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बुधजन विलास
५५ कूवे परो ॥ सुणि०॥ ५॥ कोटि ग्रंथको सार, जो भाई बुधजन करौ । राग दोष परिहार,याही भवसौं उद्धरौ ॥ सुणि० ॥६॥
(१००) राग-सोरठा। अब थे क्यौं दुख पावौ रे जियरा, जिनमत समकित धारौ ॥अब० ॥ टेक ॥ निलज नारि सुत व्यसनी मूरख,किंकर करत बिगारौ । सासूम अदेखक भैया, कैसे करत गुजारौ॥ अब० ॥१॥वाय पित्त कफ खांसी तन दृग, दीसत नाहिं उजागै। करजदार अरुबेरुजगारी,कोऊ नाहिं सहारौ ॥अब० ॥ २ ॥ इत्यादिक दुख सहज जानियौ, सुनियौ अब विस्तारौ । लख चौ. रासी अनत भवनलौं, जनम मरन दुख भारी ॥ अब० ॥३॥ दोषरहित जिनवरपद पूजौ, गुरु निरग्रंथ विचारौ।बुधजन धर्म दया उर धारौ, व्है है जै जैकारौ॥अब०॥४॥
(१०१) राग-सोरठा। म्हारौ मन लीनौ छै थे मोहि, आनन्दधन