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[ ३७ ] ॥२॥ चारों करम घातिया खन करि परमातम पद पाऊँगा। ज्ञान दरश सुख बल भंडारा, चार अघाति बहाऊंगा ॥ मैं निज० ॥३॥ परम निरंजन सिद्ध शुद्धपद, परमानन्द कहाऊँगा। द्यानत यह सम्पति जब पाऊँ, बहुरि न जगमें आऊंगा ॥४॥
अरहन्त सुमर मन बावरे । टेक ॥ ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लौ लावरे ॥ अरहन्त० ॥१॥ नरभव पाय अकारथ खोवै, विषय भोग जु बढ़ावरे। प्राण गये पछितैहै मनवा, छिन छिन छीजै आव रे ॥ अरहन्त० ॥२॥ जुवती तन धन सुत मित परिजन, गज तुरंग रथ चाव रे। यह संसार सुपनकी माया, आंख मीच दिखराव रे। अरहन्त ॥३॥ ध्याब ध्याब रे अब है दावरे, नाहीं मंगल गाव रे । द्यानत बहुत कहां लौं कहिये, फेर न कछू उपाव रे ॥४॥
(७१) वन्दौ नेमि उदासी, मद मारिनेकौं । टेक ॥ रजमतीसी जिननारी छाँरी, जाय भये बनवासी ॥ बन्दो० ॥१॥ ह्य गय रथ पायक सब छोड़े,