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________________ [ ४२ ] • भिखारी, यह अचिरज मोहि आयो -कहते कनक फल खायो ॥ ३ ॥ कंद सूल मंद मांस भखन क्रू नित प्रति चित्त लुमायो । श्रीजित वचन सुधा लम तजि कैं, नयनानंद पछतायो- श्री जिन गुण नहीं गायो ॥ ४ ॥ ८६ - राग धनाश्री तथा देश भैरवी । अब तू निज घर आव विक्ल मन अब तू निज घर आव ॥ टेक ॥ विकलप त्याग सुनू जिने शासन, मत वीरते घरा । पावैगी निधि तुमरी तुमकू. श्रीजिन धर्म पचाव ॥ १ ॥ गति इंद्री अरू काय जोग पुनि जानो वेद कपाय | ज्ञान भेद अरु संजम दर्शन, लेश्या भव्य सुभाव ॥ २ ॥ समकित सैनी और अहारक, चौदह मारग नाव | नाम थापना दरव भाव करि, तत्व दरव दरसाव || ३ | यों जगरूप विनारि शुभाशुभ करिकरि धिरता भाव | हरें करम प्रगटै नयनानंद, भाषो सुगुरु उपाव ॥ ४ ॥ C ६ - गग घनाश्री तथा देश भैग्वी । क्यों तुम कृपण भये, हो सुघर नर क्यों तुम कृपण भये ॥ टेक ॥ घट में ज्ञान निधानं तुम्हारे, सो क्यों दाव रहे । भटकत विषय तुषन कूं डालत नृप हो विपत काल में धन सब संरचतः लें ले कथये ॥ १ ॥ करज़ नये । तुम धनवंत होय दुख पावो; मूरख व व्ये ॥ २ ॥ कबहुँक शूकर कूकर उपजत, कबहुँक बैल भये । पित पिटत नर्कनि के माहीं वालन एक रहो ॥ ३ ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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