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________________ [१०] इनते पर निज, क्यों न लखायो॥२॥ वन्श अगिनि ज्यों, दधि में घृत त्यों, किम तिल तेल, जतन विन पायो ॥ ३ ॥ तजि परपश्चन, माटी कञ्चन, दंदि निरंजन, सतगुरु गोयो ॥ ४॥ दृगसुखसिंधन, दाहनिकंदन, शूलताल करि ज्ञान सुनायो ॥५॥ १६-रागधनाश्री ताल तैलंगी । अरे नर तनको मोह न कर रे, तू चेतन यह जर रे ॥ टेक || , सपरस पोषि विषय कं चाहै सो मोरी रही सर रे ॥१॥ रसना क्या न भखो या जग में लव पुग्दल लियेचर रे ॥२॥ नांक फांक मत फूल घुसे रे रही सिनक सं भर रे ॥ ३ ॥ जिन आंखन पर गोरीनिरखै सो ढोढों रही झर रे ॥४॥ धर्म कथा सुन मोक्ष न चाहे तो यह कान कतर रे ॥५॥ तू निरअञ्जन है भयभजन तन कठिन को घर रे ॥६॥ दधिवत् मथि षट भास निरालो भाषत हैं सत गुरु रे ॥७॥ दृगसुख होय निजातम दर्शन भवसागर लं तर रे ॥८॥ १७-राग दादरा। करै जीव का कल्याण, सदा जैन बानीरे, जैनबानी जैनवानी जैन वानी रे, करै जीव का कल्याण ॥ टेक ॥ संशयादि दोषहरै, मोहळू निमूल करे, तोषदाय नल्दन, बन समानी रे ॥ १॥ कर्मजाल भेदनी, है भर्म की उछेन्नी, वस्तु के स्वरूप की है लाभ दानी रे ॥२॥ वस्तु कं विचार जीव, पार होत हैं लदीव, केवलादि ज्ञान की, कलानिधानी रे॥३॥ नैन सुक्ख अन्तकाल, में करै सबै निहाल, नाग वाघ स्वान किये स्वर्ग थानी रे ॥ ४॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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