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जो चित चाहै सो नित दाहै, चाह दूर करि खेला रे । द्यानत या मैं कौन कठिनता, वे परवाह अकेला रे || भाई० ॥ ४॥
(७५) प्रभु तेरी महिमा किहि मुख गावैं ॥ टेक ॥ गरभ छमास अगाउ कनक नग ( ? ) सुरपति नगर बनावै ॥ प्रभु० ॥१॥ क्षीर उदधि जल मेरु सिंहासन, मल मल इन्द्र न्हुलावै । दीक्षा समय पा लकी बैठो, इन्द्र कहार कहावै ॥ प्रभु० ||२|| समोसरन रिध ज्ञान महातम, किहिविधि सरव बतावैं । आपन जातकी बात कहा शिव, बात सुनें भवि जायें || प्रभु० ||३|| पंच कल्याणक थानक स्वामी, जे तुम मन वच ध्यावैं । द्यानत तिनकी कौन कथा है, हम देखें सुख पावैं ॥ प्रभु० ॥४॥ ( ७६ ) प्रभु तेरी महिमा कहिय न जाय ॥ टेक ॥ श्रुति करि सुखी दुखी निन्दात, ते समता भाय ॥ प्रभु• ॥१॥ जो तुम ध्यावै, थिर मन लावै, सो किंचित सुख पाय । जो नहिं ध्यावै ताहि करत हो, तीन भवनको राय || प्रभु० ||२|| अंजन चोर