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मार जगजार जारते, द्वादस व्रत तप अभ्यासी ॥ धनि० ||१|| कौड़ी लाल पास नहि जाके जिन छेदी आसापासी । आतम-आतम, पर-पर जानें, द्वादश तीन प्रकृति नासी ॥२॥ जा दुख देख दुखी सब जग हवै, सो दुख लख सुख ह्वै तासी जाकों सब जग सुख मानत है, सो सुख जान्यो दुखरासी ॥ धनि ||३|| वाहन भेष कहत अंतर गुण, सत्य मधुर हितमित भासी । द्यानत ते शिवपंथपथिक हैं, पांव परत पातक जासी ||४|| ( ४३ ) राग कल्याण ( सर्व लघु )
कहत सुगुरु करि सुहित भविकजन ! ॥टेक॥ पुद्गल अधरम धरम गगन जम, सब जड़ मम नहिं यह सुमरहु मन ॥ कहत० ॥ १॥ नर पशु नरक अमर पर पद लखि, दरव करम तन करम पृथक भन । तुम पद अमल अचल विकलप बिन अजर अमर शिव अभय अखय गन ॥ कहत० ||२|| त्रिभुवनपतिपद तुम पटतर नहिं, तुम पद अतुल न तुल रविशशिगन । वचन कहत मन गहन शकति नहिं, सुरत गमन निज निज गम परनन || कहत० ॥ ३॥ इह विधि बंधत खुलत इह