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वुधजन विलास टेक ॥ मरुदेव माताके उरमैं, जनमैं ऋषभकुमार ॥श्राज०॥ १॥ सची इन्द्र सुर सव मिलि आये,नाचत हैं सुखकार । हरषि हरषि पुरके नर नारी, गावत मंगलचार॥आज ॥२॥ ऐसौ बालक हूवो ताकै,गुनको नाहीं पार । तन मन वचते बंदत बुधजन, है भव-तारनहार ॥ आज०
(६६) सुणिल्यो जीव सुजान, सीख सुगुरु हितकी कही। सुणिः ॥ टेक ॥ रुल्यो अनन्ती बार,गति गति साता ना लही ॥ सुणि० ॥१॥ कोईक पुन्य संजोग, श्रावक कुल नरगति लही। मिले देव निरदोष,वाणी भी जिनकी कही। सुणि॥२॥ चरचाको परसग अरु सरध्यामैं वैठिबो । ऐसा अवसर फेरि,कोटिजनम नहिं भौटिवो ॥सु०॥३॥ झूठी अाशा छोड़ि तत्वारथ रुचिधारिल्यो । या में कछू न विगार आपोआप सुधारिल्यो। सु. णि०॥४॥तनको प्रातम मानि, भोग विषय कारज करौ।यौ ही करत अकाज,भव भव क्यों