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________________ [ ६९ ] गुण दोष नयन सुख - त्रिविध त्रिकाल निहार - करियो नवधा भक्ति भवि - कजन दीजे शुद्ध अहार ॥ ७ ॥ १४२ जंगला फोटी । करले कुछ अपना उपगार- मूढ तू तो बहुत रुला जग जाल मै- अज्ञानी अब ॥ टेक ॥ एक तो तजदे तू तीन मूढता-दूजे अष्ट महामदछार - तीजै शंकादिकमल आठों खोकर तू मन को धोडार ॥ १ ॥ चौथे तज दे तू षट अनायतन-दर्शन मोहनी तीन बिडार· चतु चारित्र मोहनि का मदहर अवसर आवै हाथनयार ॥२॥ वसो अनादिनिगोद विषैशठ-काल लग्धि कर भयो निकार - नर नारक पशु स्वर्ग विषै किये पंचपरावर्तन बहुवारं ॥ ३ ॥ चौदह लाख मनुष गति भरम्यो-पड्योढ्यो मल मूत्र मंझार बोल सकै अनहाल सकैनन ऊंधे मुख लटको हरवार ॥ ४ ॥ चारलाख परजाय नरक की भुगती मित्रकरम अनुसार कुट कुटपिट पिट छिद छिद भिद भिद-कियो सागरी हा हा कार ॥ ५ ॥ भरमे बासठलाख पशुषु गति नाना विधि किये मरण अपार । खिंच खिंच भिच सिंच कुचल कुचल मर-स्वांस स्वांस मैं ठारहवार ॥६॥ चारलाख सुर योनि विडंन्यो- जहां सागरां सुख भंडार - झुर झुर मर मर रुल्यो जगत में भोगे सुख ठाए विपति पहाड़ ॥ ७ ॥ कहत नैनसुख सुन मेरे मनबा-अत्र तो तज निज दोष गंवारआगम आप्त गुरू तत्वारथ-परखहोय जासे बेड़ापार ॥ ८ ॥ 1
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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