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________________ [ १३ निरमल मनमें, राखो गुरु-पद पंकज दोई। (२४) आतम अनुभव करना रे भाई ॥टेका। जब लौं भेद-ज्ञान नहिं उपजै, जनम मरन दुख भरना रे ॥ भाई० ॥१॥ आतम पढ़ नव तत्त्व बखान, ब्रत तप संजम धरना रे। आतम-ज्ञान बिना नहिं कारज, जोनी संकट परना रे ॥ भाई०॥२॥सकल ग्रन्थ दीपक हैं भाई, मिथ्या तमके हरना रे। कहा करै ते अंध पुरुषको, जिन्हें उपजना मरना रे॥ ॥ भाई० ॥३॥ द्यानत जे भवि सुख चाहत हैं, तिनको यह अनुसरना रे। 'सौह' ये दो अक्षर जपकी, भव-जल पार उतरना रे ॥४॥ (२५) __ धनि ते साधु रहत धनमांहीं ॥टेक।। शत्रु. मित्र सुख दुख सम जानें, दरसन देखत पाप पलाहीं ॥ धनि० ॥१॥ अट्ठाईस मूल गुण धार, मन वच काय चपलता नाही! ग्रीषम शैल शिखा हिम तदिनी, पावस वरखा अधिक सहाहीं ॥धनि ॥२॥ क्रोध मान छल लोभ न जानें, राग दोष नाहीं उनपाहीं । अमल अखाँडित चिद्गुण मंडित
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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