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( ३७ ) मोहनि धूलि परी मांथे चिर, सिर नावत ततकाल झरै ॥ जिनराज ॥३॥ तवलौं भजन संवार सयाने, जबलौं कफ नहिं कंठ अरै। अगनि प्रवेश भयो घर भूधर, खोदत कूप न काज सरै ॥ जिनराज ॥
७७ राग--सारङ्ग। ___भवि देखि छबी भगवानकी ॥ टेक ॥ सुन्दर सहज सोम आनन्दमय, दाता परम कल्यानकी ॥ भवि० ॥३॥ नासादृष्टि मुदित मुखवारिज, सीमा सब उपमानकी । अंग अडोल अचल आसन दिढ़, वही दशा निज ध्यानकी ॥२॥ इस जोगासन जोगरीतिसौं, सिद्ध भई शिवथानकी । ऐसें प्रकट दिखाने मारग, मुद्रा धात पखानकी॥ भवि ॥३॥ जिस देखें देखन अभिलाषा, रहत न रंचक आनकी तृपत होत भूधर जो अब ये, अंजुलि अम्रतपानकी ।। भवि ॥४॥
७८ राग मलार। अब मेरै समकित सावन आयो ।टेक। बीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीषम, पावस सहज सुभायो॥ अब मेरै० ॥१॥ अनुभव दामिनि दमकन लागी, सुरति घटा धन छायो । वोलै विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिनि भायो ॥ अब मेरै० ॥२॥ गुरु