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मिलें गुरू दयाल- टूटै मोह जाल-मेरा होनिहाल-कह अपना हाल-मस्तक जा झुकाऊं ॥ ४ ॥ हर अशुभ बृत्ति-करशुभप्रवृत्तिशुभ अशुभ कृत्ति-तजहो निव्रत्ति-कब निज परमातम को एकी भावभाऊं ॥५॥ दृग सुखकुबुद्ध-कियो अती चिरुद्ध-दर्शन विशुद्ध बिन रहो अशुद्ध-कवशुद्धप्रवृत्तिकर-शिवपदणंऊ-६
१३५-जंगला ठुमरी ग़ज़ल जनम विरथा न गंवावोजी-पायो तरस तरस नरभव दुर्लभविर्थान-टेक-मतना मीत विषयतरु बोवै-मत सूली चढ़ निर्भय सोव-तज चारों पांचों सोतों-मत पाप कमावो जी ॥१॥ त्रिषट प्रोवषट जीव चितागे-झटपट षट अरु पाच बिचारो-द्वादशवाण चतुर शर धर तेरह मन ध्यावो जी॥२॥ यही मोक्ष का मूल बतायो-अरिहंतादि महंतन गायो-कर प्रतीत बरतो सम्यक्त-सच्चे कहलावो जी॥३॥ तज चौबीस अठाइस धारो-पाप पञ्चीस छत्तीस संभारो-ले छयालीस-खपाआठों-सीधे शिवजावो जी॥ ४॥ जो तो नाम नयन सुख पायो-तोत्तै निजपर क्यों न लग्वायो-तज परमार्थ निज अर्थ गहो मत नाम लजावो जी ॥ ५ ॥
१३६-रोगनी भैरवी-पूर्वी ठुमरी ।
देखो सुघड़ मधु बिंदु के कारण जग जीवन की मूढ़ दशा-टेक भूले पंथ फिरें भव कानन-जैसे कटक बिच व्याकुल शशाभटक चहुँगतिके पथ में नित-लागी अगनि जामें चारों दिशालटकै भवतह पकड़ कूप भ्रम-माखी परिजन खा तनसाकोटत स्याम स्वेत चूहे जड़-निश दिन आयुर्घसा घसा