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[८] उबज्झाय, लाधुन पदशीसनाय, पैंडोक्षुड़वाय, दुष्ट विषयन लं भागरे ॥२॥ हिंसा अरु झूठ नाख मत कर चोरी भिलाख मैथुन लिर डार खाक तृष्णा जग त्यागरे ॥३॥ पांचों पद ध्याय पंच पापत पलाय अव पूरी कर नींद नाहीं खावैगे कांगरे ।॥ ४॥
११-चाल धुरपद (संसार व्यवस्था)
देखरे अज्ञान भौन तेरो जगमांहि कौन कीने सब स्वांग तौन तो मन अपकायो ॥ टेक ॥ लेयकै निगोदकीय पृथिवी अप तेजबाय तरवर चरथिर भ्रमाय चहुँगति भरिआओ ॥ १॥ सुरनर पशुनथान कवहुक विचरयो विमान कवहुक नरपति प्रधान लटक्रम कहलायो॥२॥ कबहुक बन्धखम्भलाल तन की उचराय खोल कवहुक चण्डाल अभक्ष भक्षण को धायो ॥३॥ अवतोनर चेत चेत विषयन सिर डार रेत पौरुष परकाश तू है सिंहनि को जोयो॥४॥
१२-चाल धुरपद (सम्यक्त महिमा) वंदं समकित निधान जिन पति के नन्दजान नन्दनबनकी समान लवकू सुखकारी ॥ टेक ॥ जिनके घर माहिराज उमड्यो घनज्ञान गाज समरस भई घृष्टि सृष्टि तृष्णा सब टारी ॥१॥ अनभव अंकूर फूट शंसय गुठली प्रटूट चारितरुचि ब्रह्मभाव शाखा विस्तारी ॥२॥ सुव्रत पुग्योन्मीत करके जिन बच प्रतीत शिवफल में धारनीत परपरणति छारी ॥३॥ करुणा छाया पसार भोगी जोगी अपार ठाडे भव वन मझार निर्भय अधिकारी ॥४॥