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[ २ ] तुमतें गणधरनै सुन्यो चहुँ गत्ति मय सार । तातें तुम हो परम गुरु, पतित उधारन हार ॥ वीतराग सर्वज्ञ तुम, तारण तरण महाल । ताते तुमरे बचन प्रभु, हैं षट् मत परवान ॥ धरम अहिंसा तुम कहो, जहँ हिंसा तहँ पाप ! दयावंत अवजल तिरै, पापी जग संताप । जीव दया गुण वेलड़ी, बोई ऋषभ जिनेश । षटदर्शन मंडप चढ़ो, सींची भरत तृपेश ॥ मिथ्या वचन अनादरे, तुमने हे जग सेत। तातै झूठन की झरत, जहां तहां सिर रेत ॥ सत्य धर्म से होत है, त्रिभुवन में परतीत । लततें गोला लोहका. होय तुषार प्रतीत ॥ चोरी तुम वर्जनकरी परम पाप लख धीर । त्यागी पद पद पूजिये, चोर लहैं वहुपीर । अनाचार वर्जन कियो ग्रहणकरणमहोशील । जिन धारी सो जग तरे, जिन छाड़ो कढीकोल ॥ शील लिरोमणिजगतमें, यालम धर्म न और । अग्निहाय जल परणवै. विप हो अमृत कोर ॥ खड़गमालह्व परण वै, सूल संज मखतृल । माधिव्याधि आवि नहीं, शीलवत ढिगफुल ॥ भव तृष्णा दुख दायनी भाषी तुम भगवान । त्यागी त्रिभवनपतिभये, रागी नर्फ निदान ॥ देवधर्स गुरु हो तुम्ही, ज्ञान ज्ञेय जातार। . ध्यान ध्येय ध्याता तुम्ही, हेया हेय विचार ॥