________________
[९]
१३-चाल धुरपद । बंकोन मझोल गोल, कर्मन केहैं झकोल । मेरी महिमा अडोल चेतन अविनाशी ॥ टेक ॥ लघुगुरु मम रूप नांहिं मृदु कठिन सरूप नांहि हिम उष्णप्ररूप नाहिं रूखन चिकनासी ॥१॥ षट्रल अनमिष्ट खार चर्चरन कषाय सार कटुकन दुर्गन्ध गन्ध श्याम न पीतासी ॥ २॥ हरि तन आरक्त श्वेत धूपन तम ज्योति देत शन्दन सुरनर परत नर्क न बन बासी ॥३॥ जल थल बिलनभ चरीन त्रिय पुन्स न पुन्स कीन धनवन्त न रङ्क हीन सम्यक् करिभासी ॥४॥
१४-चाल धुरपद ।
धर्मी न अधर्म पाल अनमें आकाश काल पुग्दल से भिन्न एक चेतन चित्सारी ॥१॥ परजयगति थिति धरंत त्रिभुवन नभ में भ्रमंत त्रिपणी मोहि सब कहंत अयधा तपधारी ॥२॥ भूजल अनतेजवाय दोबिधि तर वर न काय विकलत्रय रूप नाहिं इंद्रिय सब न्यारी ॥ ३॥ सब से अनमेल खेल जैसे तिल मांहिं तेल पावक पाषाण जेम हमरी विधिसारी। ऐसे विज्ञान भानु दृगसुख महिमा निधान तिनकू जुग जोरि पान बंदन बिस्तारी ॥५॥
१५-शूलताल । आत्म दरवको भेद न पायो परपरणतिकर, यह नर जन्म गंवायो॥ टेक ॥ भरम भगल वस, पंच दरच फंसि नटवत नवरस, कर्म नचायो ॥ १॥ सपरस रल अरु गंध वरण स्वर,