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________________ ( ३७ ) भेटन होय प्रानंदो । भघि तु० ॥२॥ पुष्प माल धरि ध्यान लगाऊंखे थप सुगंयो । भवि तुम० ॥३॥ रतन जड़िन की फलं जी आरती बाजत ताल मृदंगो। भवि नुम० ॥४॥ कह जिन दास सुमरि जिय अपने सुमरत होय अनंदो । भत्रि तुम० ॥ ५ ॥ (गजल) प्रभू मैं शरण हूँ तेरी विपत को तुम हरो मेरी ।।टेक।। मुझे कम्मा ने घेरा है चहुं गती मांह परचा है, ये हैं दिग्गज मेरे वैरी विपत को तुम हरो मेरी । प्रभु० ॥१॥ विषय विपरस में फूला हूं जगत माया में भला हूं, कुमति मति आन मोहि घेरी, विपत को तुम हरो मेरी । प्रभु०॥२॥ समय थोड़ा रहा वाकी, अवधि इस देह की पाकी, करूं क्या आय जम फेरी विपत को तुम हरो मेरी। प्रभू०॥३॥ पतित मुझसा न है कोई,पतित तारक हो तुम सोई लगाते क्यो हो अब देरी विपत को तुम हरो मेरी । प्रभू० ॥ ४॥ त्रिलोकीनाथ कृपासिधु दया करिये जगत बंधू , कुगति हरिये दास केरी, विपति को तुम हरो । मेरी प्रभूः ॥५॥ ( उपदेशी) सब स्वारथ का संसार है तू किस पै प्यार करता
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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