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________________ ( ८१ ) गैर को लेकर कोई ज़मीं बना झोपड़ी अपनी को लेवे सजा, जब मालिक आनके करदे जुदा चलै उस दम कोई उज़र ही नही ॥ फिरे अरसे से० ॥१॥पी मोह शराव खराव हुआ, पड़ा गाफिल खोकर होश को त, बड़ा वेडर होके वैठ रहा, यहां के तो वरावर डर ही नहीं । फिरे अरसे०॥२॥ कहे मेरा मेरा सब माल व ज़र, परवार मेरा अरु बागो चमन । तेरा यार नही परवार नहों, तेरा माल नहीं तेरा ज़रही नहीं ॥ फिरे अरसे से० ॥ ३ ॥ करै गैर की चीज़ पै दावा दिला, अरु चीज को अपनी त भल गया। त ने जुल्म पै वांधी है कस के कमर, इन्साफ पै तेरी नज़र ही नहीं । फिरे अरसे० ॥ ४ ॥ तू तो जाल में दुनियां के ऐसा फंसा, तुझे आगे का ख्याल ज़रा भी नहीं । तझे अपने वतन का न सोच दिला, तो अपने तो घर का फिकर ही नहीं । फिरे अरसे से० ॥ ५ ॥ चलो जोतीस्वरूप वतन को दिला, परदेश से दिल को अपने हटा । कर हिम्मत कस कर बांधो कमर, फिर हटके जो आओ इधर ही नहीं ॥ फिरे अरसे से० ॥६॥ (चार मत खंडन ) भज अरहन्तं भज अरहन्तं भज अरहन्तं भय हरणं। टेक॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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