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________________ [ ६० ] 7 गजेंद्र धंधन नननन नरचौक परेसारे ॥ ३ ॥ शचीने उतार जिन राज गोद माहिं लिये जाये खाने मांहि जाय माताकं प्रणाम किये, कैसे जिन माता कूं जगावै मीत गांवै गीत, कैसे इंद्र प्रभु के पिता से करै बात चीत, कहो नैनानंद विरतंत तुम तन नननन ज्यों सुनैं संत सारे ॥ ४ ॥ १२७ - चाल गंगावासी मेवाती । लिया ऋषभ देव अवतार, किया सुरपति नै निरत आकेलिया ऋषभ० । अजी निरत किया आके, हर्षा के प्रभूजी के नव भव को दरशाके, सरर सरर कर सारंगी तंबूरा, नाचै पोरी पोरी मटकाकै ॥ टेक ॥ अजी प्रथम प्रकाशी वानै, इंद्रजाल विद्या ऐसी, आज लो जगत में सुनी न काहू देखी तैसी, आयो वह छबीला चटकीला यों मुकट बांध-छम देसी दो मानं आकूदो पुनों का चांद, मनकूं हरत, गति भरत प्रभू को पूजे धरणी सो सिरन्या कै ॥ १ ॥ अजी भुजों पे चढ़ाये हैं हज़ारों देवी देव जिन - हाथों की हथेली पै जमाए हैं अखाड़े तिन ता धिन्ना ता धिन्ना - किट किट धित्ता उनको प्यारो लागे ''धुम फिट घुम किट वाजै तब्ला नाजै प्रभुजी के आगे सैनों में रिझावेतिछीं तिछ एड लगावै - उड़ जावै भजन गाकै ॥ २ ॥ अजी छिन मैं जा वंदे वह तो नंदीश्वर द्वीप आप पाचूं मेरु बंद आ मृदंग पै लगाव थाप - चंदै ढाई द्वीप तेरा द्वीप के सकल चैत्य- तीनों लोक मांहिं पूज आवै चित्र नित्य नित्य - आवै झपटि सम्ही पै दौड़ा लेने दम - करे छमछम - मन मोहे जी मुलका ॥३॥ अजी अमृत क लागे झड़, वरसी रतन धारा- सोरी सीरी चालै t
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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