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दी असराल बहै उर, बूढ़त हौं वामैं निरधार । भूधर प्रभु पिय खेवटिया विन, समरथ कौन उतारनहार ॥ देख्यो० ॥३॥
७५ गग-पंचम। जिनराज ना विसार, मति जन्म वादि हारो ॥टेक॥ नर भौ आसान नाहिं, देखो सोच समझ वारो ॥ जिनराज० ॥१॥ सुत मात तात तरुनो, इनसौं ममत निवारो । सबही सगे गरजके दुखसीर नहिं निहारो॥ जिनराज० ॥२॥ जे खायं लाभ सव मिलि, दुर्गलमैं तुम सिधारो। नटका कुटुम्ब जैसा, यह खेल यों विचारो।। जिनराज ॥३॥ नाहक पराये काज, आंपा नरकमैं पारो । भृधर न भूल जगमैं, जाहिर दगा है यारो ॥ जिनराज ॥४॥
७६ राग-नट। जिनराज चरन मन मति बिररै ॥ टेक ॥ को ‘जानें किहिंबार कालकी, धार अचानक आनि परै । जिनराज०॥१॥ देखत दुख भजि जाहिं दशौं दिश पूजत पातकपुंज गिरै । इस संसार क्षारसागरसौं,
और न कोई पार करै । जिनराज० ॥२॥ इक चित ध्यावत वांछित पावत, आवत मंगल विधन टरै।