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________________ बुधजन विलास भई हो ॥ टंक ।। पातक गये भये सब मंगल; भेटत चरनकमनजिनराई ॥वधाई॥१॥मिटे मिथ्यातभरमकेत्रादर,प्रगटत अातम रवि अरुनाई। दुग्बुध चोर भने जिय जागे,करन लगे जिन धर्म कमाई || बधाई• ॥२॥ग सरोज फूले तुम दरसनतें, कता कीनी सुखदाई। भाषि अनुबन महाविरतको बुधजनका शिवराह बताई ॥ वर्धाई ॥३॥ (४८) राग-सारंगकी माँझ ताल दीपचन्दी। म्हारी सुणिज्यो परम दयालु तुमसों अरज करूं ॥म्हारी० ॥ टेक ॥ आन उपाव नहीं या जगन, जग तारक जिनराज तेरे पांय परूं ॥म्हारी ॥१॥ साथ अनादि लागि विधि मेरी, करत रहत बेहाल इसको के ला भरूं ॥ म्हारी ॥२॥ करि करना करमनको काटो जनम मरन दुखदाय इनत बहुत डरूं ॥म्हारी ॥३॥चरन सरन तुम पाय अनूपम बुधज़न मांगत येह गति गति नाहि फिरूं । म्हारी ॥४॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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