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________________ ॥ अजित० ॥१॥ ज्ञान दरस सुख बल गुनधारी, अनन्त चतुष्टय ध्यावो रे। अब गाहना अवाध अमूरत, अगरु अलघु बतलावो रे ॥ अजित० ॥२॥ करुनासागर गुनरतनागर, जोति उजागर भावो रे । त्रिभुवननायक भवभयघायक आनन्द दायक गावो रे॥ अजित० ॥३॥ परम निरंजन पातकभंजन, भविरंजन ठहरावो रे ।द्यानत जैसा साहिब सेवो तैसी पदवी पावोरे ॥ (८८) राग असवारी अब हम अमर भये न मरेंगे ॥टेक॥ तन कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों करि देह धरेंगे ॥ अव० ॥१॥ उपजै मरै कालतें प्रानी, तातै काल हरेंगे। राग दोष जग वंध करत हैं, इनको नाश करेंगे। अब० ॥२॥ देह विनाशी मैं अविनाशी भेदज्ञान पकरेंगे । नासी जासी हम थिरवासी, चोखे हों निखरै गे॥ अघ० ॥३॥ मरे अनन्त बार पिन समझै, अब सब दुख विसरैगे। द्यानत निपट निकट दो अक्षर विन सुमरै सुमरेंगे ॥४॥ (८६) राग आसावरी । भाई ! ज्ञानी सोई कहिये ॥ टेक ॥ करम
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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