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________________ ( २८ ) माहीं, धरम नहीं चित लायो । अरे हो० ॥२॥ भागचन्द उपदेश मान अब, जो श्रीगुरु फरमायो॥ ५८ राग मल्हार । __ वरसत ज्ञान सुनीर हो श्रीजिनमुखघनसों ॥ टेक ॥ शीतल होत सुबुद्धिमेदिनी मिटत भवा तपपीर ।। वरसत. ॥१॥ स्यादवाद नय दामिनि द. मकै, होत निनाद गंभीर ॥ बरसत ॥२॥ करुनानदी वहै चहुं दिशित, भरी सो दोई तीर ॥ वरस० ॥३] भागचन्द अनुभव मन्दिरको, तजत न संत सुधीर ॥ वरसत ॥४॥ ५६ राग मल्हार । मेघघटासम श्रीजिनवानी ॥ टेक ।। स्यात्पद चपला चमकत जामें, वरसत ज्ञान सुपानी मेघ० ॥१॥ धरमसस्य जातै वहु बाढ़, शिव आनन्दफलदानी ॥ मेघघटा ॥२॥ मोहन धूल दवी सब यातै, क्रोधानल सुबुझानी ॥ मेघघटा ॥३॥ भागचन्द बुधजन केकीकुल, लखि हरखै चितज्ञानी ॥ मेघ० ॥ ० राग धनाश्री। प्रभू थांको लखि मम चित हरषायो । टेक __ सुन्दर चिंतारतन अमोलक, रंकपुरुष जिमि पायो
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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