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________________ ( १८ ) तीस अतिशय गण नव दुग दोष नहीं ॥ नेम० ॥१॥ जाहि सुरासुर नमत सतत मस्तक तें परस मही । सुरगुरु वर अम्बुज प्रफुलावन अद्भुत भान सही । नेम प्रभ० ॥३॥ धरि अनुराग विलोकत जाको, दुरित नशै सब ही दौलत महिमा अतुल जा सकी कापै जात कही नेम प्रभु० ॥४॥ २१ (गज़ल कव्वाली ) तुम्हारे दरश विन स्वामी, मुझे नहीं चैन पड़ती है। छवी वैराग तेरी सामने आंखों के फिरती है ॥ टेक ॥ निराभूपण विगत दूषण पद्म श्रासन मधुर भापन, नजर नैनों की नासा की अनी परसै गुजरती है। तुम्हारे० ।। १ ।। नहीं कर्मों का डर हम को, कि जब लग ध्यान चरनन में, तेरे दर्शन से सुनते है कर्म रेखा बदलती है। तुम्हारे० ॥ २ ॥ मिले गर स्वर्ग की सम्पति अचम्भा कौन सा इस में, तुम्हें जो नयन भर देखे गति दुरगति की टलती है । तुम्हारे० ॥ ३ ॥ हजारों मरतें हमने बहुत सी गौर कर देखीं, शान्ति सरत तुम्हारी सी नहीं नज़रों में चढती है। तुम्हारे ॥ ४ ॥ जगत सिरतान हो जिनराज न्यामत को दरश दीजे, तुम्हारा क्या विगड़ता है मेरी बिगड़ी सुधरती है । तुम्हारे० ॥ ५ ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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