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________________ [४८] ढत संपति पग पग मरे ॥३। भजन समाधि न भाव शील के भग से भागिरचे भग सैरे ॥ ४॥ किहि विधि सुख उपजै सुनि बीरण, कंटक ऋर वाये म मरे ।। ५। हग सुख धरम लखन जिन विसरो, अंतर कौन मनुष्य खग मेरे ॥ ६ ॥ १०४ राग जोगिया प्रासावरी । पापनि से नित डरिये, अरे मन पापन से नित डरिये ।। टेक ।। हिंसा झूठ वचन अरु चोरी, परनारी नहिं हरिये 1 निज पर दुख दायनि डायन, तृष्णावेग विसरिये ॥१॥ जासे परभव विग वीरण, ऐसो काज न करिये।। फ्यों मधु विंदु विषय के कारण, अंध कूप में परिये ।। २ ॥ गुरु उपदेश विमान बैठक, यहा ते वेग निकरिये । लयनानंद अचल पद पा, भव सागर सूतरिये ॥३॥ १०५ - रागनी जोगिया प्रासावरी में । है वोही हितू हमारे. जो हम इवत जग से निकारै ।। टेक ।। सांचो पंथ हमें चतलावे, सांचे वैन उचारे। राग दोप ते मत नहिं पापे, स्वपर सहित चित धारै ॥ १ ॥ हम दुखिया दुख मेटन आये, जनम मरण के हारे । जो कोई हमकू कुमति लिखावे, लोई शत्रु हमारे ॥ २॥ कोटि प्रथ का सार यही है, पुण्य स्वपर उपगारे । हग सुख जे पर अहित विचारे, ते पापी हत्यारे ॥३॥ १०६-राग देशवा सोरठ । म्हारी सरधा में भंग परो, लरधा में भंग परो। हे विभावों में भाव धरो। म्हारी सर्धा में भंग परो॥ टेक ॥ चारों कपाय
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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