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________________ बुधजन विलास भरमा, कहै त सारी हो । तुम बिनकारन शिवमगदायक, निजसुभावदातारी हो ॥० ॥३॥ तुम जाने बिन काल अनन्ता, गति गति के भव धारी हो । अब सनमुख बुधजन जांचत है, 'भवदधि पार उतारी हो ॥ पतितन ॥ ४ ॥ ४ तिताला और ठौर क्यों हेरत प्यारा, तेरे हि घटमें जाननहारा || और० |टेक। चलन हलन थल वास एकता, जात्यान्तरतै न्यारा न्यारा । और ||१|| मोहउदय रागी द्वेषी है, क्रोधादिकका सरजनहारा । भ्रमत फिरत चारों गति भीतर जनम मरन भोगतदुख भारा ॥ और० ॥ २ ॥ गुरु उपदेश लखै पद आपा, तबहिं विभाव करे परिहारा । है एकाकी बुधजन निश्चल, पावै शिवपद सुखद अपारा ॥ और० || ३ || ५ तिताला ३ T काल अचानक ही ले जायगा, गाफिल होकर रहना क्यारे ॥ कालः ॥ टेक ॥ छिन हूं
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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