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________________ [७२ ] , १४७-खम्माच रागनी झंझोटी । हमारी प्रमु नच्या उतार दीजै पार | टेक अटक रही भव दधि के भवर में, ऊरघ मध्य अधो मझधार ॥१॥ औघट घाट पड़ो टकरावै, चकित हरट घड़ी उनहार IIRAM अति व्याकुल आफुल चित साहिब, नाहो इधर न हो उस पार ॥३॥ दल में रुद्ध शशाकी गति-ज्यों, जित तित होत मार ही मार ॥४॥ अब चनीय मम दशा जिमेश्वर, काई न शरण सहाय अवार ॥५॥ व्याकुल वैन चैन नहिं निश दिन, केवल तुमरो नाम अधार ॥६॥ १४८-भैरवी । जिस दिन सैं मैंने दरस तोरे पाये, अनुभव घन वरसाए, दग्श तोरे । टेक। भेद विज्ञान जगो घट अन्तर, सुख अंकुर रस रसाए ॥२॥ शीतल चित्त भयो जिमि चन्दन, शिव मारग में धोए ॥R प्रघटो सत्य स्वरूप परापर, मिथ्या भाव नशाए ॥३॥ नयनानन्द भयो अब मन थिर, जग में संत कहाए ॥४॥ १४६–रागनी जंगला-गंगाबासी देहाती। तुम्हें त्रिभुवन के जन ध्या३, थारे सुन सुन गुण भगवान । टेक। अजी अर्ह धातुसे भये हो अर्हन्, बोधलन्धि से भयहो भगवन । धरो अनन्त दश सुख वीरज, किल मुख जस गावैं ॥१॥ अजी आप तिरो ओरन को तारों, शुभ शिक्षाकर भरम निवारो। तारण तरण निरख सुर नर मुनि, चरण शरण आई ॥२॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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