SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ७६] इन्द्रादिक पद पंकज सेवे-तातें पूज्य पृजेश्वर हो ॥७॥ मेटो जन्म जरादि त्रिपुर दुख-तुम सच्चे मुक्त श्वर हो ॥८॥ गृन्ह गृन्ह पर ब्रह्म आरती-तुम दृग सुख प्रदेश्वर हो ॥ ९॥ १४५-देश की ठुमरी । - जिनके हृदय सम्यक्त ना, करनी करैतो क्यो करो ॥ टेक ॥ षट खंड को स्वामी भयो, ब्रह्मांड में नामी भयो। दिये दान चार प्रकार अरु, दिक्षा धरी तो क्या धरी॥१॥ तिल तुष परिग्रह तजि दिये, अति उग्र तप जप व्रत किये। पाली दवा षट काय की, भिक्षा करी तो क्या करी ॥२॥ कल्पों किया उपदेश को, छुटवा दिये दुर्भेष को। पहुँचा दिये चहु मुक्ति में, रक्षा करी तो क्या करी ॥३॥ आतम रहा वहिरात्मा, जाना अनातम ओत्मा । परमात्म आतम नहिं लखा, शिक्षा करी तो क्या करी ॥४॥ गुरुमणिक रंड विषै कहैं, हग सुख बिना शिव पद चहैं। विन मूल तरु अनफूल फल, इच्छा करी तो क्या करी ॥५॥ १४६-गगनी धनाश्री। सकल जग जीव शिक्षा करयो॥ टेक ॥ कृतकारित अपराध हमारे-सो सब पर हरियो । तजकर बैर प्रीति की परिणति-समता उर धरयो ॥ १॥ या भव जाल सदा फंस हम तुम-बहुते दुख भरिया-हाथ जोड़ अब दोष छिमाऊं आगै मत लड़यो ॥२॥ कोनो हम संबर तुम संबर, सै-कबहुँ न टरियो- नयनानंद पंथ संतन के चल भव जल तस्यो ॥ ३ ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy