SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हरषि बहु गरजि गरजिक, मिथ्यातपन हरी ॥ परमगुरु० ॥१॥ सरथा भूमि सुहावनि लागै, संशय वेल हरी । भविजनमन सरवर भरि उमड़े, समुभि पवन सियरी ॥ परमगुरु०॥२॥ स्यादवाद विजली चमकै, पर मत शिखर परी । चातक मोर साध श्रावकके, हृदय सुभक्ति भरी ॥ परमगुरु॥३॥ जप तप परमानन्द बढ्यो है, सुसमय नींव धरी । द्यानत पावन पावस आयो, थिरता शुद्ध करी ॥ (१६) राग काफी। अब हम आतमको पहचानाजी ॥टेक॥ जैसा सिद्धक्षेत्रमें राजत, तैसा घटमें जाना जी ॥ अब हम० ॥१॥ देहादिक परद्रव्य न मेरे, मेरा चेतन वाना जी॥ अब हम० ॥२॥ द्यानत जो जानै सो स्याना, नहिं जाने सो दिवाना जी ॥॥ . (१७) मेरी वेर कहा ढील करी जी ॥टेक। सूली सौं सिंहासन कीनो, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी ॥ ॥ मेरी बेर० ॥१॥ सीता सती अगनि मैं पैठी, पावक नीर करी सगरी जी। वारिषेणपै खड़ग चलायो, फूल माल कीनी सुथरी जी ॥ मेरी बेर०
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy