, उर आर्त प्रमोद घर कर कर लीनो | आई इन्द्र० ॥ १ ॥ दृग जोर जिन प्रभु मुख निहार, कर नमस्कार हर गोद धार, पुलकंत गात गज चढ़ दीनों । आई इन्द्रनार० || २ || गिर शीशधार कर नट तवार, नाटिक वियार वलि वलि जुवार, ऐरावत पै भयो हरिय नवीनों | आई० ॥ ३ ॥ २३ (पार्शनाथ स्तुति भुजंग प्रयातछंद - नरेन्द्रं फनेन्द्र सुरेन्द्रं अधीशं शतेन्द्रं सुपूजे भजै नायशीशं, मुनेन्द्रं गनेन्द्रं नमै जोड़ हाथं नमो देव देवं सदा पार्श्वनाथं || १ || गजेन्द्रं मृगेन्द्रं गौ त छुड़ावै, 'महागतें नागतें तू बचावे, महावीर तें युद्ध में तू जितावे । महा रोग ते बंध ते तू खुलावे ||२| दुखी दुख हर्त्ता सुखी सुख कर्त्ता, सदा सेवकों को Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०) महानंद भरता, हरेयक्ष राक्षस भूतं पिशाचं, विषमडाकनी विन्न के भय अवाचं ॥ ३ ॥ दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने, अपुत्री को तें भले पुत्र कीने, महा संकटों से निकाले विधाता । सबै संपदा सर्व को देहि दाता ॥४॥ महा चोर को वज्र को भय निवार, महा पौन के पुंजने तूं उबारे, महा क्रोध की आग को मेघ धारा । महा लोभ शैले सको वज्र भारी ॥ ५ ॥ महा मोह अंधेर को ज्ञान भानं, महा कर्म कान्तारको दो प्रधानं, किये नाग नागिन अधो लोक स्वामी, हगे मान को त दैत्य को हो अकामी ॥ ६॥ तुम्ही कल्यवृतं, तुम्ही कामधेन तुम्ही द्रव्य चिन्तामणीनाग एनं, पशन के दुख सेती छुड़ावै । महा स्वर्ग में मुक्ति में त वसावे ।। ७॥ करे लोह को हेम पापाण नामी, रटै नाम सो क्यों न हो मोज गामी, करें सेव ताकी करे देव सेवा । सुनै बैन सोही लहै ज्ञान भेवा ॥ ८ ॥ जपे जाप ताको नहीं पाप लागे, घरै ध्यान ताके सबै दोर भाजे, विना तोहि जाने धरे भव घनेरे, तिहारी कृपा से सरे काज मेरे ।। ।। दोहा-गनधर इन्द्र न कर सके तुम विनती भगवान । चानत प्रीति निहार के, कीजे आप समान ॥ १० ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) . ( संकट हरन वीनती) हो दीन बंधु श्रीपती करुणानिधान जी, अब मेरी विथा क्यों न हरो बार क्या लगी॥टेक ॥ मालिक हो दो जिहान के जिनराज श्राप ही । एवो हुनर हमारा तुमसे छिपा नहीं । वेजान में गुनाह जो मुझ से बन गया सही, कंकरी के चोर को कटार मारिये नहीं । हो दीन ०॥१॥ दुख दर्द दिलका आपसे जिसने कहा सही । मुश्किल को हर बहर से लई है भुजा गही। सव वेद और पुरान में परमान है यही, अानंद कंद श्री जिनंद देव है तुही । हो दीन०॥२॥ हाथी पै चढी जाती थी सुलोचना सती, गंगा में ग्राह ने गही गजराज की गती। उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती, भय टारके उभार लिया हे कृपापती । हो दीन० ॥३॥ पावक प्रचंड कुन्ड में उमंड जब रहा, सीता से सत्य लेने को जब गम ने कहा, तुम ध्यान धार जानकी पग धारती तहां, तत्काल ही सरस्वच्छ हुआ कमल लहलहा। हो दीन० ॥४॥ जव चीर द्रोपदी का दुःश्शासन था गहा, सब ही सभा के लोग कहते थे अहा अहा, उस वक्त भीर पीर मे तुमने करी सहा, परदा ढका सती का सो यश जगत मे रहा । हो दीन० ॥ ५॥ सम्यक्त शुद्ध Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) शील वती चंदना सती, जिसके नजीक लगती थी जाहिर रती रती, बेड़ी में पड़ी थी तुम्हें जब ध्यायती हुती, तब वीर धीर ने हरी दुख द्वंद की गती। हो दीन० ॥६॥ श्री पाल को सागर विर्षे जब सेठ गिराया, उसकी रमना से रमने को आया वो बेहया, उस वक्त के संकट में सतीतुम को जो व्याया, दुरव टुंद फंद मेटक आनंद बढाया । हो दीन० ॥७॥ हरि खेन की माता जहां सौत सताया, रथ जैन का तेरा चले पीछे यो बताया, उसवक्त के अनशन में ससी तुमको जो ध्याया, चक्रेश हो सुत उसके ने रथ जैन चलाया । हो दीन० ॥॥ जव अंजना सती को हुश्री गर्भ उजारा, तव सासने कलंक लगा घर से निकारा, वन वर्ग के उपसर्ग में सती तुमको चितारा प्रभु भक्त व्यक्त जान के भय देव निवारा । हो दीन० ।।१॥ सोमा से कहा जो त सती शील विशाला, तो कुम्भ मेंसे काह भला नाग जो काला, उस वक्त तुम्हें ध्याय के सती हाथ जो डाला, तत्काल ही बह नाग हुआ फूल की माला । हो दीन० ॥१०॥ जब राज रोग था हुआ श्रीपाल राज को, मैना सती. तब आपको पूजा इलाज को, तत्काल ही सुंदर किया श्रीपाल राज को, वह राज भोग भोग गया मुक्त राज को । हो दीन० ॥११॥ जब सेठ सुदर्शन को मृपा दोष लगाया, राणी के कहें भूप ने सूली पै चढाया, Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) उस वक्त तुम्हें सेठने निज ध्यान में ध्याया, सली से उतार उसको सिंघासन पै बिठाया। हो दीन० ॥१२॥ जब सेठ सुधन्ना जी को वापी में गिराया, ऊपर से दुष्ट था उसे वह मारने आया उस वक्त तुम्हें सेठ ने दिल अपने में ध्याया, तत्काल ही जंजाल से तब उनको बचाया। हो दीन० ॥१३॥ एक सेठ के घर में किया दारिद्र ने डेरा, भोजन का ठिकाना था नहीं सांझ सवेरा, उसवक्त तुम्हें सेठ ने जब ध्यानमें घेरा, घर उसके में झट करदिया लक्ष्मी का वसेरा । हो दीन बंध० ॥१४॥ वलिवाद में मुनि राज सो जब पार न पाया, तब रात को तलवार ले सठ मारने आया, मुनि राज ने निज ध्यान में मन लीन लगाया उस वक्त हो प्रत्यक्ष जहां जक्ष बचाया । हो दीन बंध ।। १५॥ जब राम ने हनुमंत को गढ लंक पठाया, सीता की खबर लेन को फिलफौर सिधाया, मग बीच दो मुनि राज की लखि आग में काया, झठ वार मसल धार सों उपसग वुझाया । हो दीन वं० ॥१६॥ जिन नाथ ही को माथ निवांता था उदारा, घेरे में पड़ा था सो कुलिश करन विचारा, रघुवीर ने सब पीर तहां तुर्त निकारा। हो दीन ५० ॥१७॥ रनपाल कुंवर के पड़ी थी पांव में वेड़ी उस वक्त तुम्हें ध्यान में ध्याया था सवेरी, तत्काल ही सुकुमार की सब झड़ पड़ी बेड़ी, तुम राज कुंवर की Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) सभी दुख द्वंद निवेरी । हो दीन० ॥ १८ ॥ जब सेठ के नंदन को डसा नाग जो कारा, उस वक्त तुम्हें पीर में धरि धीर पुकारा, तत्काल ही उस बालक का विष भर उतारा, यह जाग उठा सो के मानो सेज सकारा। हो दीन० ॥१६॥ मुनि मान तुंग को दई जब भूपने पीड़ा, ताले में किया बंद भरी लोह जंजीरा, मुनिईश ने आदीश की स्तुति की है गम्भीरा, चक्रेश्वरी तब आन के झट दूर की पीड़ा। हो दीन० ॥२०॥ शिव कोट ने हठ था किया समन्त भद्रसों, शिवपिंड की वंदन करो शंको अभद्र सों, उस वक्त स्वयम्भू रचा गुरु भाव भद्र सों, जिन चंद्र की प्रतिमा तहां प्रगटी अनंद सो । हो दीन० ॥२१ ॥ सवे ने तुम्हें आन के फल आम चढाया, मेंडक ले चला फूल भरा भक्ति का भाया, तुम दोनों को अभिराम स्वर्ग धाम वसाया, हम आप से दातार को लखि आज ही पाया। हो दीन ५० ॥२२॥ कपि स्वान सिंह नवल अज वैल विचारे, तिर्यच जिन्हे रंच न था वोध चितारे, इत्यादि को सुर धाम दे शिव धाम मे धारे, हम आप से दातार को प्रभु आज निहारे । हो दीन वं० ॥२३॥ तुम ही अनंत जन्तु को भय भीर निवारा, वेदो पुरान में गुरु गनधर ने उचोरा, हम आपकी शरणागत में आके पुकारा, तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष इच्छित कारा । हो दीन वं० ॥२४॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) प्रभु भक्त व्यक्त जगत भगत मुक्त के दानी, आनंद कंद वंद को हो मुक्ति के दानी, मोह दीन जान दीन बंधु पातक भानी, संसार विषम पार तार अन्तरजामी । हो दीनः ॥ २५ ॥ करुणा निधान वान को अब क्यों न निहारो, दानी अनंतदान के दाता हो संभारो, वृषचंद नंद द का उपसर्ग निवारो, संसार विप मखार से प्रभू पार उतारो । हो दीन० ॥ २६ ॥ २५ (गजल) मुझे आधार है तेरा तुही जिनराज है मेरा, पड़ा __भवदधि अथाही मे शरण तेरा ही हेरा है।। टेक।। करम जल चर भरै तामे दुखी करते है जानो हो, अनादि काल से जिन जी इन्हों ने सुझको घेरा है। रोप मद लोभ माया की तरंगे उठ रही ऐसी, किनारे पर से लेजा कर बीच मंझगार गेरा है । लुके आधार० ॥१॥ लोकत्रय छूटके भाई जगह ऐली नही कोई, उरध पाताल मध्यन्तर काल का जान फेरा है । करमसंयोग अपनेसे मिली जिन नाम की नौका, सेवक अब वैठके उतरो भला यह दाव तेरा है। मुझे प्रा० ॥२॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) ( मल्हार) रुम झुम रुम झुम वरपै बदरवा, मुनि जन ठाढे तर __ वर तलवा ॥ टेक ॥ काली घटा ते सवही डरावे वे न डिगे ___ मानो काठपुतलवा । रुम झुम० ॥१॥ वाहर को निकसे ऐसे में ठाड़े रहे गिरवर गिरवा । रुम.झम० ॥२॥ झंझा वायु वहै अति सियरी वेन हिले जिन बल के धरौवा रुम झुम० ॥३॥ देख सुनें जो आप सुनावे ताकी तो करहू नौकरवा । रुम झुम० ॥४॥ सुफल होय शिर पांव परस __ वे बुध जनके सब काज सरोवा । रुमझुम ॥५॥ (गजल) मंगल नायक भक्ति सहायक स्वामी करुना धारी, प्रभु मंगल मूर्ति सुनामी चहुं घातिया चर अकामी, शीश नमाऊं तव गुन गाऊं तुम पर जाऊं वारी ।। टेक॥(शेर) लगा के ध्यान आतम चिदानंद रूप दिखलाया, जराके कर्म रिपु आटों अमर पद आपने पाया, विना कुछ गर्जे के तुमने हिनाहित ज्ञान बतलाया, गया जो गर्ज ले तुम पै वह खुद बेगर्ज हो पाया। प्रभु राग द्वेष सब त्यागे घट ज्ञान अनन्ता जागे, विधन विनाशक ज्ञान प्रकाशक भवि Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) जन प्रानंदकारी । मंगल नायक० ॥ १ ॥ तुम्हारा देश भारत में नहीं जब से हुआ आना, तभी से भेद निज पर का प्रभु रमने नहीं जाना, पड़े है घोर दुखों में सभी क्या रंक क्या राजा, हुई भारत की यह हालत नहीं है आब अरु दाना । जहां मक्खन व मलाई वहां अन्न पै वाजी आई, यह पाप हमारा नशै हत्यारा पुण्यको हो बढवारी। __ मंगल नायक भक्ति० ॥२॥ नहीं है ज्ञान की बातें न तत्वों ___ की रही चर्चा, नही उपयोग रुपये का बढ़ा है व्यर्थ का __ खर्चा, उठा व्यापार का धंधा गुलामी का लिया दरजा, छुड़ा के शिल्प शिक्षा को किया है देश का हरजा, सब नौकर होना चाहते, नहीं शिल्प कला सिखलाते, सब नौकर होके पेशा खोके, निशदन सहते ख्वारी । मंगल नायक भक्त० ॥३' धरम के नाम से झगड़े यहां पै खब होते हैं, वढाके फुट आपस की दुखों का बीज बोते हैं, निरुद्यमी आलसी हो द्रव्य अपने आप खोते हैं, हुआ है भोर उन्नति का यह भारत वासी सोते हैं, हम मेल मिलाप वढावें, कर उद्यम धन घर लावें, भारत जागे सब दुख भाजै यह ही विनती हमारी । मंगल नायक०॥४॥ २८ (सोरठ) प्रभु हरो मेरा प्रमाद मुझे परमाद सताता है ॥टेक॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) भोर भये पूजा की वेला सो टल जाता है। सांझ समय सामायक करना याद न आता है । प्रभू हरो मेरा प्रमाद ॥१॥ गुरु भक्ति अरु शास्त्र स्वाध्याय वन नहीं आता है तप संजम अरु दान का देना मन नहीं भाताहै। प्रभू हरो० ॥२॥ यह षट कर्म श्रावक जिन शासन दरसाना है । एक नहीं पूरा होता दिन वीता जाता है। प्रभू हरो मेरा परमाद० ॥३॥ पाता है वृप अर्थ काम शिव जो शरणाता है। दो शक्ती दीना नाथ सदा न्यामत गुन गाता है । प्रभू हरो० ॥४॥ ( लावनी देश तुम पर वार ) जाऊं जाऊं जाऊं जी आदीश्वर तुम पर वारना जी टेक ॥ प्रभु तुम गर्भ विबै जब आये पट नवमास रतन वरपाये सची सची प्रतिछाये मंगलचारना जी । जाऊं जाऊं० ॥१॥ न्हवन हेत ले इन्द्र गये, आकर पांडुकशिला मेर गिर जाकर, सहस अठोनर क्ला तुम सिर ढार ना जी । जाऊं जाऊ० ॥२॥ रतन जड़ित भूपण पहिरा कर, धारे तीन छन माथे पर, लाये पप्प सो माल बना कर, तुम गल डारना जी । जाऊं जाऊं० ॥ ३॥ इन्द्र नृत्य को तुमरे आये, अष्ट द्रव्य पूजन को लाये, सारे Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) तुमरे चरन नवाचे नुम पर बारना जी। जाउं जाऊं ॥४॥ कुन्दन शरण नरहरी गणे. दर्शन पाय परम सुख पायो, स्वामी मुझनो पार लान, तुः जग तारना जी । जाऊं जाऊ जी आदीश्वर हम पर बारना जो ॥ ५ ॥ ( लावनी तुम पर बारना० ) जाऊ जाऊं जी वामा सुत तुम पर वारना जी तुम पर वारना जी तुम पर वारना जी जाऊं जाऊंजी वामा० टेक।विश्वसैन घर जन्म लहायो, वामा देवी सुत कहलायो, भव्यजीव मन हरष मनायो तुम पद निरखन कारनाजी । जाऊं जाऊं०॥१॥ शचि पति सुरगन संघ झुलायो शिशु माया मय जननी द्यायो सहस अठोतर कलशा लायो सर गिर पर सिर ढारना जी। जाऊं जाऊं० ॥२॥ सम रस विवसन मुद्रा सोहैं देखत सुर नर मुनि मन मोहे भजगराज तव सिर पर जोहैं कमठस्मय के टारने जी जाऊंजाऊ॥३।।तन आभाशोभा जलधर की पैडी दरसावत शिव धर की सुर गिर भासित घटा जल घर की छटा जो शोभा कारना जी । जाऊं जाऊं जी सॉवरिया०॥४॥ ( स्तुति व सुख आशीर्वाद ) Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) हे प्रभु अशरण शरण तुम दीन रक्षक देव हो, कालतीनों हस्त रेखावत लखो स्वयमेव हो । टेक ।। दुख सिंधु ते तुम पार करते प्राणियों के वास्ते, तुम पंथ खोटे को छुड़ा कर लावते शुभ रास्ते ॥१॥ हे ईश तव जो ध्यान धरता शम्मे वह पाता सदा, भक्त तेरा जो रहै नहीं दुख उसको हो कदा। हे प्रभु० ॥ २ ॥ डूबते को तुम सहारा अन्य कोई है नहीं, तुम सा दयाल देव भी कोई नहीं देखा कहीं । हे प्रभु अशरण ॥३।। स्वामी तुम्हारी कीर्ति को मैं किस तरह वरनन करूं, वरनन नहीं मैं कर सकंगा सहस रसना भी धरूं । हे प्रभु अशरन० ॥४॥ हे विभो मम भावना हे राज वोही नित रहै, साम्राज्य जिस के में सदा न्याय की धारा बहै। हे प्रभु अशा न्याय होवे छान करके राज्य जिसके में अहो, दुख न हो जिस राज में वह ही सुशासन नित रहो, । हे प्रभु०॥६॥ दीन दुखियों के लिये विल्कुल सताता जोन हो, साम्राज्य जिसके में कभी अन्याय भी होता न हो । हे प्रभु० ॥७॥ दोषी पुरुष ही जहां दंड पावे नीति का जहां गज हो श्रेष्ठ नर ही श्रेष्ठ हो सम्यक वही साम्राज्य हो । हे प्रभु० ॥८॥ जिस राज्य में निवसे सदा सब मग्न हों नारीव नर,यानंद की वनि हो तथा चारों तरफ वा हर नगर । हे प्रभु०॥६॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) ( मेरी समाधि ) इतना तो करदे स्वामी जब प्राण तन से निकले, होवे समाधि पूरी जब प्राण तन से निकले । टेक।। माता पितादि जितने है ये कुटम्ब सारे, उनसे ममत्व छूटे जब प्राण तन से निकले । इतना० ॥१॥ वैरी मेरे बहुत से होयेंगे इस जगत में, उनसे क्षमा करालं जब प्राण तन से निकले । इतना०॥२ ।। परिग्रह का जाल मुझ पर फैला बहुत सा स्वामी, उससे ममत्व छूट जव प्राण तन से निकले । इतना तो करदे० ॥ ३ ॥ दुष्कर्म दुख दिखावें या रोग मुझको घरे, प्रभू का ध्यान छूटे जब प्राण तन से निकले । इतना० ॥४॥ इच्छा तुधा तृषा की होवे जो उस घड़ो में उनको भी त्याग करदूं जब प्राण तनसे निकले। इतना० ।। ५ ।। अय नाथ अर्ज करता विनती ये ध्यान दीजे होवे सफल मनोरथ जब प्राण तन से निकले। इतना तो० ॥६॥ . (यह कैसे वाल विखरे०), ' ___ तुम्हारा चंदमुख निरखै स्वपद रुचि मुझको आई है, ज्ञान चमका परापर की मुझे पहिचान आई है ।।टेक॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) 1 कला बढाती है दिन दिन काम रजनी बिलाई है अमृत आनंद शासन ने शोक तृष्णा वुझाई है । तुम्हारा० ॥ १ ॥ जो इष्टानिष्ट में मेरी कल्पना थी नशाई हैं मैंने निज साध्य को साधा उपाधी सव मिटाई है | तुम्हारा० || २ || धन्य दिन आज का न्यामत छवी जिन देख पाई है, सुधर गई सब बिगड़ी अचल सिद्धि हाथ आई है | तुम्हारा० ॥३॥ ३४ ( तर्ज - इलाजे दर्द दिल से मसीहा ० ) पूरब है तेरी महिमा कही हम से नहीं जाती, तुम्ही सच्चे हित सबके तुम्ही हरएक के साथी ॥ टेक ॥ पाप जब जग में फैला था गरम बाजार हिंसा का, विचारे दीन जीवों को कभी नहीं चैन थी आती । अपूरव० ॥ १ ॥ हजारों यज्ञ में लाखों हवन में जीव मरते थे, कि जिसको देख कर भर आती थी हर एक की छाती | अपूरव० ॥२॥ जगत कल्यान करने को लिया औतार जब तुमने, सुरासुर चर अचर सबको तेरी वानी थी मन भाती । अपूरव० ॥ ३ || दया का आपने उपदेश दुनियां में दिया आके वरने जालिमों के हाथ से दुनियां थी दुख पाती । O पूरब ० || ४ || जो था पाखंड दुनियां में हुआ सब दूर इक दम में, धुजा हरस नजर आने लगी जिंनमत की t Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) लगी । सपग्य ॥ ५ ॥ जगन कर्ता के और हिंसा के जो झट गमायल थे, न्याय परमाण से तुमने किया रद्द मर को कमायी। अपरव०॥६॥ हटा हिंसा किया नुमने दया मर धर्म को जाग, न्यामत जात बलिहारी है दुनियां यश नेग गाती । अपूरब० ॥७॥ ३५ (स्तुनि चाल लावनी ) ह करूणा सागर त्रिजगत के हितकारी, लखि निज शरणागन इगे विपत्ति हमारी ।। टेक ॥ जो एक ग्राम पनि जन की विपता टारे, मनोवांछित जन के कार्य क्षण में सारे, तो तुम त्रिभुवन कं ईश्वर विश्व पुकारे, विश्वास भक्त ताही विधि उर में धारे, फिर भूल गये क्यों ईश हमारी वारी, लखि निज शरणागत हरो विपति इमारी ॥१॥ में निज दुख वरनन करों कहा जग स्वामी, तुम तो सब जानत घट २ अन्तर्यामी, तुम सम दर्शी सर्वज्ञ यशस्वी नामी, मम हरो अविद्या प्रगटे सुख श्रागामी, पर भक्ति तुम्हारी लगै हृदय को प्यारी । लखि निज शरणागत हरो विपत्ति हमारी० ॥ २॥ तुम अधमोद्धारक विरद जगत में छाया, मैं सुना सन्त शारद गनेश जो गाया, यासे आश्रय तक शरण तुम्हारी आया, सब हरो हमारा संकट Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) करके दाया तुमको कुछभी नही अशक्य विपुल वलधारी, लखि निज शरणागत हरो विपती हमारी ।।३।। ज्यों मात पिता नही शिशके दोष निहारे, पाले सप्रेम अरु सर्व आपदा टाले, तुम विश्व पिता ज्योंही हम निश्चय धारे, या से शरणागत हो के विनय उचारे, जन नाथुराम यह जाचत वारम्बारी । लखि निजशरणत हरो विपती हमारी ॥४॥ (आरती) जय जिनवर देवा प्रभ जय जिन वर देवा, प्रारती तुमरी तारों दीजे प्रभु नित सेवा ॐ जय ॐ जय जिन वर देवा ॥ टेक ।। कनक सिंहासन मनिमय ऊपर राजै, चौंसठ चमर ढरै सित शोभा अती छाजे ॐ जय ० ॥१॥ तीन छत्र सिर ऊपर सोहै झलर में मोती दिपै महाभामंडल कोटिक रवि जोती ॐ जय ॐ जय० ॥ २॥ फूल पत्र फल संजुन तरु अशोक छाया पाच वरण पुष्पांजलि वरषा झड़ लाया ॐ जय० ॥३॥ दिव्य वचन सब भाषा गर्मित, शिव मग संकेत दुन्दुभि ध्वनी नभ वाजत मोदन मन हेतु ॐ जय० ॥४॥ इन अष्टप्रातिहारज संयुत प्रभुजी अति से।हैं सुर नर मुनी भविजन का निरखत ॐ जय ० ॥ ५॥ सहस एक अठ लक्षण संजुत शोभित Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) तन प्रभू का, सासोश्वास सुगंधित पद्मासन नीका | अप०॥६॥ चौनीस अतिशय शोभित पैतिस गुणवानी निज निज भाषा मांही समझन सब प्राणी ओंजय०॥७॥ मान अनन्ता दर्शन सुख वीर-जनंता लोकालोक यथारथ जानत भगव ता ओं जय० ॥८॥ चौंसटि इन्द्र सहित इन्द्राणी देवी अरु देवा नाचै गावं अद्भुन सुर सारे सेवा ओं जय० ॥६ ।। नाटक निरख भविक जन मनमें हम भावें ये जड़ पुद्गल तन रचना तज अात्म ध्यावे । ओं जय० ॥१०॥ या महिमा को देख भविक जन जनम सुफल माने, धन सुर धन सुरललना जिन भक्ति ठाने ।। आँ० जय० ॥११॥ वीतराग जिनवर की आरति रुचि सों जो गावै, अमरदास मनवाञ्छित निश्चै फल पावै । भों जय० १२॥ ( श्रारती दूसरी) जय जय जिन देवा जय श्री जिन देवा खेवा पार लगादो करूं चरन सेवा ।। टेक ।। बंदो श्री अरहन्त परम गुरु परम दयाघारी प्रभू परम दयाधारी, परमात्म पुरुषोतम जग जन हितकारी जय । जय०॥१॥ प्रभू भव जल पतित उधारन चरण शरण थारी प्रभु चरण शरण थारी सद्वक्ता Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) निरलोभी करम भरम हारी । जय जय० ॥ २ ॥ धागे ध्यान करत अरविंद मातंगज लखि समताधारी प्रभु लखि समताधारी, तीर्थफर पद पारस पाय भयो भवपारी । जय जय० ॥३॥ विहिताश्रय मुनि मारन आयो मृगपति बल भारी, प्रभु मृगपति वल धारी, भयो वीर तीर्थकर सुनि शिक्षा थारी ! जय जय० ॥४॥ स्वामी दोप कुशील दियो सीता को, दुर्जन अविचारी प्रभु दुर्जन अविचारी, कूद पड़ी अग्नी में लेय शरण थारी । जय जय० ॥५॥ खिल गये कमल अगन में स्वामी चढ़गये जल भारी, प्रभु चढ़गये जल भारी, अच्युतेन्द्र तुम कीनो फिर न होय नारी । जय जय० ॥६॥ बलि ने यज्ञ रचाय दुखी किये मुनि जन ब्रह्मचारी प्रभु मुनि जन ब्रह्मचारी, विष्णु कुमार मुनीश्वर कियो तव उपगारी । जय जय० ॥ ७॥ सर्प किये फूलन के गजरे जिन सेवा धारी, प्रभु जिन सेवा धारी, विदित कथा सतियन की जानत नर नारी । जय जय० ॥८॥ (आरती तीसरी) सांझ समय जिन वंदो भवि तुम सांझ समय जिन बंदो॥टेक ॥ लेकर दोपक आगे बालो, कटत पाप के . फंदो। भवि तुम० ॥१॥ प्रथम तीर्थकर आदि जिनेश्वर Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) भेटन होय प्रानंदो । भघि तु० ॥२॥ पुष्प माल धरि ध्यान लगाऊंखे थप सुगंयो । भवि तुम० ॥३॥ रतन जड़िन की फलं जी आरती बाजत ताल मृदंगो। भवि नुम० ॥४॥ कह जिन दास सुमरि जिय अपने सुमरत होय अनंदो । भत्रि तुम० ॥ ५ ॥ (गजल) प्रभू मैं शरण हूँ तेरी विपत को तुम हरो मेरी ।।टेक।। मुझे कम्मा ने घेरा है चहुं गती मांह परचा है, ये हैं दिग्गज मेरे वैरी विपत को तुम हरो मेरी । प्रभु० ॥१॥ विषय विपरस में फूला हूं जगत माया में भला हूं, कुमति मति आन मोहि घेरी, विपत को तुम हरो मेरी । प्रभु०॥२॥ समय थोड़ा रहा वाकी, अवधि इस देह की पाकी, करूं क्या आय जम फेरी विपत को तुम हरो मेरी। प्रभू०॥३॥ पतित मुझसा न है कोई,पतित तारक हो तुम सोई लगाते क्यो हो अब देरी विपत को तुम हरो मेरी । प्रभू० ॥ ४॥ त्रिलोकीनाथ कृपासिधु दया करिये जगत बंधू , कुगति हरिये दास केरी, विपति को तुम हरो । मेरी प्रभूः ॥५॥ ( उपदेशी) सब स्वारथ का संसार है तू किस पै प्यार करता Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) ॥ है || टेक || जब तक प्यारे करे कमाई, तब तक सारे कर बड़ाई, चाचा भतीजे सुसर जमाई, कुनवा तावेदार है दिल भरीका दिल भरता है। तू किस पैं प्यार करता है० ॥ १ ॥ जबत शक्ति हीन होजावे, अपनी हाजत कुछ फरमावे यार दोस्त कोई निकट न आवे करत न कोई सतकार है, कमवख्त नाम पड़ता है। तू किस पैं प्यार करता है० ||२|| जिसके प्यार में प्रभू हि विसारा, धम्माधर्म न तनिक विचारा, उस कुनधे ने किया किनारा अव नही कोई गमख्वार हैं, कहि२ के यही मरता है । तू किस पै प्यार करता है ० || ३ || मत वन जान बूझ कर भोला, है खुद गर्ज यार मिबोला यह 'वसुधा' मानुप का चोला फिर मिलना दुश्वार हैं, जप उसे जो दुख हरता है । तू किस पै० ॥ ४ ॥ ४१ ( भजन उपदेशी ) सुनियो भारत के सरदार, म्हारी धीर बंधानेवाले ॥ टेक || देखो इस भारत के वीच किरिया कैसी होगई नीच, बैठे हाथ दान कर खींच लाखों द्रव्य रखाने वाले । सुनि० ॥ १ ॥ भूखों की नहीं सुनते टेर, उनको लालच ने लिया घेर, करते दया धर्म में देर धन को व्यर्थ लुटाने J Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६) चाले । सुनियो० ॥ २॥ बन गये मुसलमान ईसाई लाखों ने है जान गवाई होते कोई नहीं सहाई, म्हारे प्राण बचाने वाले । सुनियो०॥४॥ आये अब तुमरे दरबार,न्यामत दिल में दया विचार, करो अनाथों का उद्धार दया का भाव दिखाने वाले । सुनियो० ॥५॥ " (गजल) देख कर हालत वतन की अब रहा जोता नहीं बिन कहे मन की पिथा यह धीर मन अाता नहीं ॥ टेक।। ऐशो अशरत के, वो सामां हाय भारत क्या हुये, क्या हुई पहली वो हालत कुछ कहा जाता नहीं । देख कर हालत० ॥ १॥ प्रेम की खेती है सूखी फूट का है बाग सबजे क्या, तुझे भारत वतन अब प्रेम कुछ भाता नहीं । देख कर० ॥२॥ सब हैं अपनी अपनी उन्नति सीढ़ियों पर चढ़ रहे तने दी क्यों हार हिम्मत्त क्या चढ़ा जाता नहीं। देख कर० ॥ ३॥ जुल्म क्या क्या कर चुका है __ बस कर चरखे कुहन नीम जां हम हो चुके हैं गम सहा ___ जाता नहीं॥४॥ याद वरवादी जब अपनी आती है हम __ को कभी, वसुधा रोदेती है पर कुछ वस बसाता नहीं । देख कर हालत वत०॥५॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) ' (लावनी); अबला तन लखि अल्प धीर जी मोही मानप फंसते हैं सो दुर्बुद्धी छोड़ नर्क में पड़ते हैं ॥ टेक ।। मृगनयनी के नयन रसीले श्याम श्वेत छवि अरुनाई, चंचलनाई निरख कर नर की न रहे थिरथाई, मुख सरोज अरु उर सरोज लखि मरख मन अति उलझाई, परवसताई महा दुख आप आप को प्रगटाई, मनके चलते लाज तजै फिर चलते खोटे रस्ते है। अवला तन० ॥१॥ लज्जा रहित कुधी पर त्रिय को निरख निरख बहु वात करें, परिचय राखें वक्त पर हो निश्शंक वृषघात करें कर विश्वास निसंक अंक भर नर त्रिय शीतल गात करें, अधम काज यह न होवे जाहर यह विचार दिनरात करे, शका तज गुरु तात मात की पर नारी से हंसते है ।अबला० ॥२॥ लज्जावान पुरुप भी क्रम क्रम शंका तज विश्वास करे किर क्रम क्रम से प्रिय वचन सुनत उर आस करे प्रीत वटै आशक्त होय अति दोनों वचनालाप करें, मिल कर रहना विरह मे दोनों उर सन्ताप करें, क्षोभित मन पापी नर कुल की मर्यादा सो खोते हैं । अवला० ॥३॥ एकाकी कामिन से नर को कभी न बतलाना चाहिये अंधकार में लाज तज कभी न ढिग जाना चाहिये शील Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) रहित नर नारी की सोहवत में नहीं आना चाहिये, जो हित चाहो ' जिनेश्वर' बचन हृदय लाना चाहिये विषय फंसे नर को विधि विषधर समय२ प्रति डसते है । अवला तन० ॥४॥ __ (घड़ी क्या कहती है) ___ टिक टिक करती घड़ी रात दिन हम को यहो सिखाती है, जल्दी करो काम मत चूको घड़ी बीतती जाती है । महा शक्ति शाली क्षण क्षण की यदि सहायता पाओगे, तो भी शीघ्र नहीं कुछ दिन में तुम मनुष्य बन जाओगे टिक०॥१॥ पूरी करनी है जीवन बड़ी २ जिम्मेदारी, जिसके विना न होसकते हो मनष्यता के अधिकारी इससे जग प्रसिद्ध उद्योगी महाजनों की गैल गहो, उठो और अ.लस्य छोड़ कर प्रतिक्षण के सन्निकट रहो । टिक २ करती० ॥ २ ॥ क्षण को नहीं तुम्हारी चिन्ता तुम्हें छोड़ भग जाता है, सावधान ! वह गया हुआ फिर कभी न वापिस आता है इस कारण से तुम सचेत हो करो रात दिन रखवाली, करते रहो काम कुछ भरसक कभी नही बैठो ठाली। टिक टिक करती०॥३॥ सदा सामने से वह प्रति तण सुख दुख के साधन सारे, साथ लिये भागा जाताहै रुका Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) न रोक रोक हारे, विन तुम्हारे कम्मों से जब उसकी गति में आवेगा, तब वह खुश होकर सुख संपति शान्ति तुम्हें दे जावेगा । टिक टिक करती०॥४॥ क्षण का है आलस्य शत्रु यदि उसके मित्र कहाअोगे, तो क्षण दुख दे दे मारेगा तुम अधीर होजाओगे, जो क्षण बीत चुके हैं उस में तुमने क्या क्या काम किये, या मानुष्य कहलाने के शुभ साधन कितने जान लिये । टिक टिक कः ॥॥ शोक शोक तुमने किया कुछ तुम्हें न लज्जा आती है, उठो देर मत करो जवानो घड़ी वीतती जाती है। टिक टिक करती घड़ी रात दिन हमको यही सुनाती है, रामनरेश सुनो यह स्वर से क्षण क्षण के गुण गाती है।॥ ६ ॥ १५ ( स्वारथ महिमा) समझ मन स्वारथका संसार ॥ टेक ॥ हरे वृक्ष पर पक्षी बैठा, गावै राग मल्हार । सखा वृक्ष, गयो उड़ पक्षी तजकर दम मे प्यार । समझ मन ॥१!! वैल वही मालिक घर आवत तावत वांधो द्वार, वृद्ध भयो तब नेह न कीनो दीनो तुरत विसार, समझ मन० ॥२॥ पुत्र कमाऊ सव घर चाहै पानी पीवें वार, भयो निखट्ट दुर दुर पर २ होवत वारम्बार | समझ मन० ।। ३।। ताल पाल पै डेरा Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) कीना सारस नीर निहार, सूखा नीर ताल को तज गये उड़ गये पंख पसार। समझ मन स्वारथ० ॥ ४॥ जब तक स्वारथ सधै तभी तक अपना सब परिवार, नातर वात न वझे कोई सब विछड़े संग छार । समझ मन०||| स्वारथ तन जिन गह परमारथ किया जगत उपकार, ज्योती ऐसे अमर देव के गुण चिन्ते हरबार । समझ मन० ॥ ६॥ (दशलक्षण धर्म) , धरम के है दश लक्षण जान ॥टेक।। चमा, मार्दव, और आर्जव, सत्य शौच गुण खान । संजम, तप, और त्याग अकिंचन ब्रह्मचर्य महान । धर्म के हैं दश लक्ष०॥ १ ॥ क्रोध नशाओ, मान मिटाओ, छल छोड़ो बुधवान, झूठ वचन कवहू मत बोलो जांय भले ही प्रान धर्म के दश ॥२॥ त्यागो लोभ करो वश इन्द्रिय निज श्रातम का ध्यान, धन सम्पति दो दया धम्म और जाति देश हित दान । धर्म के० ॥३।। तजो परिग्रह लेश न राखो इच्छा दुख की खान, राखो बल और बीर्य सुरक्षित होय ब्रह्म का ज्ञान । धरम के हैं॥४॥ या से दुख दारिद्र नसे सब हो पापों की हान, जोती-धार धरम दश लक्षण जो चाहै - कल्याण । धम्म के है दश लक्षमा० । ५ । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) (हंस नामा) अजब तमाशा देखा हमने कहै गुरु सुन चेरा रे ।। टेक । एक वृक्ष पर एक हंस ने कीना रैन बसेरा रे । सुन्दर पक्षी देख उसे सब पतियों ने आ घेरा रे। अजव० ॥१॥ सब ने कहा हंस से यहां पर कोई दिन कीजे डेरा रे। ठहरा हंस वही उन सबसे उपजा मेम घनेरारे । अजव तमा० ॥२।। एक दिवस यह कहा हंस ने हम कल जांय सवेरा। यह सुन पक्षी दुख माना हम संग तजें न तेरा रे अजब तमाशा० ॥३॥ सुवह हंस ने लई उडेरी पक्षिन लिया उडेरा रे । कोई कोस दो कोस पै हारा, सवही ने दम गेरा रे । अजव० ॥४॥ सब पक्षी रह गये यहां पर उड़ गया हंस अकेला रे। या विधि जोति जाय अकेला ना संगी कोई मेरा रे अजब० ॥४॥ (उपदेशी) मुसाफिर क्यों पड़ा सोता भरोसा है न इक पलका, दमा दम वज रहा डंका तमाशा है चला चलका ।।टेक।। सुबह जो तख्त शाहो पर बड़ी सज धज से बैठे थे। दुपहरे वक्त मे उनका हुआ है वास जंगल का । मुसाफिर० Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) ॥१॥ कहाँ है राम अरु लक्ष्मण कहां रावन से बलधारी, कहां हनुमन्त से योधा पता जिनके न था बल का । मुसाफिर०॥२॥ उन्हों को काल ने खाया तुझे भी काल खावेगा, सफर सामान उठकरत बनाले बोझको हलका। मुसाफिर० ॥३॥ जरासी जिंदगानी पर, न इतना मान कर मूरख । यह बीते जिंदगी पल मे कि जैसे बुद बुदा जलका । मुसाफिर० ॥ ४ ॥ नसीहत मान ले जोती, उमर पल पल में कम होती । जो करना आज ही करले, भरोसा कर न कुछ कल का । मुसाफिर० ॥ ५ ॥ (कव्वाली) जैन मत जब से घटा मूरख जमाना होगया, यानी सच्चा ज्ञान इकदम रवाना होगया ।।टेका। गल्तफहमी झूठ लाइल्मी गई हदसे गुजर, सचं अगर पूछो तो सब उलटा जमाना होगया ॥ जनमत० ॥१॥ जाते पाक ईश्वर को करता हरता दुनिया का कहें, हाय भारत आजकल बिल्कुल दिवाना होगया। जैनमत०||२|| कम्मफल दाता भी कोई और है कहने लगे, कैसी उलटी वात का दिलमें ठिकाना होगया ॥ जैनमत० ॥३॥ कोई कोई जीव की हस्ती से भी मुनकिर हुए, कैसा यह अज्ञान का दिल पै Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशाना होगया । जैनमत० ॥४॥ जैनमत प्रचार हटने का नतीजा देखलो, रहम उल्फ़त छोड़कर हिंसक जमाना होगया । जैनमत० ॥५॥ झूठ चोरी और दगाबाज़ी कहां तक बढ़ गई, पाप करते आप कलजुग का बहाना होगया । जैनमत० ॥६॥ बुग्ज कीना फूट घर २ में नज़र आने लगी, वात्सल्य जाता रहा अपना विगाना होगया । जैनमत० ॥७॥ न्यायमत जैनमत की अब तो इशात कीजिये, सोते २ मोह निद्रामें ज़माना होगया। जैनमत०॥८॥ .५० (जुए का ड्रामा) जुआरी-आयो खेलें जुना आओ खेलें जुमा, पलमें फकीर अमीर हुआ, आओ खेलें जुआ०॥ विरोधी-मत खेलो 'जुआ, मत. खेलो जुत्रा, पल में अमीर फकीर हुआ, मत खेलो जु० ॥ जुएवाज़ की सुनो कहानी, मन चित लाके , भाई । द्रोपदी नारी पांडव हारे, जरा शर्म नहीं आई ।। मत खेलो जमा० ॥१॥ जुआरी-जुआ खेला जो दुर्योधन ने, जीती पांडव नार। एक घड़ी में वनगये यारो परनारी भरतार ।। आओ खेलें जुआ, पात्रो खेलें जुा० ॥२॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) विरोधीजुएवाज़ और चोर डाकू का कौन करे इतवार । जिधर जावे धक्के पावे, मिले न पाई उधार ॥ मत खेलो जुत्रा० ॥३॥ जुआरी-जुएवाज़ और चोर डाकू से कोई न करते तक___रार । जिधर जावे दौलत पावे, मिलें एक के चार । _आओ खेलें जुआ, आओ खेलें जुश्रा० ॥४॥ विरोधीजुएवाज़ के पास जो होता, एकदम देत लगाय। . बाल बच्चे चाहें भूखे मरजांय, करे नहीं परवाय ॥ ___ मत खेलो जुआ मत खेलो जुआ पलमें, अमीर० ॥५॥ जुआरी-जुएबाज़ के पास जो होता, करता मौजबहार । ऐश उड़ावे घर में नारी, मजे करे परवार ।। आओ ___ खेले जा आओ खेलें जुआ, पलमें फकीर ०॥६॥ विरोधी-अगर वो जावे हार जुएमें, फिर चोरीवो करते। हरदम नानक राज द्वारे, दंड भोगने पड़ते ॥ मत खेलो,जुआ मत खेलो जया, पलमें अमीर० ॥७॥ जुआरीबेशक जावें हार जुए में, फिक्र नहीं वो करते। अगले दिन जब जीत के श्रावे, मोटर गाड़ी चढ़ते ।। आओ खेलें जया आओ खेलें जा० ॥८॥ विरोधी-सब विषयों में विषय यह खोटा, समझो मेरे भाई । नर्क बीच लेजाने वाला समझो मेरे भाई ॥ मत खेलो जुआ मत खेलो जुश्रा, पलमें० ॥६॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुबारी–सुनी नसीहत तेरी भाई, दिलमें किया खयाल । इस पापी चण्डाल जुए ने, कर दीना कंगाल । नहीं खेलूं जुआ, नहिं खेलूं जुआ ॥१०॥ विरोधी-विद्यानन्द भव भव तिरना प्यारे, सवसे नियम __ कराओ । एस. आर. कहै लानत भेजो, खाक इस के सर डालो । मत खेलो० ॥११॥ जारी-जुश्रा बड़ा जंजाल है भाइयो इसका मत लो नाम । पैसे मारो फेंक जमी से दरसे करो प्रणाम । नहीं खेलें जुआ, नहीं खेलूं जुआ, आज से मैंने नियम लिया ॥१२॥ ५१ (सट्टे का ड्रामा) सट्टेबाज़-ज़रा सट्टा लगा, जरा सट्टा लगा, घर बैठे तू मौज उड़ा । विरोधी-मत सट्टा लगा, मत सट्टा लगा, कर देगा यह तुझको तबाह || मत सट्टी० ॥ सट्टेवाज की कहूं कहानी, सुनलो मेरे भाई । धन तो सारा दिया लुटा फिर होश ज़रा नही आई, मत सट्टा लगा, मत सटेंटा लगा० ॥१॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J 1 ( ४६ ) सट्टेबाज़ - सट्टे की कुछ कहूं हकीकत सुनलो करके कान । एक अंक जो निकले बस फिर होजावे धनवान | जरा सट्टा लगा, जरा सट्टा लगा० ||२| विरोधी- एक अंक की आशा करते, हो जाते कंगाल | जगह जगह पर मारे फिरते, वुरा होय अहवाल | मत सट्टा लगा, मत सट्टा लगा० ||३|| सट्टेबाज-एक दाव जो आजावे वस फिर हो मौज बहार । एक के बदले मिलें कईसौ, क्या अच्छा व्यापार । जरा सट्टा लगा० ॥४॥ विरोधी - सट्टेबाज कोई धनी न होता, देखे सब कंगाल । बुग शौक सट्टे का भाई, कर देता पामाल । मत सट्टा लगा० ॥ ५॥ सट्टेबाज - सट्टे में जो जीत के आवे, पावे ऐश आराम । मज़ा करे परवार जोसारा, क्या अच्छा यह काम | - जरा सट्टा लगा० ||६|| विरोधी - सट्टे के शौकीन जो भाई, ढूंढ साधु फकीर । सौ २ गाली सुनकर आवें, क्या उलटी तकदीर | । मत सट्टा लगा० ॥७॥ सट्टेबाज-साधू सन्त जो गाली देवें, तू क्या जाने यार । सट्टेबाज ही अर्थ निकालें, दिल में सोच विचार । जरा सट्टा लगा० || || Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) विरोधी---वाह मजेदार यह प्याला, मोरीमें गिरानेवाला जूतों से पिटाने वाला, इज्जत को घटाने वाला। शरावी-~-यह मस्त बनावे ऐसा, बस बादशाह है जैसा । विरोधी--(शेर) अय अहले हिद तुमको खोया शराब ने, जाहो जलाल मरतबा खोया शराब ने । वेसुध पड़े हो ऐसे कि अपनी खबर नही, उल्लू बना दिया तुम्हे गोया शराव ने ॥ अव मंजिले तरक्की पर पहुंचोगे किस तरहे, कांटों का बीज राह में बोया शराब ने ॥ गैरत नहीं तुम्हें जरा देखो तो हालको, फिहरिस्त नंगों के नाम में लिखाया शराब ने ।। (चलत) यह हालत देखो कैसी, बिल्कुल है मुर्दा जैसी, अब होश में आओ छोड़ नशेको इस्की ऐसी तैसी। शराबी-क्या अजव हाल हुआ मेरा, किस बदमस्ती ने घेरा, ' यह कैसा छाया अन्धेरा, दिखता नहीं शाम सवेरा । विरोधी-तू हटको छोड़दे भाई, नही इसमें कोई बड़ाई, यह नशा बड़ा दुखदाई, कहता हूं सुन चितलाई । शराबी-तरी मान नसीहत छोड़, बोतल को जमींम तोडू ना पियूं कभी यह य्याला, वे इज्जत करने वाला। ना पियो कोई यह य्याला, लानत २ यह प्याला ।। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) ५४ ( भजन - शराव निषेध ) राम नाम रस के एवज़ में, शराब का अ है प्याला, पिलादे साक़ी, रहै न वाकी, कुछ बोतल में गुललाला || पी पी शराब बनकर नवाव, गलियों में टक्कर खाते हैं । अड़ंग बड़ंग मुंह से वकते हैं, टेढ़ी चाल दिखाते हैं। नशे का चक्कर जिस दम थाया, नाली में गिर जाते हैं । कम करनेको नशा महरबान, कुत्ते उन्हें न्हलाते है। नंबर बन की मुंह में वरांडी, छोड़ रहा कुत्ता काला । पिलादे साक़ी रहै न वाकी, कुछ वोतल में गुललाला ॥ १ ॥ भंगी और भिस्ती ने जब यह आकर देखा नज्जारा । नाली में से उठ श्री भड़वे, कहां से आया हत्यारा । कौन कहै सोचो न पलंग पै, यह तो उल्लू घर मारा। टांग पकड़ भंगी ने खींची, जोर से एक पंजर मारा । ऐसा केस एक दिन हमने खों देखा भाला । पिलादे साकी रहै न वाकी, कुछ बोतल मे गुल लाला || २ || आते जाते लोग देखकर कहने लगे मयख्वार पड़ा, कोई कहे भले घरोंका नालायक चदकार पड़ा । कोई कहै मोहताज है भूखा, पैसेसे लाचार पड़ा पड़ा । कोई कहै हैजे सेग का ताजा ही वीमार पड़ा । सिविल पुलिस में खबर करादो, पिलादे साकी रहन बाकी 1 7 - Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) कुछ० ॥ ३ ॥ घर जमीन बरबाद करी, घर पै औरत बीवी रोती। बेच दिये मेरे हंसले कठले, वचे नथली के मोती । एक सेज जब मिली न पाई, कलाल को जा दी धोती। बेहद पीने वालों की अकसर, हालत ऐसी होती! रामचंद सतसंग रंगका, पिया करो मित्रो प्याला । पिलादे साकी रहै न बाकी कुछ बोतल में गुललाला ।। ४ ।। ५५ ( भजन-शराब निषेध) मयकशी में देखलो, यारो मजा कुछ भी नहीं, खुदबखुद . वखुद वने, लेकिन मजा कुछ भी नही ।। टेक ।। सारे घर का मालोजर, बोतल के रस्ते खोदिया। मुफ्त में इज्जत गई, पाया मज़ा कुछ भी नहीं ॥ मय कशी० ॥१॥ जब नशा उतरा तो हालत, और बदतर होगई । खाली वोतल देखकर बोले मज़ा कुछ भी नहीं |मयकशी०॥२॥ रात दिन नारी विचारी, जान को रोया करे । ऐसी मयख्वारी पै लानत है मज़ा कुछभी नहीं ॥ मयकशी० ॥३॥ न्यायमत इस मय की उलफत का, नतीजा देख लो। वस खराबी के सिवा इसमें मजा कुछभी नहीं ।। मयकशी मे देखलो यारो मजा कुछ भी नहीं ॥४॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) ५६. ( भंग का ड्रामा ) पीने वाला -- चलो भंगिया पियें, चलो भंगिया पियें, इस यिन मूरख योंही जियें. ॥ कून्डी सोटा बजे दमादम, छने छनान भंग । मजा जिंदगी का जब यारो, हों चुल्ल में दंग | चलो भंगिया पियें चलो भंगिया पियें ॥१॥ विरोधी - मत भंगिया पियो मत भंगिया पियो, इस से अच्छे.योंही जियो' ॥ खुश्की लावे अकल नशावे, वेसुध करके डारे । होश रहें नहीं दीन दुनी का, । बिना मौत ही मारे || मत भंगिया प्रियो मत भंगिया । पायो इस विना० ॥ २ ॥ 1 1 पीने वाला तू क्या जाने स्वाद भंग का, है यह रस. अनमोल | मगन करे आनंद बढ़ावे, दे घट के पट. खोल || चलो भंगिया पियें ० || ३ || विरोधी - सिर घूमे और नथने सूखें, नींद घनेरी आवे,. कल की बात रही कल ऊपर, भूल, अभी की जावे. । मत भंगिया पियो, मतं भंगिया पियो० ॥४॥ ĭ 1 1 पीने वाला - भंग नही यह शिव की बूटी, अजर अमर है करती । जनम जनम के पाप नशाकर, सब रोगों को. हरती || चलो भंगिया पियें चलो, भंगिया पियें ॥५॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) विरोधी-भंग नही यह विष की पत्तियां, करे मनुष को ख्वार । जीते जी अंधा कर देती, फिर नरकों दे डार ।। मत भंगिया पिये मत भंगिया पिये ॥ ६॥ पीने वाला-कुंडीमें खुद बसै कन्हैया, अर सोटेमें श्याम । विजिया में भगवान बसें हैं, रगड़ रगड़ में राम ॥ ' चलो भंगिया पियें चलो भंगिया पियें ॥ ७॥ विरोधी-अरे भंग के पीने वालो, भंग वुद्धि हर लेत । होशियार और चतुर मर्द को, खरा गधा कर देत॥ मत भंगिया पियो मत भंगिया पियो० ॥ ८॥ पीनेवाला-झंठी वातें फिरे बनाता, ले पी थोड़ी भंग । एक पहर के वाद देखना, कैसा छावे रंग ॥ चलो भंगिया पीयें चलो भंगिया पियें ॥६॥ विरोधी-लानत इसपर लानत तुझ पर, चल चल होजा दुर । भंग पिये भंगी कहलावे, अरे पातकी कूर ॥ मत भंगिया पिये, मत भंगिया पिये ॥ १० ॥ पीनेवाला-(शेर) भंगके अद्भुत मजे को तूने कुछ जाना नहीं । रंग को इसके जरा भी मूढ़ पहिचाना नहीं । अांख में सुरखी का डोरा, मन में मौजों की लहर। शान्ती आनंद इसके विना, कभी पाना नहीं॥११॥ (चलत) साधू संत भंग सब पीते क्या कंगाल अमीर, Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) ईश्वर से लोलीन करावे, यह इसकी तासीर ॥ चलो भंगिया पियें चला भयिा पियें ॥ ११। विरोधी-(शेर) है नहीं यह भंग, कातिल अक्ल को तलवार है करती है यह बेहोश, जानो यह मुरदार है ॥ । खौफ जिनको है नरक का, वो इसे छूते नहीं। , वात सच मानो पियारे, यह नरक का द्वार है ॥ (चलत) यह सब सच्ची बातें भाइयो, भंग नरक डा। अांखें खोल जगत में देखो, लाखों काम विगारे॥ पीनेवाला-सुनकर यह उपदेश तुम्हारा, मुझे हुश्रा आनंद। लो में छोड़ी भंग आज से, ईश्वर की सौगन्द ॥ मत भंगिया पियो, मत भंगिया पियो० ॥ १२ ॥ विरोधी-भला किया यह काम आपने, दई भंग जो छोड़। और भी सबसे नियम करात्रो, कुंडी सोटा तोड़॥ मत भंगिया पियो, मत भंगिया पियो० ॥ पीनेवाला-कंडी तोडं सोटा तोड़ , भंग सड़क पर डारूं । कोई मत पीना भंग भाइयो, बारम्बार पुकारूं ॥ मत भंगिया पियो मत भंगिया पियो० ॥ १३ ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) ५७ ( हुक्के का ड्रामा) हुक्केबाज - श्रहाहाहा क्या अच्छा हुका है, है कोई हुकेका पीने वाला । ( चलत) क्या हुक्का बना ये आला, भर भर पी लो तुम लाला, जो पीव इसे पिलावें, वे लुत्फ़जिंदगी पावें । विरोधी - बुरी आदत है ये भाई, मत इसकी करो बड़ाई ।. दूर दूर हो लानत लानत, क्यों बनता सौदाई ॥ यह तनको खूब जलावे, बलगम को बहुत बढ़ावे | जो मुंहको इसे लगावे, ना लज्ज़त कुछ भी पावे || हुक्केवाज --- जिसको इक चिलम पिलाई, बलगम की करी सफाई | विरोधी — दूर दूर हो लानत २ क्यों बनता सौदाई || हुक्केबाज - क्या हुक्का बना ये याला भर भर पीलो तुम लाला, जो पीव इसे पिलावें, वह अकलमंद कहलावें ॥ विरोधी- जो हुक्के का दम लावें, ले चिलम श्रागको जावें, सौ सौ गाली फिर खावें, यह मान बड़ाई पावें । हुक्केवाज -- यह कैसी बात बनाई, कुछ कहते शर्म न आई । विरोधी - दूर दूर हो लानत २ क्यों बनता सौदाई | हुक्केबाज - क्या खूब बना ये आला, गंगाजल इसमें डाला Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ५६ ) पीने है अदना आला, यह घट में करे उजाला। विरोधी-~क्या खाक बनाये आला, दिल जिगर सब करे काला, अच्छा नशा यह निकाला,दोजत्व में गिरानेवाला हुक्केवाज-~-यह महफ़िलका सरदार, क्याजाने मूह गंवार । विर.धी--(शेर) कब तक कि हुक्का नोशो मुहल्ला जगा अोगे, बंसी बजाके नाग को कब तक खिलाओगे। मारे आस्ती डसेगा बस तुम्हें, पंजे से ऐसे देव के 'वचने न पाओगे । गर ज़िदगी चाहते हो तो इसको तर्क करो, खुद अपना वरना खिरमनेहस्ती जलाओगे। (चलत) जिस इससे मीन लगाई, आखिर में हुई दुख दाई । मान कहा क्यों पागल बनता कहांगई चतुराई। हुक्केवाज-तेरी मान नसीहत छोड़, ले अभी चिलम को तोडू। नहचे को तोड़ मरोड़ हुकेको ज़मीसे फोड़। ना पिऊ कभी यह हुक्का, लानत २ यह हुक्का, ना पिया यह हुक्का, वेशक लानत यह हुक्का ।। ५८ ' (लिगरेट का ड्रामा ) . पीनेवाला-यारो मुझे सिगरेट या बीड़ी दिलाना यारो मुझे सिगरेट या बीड़ी दिलाना, बीड़ी दिलाना माचिस लगाना कैसा यह फैशन वना । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७ ) विरोधी-शेम २-छोटो जरा सिंगरट का पीना पिलाना, पीना पिलाना दिलको जलाना, नाहक क्यों करते गुनाह । छोडो जरा० । पीनेवाला-दूर २-है जेब खाली डिबिया भी लाली . छुटता नहीं यह नशा । विरोधी---शेम २-मदिरा पड़ी इसमें लीद भरी है लानत है लानत नशा । पीनेवाला दूर २--चाते हैं कैसी दीवानों जैसी, गपशप . लगाते हो क्या चिरोधी-शेम २-होवेगी स्वारी नरकों की त्यारी, हद . को तो त्याग जरा। पीनेवाला-दूर २-पीवो पिलावो ज़रा मुंह को लगाओ, . कैसा यह शीरी अहा ! विरोधी-शेम २-सी० एल० पुकारे निनदास प्यारे, सोचो तो दिल में ज़रा। पीनेवाला---यस २-सोचा विचारा दिल में यह धारा, । वेशक बुरा है नशा। विरोधी-शाबास-छोडो ज़रा सिगरेटका पीना पिलाना । पीनेवाला-सिगरेट तोडूं डिविया यरोडूं लानत है लानत नशा । विरोधी-शावास छोडो ज़रा सिगरेट० ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) ५६ ( नशा निपेत्र ) जो चाहते हो खुशी से जीना, नशा न पीना नशा न पीना बुरी बला है यह जामो पीना, नशा न पीना नशा न पीना ॥ टेक ॥ शराबो अफयूनो चरसर्गांजा, है एक से एक कहर मोला, पुकार कर कह रहा है वंदा, नशा न पीना नशा न पीना० ॥ १ ॥ शरावियो की जो देखी हालत, किसी के कपड़े हैं कैसे लतपत, कोई है कहता बचश्मे इवरत, नशा न पीना नशा न पीना० ॥ २ ॥ कोई बदरों में पड़ रहा है, किसी का मुंह कुत्ता चाटता है, कोई यह चिल्ला के कह रहा है, नशा न पीना नशा न पीना० || ३ || अगर तुम्हारी है चश्मे वीना, न खाना अफवून न भंग, पीना | डवोऐगे यह तेरा सकीना, नशा न पीना नशा न पीना० ॥ ४ ॥ ६० रंडी निषेध ड्रामा ) ( रंडी नचानेवाला ) - ज़रा रंडी नचा ज़रा रंडी नचा, दौलत Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ } का दुनिया में यह है मज़ा | ( विरोधी) - मत रंडी नचा मत रंडी नचा, नरकोंमें तुझको यह देगी पाँचा । फिजूल करो बरवाद रुपैया ज़रा तो सोचो भाई । देख देख सन्तान तुम्हारी बिगड़ जाय अन्याई | मत रंडी नचा मत रंडी नचा० ॥ १ ॥ ( नचाने० ) तालीम सीखने रंडी वर औलाद हमारी जावे, सभी बात में ताक़ बने फिर कहीं ख़ता ना खावे । ( विरोधी) रंडी की खातिर जो देखे मन में उनके उठें उमंग रंडी रंडी नचा मत० ॥ ३ ॥ सो नारी ललचावे, फैशन बनावे | मत ( नचाने० ) समधी के दरवाजे सीने रंडी आय सुनावे | दे जवाब समधन जब उसको बाग वाग होजावे ॥ जरा रंडी नचा० || ' ॥ ( विरोधी ) नाच देखने के शौकीनो ज़रा सुनो दे कान । रुपया तुम्हारेसे कुरवानी होवे वेपरमान ॥ मत रंडी नचा मत रंडी नचा० ॥ ५ ॥ ( नचाने०) हम रुपया रंडी को देते ना कुछ कहते भाई । गान सुनै सो आनंद पावै खूब शान्ती छाई ॥ जरा रंडी नचा० ॥ ६ ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) (विरोधी) रातों जगने से महफिल में होते हो बीमार । वहुत जगह बुनियाद इसी पर चलते खूब पैजार ।। मत रंडी नचा मत रंडी नचो० ॥ ७ ॥ (नचाने०) महफिलमें रंडीकी शोहरत सुनकर सव आजावें रौनक बढे विवाह को भारी रुपया सभी चढ़ावें । ज़रा रंडी नचा जरा रंडी नचा० ॥८॥ (विरोधी) रंडी का सन नाम सभासे धार्मिकजन उठ जावें नंगों के बैठे रहने से मना नहीं कुछ आवे ॥ मत रंडी नचा मत रंडी नचा० ।।६।। ( नचाने०) बिन इसके रौनक नहीं आवै सनी लगे वरात दिन तो जैसे तैसे वितावें कटै न खाली रात ।। जरा रंडी नचा जरा रंडी नचा०॥ १० ॥ (विरोधी) धर्मोपदेशक वलवा करके, कीजे धर्म प्रचार । रंडी भड़वे तुम्हें बनावे करदें खाने खराव ॥ मत रंडी नचा मत रंडी नचा० ॥११॥ (नचाने०) नित्य नहीं हम नाच करावें कभी २ करवावें । नेग टेहले को साधे है, नहीं खता हम पावें ।। जरा रंडी नचा जरा रंडी नचा० ॥ १२ ॥ (वरोधी) एक दफे का लगा ये चस्का, कर देता है ख्वार । धन दौलत सब खोकर प्यारे, होजायगा बेज़ार ।। मत रंडी नचा मत रंडी नचा० ॥ १३ ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) (नचाने०) सुनी नसीहत तेरी भाई मन में हुआ विचार । रुपया तवा होके क्या, जाना होगा नर्क मंझार ॥ जरा सची वता जरा सी बता० ॥ १४ ॥ (विरोधी) सत्य कहूँ मैं नर्क पड़ोग्रे सुनलो रंडी वालो। कदै जवाहर जैनी तुम से कसम धर्म को खालो । मत रंडी नचा मत रंडी नचा० ॥ १४ ॥ (नचाने०) सुनकर शिज़ा तेरी भाई कसम धर्म की खाऊ नाच देखने और करवाने का में हलफ उठाऊं। नहीं रंडी नचाऊँ नहीं रंडी नचाऊँ आज से लो मैं हलफ़ उठाऊँ।। १६ ।। • ( वेश्यां निपेय ) रंडी बाज़ी में गर्क ज़माना हुआ, बड़े अपनों को दाग़ लगाना हुया ।। टेक ।। जिनके धन थे अपार, फंदे इसके पड़े यार, खोया ज़रमाल सार, हुई इज्जत बार, खाली दौलन का सारा खजाना हुया । रंडी बाजी मे० ॥ १॥ एक पाई का यार, नहीं मिलता उधार, कहे आदम बढकार मुंह से थके संसार, फल वेश्याकी प्रीती का पाना हुआ। रंडीवाजी में गर्क जमाना० ॥ २ ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) गरचे रंडीके यार, गर्भ तेरा रहजाय, कन्या जन्मे जो श्राय, जग से मैथुन कराय, बेशुमार जमाई बनाना हुआ | रंडी बाज़ी में० ॥ ३ ॥ यदि गर्मी होजाय, फिरो टहनी हिलाय, कहीं जात्रो चलाय, देख तुम को विनाय, कहैं उठना वो, खूब याराना हुआ । रंडी बाज़ी में० ॥ ४ ॥ जबलों पैसा है पास, रंडी रहती हैं दास, नही पैसा रहा पास, देवे बाहर निकास, घरसे मुवे निकल क्या दिवाना हुवा | रंडी बाजी में० ॥ ५ ॥ जाओ फिर कर जो यार, मारे जूते हजार, दौड़ लावे पुकार, पुरक बांधै सरकार, पुलिस आगई इज़हार लिखाना हुआ । रडी बाजी में गर्क जमाना हुआ || ६ || फौरन थाने में थान किया तेरा चालान, हुक्म डिप्टी ने तान, दिया ऐसा लो जान, छह की सजा, दस जुर्माना हुआ | रंडी बाजी में० ॥ ७ ॥ कहता जैनी ललकार, कर इससे न प्यार, जाओ नरकों मंझार, नहीं हरगिज जिनहार, प्रीति इससे न कर, क्यों दिवाना हुआ | रंडीबाजी मे गर्क ज़माना हुआ || ८ ॥ ६२ ( रंडी निषेध ) हया और शर्म तज रंडी सरे महफिल नचाई है, न समझो Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) इसमें कुछ इज्जत सरासर बेहयाई है ।। टेक ॥ निगाहे बद से देखें वाप बेटा और भाई सब, कहो यह मा हुई भावी वहन अथवा लुगाई है । हया और० ॥१॥ दिखा कर नाच और रुपया उनसे दिला कर के, अरे अन्याइयो बच्चों को क्या शिक्षा दिलाई है । हया० ॥२॥ लखें कोठे झरोखों से तुम्हारे घर की सब नारी, असर क्या नेक दिलपै पेदा होता भाई है। हया और० ॥३॥ यह खातिर देख उसकी सबके दिल में आग लगती है, है श्रापस में यह कहती वाह क्या उमदा कमाई है। हया और शर्म० ॥४॥ कभी विछुवे न नथ बाली हमें स्वामी ने वनवाई, मगर इस वेवफा औरत को दी सारी कमाई है । हया० ॥५॥ हुई खातिर कभी ऐसी न जैसी इसकी होती है, वनी वेगम पड़ी दिन रात तोड़े चारपाई है । हया और शर्म० ॥६॥ Kho ( वेश्या निषेध ) मत वेश्या से प्रीति लगायो जी ॥ टेक ॥ लाखो हजारों घर गारत हुए है नालिश फरादी, कुरकी फैलादी नीलामों की होय मनादी । हा। मत वेश्या०॥१॥ लाखों हजारों प्राणी भूखे मरे है धनको खोकर, निर्धन Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) होकर, फिर भटकते है दरदर। हा। मत वेश्या से० ॥२॥ लाखों करोड़ों की जानें गई हैं वीरज खोकर, निर्वल होकर हों बीमार मरें सड़ सड़ कर । हा । मत० ॥३॥ हजारों गरमी से सड़ रहे है नीम की टहनी पड़ेगी लेनी, होय मुसीवत भारी सहनी, हा मत वेश्या से प्रीति०॥४॥ लाखों प्रमेह रोग भुगत रहे हैं, तेल खटाई मिरच मिठाई, खा तो कमबख्ती आई । हा । मत वेश्या से ॥ ५॥ होवे जो रंडी के पुत्री तुम्हारी, करती कमाई दुनिया से भाई गिनो तो कितने भये जमाई। हा । मत वेश्या०॥६॥ कहता जैनी अब कुछ चेतो, माल वचारो इज्जत कमायो, भूल कभी वेश्या के न जायो । हा । मत वेश्या से प्रीति लगाओ जी ॥७॥ (एक बूढे के दिल में शादी की उमग ) गद्य ___ भाई बूढो ! मेरी बडी उमर के दोस्तो! कुछ तुम्हें अपनी भी खबर है , न तो तुम्हारे घर है न दर है। भाई सुमको कुछ ख्याल हो या न हो लेकिन मैं अपनी क्या कहूं, जब से घर की औरत का साथ छूटा तब से मेरा तो बिलकुल ही भाग फुटा है। उसके मरने के बाद न कुछ खाना है न पीना है। न मरना है न जीना है। क्या Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई जब मैं अपने बचो और पोतों की जारुओं के विछुओं की झंकार बुनता हूं नर हाय मलता हूं और सिर को धुनता हूं। न दिन को चैन है और न रानीपाराम है। सच पूछो नो विला जोरू के यह मिदगी हराम है। याइयो । निंदनी के दिन तो बुरी बली तरह से गुजर ही जायगे और मरने को वह क्या मर्ग हम भी एक न एक दिन मर ही जायंगे लेकिन सब से ज्यादा फिकर नो यह है कि बाइ मरनेके डिग झोन नाड़गी. करवा कौन फोड़ेगी बिछुड़े कौन उतरेगी, वनड़ो कोर फाड़ेगी। हाय। जब इस बान का गल जाता है तो बानी पर को लांग सा चला जाता है । पाइयो : मत सुनो इन नौजवानोंकी, मत सुनो इन आलिम और विद्वानों की ! यह तो अपने मतलब की कहते हैं, खुद मजे में रहते है। इनको हमलोगों की क्या खबर है। नुरडा हिश्न में जाय या दोजख में। इनको तो अपने दात मांडे से काम है। वर्स वस, आओ! भाइयों शादी कगा। कोई सात पाठ कई की नन्ही सी दुल्हन व्याह कर लावे। लेकिन ख्याल रखना अगर कोई बड़ो दुल्हन आवेगी नो वह कमवल्ल हनो ही नाच नोच कर खाजावेगी। इस लिये खूब लोच समझ कर काम करना चाहिये मेरी तो यह राय है किविता जोह के रंडवेपन की डालन मे हरगिज न मरना Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) चाहिये वाह ! वाह वाह ! आहा! आना! भाई खब में तो जर ही शादी कराऊंगा। (वृहे का गाना) ढा-मैं तो शादी करूं मैं तो शादी कलं, शादी से - खाना भावान कलं॥टेक॥ - - नई नवीली देतच्चीली इक जोर व्याह लाऊं, वृहा होरर दुल्दा जहाजं, सरपर मौड़ घराऊं। मैंनो शादी कला॥ सामर-मत शादी करे, मत शादी करे, भारत की क्या वरवादी करे ।। टेक॥ साउ दरस का बूढा खूसर, मुंह में रहा न दांन । गड़गड़ वाते गईन तरी, यर यर कार गान। मत शाजी कर मन शादी करे ।। भारत० ॥२॥ चेहरा रा है मुझोया, पोले पड़ गये गाल । बात करते हुए टपकनी मुंह से टप टप रात ।। मत शादी करे या शादी० ॥३॥ बुबा-वाय पैर से हूँ मैं चंगा, कन्न गठीला मेरा । जोइक थप्पड़ कसकर मालं नो मुंह फिरजावे तेरा ॥ में की शादी करें ॥2 रिफार्मर-वस यस रो वही मन आगे. बड़े न बोतो वोल ! आंखों के अन्य हो. फिर भी देखो अांखें सोल । मत शाही करो मन शादी! ५ ।। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) बूढा - देख मेरा आँखों का सुरमा, कैसा लगे पियारा । हाथों कंगन पहन लगूं मैं, जैसे राज दुलारा ॥ मैं तो शादी करूं ॥ ६ ॥ रिफार्मर - बेटे पोते घर पड़पोते, कुटुंब तेरे घर वारी । तुझे लगी शादी की, बिलकुल गई तेरी मत मारी ॥ मत शादी ० ॥ ७ ॥ चूढा -- बेटे पोते अपने घर के, मेरा तो घर खाली । घर की लाली जभी रहे जब हो घर में घर वाली ॥ मैं तो शादी करूं मैं तो शादी० ॥ ८ ॥ रिफार्मर-घर वाली क्या तेरी जानको रोवेगी नादान । आज कराता है तू शादी, कल चढ़ चले विमान || मत शादी करे मत शादी० ॥ ६ ॥ शेर चैठ कर अरथी पै तू कल जायगा स्मशान में । करके जायगा दुल्हन को, रांड तू इक आन में ॥ क्या भरोसा जिंदगी का और फिर बूढा है तू । पैर तेरे गोर में, और हाथ कररिस्तान में || क्यों करे ज़ालिम किसी की जिंदगी बरबाद तू । क्या धरा व व्याह में और व्याह के अरमान में ।। गर तू जोती चाहता हे आकृवत में हो भला । मन लगा भगवान में और धन लगा पुन्य दान में || । 9 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) (चलत) मत कर शादी, घर बरवादी, तुझे सलाहदी सुखकारी सोच समझ कर देख ज़रा तू इसमें निकलेगी ख्वारी॥ बुढा-कुछ परवा की बात नहीं जो हूं कल रथी सवार । करवा फोड़े चुड़ियां तोड़े नई नवीली नार ॥॥ मैं तो शादी० ॥१०॥ । (शेर ) । क्या भला यह कम नफा है जो हो घरमें स्त्री। तोड़े चुड़ियां फोड़े करवा सर की फाड़े चुनरी ॥ , और घर के सब करेंगे शोक लोकालाज को।' पर वह सच्चे दिल से मेरा शोक माने गम भरी ॥ एक तो वैसे मरना है बुरा संसार में। और फिर रंडवे का मरना बात है कितनी बुरी ॥ यह समझ कर मैंने इरादा ब्याह करने का किया । . अब नहीं मानंगा ज्योती इसी में है वेहतरी ॥ . (चलत) होवे शादी घर आबादी, मनकी मुरादी बर आवे । हट्टा कट्टा हूं मैं पहा, तू क्यों रोड़ा अटकावे ॥ रिफार्मर-मैं कहता हूं तेरे भले की समझ २ नादान । - बन्ना बने मत व्याह करे मत, बात मेरी ले मान ।। ' 'मत शादी० ॥११॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) बूढा-नहीं भले की बात कही तैं बुरे की सारी ।। जा घर अपने बैठ छोकरे अकल गई तेरी मारी ।। मैं तो शादी० ॥ १२ ॥ , हाय हाय बूढों के व्याह ने किया देश का नाश । तीस लाख भारत की विधवा भोग रही हैं त्रास ॥ मत शादी करे मत शादी करे ॥ १३ ॥ बूढा-फिर क्या भारत की रांडों का मैं हूं जिम्मेदार । - उन कमबख्तों के सिर कर पड़ी कर्म की मार ।। मैं तो शादी करूं ॥ १४ ॥ रिफार्मर-नहीं कर्म की मार पड़ी है तुझ जैसों ने कीना खुशी खुशी से शादी करके महापाप सिर लीना ॥ मत शादी करे मत शादी० ॥ १५ ॥ बूढा-बात कही तें सच्ची प्यारे अांख खुली अब मेरी । , मैं नहीं हरगिज़ ब्याह करूंगा, सुनी नसीहत तेरी ।। नहीं शादी करूं नहीं शादी करूं आज से लो मैं नियम करूं, नहीं शादी करूं नही शादी करूं । (वढे के ब्याह का ड्रामा) बुट्टा छोटीसी छोकरीको ब्याह लिये जाय । शेम शेम ॥ टेक गोदी खिलायगा, बेटी बनायगा। नन्हीसी बाला को व्याह लिये जाय, बूढा छोटीसी छोकरी० ॥ शेम शेम ॥१॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) 1 ॥ हिये का फूटा दांतों का टूटा । वोकेसे मुंह का यह व्याह लिये जाय || बूढा छोटी० ॥ शेम शेम || २ || डाढी मुंडाई, मूछें कटाई | चहरे पै उवटन मलाय लिये जाय । बूढा छोटी० ॥ शेम० शे० ॥ ३ ॥ सिर को रंगाया, सुरमा लगाया । मुखपै तो पौडर लगाय लिये जाय । वढा छोटी || शेम शेम० ॥ ४ ॥ गर्दन है हिलती, आंखें हैं मिलती, हाथों में कंगना बंधाय लिये जाय । बूढा छोटी० । शेम शेप० ॥ ५ ॥ 1 मिस्सी लगाई, महंदी रचाई। सिर पै तो सेहरा बंधाय लिये जाय | बुड्डा० || शेम शेम ॥ पोती सी दुल्हन, बाबा सा दुल्हा । रोती रोती छोकरी उडाय लिये जाय । बुड्डा० || शेम शेय० ॥ ७ ॥ ग्यारह की बनी, अस्सी का बन्ना । रुपयों की थैली झुकाय लिये जाय । वुड्डा छोटी० ॥ शेम शेम ॥ ८ ॥ देखो यह बूढा बुद्धि का कूढा, करने को विधवा ये व्याह लिये जाय । वुड्डा छोटी सी ० ॥ शेम शेम ॥ ६ ॥ ६ ॥ ६५ ( चोरी का ड्रामा ) (चोर) चलो चोरी करे चलो चोरी करें, जाकर किसीका धन हम हरें || टेक || Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) चोरी करने वाले यारो मन माना धन पाते, मजे करें है अपने घर में बैठे ऐश उडाते । चलो चोरी० ॥ १ ( विरोधी ) मत चोरी करो मत चोरी करो, नाहक किसी का धन क्यों हरो ॥ टेक ॥ इस दुनियां में धन है भाइयो, प्राणों से भी प्यारा । जो कोई चोरी करके लावे वो होवे हत्यारा ॥ मत चोरी करो मत० ॥ २ ॥ (चोर) चोरी करने वाला यारो कभी न हो कंगाल । (सारा कुनवा ऐश उडावे मिलै मुफ्त का माल || चलो चोरी० ॥ ३ ॥ ( विरोधी) चोर उचके डाकू का, कोई न करे इतवार । घर बाहर नहीं इज्जत पावे, बुरा कहे संसार ॥ मत चोरी० ॥ ४ ॥ (चोर) चोर उचक्के डाकू जगमें, जत्रांमर्द कहलाते । नाम हमारा सुनके भाई, सभी लोग थते ॥ चलो चोरी० ॥ ५ ॥ ( विरोधी) बुरा काम चोरी है भाइयो, मतलो इसका नाम । पड़े जेलखाने में जाकर, नाहक हों बदनाम | मत चोरी करो मत चोरी करो० || ६ || (चोर) चोरी करने वाले यारो, जरा फिक्र नहीं करते । चाहे कैद होजांय वहां भी, पेट मजे से भरते ॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) चलो चोरी करें चलो चोरी करें । ७ ।। (विरोधी) क्या करता तारीफ कैद की, सुनकर दिल थराचे चक्की पीसे बुने बोरिये, मार रात दिन खावे || मत चोरी करो मत चोरी करो० || ८ || (चोर) जो असली है चोर, कैद में नहीं मार वो खाते । करके काम मजे से सारा, मुफ्त रोटियां खाते || चलो चोरी करें चलो चोरी करें ॥ ६ ॥ ( विरोधी ) नही चैन दिन रात कैद में, भरते रहै तवाई | महा कष्ट से प्रारण छोड़कर सहै नरक दुख भाई ॥ मत चोरी करो मत चोरी करो० ॥ १० ॥ (चोर) नरकों के कुछ दुखका भाइयो, मतना करो बिचार । देखे भाले नही किसी ने, यही कहै संसार || चलो चोरी करें० ॥ ११ ॥ शेर (बिरोधी) । नरकों के दुख की कुछ तुम्हें यारो खबर नहीं । दूसरो का वन हरो हो, फिर भी मन में डर नहीं | मारें छेदें चीर फारें नर्क गति में नारकी । याद रक्खो चोर का इसके सिवा कोई घर नहीं ॥ गर तुम्हें मंजूर होवे बहतरी अपनी सदा । मत हरो धन और का इसका समर अच्छा नहीं ॥ ( चलत) जो चोरी से नहीं डरते वो दुख नरकों का भरते, Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) मान कहा भरख अज्ञानी चोरी कभी न करना। (चोरी) अब मेरी समझमें आई, वेशक है वहुत बुराई, त्याग किया चोरीका मैंने आजसे मैंतो नियम करूं।। (हिन्दी भाषा की प्रशंसा) सकल भाषाओं में रे उत्तम देवनागरी भाण | टेक ।। देवनागरी है वो भाषा, जो लिक्खो सो पढ़लो । और किसी में सिफत नहीं है चाहे परीक्षा करलो ।। . सकल भाषाओं में रे देव० ॥१॥ अक्षर केवल चार नागरी शब्द वना हरिद्वार । सात हरफ उरद के मिल कर बनता हरी दिवार ॥ सकल भाषाओं में रे उत्तम० ॥२॥ एच. ए. आर. डी. डब्ल्यू. ए. आर. (HA.RDWAR) अंग्रेजी में यार, इतनी दूर में लिखा जावे फिरभी हरी डार || सकल भाषाओं में रे० ॥ ३ ॥ किसी ने उर्दू में खत लिखकर मंगवाये थे आल | पढ़ने वाले ने क्या भेजा इक पिंजरे में उल्ल ।। सकल भाषा० ॥४॥ शुड,SHOULD) में एल लिखा जाता है पढने में नही आवे कौन खता के बगैर मतलब विस्था पकड़ा जावे ॥ सकल भाषा० ॥३॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) सुन्दर नाम नागरी लिक्खो प्रियवर मोतीदत्त । अंग्रेजी में लिक्खा जावे डीयर मोटीडट्ट।। सकल भाषाओं० ॥६॥ इंगलिश के स्पेलिंग देखकर क्यों ना हांसीआये । वी य टी तो वठ हो किन्तु पी यू टी पट होजावे ।। सकल भाषाओं में रे० ॥७॥ मुद्दत से यह संस्कृत भापा मुरदा हुई थी सारी । पुनः जीवित कर गये इसको अकलंकदेव निस्तारी ।। सकल भाषाओं में रे० ॥८॥ (डामा बाल विवाह) फर्ता-मेरे भाई का ब्याह मेरे भाई का ध्याह, चलकर खुशी मनाऊंगा अाज, मेरे भाई का व्याह । टेक ।। (दोहा) मामी मौसी मिल सभी, करत सुमंगल गान गीत नृत्य के रंग में, सब घर है इक तान ।। मेरे भाई० ॥ विरोधी-मुख तेरा खुश दीखता, अरु प्रमुदित सब गात । भ्रात वेता दे क्या हुई, आज खुशी की बात ॥ तेरे भाई का व्याह तेरे भाई का ब्याह चलकर खुशी मनायेगा आर ।। २ ।। कर्ताहां भ्राता जी सत्य है, आनंद कारण आज । मेरे प्यारे भ्रातका, हुअा व्याहका साज ।। मेरे०॥३ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) / विरोधी-बुरी भारत की राह वुरी भारत की शह, मत कर छोटे से भाई का व्याह वुरी भारत की राह० ।। (दोहा) क्या कहते हो भ्रातजी, भाई प्रति ही बाल, आठ वर्ष की उमर में, क्या व्याहन का काल 11 वुरी भारत की राह० ॥ ४ ॥ फर्ता - क्यों होगा आनंद नहीं, भाई का है व्याह | वात खुशी की है बड़ी, सबको होगी चाह || मेरे भाई का व्याह० ॥ ५ ॥ विरोधी - धूम मचाई अटपटी, खुशी मनाई तुम सब कुछ नहीं समझते, गलती है वुरी भारत की राह० ॥ ६ ॥ 1 भूर भरपूर फर्ता - मेरी भावज को अभी, लगा वारहवां वर्ष । जोड़ी अच्छी देखके, सबने माना हर्ष ॥ मेरे भाई ० ॥ ७ ॥ विरोधी - भावज भाई से बड़ी, लगा वारहवां वर्ष | लानत ऐसे व्याह पर, क्यों माना है हर्प ॥ वुरी भारत की० ॥ ८ ॥ कर्ता-लड़की भी है वो बड़ी, रक्खें कैसे लोग | पढ़ने से क्या होगा, कहते है सब लोग || मेरे भाई का व्याह ॥ ६ ॥ " 慕 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) विरोधी - अरे अरे अफसोस है, दुख भरा संसार । — जिसमें रोने आदि की, शिक्षा का प्रचार ॥ वुरी भारत की० ॥ १० ॥ कर्ता - पढ़ने से क्या होयगा, करना क्या व्यापार । इतना ही बस बहुत है, करना शिष्टाचार ॥ मेरे भाई का० ॥ ११ ॥ विरोधी-भ्राता लड़की एक है, देवी अति ही बाल । छोटे पन में लेगया, उसके पति को काल || वुरी भारत० || १२ || कर्ता —बड़े भाग के योगतें, आवे यह संयोग । लाड़ लड़ाकर बहू का, धनका हो उपयोग ॥ मेरे भाई० ॥ १३ ॥ विरोधी — नहीं बुद्धि विद्या कछू, नहीं जाने कुछ राह । - पढ़ता पहिली क्लास में, क्या जाने वह व्याह || बुरो भारत० ॥ १४ ॥ - कर्ता - नाई ब्राह्मण मिल सभी, घर पर आये आज । खुशी मनाते है सभी, सुनकर साज समाज ॥ मेरे भाई० || १५ || विसेबी-पढ़ी लिखी भी है नहीं, जाने न कुछ भी राह | जल्दी इतनी क्यों करी, पीछे होता ब्याह | वुरी भारत० ॥ १६ ॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) कर्ता-माता उस्की अनपढ़ी, करे कौन जब गौर । - रोना धोना आगया, अब क्या करना और ॥ मेरे भाई० ॥ १७॥ विरोधी-स्वार्थ बुद्धि हैं ये पिना, माता उनकी कूर । जिससे भाई होगये, धन के नशे में चूर ॥ . वुरी भारत० ॥१८॥ · बहुत कहूं क्या मेरे भाई, बाल विवाह अनीत । यह कुरीत निखार कर, फैलाश्रो जग कीर्ति । दुरी भारत की राह० ॥ १६ ॥ कर्ता-भाई बात यह सत्य है, हम सब धरें जु ध्यान । तो होजावे जल्द ही, भारत का उत्थान ॥ दुरी भारत की राह० ॥ २० ॥ , भगवत से हम प्रार्थना, करते हैं धरि ध्यान । भारत की सुख शान्त का, हो जावे उत्थान ॥ वुरी भारत की० ।। २१ ॥ (भजन उपदेशी) फिरे अरसे से होता तू ख्वार दिला, देखा तुझसा तो मैंने वशर ही नहीं । जिसे नादां तू समझे हे अपना मकां, यह तू करले यकी तेरा घरही नहीं ॥ टेक ॥ जैसे Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) गैर को लेकर कोई ज़मीं बना झोपड़ी अपनी को लेवे सजा, जब मालिक आनके करदे जुदा चलै उस दम कोई उज़र ही नही ॥ फिरे अरसे से० ॥१॥पी मोह शराव खराव हुआ, पड़ा गाफिल खोकर होश को त, बड़ा वेडर होके वैठ रहा, यहां के तो वरावर डर ही नहीं । फिरे अरसे०॥२॥ कहे मेरा मेरा सब माल व ज़र, परवार मेरा अरु बागो चमन । तेरा यार नही परवार नहों, तेरा माल नहीं तेरा ज़रही नहीं ॥ फिरे अरसे से० ॥ ३ ॥ करै गैर की चीज़ पै दावा दिला, अरु चीज को अपनी त भल गया। त ने जुल्म पै वांधी है कस के कमर, इन्साफ पै तेरी नज़र ही नहीं । फिरे अरसे० ॥ ४ ॥ तू तो जाल में दुनियां के ऐसा फंसा, तुझे आगे का ख्याल ज़रा भी नहीं । तझे अपने वतन का न सोच दिला, तो अपने तो घर का फिकर ही नहीं । फिरे अरसे से० ॥ ५ ॥ चलो जोतीस्वरूप वतन को दिला, परदेश से दिल को अपने हटा । कर हिम्मत कस कर बांधो कमर, फिर हटके जो आओ इधर ही नहीं ॥ फिरे अरसे से० ॥६॥ (चार मत खंडन ) भज अरहन्तं भज अरहन्तं भज अरहन्तं भय हरणं। टेक॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) ब्रह्मा काar at rat चावर इन्द्र सुपद लेवा, मृगछाला चाम जु आला फेरइ माला कर सेवा । तब इन्द्र पठाई देवी आई जाई पासइ नृत्य ठयो, तब इच्छा जागी भयो सरागी त्यागी पदते भृष्ट भयो, निज श्राव गमाई लोग हंसाई सो क्यों नहिं टारचो निज मरणं ॥ भज अरहन्तं ॥ १ ॥ कृष्ण मुरारी गऊ आचारी दे दे तारी हरखायो, गूजर की लड़की सिर मटकी झटकी पटकी दधि खायो । जोर जोरी वांह मरोरी गागर फोरी जल ढोरी, घर घर डोले मुख ना वोले औलें छिप माखन चोरै । भगत उचार राक्षस मारै सो कम हो तारन तरनं ॥ भजअर० ||२|| पी भांग धतूरा अमली पूरा सांप गुहेरा कंठ घरै, चढ़ि पशु सवारी साथ में नारी प्यारी प्यारी भजन करै, गौरा संग राचै गावै नाचै सांचे मन सेवा सारै, नर सिर माला धेरै विशाला शक्ति कपाला कर धारै । भोगी होय कहावे जोगी सो किस विध हो तारन तरनम् || भज अरहन्तं भज अरहन्तं ० || ३ || मच्छी यासं करइ ग्रासं छिन छिन नासं जगत कहै, ये वचनविलासा झूठो भाषा भगत बिलासा किम लहिये, करम कमाई कियो न पावई यों समझा बोध मती, साथ कहाव क्या फल पावै इह मन भावै ए करती, - Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) मिथ्या वांनी हे अज्ञानी ताको कौन करे वर्णन | भज अरहन्तं भज र० ॥ ४ ॥ बहु सुरतें यावर उदर समावइ पायइ छत्रीकुल नीके सुर इन्दर व नगर रचाएँ सब गुण गावैं प्रभु जी के, होय विरागी माया त्यामी जागी अगनी ज्ञानमयी, सत्र कर्म्म नसावइ केवल पावई वेद बतावई ईश थई, पट भूषण अष्टादश दूपण नाही जिसमें सो शरणं ॥ भज ० ॥५॥ पांच क्षेत्रको देव जगत में सेव करीजे परख करी, अनन्तकाल की जगतजालमें उलझ रहा नही गरज सरी, लख चौरासी की गल फांसी कीया पासी जहां जासी, देखि विमासी तजके हांसी निज घर आसी सुख पासी, बारंवारा करो विचारा ईश्वर शुद्ध हिये धरणं ॥ भज अरहन्तं ॥ ६ ॥ 1 ज्ञान कमाया मोल विकाया रीस रिसाया भेष धरे, काम मरोरे माया जोरे व्याज बहौंरे तोप हरे । गुरु बिन अज्ञानी चेला मानी मानी की दुरगति न्यारी, डोरी गावइ जग परचावई माल उड़ावइ लै भारी, धर्म न रही उलटा लरहि डरें नही परवपु हरणं || भज अर० ||७|| पांच भेवको देव जगत में सेव करीजे परख करी, अनन्तकाल का जगतजाल में उलझर रहा नहीं गरज सरी, लख चौरासी की गल फांसी किया पासी जहां जासी, Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखि बिमासी तनके हांसी निज घर पासी सुख पासी, बारंबारा करो बिचारा ईश्वर शुद्ध हिये धरणं ! भग अर हन्तं भज अरहन्तं ।।।। सुमति जागी भयो विरागी घर धनधास बस, ज्ञान अभ्यासी परम उदासी सिंघासी पिणनाहि नसै, आठ चीस गुण धरै मुनी सुर इम रीस रहित शिरता गर्ने, चाले मन माने बसन विगाने आय आय पर पर जाने, यह मुनिराज विराजत जहां जहां तहां मुझ धोक हुओ चरणं ॥ भज अरिहन्तं भज अरिहन्तं ॥६॥ __ मतचार अनारज कीने खारन आचारज अकसंक मुनी, जिस डंक बनायो सभा सुनायो मैं गुनगायो ग्रंथ सुनी । तजो कुदेवा भजो सुदेवा कुगुरु सुगुरु को भेव लहौ, परजग साग को न तम्हारा क्यों पापी की पक्ष गहो, जैतराम फहैं इष्ट नाम जप काटी कर्म जु श्रावरनं ।। भज अरहन्त० ॥१०॥ सम्मत उनीस साल इकीसै दीसे दीसे मत गाये, धर्मी न रीसई पापी रीसई खीसई पापी जाडयन भाये । ऐवी खासा चोर उजाला परे न श्रासा नही लोगो, मैं बलिहारी देव तिहारी भारी कर्म ‘हणो मोरे । सुख संसार क्षार को लेपन चाहूं' भव दधि उद्धरनं ।। मन अरहन्तं० ॥ ११ ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) ७० (भजन उपदेशी ) नहीं कुछ हम किसीके हैं, हमारा को न प्यारा है ।।टेक।। सुता सुत बहन परवारा, पिता माता हितू दारा । ये तन सम्बन्ध कुटुम्ब न्यारा हमारा क्या हमारा है ॥ नहीं कुछ० ॥१॥ सराये सम जगत पाता, कोई आता कोई जाता । मुसाफर से कहा नाता, कोई दमका गुजारा है ॥ नहीं कुछ० ।। २ ॥ विषय सुख पुन्य की माया, घोर दुख पाप से पाया । ये सुख दुख कर्म की छाया, अलग चेतन विचारा है ॥ नहीं कुछ० ॥३॥ मिटा भ्रम नंद उद्योती, तेरे घटमें परम जोती । सकल जग रीत लखि थोथी, किया सवले किनारा है । नहीं कुछ।॥४॥ (वीनती पार्शनाथ) पारस पुकार मेरी, सुनिये करी क्या देरी ॥ टेक ।। भ्रमियो मैं लक्षचौरासी, धर धरके देहनाशी । जन्मा फिर मरन ताई, अति घोर दुख लहाई ॥ पारस पुकार०॥१॥ पाया में कष्ट भारी, वरनों मैं तुम अगारी । तुम हो जगत के स्वामी, वाधा हरन को नामी ॥ पारस पुकार०॥२॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ८६ ) अंजन से चोर तारे, श्रीपाल उदधि उवारे | जल ते उरग बचाये, धरनेन्द्र पद ते पांये || पारस पुकार० ॥ ३ ॥ संकट पड़ा सिया को, अगनी से जल किया जो । मुनि मान तुंगराई, बंधन तुरत छुड़ाई || पारल पुकार० || ४ | सीके अनेक जीवा, सुमिरन अरहन्त देवा | तारक है नाम थारा, तो क्या गुनाह हमारा || पारस पुकार ||५|| भविजन शरण तुम्ही हो, कर्मन हरन तुम्ही हो | हारन तरन तुम्ही हो, शिव सुखकरन तुम्हीं हो || पारस०||६|| देखे कुदेव सते, फिरते जगत को ठगते । क्रोधी कोई लुभ्यारे, विषयी कोई शिकारे । तुमही दोष पाये, कहां लो तुमरे गुन गांऊ महिमा कहो तुम्हारी, कीजे दया हजारी || पारस पुकार० ॥ ७ ॥ · ७२ ( भजन कूट के विषय में ) इस फुट ने बिगाड़ा हिन्दोस्तां हमारा, व खाक में मिलाया ये वोस्तां हमारा ॥ टेक ॥ हर कौम ने चखा है, इस फल के जायके को । इस से वचा न कोई, पीरो जवां हमारा || इस फूट ने० ॥ १ ॥ इतनी करी तरक्की, इस नख्त ने यहां पर । खाली रहा न कोई कोनो मकां हमारा || इस फूट के० || २ | Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) अव भूखों मर रहे है, दाना नहीं मुयस्सर । इक दिन कि देश था ये, गौहर फिसां हमारा || इस फूट ने० ॥ ३ ॥ सातों विलायतों में, मशहूर होरहे थे । अव कौन जानता है नामो निशान हमारा || इस फूट ने० ॥ ४ ॥ इल्मो हुनर में यक्ता, यह देश हो रहा था । चरचा था जा वजा ये, हर दो जुत्र हमारा || इस फूट ने० ॥ ५ ॥ अब पास क्या रहा है, हुए हैं तीन तेरह । वो लद गया खजाना, वो कारवां हमारा || इस फूट ने० ॥ ६ ॥ भूलेंगे याद तेरी, हरगिज न फूट दिलसे । बरबाद कर दिया है, सब खानुमां हमारा || इस फूट ने० || ७ || पन्ना तू वक रहा है, जाने जुनू में क्या क्या । आसान सव करेगा, वो महरवां हमारा || इस फूट ने० ॥ ८ ॥ 1 ७३ ( संसार की अनित्यता ) जरा तो सोच अय गाफिल कि दमका क्या ठिकाना है । निकल तन से गया चेतन, तो सब अपना बिगाना है ॥ टेक ॥। मुसाफिर तू है और दुनियां, सराय है भूल मत गाफिल । सफर परलोक का आखिर, तुझे परदेश जाना है || जरा तो सोच० ॥ १ ॥ लगाता है वस दौलत पै, क्यों तू दिल को अब नाहक । न जावे संग कुछ हरगिज, Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) यही सब छोड़ जाना है ।। जरा तो सोच० ॥२॥ न भाई बंधु है कोई, न कोई आशना अपना । वखूबी गौर कर देखा, तो मतलव का जमाना है ।। जरा तो सोच० ॥३॥ रहो नित याद में प्रभुकी, अगर अपनी शफा चाहो । अबस दुनियां के धंधों से, हुआ क्यों तू दिवाना है ।। जरा तो सोच० ॥ ४ ॥ - ७४ ( भजन वैरागी) काल अचानक ले जायगा,गाफिल होकर रहनाक्यारे।।टेक॥ बिनहू तोक नाहि वचावे, तो सुभटन का रखना क्यारे । काल अचानक० ॥१॥ रंच सवाद करन के काजे, नरकन में दुख भरना क्यारे ॥ कुलजन पथिकन के हित काजे, जगत जालमें परना क्यारे । काल अचानक० ॥२॥ इन्द्रादि कोऊ नाहि वचावे,और लोकका शरना क्यारे । निश्चय हुआ जगत में मरना, कष्ट परे तो डरना क्यारे॥ काल अचानक० ॥ ३ ॥ अपना ध्यान करता खिरजावे, तो करमन का हरना क्यारे । अब हित कर आलस तज बुध जन, जन्म जन्म में जरमा क्यारे।। काल अचानक० ॥४॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) ७५ ( मारवाड़ी पञ्चायत का उपदेशक को जवाब ) फुरसत नहीं म्हनें ले हम एकरी, थेरस्ते लागो । टेक ॥ थाका सिरसा ज्ञान सुणावा, अठै मोकला श्रावे । म्हाने नहीं फुरसत मरने की, आकर पाछे जावो जी ।। थे रस्ते० ।। १ ।। म्हाने नहीं सुहावे थांकी बातां तुसज्यो रीती, किन बातांका करो सुधारा म्हे नही करां अनीती ।। जी थे रस्ते लागो० ॥२॥ खाली बैठा थां लोगो ने निवरी बातां सूझे, जगह २ थे फिरो रवड़ता, पण नही कोई पूछे ।। जी थे रस्ते लागो० ॥ ३॥ हुआ अनोखा मंडल वाला, नई चलावे चाला । म्हें नहीं त्यागी रीत बड़ांकी, चाल पुरानी चाला ॥ जी थे रस्ते लागो० ॥ ४॥ रुको थासे बांच लियो है, थे पाछे लेनायो । फेरे अठे आवन के ताई मत तकलीफ उठावो । जी थे रस्ते लागो०॥५॥ (भजन उपदेशी) प्यारो ज़रा विचारो, कहता जमाना क्या है । गफलत की नीद त्यागो, देखो जमाना क्या है ।। टेक ।। विद्या की धूम छाई, चहुं ओर मेरे भाई । विद्या विना तुम्हारा, जीना जिलाना क्या है।। प्यारे जरा विचारो॥१॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) काले गंवार तुमको, विद्या विना बताते । डूवी तुम्हारी इज्जत, तुमको ठिकाना क्या है ।। प्यारो जरा० ॥ २ ॥ सन्तान किसकी तुमहो, पुरखा तुम्हारे कैसे । इतिहास कह रहा है, मेरा वताना क्या है ॥ प्यारे जरा० ॥ ३ ॥ शिक्षा अगर न दोग, मरख यों ही रहोगे। संतान होगी दुखिया, मेरा जताना क्या है। प्यारें ॥ ४॥ विद्या के जो हितेच्छू उनके वनो सहाई । नुक्तों में द्रव्य प्यागे, विरथा लगाना क्या है ॥ प्यारो जरा विचारो० ॥ ५ ॥ उठके कमर कसो अब, विद्या का चौक बांधो, भारत चमन खिले तय । सोना सुलाना क्या है ॥ प्यारे जरा विचारो० ॥६॥ 99 (भजन उपदेशी) उठाके आंख अब देखो, ज़माना कैसा आया है। संभालो देशकी हालत, अंधेरा कैसा छाया है ॥ टेक ।। मेरे प्यारो अव विचारो, अब दरिद्री होगया भारत । मई विद्या कला कौशल, धर्म थी .सब भुलाया है ॥ उठाके श्रांख० ॥१॥ ज़माना एक था यहां पर, मिले था अन्न भरका । तुम्ही देखो अकालो ने, हमें आ आ सताया है। उठाके० ॥ २ ॥ शरीरों से गई ताकत, परिश्रम है नहीं __हमम । गई हिम्मत की सव बातें, पड़ा रहना सुहाया हे ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ह ? ) उठा के० ॥ ३ ॥ कह क विपत कहानी, मेरे प्यारे तुम्ही देखो | जगादो जोती विद्या की भला इसमें समाया है ॥ उठाके ॥ ४ ॥ = ( भजन उपदेशी ) दुनिया मे देखो सैंकडों आये चले गये, सब अपनी करामात दिखाये चले गये ॥ टेक ॥ अर्जुन रहा न भीम, न रावन महावली । इस काल वली, से सभी हारे चले गये | दुनिया में० ॥ १ ॥ क्या निर्धनो गुणवन्त मूर्खो धनवन्त | सब अन्त समय हाथ पसारे चले गये || दुनिया मे देखो० ॥ २ ॥ सर्व जन्त्र मन्त्र रह गये कोई बचा नही । इक वह बचे जो कर्म को मारे चले गये || दुनिया में देखो ० ।। ३ । सम्यक्त धार न्यामत, नहीं दिलमें समझले | पछतायगा जो प्राण तुम्हारे चले गये || दुनिया में देखो ० ॥ ४ ॥ छह ( विनती पं० भूधरदास कृत ) पुलकन्त नयन चकोर पक्षी हसत उर इन्दीवरो, दुर्बुद्धी arat farm नवड़ मिथ्यातम हरो | आनन्द अम्बुज उमंग उदरचो अखिल श्रतम निरदले, जिन י Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) यदन पूरनचन्द्र निरखे सकल मनवांछित फले ॥ १ ॥ मुझ आज आतम भयो पावन आज विन विनाशिया, संसार सागर नीर निवच्यो अखिल तत्वं मक्काशिया । अ भई कमला किंकरी मुझ उभय भव निर्मल उये, दुख जरो दुर्गति वास निवरयो आज नव मंगल भये ॥ २ ॥ मन हरण सूरति हर प्रभु की कौन उपमा लाइये, मम सकल तन के रोम हुलसे हर्ष और न पाइये । कल्याण काल प्रत्यक्ष प्रभु लखि कौन उपमा लाइये, मम सकल तन में भये आनंद हर्ष र न समाइये || ३ ॥ भर नयन निरखै नाथ तुमको और वांछा ना रही, मम सब मनोरथ भये पूरन रंक मानो निधि लई । अव होउ भव भव भक्ति तेरी कृपा ऐसी कीजिये, कर जोड़ भूधरदास विनवै यही वर मोहि दीजिये ॥ ४ ॥ ८० ( विनती पं भागचंदजी कृत ) दोहा --- सिद्धारथ प्रियकारणी, नंदन वीर जिनेश । शिव कर बंदू अमित गति, कर्ता नृप उपदेश ॥ १ ॥ (पञ्चपरमेष्टी की स्तुति) गीताचंद 1 मनुज नाग सुरेन्द्र जाके ऊपर छत्र त्रय धरें, कल्याण पञ्चकमोद माला पाय भव भ्रम तम हरे । दर्शन अनंत Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U (६३) अनंत ज्ञान अनंत सुख वीरज भरे, जयवंत ते अरहन्त शिवतिय फन्त मो उर संचरे॥१॥ जिन परम ध्यान कृशाऽनुवान सुतान तुरत जला दये, युतमान जन्म जरामरण मय त्रिपुर फर नहीं भये । अविचल शिवालय धाम पायो स्वगुणते न चलें कदा, ते सिद्ध प्रभु अविरुद्ध मेरे शुद्ध ज्ञान करो सदा ॥ २ ॥ जे पञ्च विधि आचार निर्मल, पञ्च अग्नि सुसाधते । पुनि द्वादशांग समुद्र अवगाहत सकल भ्रम बाधते, वरसर सन्त महन्त विधिगण हरण को अति दक्ष है । ते मोक्ष लक्ष्मी देहु हमको जहां नाहि विपक्ष है ॥ ३ ॥ जो घोर भव कानन कुबटवी पाप पञ्चानन जहां, तीक्षण सकल जन दुखकारी जासको नखगण महा, तहां भ्रमत भले जीवकों शिव मग बतावें जे सदा, तिन उपाध्याय मुनिंद्र के चरणारविन्द नम सदा ।। ४ ॥ बिन संग उग्र अभंग तपतें अंगमें अति खीन । है, नहिं हीन ज्ञानानंद ध्यावत धर्म शुक्ल प्रवीन हैं, अति तपो कमला कलित भासुर सिद्ध पद साधन करें, ते साधु जयवन्तो सदा जे जगत के पातिक हरें ॥ ५ ॥ __ (वीनती सकल) दोहा-सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन ॥१॥ सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरिरज रहस विहीन ॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ६४ ) पद्धरी छंद - जय वीत राग विज्ञान पूर, जय मोह तिमिर को हरन सूर | जय ज्ञान अनंतानंत धार, हग सुख वीरज मंडित अपार || २ || जय परम शान्न मुद्रा समेत, भविजन को निज अनुभूत हेत । अदि भागन वच जोगे शाय, तुम धुनि सुनि विभूम नशाया || ३ || तुम गुण चिन्तंत निज पर विवेक, प्रगटें विघंटें आपद अनेक 1 तुम जग भूषण दूषण वियुक्त, सब महिमा युक्त विकल्प मुक्त || ४ || अविरुद्ध शुद्ध चेतन स्वरूप, परमात्मा परम पावन अनूप | शुभ अशुभ विभाव प्रभाव कीन, स्वाभाविक परण तिमय अछीन ॥ ५ ॥ अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्वचतुष्टय मय राजत गम्भीर | मुनि गनधरादि सेचत महन्त, नव केवल लब्धि रमा घरन्त ॥ ६ ॥ तुम शासन से अमेय जीव, शिव गये जांहि जैहै सदीव | भवसागर में दुख छारवार, तारन को औरन श्रापटार ||७|| यह लखि निज दुख गद हरण काज, तुमही निमित्त कारण इलाज | जाने ताते मैं शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय ॥ ८ ॥ मैं भूम्यो अपन पौ विसरि आप, अपनाये विधि फल पुन्य पाप । निज को पर को करता पिछान, परमें अनिष्टता इष्ट ठान || ६ || श्राकु लित भयो अज्ञान धार, ज्यों मृग मृगतिष्ना जानि वार ! तन परणति में श्रापौ चितार, कबहूं न अनुभयौ स्वपद 1 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ । I , सार ॥ १० ॥ तुमको विन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । पशु नारक नर सुरगति मंकार, भव धरि घरि मरयो अनंत वार ॥। ११ ॥ अव काल लब्धि वलतें दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल । मन शान्त भयो मिट सकल द्वंद, चाख्यो स्वातम रस दुख निकंद || १२ || तातें अव ऐसी करो नाथ, विधुरौं न कभी तुम चरण साथ । तम गुण गणको नहीं छेवदेव, जग तारन को तुम विरद एव ।। १३ ।। व्ातम के हित विषय कषाय, इनमें मेरी परणति न जाय । मैं रहों आप में आप लीन, शिव करों होंउ ज्यों निजाधीन ॥ १४ ॥ मेरे न चाह कुछ और ईश, रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश । मुझ कारज के कारण जु आप, शिव करो हरो मम मोह ताप ।। १५ ।। शशि शान्त करण तप हरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत । पीवत पीयूष ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुभव भव नशाय ॥ १८ ॥ त्रिभुवन तिहुंकाल मकार कोय, नहिं तुम विन निज सुखदाय होय । मो उर निश्चै यह भयो आज, दुख जलधि उतारन तुम जिहाज ॥ १६ ॥ दोहा - तुम गुण गण मणि गणपती, गणत न पावे पार । दौल स्वल्प मति किम कहै, न मूत्रियोज्ञ समार ॥ २० 4 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) (वीनती) प्रभु पतित पावन मैं अपावन चरण आयो शरण जी, यह विरद आप निहार स्वामी मेटो जामन मरन जी। तुम ना पिछाना आंन मान्या देव विविध प्रकार जी, या बुद्धि सेती निज न जाना भूम गिना हितकारजी॥१॥ भव विकट बनमें कर्म बैरी ज्ञान धन मेरा हरयो, तब इष्ट भूल्यो भूष्ट होय अनिष्ट गति धरतो फिरयो । धन घड़ी यो धन दिवस योही धन जन्म मेरो भयो, अब भाग मेरो उदय आयो दरश प्रभुको लखि लियो ॥२॥ छवि वीतरागी नगन मुद्रा दृष्टि नासा पै धरयो, बसु प्रातिहार्य अनंतगुण जुत कोटि रवि छविको हरैं। मिट गयो तिमिर मिथ्यात मेरो उदय रवि आतम भयो, मोउर हरष ऐसो भयो मानो रंक चिन्तामणि लयो ॥३॥ मैं हाथ जोड़ नमाय मस्तक वीनऊ तुम चरण जी, सर्वोत्कृष्ट त्रिलोक पति जिन सुनो तारन तरन जी । जा नही सुखास पुनि नरराज परिजन साथ जी, वुध जाचहूं तुम भक्ति भव भव दीजिये शिवनाथ जी ॥४॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) ८४ (देव से पुकार ) नाथ सुधि लीजै जी म्हारी, मोहि भव भव दुखिया जान के सुधि लीजो जी म्हारी || टेक || तीन लोक के स्वामी नामी तुम त्रिभुवन दुखहारी । गनधरादि तुम शरन लई, लखि लीनी शरन तुम्हारी || नाथ सुधि लीजो० ॥ १ ॥ जो विधि श्ररी करी हमरी गति सो तुम जानत सारी, याद किये दुख होत हिये विच लागत कोट कटारी ॥ नाथ सु० || २ || लब्धि अपर्यापत निगोद में, एक हि स्वास मंझारी । जनम मरन नव दुगुन विथा की कथा न जात उचारी ॥ नाथ सुधि० ॥ ३ ॥ भूजल ज्वलन पवन प्रत्येक तरु, विकल त्रय दुख भारी । पञ्चेंद्री पशू नारक नर सुर विपति भरी भयकारी ॥ नाथ सुधि० ॥४॥ मोह महारिपु नें न सुखमई हौंन दई सुधि थारी । ते दुठ मंद होत भागन ते पाये तुम जगतारी ॥ नाथ सुधि० ॥ ५ ॥ यदपि विराग तदपि तुम शिव मग सहज प्रगट करतारी, ज्यों रवि किरन सहज मग दर्शक, यह निमित अनिवारी ॥ नाथ सुधि० || ६ || नाग छाग गज वाघ भील दुठ तारे अधम उधारी, शीश निवाय पुकारत अवके दौल अधम की बारी || नाथ सुधि० ॥ ७ ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) ८५ ( २४ भगवान स्तुति) करो मिल बंदे वीरम् गान | टेक ॥ आदि अजित संभव अभिनंदन, सुमति नाथ भगवान । पद्म सुपार्श्वचंदा प्रभु स्वामी, चमकत चन्द समान ॥ करो मिल० ॥१॥ पष्पदन्त शीतल जग नायक, तारक सकल जहान । श्री श्रेयांस प्रभु श्रेय करें नित, देंय हमें बुध ज्ञान ।। करो मिल बंदे० ।। २ ।। वास पूज्य प्रभु विमल अनंतः, धर्म शान्त की खान | कुंथ कंथ हो शिव रमणी के पाया शुभ निवाण || करो मिल० ॥३॥ अरह मादेव स्वामी मुनि सुव्रत, व्रत तप जपकी खान, नमि नेम प्रभु पार्शनाथ जी, मह्मवीर गुणवान ।। करो मिल० ॥ ४ ॥ ,ये चौवीसों वीर जिनेश्वर, इनका नित प्रति गान । सुख दायक शुभ शान्त प्रदायक, मेंटत दुख अज्ञान ॥ो मिल वंदे वीरम गान ॥ ५ ॥ ॥ इति भजन रत्नाकर समाप्त ।। Page #423 --------------------------------------------------------------------------  Page #424 --------------------------------------------------------------------------  Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t जैन संसार में सुप्रसिद्ध तेरापंथाम्नाय संरक्षक व प्रचारक बालब्रह्मचारी श्री १०८ बावाजी दुलीचंदजी महाराज कृत द्वितीय २ जैन ग्रंथोंका प्रकाश । जैनागार प्रक्रिया | इसमें श्री १००८ देवाधिदेवके प्रतिविम्वकी प्रतिष्ठा कराने वाले सेठ के लक्षण, मूर्ति बनानेकी विधि, जिनमंदिर बनानेकी विधि, जैन गृहस्थीके याचार आदिका वर्णन बहुत विस्तार के साथ है । बढ़िया कपड़ा लगा हुआ २ गने और आठ पृष्ठ के जुज़ सिले हुए २२० ग्रंथ का मूल्य सिर्फ २) डा० म० (३) पृष्ठ के धर्मोपदेश रत्नमाला । इसमें २२ अभक्ष, अकृत्रिम जिनमंदिर, मृत्यु महोत्सव, निर्वाण भक्ति, ज्ञान प्रकाश, चौवीसठाणा, जैन यात्रा दर्पणका वर्णन अपने पूर्ण अनुभव से लिखा है, पृष्ठ संख्या बड़े प्रकार २२० ऊपर नीचे अच्छे कपड़ेके २ गत्ते और ग्राठ २ पृष्ट के जुज़ सिले हुए महान ग्रंथका मूल्य सिर्फ २) डा० म० (३) Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / श्रीजिनेन्द्र दर्शनपाठ अर्थ व विधि सहित। इसमें श्री जिनमंदिरजी में प्रवेश करनेकी विधि, संस्कृत दर्शन स्तोत्र सार्थ, पं० दौलतरामजी कृत सकल ज्ञेय इत्यादि वीनती सार्थ, कौन २ द्रव्य लेकर दर्शन करना चाहिये, प्रत्येक द्रव्यका छंद मंत्र विधान, जिनवाणी स्तोत्र भाषा व प्रार्थना, रात्रिको दीप धूप से आरती करनेको आरती पाठ, जिनेन्द्रदेव से अन्त प्रार्थनाआदि विषय संग्रह किये गये हैं जिसमे दर्शन करना योग्य रीतिसे जान सक्ते हैं । पुस्तक सफेद मोटे चिकने कागजपर मोटे टाइपमें प्रकाशित कराई है । प्रत्येक जैनी भाईको सबसे पहिले इसे पढ़ना चाहिये । मूल्य सिर्फ 2) एकसाथ २५ लेने से डाकखर्च माफ | भारत हितैषी गायन | इसमें जुआ, शराब, भाँग, हुक्का, सिगरेट, बूढेका ब्याह, चोरी, सहा निषेधमें ८ ड्रामे व सामयिक शिक्षाप्रद भजन है मूल्य जैन भजन रत्नाकर । - सामयिक, उत्तम शिक्षाप्रद भजन मूल्य || द्रव्य दर्पण | छः द्रव्योंका विस्तार के साथ वर्णन । मूल्य निवेदक:-- मैनेजर - भारत हितैषी पुस्तकालय, सीकर (जैपुर, Page #427 -------------------------------------------------------------------------- _