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__३८] महाचद जैन भजनावलो। ___तात आयो सरणाई ॥ जिन० ॥ २ ॥ पशुवादि
क कोभी तुम तारे हमरी वेर मून कांई ॥ जिन० ३॥ मोह अरी को हनि के हम को वेगहि सुखि या करि सांई ॥ जिन०॥ ४॥ तुम पै ठाडो जा चत शिव सुख बुध महाचन्द्र जु सिरनाई। जिन०
(५०) वसंत। खल नेम महा मुनि मन बसंत तजि राजुल शिव सुंदरि तैं संत ॥ खेलें ॥ टेर ॥अनित्य असत्यहि जग लखंत, असरण रण जिम जोधा लरंत। संसार असार लखे महंत, खेलें नेम ॥१॥ जीव एक अनादि भ्रमैं अनंत, पुद्गल खलु भिन्न अभिन्न अनंत । अपवित्र वपु मल मूत्र भ्रत, खेलें नेम ॥ २॥ कर्म "द्वार सतावनतें डरंत, संवर अंवर तैं नित रुकंत। तप प्रबल ब. ली निर्जर करंत, खेल नेम ॥३॥ लोक कर्ता हर्ता हीन मंत, है दुर्लभधर्म प्रवोध मंत। बुध महाचन्द्र प्रभूको नमंत, खेलें नेम० ॥४॥
॥ इति ॥