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________________ ( ६५ । I , सार ॥ १० ॥ तुमको विन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । पशु नारक नर सुरगति मंकार, भव धरि घरि मरयो अनंत वार ॥। ११ ॥ अव काल लब्धि वलतें दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल । मन शान्त भयो मिट सकल द्वंद, चाख्यो स्वातम रस दुख निकंद || १२ || तातें अव ऐसी करो नाथ, विधुरौं न कभी तुम चरण साथ । तम गुण गणको नहीं छेवदेव, जग तारन को तुम विरद एव ।। १३ ।। व्ातम के हित विषय कषाय, इनमें मेरी परणति न जाय । मैं रहों आप में आप लीन, शिव करों होंउ ज्यों निजाधीन ॥ १४ ॥ मेरे न चाह कुछ और ईश, रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश । मुझ कारज के कारण जु आप, शिव करो हरो मम मोह ताप ।। १५ ।। शशि शान्त करण तप हरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत । पीवत पीयूष ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुभव भव नशाय ॥ १८ ॥ त्रिभुवन तिहुंकाल मकार कोय, नहिं तुम विन निज सुखदाय होय । मो उर निश्चै यह भयो आज, दुख जलधि उतारन तुम जिहाज ॥ १६ ॥ दोहा - तुम गुण गण मणि गणपती, गणत न पावे पार । दौल स्वल्प मति किम कहै, न मूत्रियोज्ञ समार ॥ २० 4
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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