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________________ [ ३८ ] तोरी ममता फांसी। पंच महाव्रत दुद्धर धारे, राखी प्रजति पचासी ॥ बन्दौं० ॥२॥ जाकै दरसन ज्ञान विराजत, लहि वीरज सुखरासी। जाकौं बन्दत त्रिभुवन नायक, लोकालोक प्रकासी। बन्दौं० ॥३॥ सिद्ध शुद्ध परमारथ राज, अविचल थान निवासी । चानत मन अलि प्रभु पद पंकज, रमत रमत अघ जासी ॥ बन्दौं ॥४॥ (७२) आतम अनुभव कीजै हो ॥टेक।। जनम जरा अरु मरन नाशक , अनत काल लौं जीजै हो । आतम० ॥१॥ देव धरम गुरुकी सरधा करि, कुगुरु आदि तज दीजै हो। छहौं दरब नव तत्त्व परखकै चेतन सार गहीजै हो ॥ आतम० ॥२॥ दरव करम नोकरम भिन्न करि, सूक्षम दृष्टि धरी. जै हो। भाव करमतें भिन्न जानिक, बुधि पिलास न मरीज हो ॥ आतम०॥३॥ आप आप जानै सो अनुभव, द्यानत शिवका दीजै हो। और उपाय बन्यो नहिं बनिहै, करै सो दक्ष कहीजै हो ॥ आतम०॥४॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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