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________________ है: सन्नाली जगनायक, चारों घातक हरे टरे । चार मानक शक्ति निना निन, मारे आपही मरे मरे ॥२॥ निज अनुभूति पग पर हायन, नाकारन खि लारे लरे॥ जय मा अपन करमें तय, सरल मनारथ सरे मरे ।। ३ ।। ॐ कार भया त्रिभुवन में. इन्द्रादिक पग परे परे । नैनानन्द मन बचन कायसं , दित कर चन्दन कर करे ॥ ४ ॥ २६- राग जाला-ठुमरी [श्रीवासुपूज्य] पुजत क्यों नहिरे मतिमंद, वासपूज्य जिनपद अरबिंद ॥ टेक ॥ बाल ब्रह्मचारी भवतारी, परम दिगम्बर मुद्रा धारी। दुविधि परिग्रह संगतजोजिन, गुण अनन्त सुख संपतसिधु ॥१॥ ध्याना ध्येयं ध्यान विमाशी, ज्ञाता शेयं ज्ञान प्रकाशी । पापातिक विमुक्तमलोपं, तारण तरण लहज निरद्वन्द ॥२॥ मदीमा वर्णत गणधर हारे, बचन अगोचर है गुणसारे । परम्मत सात जनम लगदरसे, भामडल आंतशय अचलंत ॥३॥ प्रातिहार्य वसुमङ्गल दयं, सेवन सुर नर मुनि गण लवं । पांचवार जाहि पृजन आये, चंपापुर सुर इन्द्र फनेन्द्र॥४॥ बालदेव कुल चढ़ उजागर, जयो जयावति सुत गुण नागर । दृगसुख वीतराग लखि तुमकं, आये शरण काटि भवफंद ॥५॥ ३०-रागनी धनाश्री ( बिमलनाथ ) अन मोहि विमल करो, हे विमल जिन अवमोहि विमलकरो। टेक धर्म सुधारल प्यास- जगत गुरु, विषय कलंक, हरी ।. वीतरागता भाव प्रकाशी, शिव मग माहिं धरो॥१॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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