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________________ मल मलिन व्योहारी, दोनों पक्ष नसावैगा। भेद गुण गुणोको नहिं ह्र है, गुरु शिख कौन कहावैगा ॥ गलता० ॥३॥ द्यानत साधक साधि एक करि, दुविधा दूर वहावैगा। वचनभेद कहवत सब मिटकै, ज्योंका त्यों ठहरावैगा ॥४॥ (३) राग सारंग। मोहि कब ऐसा दिन आय है ॥टेक॥ सकल बिभाव अभाव होहिंगे, विकलपता मिट जाय है। ॥ मोहि० ॥१॥ यह परमातम यह मम आतम, भेदबुद्धि न रहाय है । ओरनिकी का वात चलावै, भेदविज्ञान पलाय है ॥ मोहि० ॥२॥ जानें आप आपमैं आपा, सो व्यवहार बिलाय है। नय परमान निखेपन माहीं, एक न औसर पाय है ॥मोहि ॥३॥ दरसन ज्ञान चरनके विकलप, कहो कहां ठहराय है। द्यानत चेतन चेतन व है, पुदगल पुदगल थाय है ॥ (४) राग विलावल। जिन नाम सुमर मन ! वावरे, कहा इत उत भटकै ॥ जिन० ॥टेक॥ विषय प्रगट विष वेल हैं, इनमें जिन अटकै ॥ जिन नाम० ॥१॥ दुर्लभ नर
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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