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________________ [ २४ ] ४८ - राग धना श्री । जिन मत पर निधान, जगत में जिनमत परम निधान || टेक जिन मारग तें उरझी सुरझे, छूटै पाप महान । अरु जियाकूं अनुभव सुधि आवै, भागे भरम वितान ॥ १ ॥ वस्तु स्वरूप यथावत दरसै, सरसै भेद विज्ञान | सव जीवन पर करुणा उपजै, जाने आप समान ॥ २ ॥ शूकर सिंह नवल मर्कट को, वर्णन आदि पुरान | भील भुजङ्ग मतंगज सुरझे, कर याको सर धान ॥ ३ ॥ अञ्जन आदि अधम बहु उतरे, पायो सुरग विमान | नर भव पाय मुकति पुनि पाई, नयनानन्द निघान ॥ ४ ॥ ४६ - गगनी इंडोल- मल्हार । सुनोजी सुनोजी समभावसुं श्रीजिन वचन रसाल ॥ टेक ॥ द्रव्य करम ने तुम ठगे, भाव करम लये लार । नोकर मनिसं बाधिये, दीनो चहुँ गति डार ॥ १ ॥ कबहुँक नर्क दिखाईयो, कबहुँक पशु पर जाया नव श्रोवक लों ले चढ़े, पटको भाव डिगाय ॥ २ ॥ जिसने जिनवच नहिं सुने, विकथा सुनी अपार । नर भव चिंतामणि रतन, दियो सिंधु में डार || ३ || पंच महाव्रत ना लिये, श्रावक व्रत दिये छार । तिनकूं नरक निकेत में, मारो चाम उपार ॥ ४ ॥ मति थोड़ी विपता प्रणी, कहै कहालों कौन । थोड़ी में वहुती लखो, होय सुघर नर जौन ॥ ५ ॥ पायो धरम जहाज अब, पायो नरभव सार । नैन सुक्ख भवसिंधु से, उत्तर उत्तर हो पार ॥६॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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