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(६४) राग पंचम। भ्रस्यो जी भ्रम्यो, संसार महावन, सुख तो __ कबहुं न पायो जी ॥2॥ पुदगल जीव एक करि
जान्यो, भेद-ज्ञान न सुहायो जी ॥ भ्रम्यो० ॥१॥ मनवचकाय जीव संहारो, झूठो वचन बनायोजी चोरी करके हरष बढ़ायो, विषयभोग गरवायोजी ।। भ्रम्घो० ॥२॥ नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, साधारण वसि आयो जी । गरभ जनम नरभव दुख देखे, देव मरत बिललायोजी ॥ भम्यो० ॥३॥ द्यानत अब जिनवचन सुनै मैं, भवमल पाप वहायो जी । आदिनाथ अरहन्त आदि गुरु, चरनकमल चितलायो जी ॥ भम्यो०॥४॥
(६५) राग रामकली। जियको लोभ महा दुखदाई, जाकी शोभा (2) वरनी न जाई ॥टेका। लोभ करै मूरख संसारी छांई पण्डित शिव अधिकारी ॥ जियको० ॥१॥ तजि घरवास फिरै वनमाहीं, कनक कामिनी छांडै नाहीं । लोक रिझावनको व्रत लीना, व्रत न होय ठगई साकीना ॥ जियको० ॥२॥लोभवशात जीव हत डारे, झूठ बोल चोरी चित धारै । नारि गहै