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( ५६ ) विरोधी-भंग नही यह विष की पत्तियां, करे मनुष को
ख्वार । जीते जी अंधा कर देती, फिर नरकों दे
डार ।। मत भंगिया पिये मत भंगिया पिये ॥ ६॥ पीने वाला-कुंडीमें खुद बसै कन्हैया, अर सोटेमें श्याम ।
विजिया में भगवान बसें हैं, रगड़ रगड़ में राम ॥ ' चलो भंगिया पियें चलो भंगिया पियें ॥ ७॥ विरोधी-अरे भंग के पीने वालो, भंग वुद्धि हर लेत ।
होशियार और चतुर मर्द को, खरा गधा कर देत॥
मत भंगिया पियो मत भंगिया पियो० ॥ ८॥ पीनेवाला-झंठी वातें फिरे बनाता, ले पी थोड़ी भंग ।
एक पहर के वाद देखना, कैसा छावे रंग ॥ चलो
भंगिया पीयें चलो भंगिया पियें ॥६॥ विरोधी-लानत इसपर लानत तुझ पर, चल चल होजा
दुर । भंग पिये भंगी कहलावे, अरे पातकी कूर ॥
मत भंगिया पिये, मत भंगिया पिये ॥ १० ॥ पीनेवाला-(शेर) भंगके अद्भुत मजे को तूने कुछ जाना
नहीं । रंग को इसके जरा भी मूढ़ पहिचाना नहीं । अांख में सुरखी का डोरा, मन में मौजों की लहर। शान्ती आनंद इसके विना, कभी पाना नहीं॥११॥ (चलत) साधू संत भंग सब पीते क्या कंगाल अमीर,