________________
[ १४ ] ब्रह्मज्ञानमें लीन रहाहीं ॥ धनि० ॥३॥ तेई माधु लहैं केवल पद, आठ काठ दह शिवपुर जाहीं। द्यानत भवि तिनके गुण गावें, पावै शिव सुख दुःख नसाहीं ॥ धनि०॥४॥
(२६) __ अब हम आतमको पहिचान्यौ टेक।। जब ही सेती मोह सुभट बल, खिनक एकमें भान्यौ ॥ अब ॥१॥ राग विरोध विभाव भजे झर,ममता भाव पलान्यौ । दरशन ज्ञान चरनमें चेतन भेद रहित परवान्यौ ॥ अब० ॥२॥ जिहि देखें हम अवर न देख्यो, देख्यो सो सरधान्यौ । ताकी कहो कहैं के सैं करि, जा जानै जिम जान्यौ ॥स. ॥३॥ पूरब भाव सुपनवत देखे, अपनो अनुभव तान्यो । द्यानत ता अनुभव स्वादत ही जनम सफल करि मान्यौ । अब० ॥४॥
(२७) हमको प्रभु श्रीपास सहाय ॥टेक॥ जाके दरशन देखत जब ही, पातक जाय पलाय हम०
॥१॥ जाको इद फनिंद चक्रधर, बंर्दै सीस नवाय ___ सोई स्वामी अंतरजामी, भव्यनिको सुखदाय ॥