SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २५ ] ५० - राग काफ़ी चाल होली की । जिन वाणी को सार न जानी ॥ टेक ॥ नरक उधारण, शिव सुख कारण, जनम जरा मृतहानी | उदर जलोदर, हरण सुधारस, काटन करम निहानी, बहुर तेरे हाथ न आनी ॥ १ ॥ कल्पवृक्ष चिंतामणि अमृत, एक जनम सुखदानी । दुजे जनम फिर होय भिखारी, यह भवभ्रमण मिटानी । तजो दुर्व्यसन कहानी ॥ २ ॥ व्याह सुता सुत वांटिलूं भाजी, हरिलूंना विरानी । ऐसे सोचत जात चले दिन होत सरासर हानी । समझ मन मूरख प्रानी ॥ ३ ॥ भव वारिध दुस्तर के तरणकं, कारण नाव बखानी । खोल नयन आनन्द रूप से, घर सम्यक्त अज्ञानी | मोक्षपद मूल निशानी ॥ ४ ॥ ५१ - राग यमन कल्याण । जडता जिनराज बिना कौन हरै मेरो ॥ टेक ॥ सुनत हो जिनेद्रवैन, भयो मोहि अतुलचैन, सम्यक्के अभाव मैने कीनी भव फेरी || १ || अतुल सुक्ख अतुल ज्ञान, अतुल वीर्य को निधान, काया मे विराजमान, मुक्ती मेरी बेरी ॥ ॥ द्रव्य कर्म विनिर्मुक्त, भाव असंयुक्त, निश्चयनय लोक मात्र, परजय वपुधेरी ॥ ३ ॥ जैसे दधिमांहि घीव तैसँ जड़मांहिजीव देखी हम अपने नैन, आनन्द की ठेरी ॥ ४ ॥ ५२ -- राग भैरूनर । संशय मिने मेरी संशय मिटै, जिनवानी के सुने से मेरी संशय मिटै ॥ टेक ॥ पाप पुण्य का मारग सूझे भवभवकी मेरी
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy