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शानी ॥ जानत० || १|| जाय नरक पशु नर सुर गतिमें, ये परजाय विरानी । सिद्धस्वरूप सदा अविनाशी, जानत बिरला प्रानी || जानत० ||२|| कियो न काहू हरै न कोई, गुरु शिख कौन कहानी जनम मरन मलरहित अमल है, कीच बिना ज्यों पानी ॥ जानत० ||३|| सार पदारथ है तिहुं जग में, नहिं क्रोधी नहिं मानो । द्यानत सो घटमाहिं विराजै, लख हुजै शिवथानी ॥ जाकत० ॥ ४ ॥ (१४) राग काफी ।
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आपा प्रभु जाना मैं "जाना ॥ टेक ॥ परमेसुर मैं इस सेवक, ऐसो भर्म पलाना | आपाο ॥ १ ॥ जो परमेसुर सो मम मूरति जो मम सो भगवाना । सरमी होय सोइ तो जानें, जानै नाहीं आना || आपा० || २ || जाकौ ध्यान धरत हैं मुनि गन, पाबत हैं निरवाना | अर्हन्त सिद्ध सूरि गुरु मुनिपद, आतमरूप वखाना || आपा० ॥३॥ जो निगोद में सो मुझमाहीं, सोई है शिवथाना | द्यानत निह रंच फेर नहिं जानै सो मतिवाना ॥४॥
(१५) राग मल्हार ।
रपमगुरु वरसत ज्ञान झरी ॥ टेक ॥ हरषि